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Abhishek Jain

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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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Blog Entries posted by Abhishek Jain

  1. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २९०   ?

                       "आगम भक्त"

                      कुछ शास्त्रज्ञों ने सूक्ष्मता से आचार्यश्री के जीवन को आगम की कसौटी पर कसते हुए समझने का प्रयत्न किया। उन्हें विश्वास था कि इस कलीकाल के प्रसाद से महराज का आचरण भी अवश्य प्रभावित होगा, किन्तु अंत में उनको ज्ञात हुआ कि आचार्य महराज में सबसे बड़ी बात यही कही जा सकती है कि वे आगम के बंधन में बद्ध प्रवृत्ति करते हैं और अपने मन के अनुसार स्वछन्द प्रवृत्ति नहीं करते हैं।
                  स्थानीय कुछ लोगों की प्रारम्भ में कुछ ऐसी इच्छा थी कि चातुर्मास का महान भार कटनी वालों पर न पड़े, किन्तु चातुर्मास समीप आ जाने से दूसरा योग्य स्थान पास में न होने से कटनी को ही चातुर्मास के योग्य स्थान चुनने को बाध्य होना पड़ा।
                संघपति ने ऐसे लोगों को कह दिया था- "आप लोग चिंता न करें, यदि आपकी इच्छा न हो, तो आप लोग सहयोग न देना, सर्व प्रबंध हम करेंगे, अब चातुर्मास तो कटनी में ही होगा।" 
                  इस निश्चय के ज्ञात होने पर सहज सौजन्यवश प्रारम्भ में उन शंकाशील भाइयों ने महराज के पास जाना प्रारम्भ किया। उन्हें ऐसा लगने लगा, जैसे हम काँच सरीखा सोचते थे, वह स्फटिक नहीं, वह तो असली हीरा है।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  2. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २८९   ?

                          "कटनी चातुर्मास"

                  पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज ससंघ ने कुम्भोज बाहुबली तीर्थ से तीर्थराज शिखरजी वंदना हेतु सन १९२७ में प्रस्थान किया। तीर्थराज की वंदना के उपरांत उन्होंने उत्तर भारत के श्रावकों को अपने प्रवास से धन्य किया।
           चारित्र चक्रवर्ती पूज्य शान्तिसागरजी महराज के उत्तर भारत में प्रथम चातुर्मास का सौभाग्य मिला कटनी (म.प्र) को। आषाढ़ सुदी तीज को संघ कटनी से चार मील दूरी पर स्थित चाका ग्राम पहुंच गया। वहाँ स्कूल में संघ ठहर गया।
               महराज के उपदेश से प्रभावित हो मुसलमान हेडमास्टर ने मांसाहार का त्याग कर दिया और भी बहुतों ने मांसाहार का त्याग किया था। मध्यान्ह की सामायिक के उपरांत कटनी के जैन समाज का एक जुलूस, जिसमें हिन्दू तथा मुसलमान भी शामिल थे, आचार्य संघ के स्वागतार्थ आया।
               बड़े हर्ष के साथ जुलूस ने नगर में प्रवेश किया। जिनमंदिरों की उन्होंने वंदना की। पश्चात नवीन छात्रावास को आचार्यश्री ने अपने चरणों से पवित्र किया। इसी कारण उसे शांति-निकेतन यह अंवर्थ नाम प्राप्त हुआ। २२ जून, सन १९२८ को आचार्य महराज तथा नेमिसागरजी महराज का केशलोंच हुआ, आचार्य महराज का त्याग धर्म पर मार्मिक उपदेश हुआ।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  3. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २८८   ?

                   "छने जल के विषय में "

                कल हम देख रहे थे कि पूज्य शान्तिसागरजी महराज ने पलासवाढ़ा में अजैन गृहस्थ को भी अनछने जल त्याग का मार्गदर्शन दिया।
                 मनुस्मृति जो हिन्दू समाज का मान्य ग्रंथ है लिखा है- "दृष्टि पूतं न्यसेतपादम, वस्त्रपूतं पिबेज्जलम" अर्थात देखकर पाव रखे और छानकर पानी पिए)।
                  सन १९५० में हम राणा प्रताप के तेजस्वी जीवन से संबंधित चितौड़गढ़ के मुख्य द्वार पर पहुँचे तो वहाँ एक घट की वस्त्र सहित देख मन में शंका हुई कि यहाँ घट पट का सम्बन्ध कैसे आ गया? तब हमें बताया गया कि यहाँ लोग प्रायः पानी छानकर पीते हैं।
             जैन संस्कृति की करुणा मूलक प्रवृत्ति का यहाँ विशिष्ट सूचक भी है, किन्तु इस संबंध में बड़े-२ विद्धान तक शिथिलता दिखाते हैं।
              पानी छानने के महत्व को ध्यान में रखकर ही आचार्य महराज ने उस भद्र महिला को छानकर पीने को कहा था। आचार्य महराज जैसी महनीय आत्मा छने जल को महत्व देते थे, इससे इस नियम का महत्व स्पष्ट हो जाता है।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  4. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २८७   ?

                "गांजा पीने की प्रार्थना"

              पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज ने चैत्र वदी एकम् को ससंघ शिखरजी से प्रस्थान किया। वहाँ से उन्होंने चम्पापुरी, पावापुरी, बनारस, इलाहाबाद आदि स्थानों को होते हुए १९ जून १९२८ को मैहर राज्य में प्रवेश किया। 
                 पलासवाड़ा ग्राम के समीप एक गृहस्थ महराज के समीप आया। उसने भक्तिपूर्वक इन्हें प्रणाम किया। वह समझता था, ये साधु महराज हमारे धर्म के नागा बाबा सदृश होंगे, जो गाँजा, चिल्लम, तम्बाकू पीते हैं। 
               इस कलिकाल में सत्य का सूर्य मोह और मिथ्यात्व के मेघों से आच्छन्न हैं, अतः विषयवासनाओं की पुष्टि करने वाले जीव के हित प्रदर्शक तथा परम आराध्य माने जाते हैं। उसी धारणा वश भक्त महराज से बोला, "स्वामीजी ! एक प्रार्थना है, अरज करूँ?"
    महराज ने कहा, "क्या कहना है, कहो?"
           वह बोला, "भगवन ! थोड़ा सा गाँजा मंगवा देता हूँ, उसको पीने से आपका मन चंगा हो जायेगा।"
          महराज ने कहा, "हमारा मन सदा चंगा रहता है। हम लोग गाँजा नहीं पीते हैं।"
         वह सुनते ही चकित हुआ। उसने कहा, "महराज ! सब साधु पीते हैं, आप क्यों नहीं पीते हैं?
        महराज ने उस भोले प्राणी को समझाया, "ये मादक पदार्थ  है, इसके सेवन से जीव के भावों में मलिनता उत्पन्न होती है, इससे बड़ा पाप होता है, सच्चे साधु की बात ही दूसरी है, किसी भी मनुष्य को गाँजा आदि मादक वस्तुओं को नहीं लेना चाहिए।"
            गाँजा, भांग, चरष, मदिरा सब मादक द्रव्य की अपेक्षा भाई बंधु ही हैं। यह बात उस गृहस्थ के ध्यान में आ गई फिर भी गुरुदेव की भक्ति करनी थी, अतः प्रेमवश बोला- "महराज ! थोड़ी मिठाई ला देता हूँ। उसे ग्रहण कर मुझे कृतार्थ कीजिए।"
             महराज ने कहा, "साधु के भोजन का नियम कठिन होता है, वह जैसा तैसा भोजन नहीं करता है।" 
            उसके प्रेम को देखकर महराज ने सोचा यह भद्र जीव प्रतीत होता है, अतः उसे उपदेश दिया। उसकी स्त्री ने जीवन भर के लिए अनछने जल का त्याग कर दिया और पुरुष ने परस्त्री त्याग का व्रत लिया।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  5. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २८६   ?

                   "महान जैन महोत्सव"

                 पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज ससंघ की शिखरजी वंदना के संघपति जबेरी बंधुओं द्वारा निश्चित शिखर में जिनेन्द्र पंचकल्याणक महोत्सव बड़े वैभव के साथ जिनेन्द्र भगवान की पूज्य तथा अत्यंत प्रभवना के साथ सम्पन्न हुआ। 
                भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी का उत्सव इंदौर के धन कुवेर सर राव राजा दानवीर सेठ हुकुमचंद की अध्यक्षता में बड़े उत्साह और उल्लासपूर्वक पूर्ण हुआ था। उस समय भीड़ अपार थी। लाउडस्पीकर का सन १९२८ तक अपने देश में आगमन न हुआ था, अतयव महोत्सव में लोगों का हल्ला ही हल्ला सुनाई पड़ता था।
              दिगम्बर जैन महासभा का नैमित्तिक अधिवेशन ब्यावर के धार्मिक सेठ तथा आचार्यश्री के परम भक्त मोतीलाल जी रानीवालों के नेतृत्व में हुआ था। उस समय समाज के बंधन शिथिल करने वाले विधवा विवाह आदि आंदोलनों के निराकरण रूप धर्म तथा समाज उन्नति के प्रस्ताव पास हुए थे।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  6. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २८५   ?

                        "सूक्ष्मचर्चा"

                 एक दिन महराज ने कहा, "कोई कोई मुनिराज कमण्डलु की टोटी को सामने मुँह करके गमन करते हैं, यह अयोग्य है।।"
                 मैंने पूंछा, "महराज ! इसका क्या कारण है, टोंटी आगे हो या पीछे हो। इसका क्या रहस्य है?"
                  महराज ने कहा, "जब संघ में कोई साधु का मरण हो जाता है, तब मुनि टोंटी आगे करके चलते हैं, उससे संघ के साधु के मरण का बोध हो जाएगा। वह अनिष्ट घटना का संकेत है।"
               मैंने पूंछा महराज, "यदि सामने करके चला जाए, तो और भी कोई दोष नहीं आता है?
              महराज ने कहा, "टोंटी सामने करके चलने से छोटे कीड़े टोंटी के छिद्र द्वारा भीतर घुस जावेंगे और भीतर के पानी में उनका मरण हो जायेगा। टोंटी पीछे करके चलने में यह बात नहीं है।"
               इस उत्तर को सुनकर, आचार्य महराज की सूक्ष्म विचार पध्दति और तार्किक दृष्टि का पता चला कि वे कितनी बारीकी से वस्तु के स्वरूप के बारे में विचार करते हैं। उनका ऐसा समाधान होता था कि उससे अंतःकरण को पूर्ण संतोष प्राप्त होता था।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  7. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
              चारित्र चक्रवर्ती पूज्य शान्तिसागर महराज का जीवन चरित्र देखते है तो निश्चित ही हम आत्म कल्याण के मार्ग पर उनकी उत्कृष्ट साधना का अवलोकन करते हैं, एक बात और यहाँ देखी जा सकती है कि हम जैसे सामान्य, सातगौड़ा के जीव ने  उत्कृष्ट पुरुषार्थ द्वारा उत्कृष्ट साधना की स्थिति को प्राप्त किया और शान्तिसागर बन गए, सातगौड़ा की भांति हम भी सही दिशा में पुरुषार्थ कर कल्याण का रास्ता पकड़ सकते हैं।
             यहाँ मैं आप सभी का ध्यान इस बात पर केंद्रित करना चाहता हूँ कि यदि आप पूज्यश्री के जीवन चरित्र में उनके गृहस्थ जीवन के संस्मरण देखेंगे तो आपको ज्ञात होगा कि गृहस्थ जीवन में तीर्थराज की वंदना के समय उन्होंने कितना महान त्याग किया है, उनके उस त्याग जैसे विशेष पुरुषार्थ का ही प्रतिफल था कि वह चारित्र के चक्रवर्ती थे तथा विपरीत देशकाल में भी हम सभी के लिए मुनिपरम्परा पुनः जीवंत कर पाए।
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २८४   ?

                          "ध्यान"

                  पूज्य शान्तिसागरजी महराज ससंघ ने देवादिदेव श्री १००८ पार्श्वनाथ भगवान की निर्वाण भूमि स्वर्णभद्रकूट की वंदना के उपरांत पर्वतराज की तलहटी की ओर प्रस्थान किया।
                अब प्रभात का सूर्य आकाश के मध्य में पहुँच गया, इससे आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज एक योग्य स्थल पर आत्मध्यान हेतु विराजमान हो गए। आज की सामायिक की निर्मलता व आनंद का कौन वर्णन कर सकता है, उसकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती? 
                 आज बीस तीर्थंकरों की निर्वाण भूमि की वंदना करके निर्वाण मुद्राधारी मुनिराज आत्मा और परमात्मा के स्वरूप के चिंतन में निमग्न हो गए हैं। आज की निर्मलता असाधारण है। समता अमृत से आत्मा को परितृप्त करने के पश्चात उन मुनिनाथ ने पुनः मधुवन की ओर प्रस्थान किया। उस समय उनकी पीठ पर्वत की ओर थी लेकिन अंतःकरण के समक्ष तीर्थंकरों के पावन चरण अवश्य आते थे।
                     महराज की स्मरण शक्ति भी तो सामान्य नहीं रही है। उनकी स्मृति वंदना के संस्मरण सुस्पष्ट जागृति कर लेती रही है, तब उस समय की सुस्पष्टता का क्या कहना है।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  8. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २८३   ?

                        "ज्ञानधर कूट"

                    कुछ घंटों के उपरांत भगवान कुन्थुनाथ स्वामी की टोंक (निर्वाण स्थल ) आ गई। उस स्थल पर विद्यमान सिध्द भगवान को प्रणाम करते हुए अपनी ज्ञान दृष्टि के द्वारा वे स्थल के ऊपर सात राजू ऊँचाई पर विराजमान सिद्धत्व को प्राप्त भगवान कुंथुनाथ आदि विशुध्द आत्माओं का ध्यान कर रहे थे।   चक्रवर्ती, कामदेव, तथा तीर्थंकर पदवी धारी शांतिनाथ, कुंथुनाथ तथा अरनाथ प्रसिद्ध हुए हैं।
               उन महामुनि की ध्यान मुद्रा से ऐसा प्रतीत होता था, मानो उन्होंने अपने ज्ञानोपयोग द्वारा मुक्तात्माओं का साक्षात्कार कर लिया हो। उनकी एकाग्रता और स्थिरता देखकर ऐसा प्रतीत होता था कि कोई मूर्ति ही हों।

    ?शिखरजी शैल पर आचार्य महराज?

                   इस श्रेष्ठ तीर्थ पर श्रेष्ठ मुनि को देखकर सुरराज का मन भी उन्हें प्रणाम करने को तत्पर होता होगा। आचार्य महराज ने भिन्न-भिन्न टोकों पर भावपूर्वक वंदना की। अंत में पार्श्वनाथ भगवान का निर्वाण स्थल सुवर्णभद्रकूट मिला।
                       पार्श्वनाथ भगवान की टोंक में पूर्ण शांति तथा स्फूर्ति प्राप्त करने के पश्चात महराज ने पर्वत से उतारना प्रारम्भ किया। उस समुन्नत टोंक पर चढ़ते और उतरते हुए मुनियों की शोभा बड़ी प्रिय लगती थी।
                    उद्यान की शोभा पुष्पों से होती है, जलासय का सौंदर्य कमलों से होता है, गगन की शोभा चंद्र से होती है, उसी प्रकार आध्यात्मिक पुण्य भूमि की सुंदरता महामुनियों से होती है। उस प्रकृति के भंडार शैलराज पर चलते हुए आचार्य महराज की निर्ग्रन्थ मुद्रा उन्हें प्रकृति का अविछिन्न अंग सा बताती थी। दिगम्बर मुद्रा प्रकृति प्रदत्त मुद्रा है।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  9. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २८१   ?

                  "संघ का राँची पहुँचना"

                 इस प्रकार सच्चा लोक कल्याण करते हुए आचार्य महराज का संघ १२ फरवरी को राँची पहुंचा। वहाँ बहुत लोगों ने अष्टमूलगुण धारण किए। वहाँ के सेठ रायबहादुर रतनलाल सूरजमलजी ने धर्मप्रभावना के लिए बड़ा उद्योग किया था। 

    "फाल्गुन सुदी तृतीया को शिखरजी पहुँचना"

                    संघ हजारीबाग पहुंचा तब वहाँ की समाज ने बड़ी भक्ति प्रगट की। ऐलक पन्नालाल जी संघ में सम्मलित हो गए, वहाँ से चलकर संघ फाल्गुन सुदी ३ को तीर्थराज शिखरजी के पास पहुँच गया।उस समय सब अवर्णनीय आनंद की प्राप्ति हुई।
                     सम्मेदशिखर का दर्शन होते ही प्रत्येक यात्री के अंतःकरण में आनंद का रस छलका सा पढ़ता था। अगणित सिद्धों की सिद्धि के स्थल शिखरजी का मंगल संस्मरण जब पुण्य भावनाओं को जागृत करता है तब तीर्थराज का साक्षात दर्शन के हर्ष का वर्णन कौन कर सकता है?

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  10. Abhishek Jain
    ? अमृत माँ जिनवाणी से - २८० ?

         "आदिवासियों की कल्याण साधना"

                    रायपुर में धर्म प्रभावना के उपरांत संघ २० जनवरी को रवाना होकर आरंग होते हुए संभलपुर पहुँचा। वहाँ से प्रायः जंगली मार्ग से संघ को जाना पड़ा था।
                    उस जगह इन दिगम्बर गुरु के द्वारा सरल ग्रामीण जनता का कल्याण हुआ था। रास्ते भर हजारों लोग इन नागा बाबा के दर्शन को दूर दूर से आते थे। 
                 पूज्य शान्तिसागरजी महराज तथा मुनि संघ को  भगवान सा समझ वे लोग प्रमाण करते थे तथा इनके उपदेश से मांस खाना, शराब पीना, शिकार खेलना, आदि पापाचारों का सहज ही त्याग करते थे। जहाँ देखो वहाँ दर्शन प्रेमियों का मेला सा लग जाता था।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  11. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २७९   ?

                 "नादिरशाही आदेश"

                  सन १९५१ की बात है। नीरा जिला पूना में नवनिर्मित सुंदर जिन मंदिर की प्रतिष्ठा के समय हजारों जैन बंधु आये थे। उस समय आचार्य शान्तिसागर महराज भी वहाँ विराजमान थे। 
                    पूना जिलाधीश ने विवेक से काम न ले आचार्य शान्तिसागर महराज के सार्वजनिक विहार पर बंधन लगा दिया, जिससे भयंकर स्थिति उत्पन्न होने की संभावना थी। 
                    उद्योगपति सेठ लालचंद हीराचंद, सदस्य, केंद्रीय परिषद तथा स्व. मोतीचंद भाई कांट्रेक्टर बम्बई ने गृहमंत्री श्री मोरारजी भाई के समक्ष उपस्थित हो उक्त जिलाधीश के विवेक शून्य आदेश की ओर ध्यान दिलाया। इसलिए सहृदय गृहमंत्री महोदय ने जिलाधीश को विशेष आदेश देकर नादिरशाही आर्डर को वापिस लेने की विशेष आज्ञा दी।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  12. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २७८   ?

        "अंग्रेज अधिकारी का भ्रम निवारण"

                संघ १८ जनवरी सन १९२८ को रायपुर पहुँचा। यहाँ सुंदर जुलूस निकालकर धर्म की प्रभावना की गई। यहाँ अनंतकीर्ति मुनि महराज का केशलोंच भी हुआ था।
                  यहाँ के एक अंग्रेज अधिकारी की मेम ने दिगम्बर संघ को देखा, तो उसकी यूरोपियन पध्दति को धक्का सा लगा। उसने तुरंत अपने पति अंग्रेज साहब के समक्ष कुछ जाल फैलाया, जिससे संघ के बिहार में बाधा आए।
                  अंग्रेज अधिकारी अनर्थ पर उतर उतारू हो गया था, किन्तु कुछ जैन बंधुओं ने अफसर के पास जाकर मुनिराज के महान जीवन पर प्रकाश डाला और इनकी नग्नता का क्या अंतस्तत्व है यह समझाया तब उसकी दृष्टि बदली और उसने कोई विध्न नहीं किया।
                 महराज के पुण्य प्रसाद से विध्न का पहाड़ सतप्रयत्न की फूंक मारने से उड़ गया। कुशलता से कार्य करने पर जो वस्तु प्रारम्भ में अंगुली से टूट जाती है, वही चीज आरोग्य और अकुशल व्यक्तियों का आश्रय पाकर कुठार से भी अछेद्य हो जाती है।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  13. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी - २७७   ?

    "पाप त्याग द्वारा ही जीव का उद्धार होता है"

                 कल हमने देखा की पूज्य शान्तिसागरजी महराज ने अनेकों अजैन भाइयों को मद्य, मांस तथा मदिरा का त्याग कराकर उनका उद्धार किया।
                  इसी संबंध में वर्धा में सन १९४८ के मार्च माह में मैं वर्तमान राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्रप्रसाद जी से मिला था, लगभग डेढ़ घंटे चर्चा हुई थी। उस समय हरिजन सेवक पत्र के संपादक श्री किशोर भाई मश्रुवाला भी उपस्थित थे। श्री विनोवा भावे से भी मिलना हुआ था।
                    मैने कहा था कि गरीबों के हितार्थ कम से कम धर्म के नाम पर किया जाने वाला पशुओं का बलिदान बंद करने के विषय में प्रचार कार्य होना चाहिए। सर्वोदय समाज को भी इसमें क्रियात्मक सहयोग देना चाहिए, किन्तु यह मंगल योजना कार्यान्वित करने में उन्होंने अपने को असमर्थ बताया।
                   यही चर्चा सन १९४९ में मुम्बई के गृहमंत्री श्री मोरारजी देसाई से चलाई थी, तब उन्होंने कहा था कि सरकार की बात जनता सुनती नहीं है। मौलिक सुधारों के स्थान में पत्तों के सीचने द्वारा वृक्षों को लहलहाता, हराभरा देखने की लालसा आजकल के लोक-सेवकों के मन में स्थान कर गई है। क्या पत्र सिंचन भी कभी इष्ट साधक हुआ है? 
                   सच्चे लोक कल्याण की आकांक्षा करने वालों को आचार्य महराज से प्रकाश प्राप्त करना चाहिए था, किन्तु उनकी दृष्टि में इतनी महान आत्मा नहीं दिखाई पड़ती है। मोहान्धकार वश ऐसा ही परिणमन होता है।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  14. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २७६   ?

    "अगणित ग्रामीणों का व्रतदान द्वारा उद्धार"

                       छत्तीसगढ़ प्रांत के भयंकर जंगल के मध्य से संघ का प्रस्थान हुआ। दूर-२ के ग्रामीण लोग इन महान मुनिराज के दर्शनार्थ आते थे। महराज ने हजारों को मांस, मद्य आदि का त्याग कराकर उन जीवों का सच्चा उद्धार किया था। पाप त्याग द्वारा ही जीव का उद्धार होता है। पाप प्रवृत्तियों के परित्याग से आत्मा का उद्धार होता है।
                    कुछ लोग सुंदर वेशभूषा सहभोजनादि को आत्मा के उत्कर्ष का अंग सोचते हैं, यह योग्य बात नहीं है। आत्मा के उत्कर्ष के लिए अंतःकरण वृत्ति का परिमार्जन किया जाना आवश्यक है।
                     पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज का कथन यही है कि गरीबों का सच्चा उद्धार तब होगा, जब उनकी रोटी की व्यवस्था करते हुए उनकी आत्मा को मांसाहारादि पापों से उन्मुक्त करोगे।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  15. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २७५   ?

      "शिखरजी में पंचकल्याणक का निश्चय"

                  संघपति जवेरी बंधुओं को धन लाभ में धन के द्वारा मनोविकार आना चाहिए था, किन्तु आचार्यश्री के चरणों के सत्संग से उनकी आत्मा में स्वयं के भाव हुए कि इस द्रव्य को शिखरजी में जिनेन्द्र पंच कल्याणक महोत्सव रूप महापूजा में लगा देना अच्छा होगा।
                गुरुचरण प्रसाद से जो निधि आई है उसे उनके पुण्य चरणों के समीप ही श्रेष्ठ कार्य में लगा देना चाहिए, ऐसा पवित्र भाव उनके चित्त में उदित हुआ। ऐसा होना पूर्णतः स्वाभाविक है। सबका मुक्ति-स्थल सम्मेदाचल को पहुँचने का दृढ़ निश्चय है, मुक्ति के महान आराधक संतों के चरणों का सानिध्य है, अतः मुक्त हस्त से मुक्ता की कमाई को मुक्त भूमि में व्यय करना अच्छा प्रतीत हुआ। यह आश्चर्य की बात नहीं है? 
                 भवितव्यता के समान बुद्धि होती है। संघपति को महान पुण्य के सिवाय अपार यश को भी कमाना है, इसलिए उस आय को धर्म का प्रसाद सोचकर इन्होंने शिखरजी में पंचकल्याणक महोत्सव में व्यय करने का पक्का संकल्प किया। 
              किन्तु परिस्थितियाँ अद्भुत थी। अभी दो माह में ये महराज के साथ शिखरजी पहुँच सकेंगे फिर महोत्सव की कैसे शीघ्र व्यवस्था हो सकेगी यह समस्या कठिन दिखती थी। लेकिन पुण्योदय से पुण्यात्माओं को सहज ही सभी अनुकूल वस्तुओं का सानिध्य प्राप्त होता है।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  16. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
               हम विचार कर सकते है कि वह श्रावक कितने भाग्यशाली होंगे जिनको पूज्य शान्तिसागर ससंघ तीर्थराज की वंदना को ले जाने में सम्पूर्ण व्यवस्था का लाभ मिला। 
                 आज का प्रसंग हम सभी को उदारता का एक अच्छा प्रेरणास्पद उदाहरण, एक सच्चे गुरुभक्त श्रावक लक्षणों तथा सोच को व्यक्त करता है। उदारता तथा संतोष एक सच्चे धर्मात्मा की पहचान है।
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २७४   ?

                       "शुभ समाचार"

                   नागपुर धर्म प्रभावना की चंद्रिका प्रकाश दे रही थी, तब एक मधुर शुभ समाचार संघपति सेठ पूनमचंद घासीलाल जी जबेरी को बम्बई के तार से ज्ञात हुआ कि आपको एक लाख रुपये का लाभ हुआ है। 
              इस समाचार से उनको हर्ष होना स्वाभाविक है। धार्मिक समाज को भी बड़ा आनंद हुआ, क्योंकि ऐसे धर्मात्माओं और परोपकारी पुरुषों का अभ्युदय कौन नहीं चाहता है? यह सन १९२८ की बात है, जब रुपया बहुमूल्य गिना जाता था। आज की स्थिति दूसरी हो गई है।
                  इस समाचार ने संघपति के चित्त में न अहंकार उत्पन्न किया और न उस द्रव्य के प्रति तृष्णा का भाव ही उनके ह्रदय में जागा। यद्यपि सामान्य मनुष्य के ह्रदय में विकृति आए बिना नहीं रहती है।
                 जबेरी बंधुओं की पवित्र सोच, उन्होंने सोच गुरुचरण प्रसाद से जो निधि आई है उसे उनके पुण्य चरणों के समीप ही श्रेष्ठ कार्य में लगा देना चाहिए, ऐसे पवित्र भाव उनके चित्त में उदित हुए। उनकी आत्मा में स्वयं के भाव हुए कि इस द्रव्य की शिखरजी में जिनेन्द्र पंचकल्याणक महोत्सव रूप महापूजा में लगा देना अच्छा होगा।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  17. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २७३   ?

            "जैन धर्म की घटती का कारण"

                   एक भाई ने पूज्यश्री से पूंछा- "महराज जैन धर्म की घटती का क्या कारण है जबकि उसमें जीव को सुख और शांति देने की विपुल सामग्री विद्यमान है?"
                     महराज ने कहा- "दिगम्बर जैन धर्म कठिन है। आजकल लोग ऐहिक सुखों की ओर झुकते हैं। मोक्ष की चिंता किसी को नहीं है। सरल और विषय पोषक मार्ग पर सब चलते हैं, जैन धर्म की क्रिया कठिन है। अन्यत्र सब प्रकार का सुभीता है। स्त्री आदि के साथ भी अन्यत्र साधु रहते हैं। 
             अन्यत्र साधु प्यास लगने पर पानी पी लेगा, भूख लगने पर भोजन करेगा। ४६ दोषों को टालकर कौन भोजन करता है?"
              महराज ने कहा- "इसी कारण दिगम्बर जैन साधुओं की संख्या अत्यंत कम है। दिगम्बर जैन मुनि प्राण जाने पर भी मर्यादा का पालन करते हैं। धूप में बिना जल ग्रहण किए मर गए, तो परवाह नहीं, किन्तु साधु पानी नहीं पियेगा, वह संयम का पूर्ण रक्षण करेगा।"

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  18. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २७२   ?

              "शांति के बिना त्यागी नहीं"

                पूज्य शान्तिसागरजी महराज ने बताया कि महाव्रतों के पालन से उनकी आत्मा को अवर्णनीय शांति है। एक दिन सन १९५० में एक स्थानकवासी साधु महोदय आचार्य महराज के पास गजपंथा तीर्थ पर आए। उनने कहा- "महराज ! शांति तो है न?
          महराज ने उत्तर दिया- "त्यागी को यदि शांति नहीं, तो त्यागी कैसे?"

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  19. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
             सामान्यतः हम सभी के मन में प्रश्न रहता है कि क्यों इतनी सुख सुविधाओं को छोड़कर एक मनुष्य निर्ग्रन्थ का जीवन जीता है, सर्व सुख-सुविधाओं के स्थान पर कष्ट के जीवन में वह अत्यधिक प्रसन्न कैसे रहते हैं।
              यह प्रश्न हम सभी का रहता है विशेषकर जैनेत्तर लोगों का तो रहता ही है। कभी-२ हमारे सामने अन्य लोगों को दिगम्बर मुनिराज की चर्या के रहस्य को व्यक्त करना दुविधा का कार्य होता है।
                 आज के प्रसंग में लेखक द्वारा व्यक्त की गई शंका हम सभी के प्रश्नों के समाधान के लिए भी है। धर्म प्रभावना की बातों के इन प्रसंगों को जैनेत्तर लोगों तक भी अवश्य पहुंचना चाहिए।
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से  - २७१   ?

                         "एक शंका"

                   एक बार मैंने महराज के मुख से सुना था कि जैन धर्म के द्वारा जीव को सुख मिलता है, तब मैंने पूछा था- "महराज ! इस जैन धर्म ने आपको जितना दुख दिया, उतना किसी दूसरे को नहीं दिया, तब आपका कथन कैसे है कि यह सब को सुख का दाता है?"
               महराज ने मेरी ओर देखकर पूंछा- "तुम्हारा क्या अभिप्राय है, स्पष्ट करो?"
               मैंने पूंछा- "महराज ! इस जैन धर्म ने आपको गृह, वस्त्र, वैभव, कुटुम्ब आदि से पृथक कर दिया। श्रीमंत परिवार के मुख्य पुरुष होते हुए भी आपके पास कोई भी सामग्री नहीं है जिससे आप शरीर के कष्ट का निवारण कर सकें।
             इस जैन धर्म की शिक्षा के कारण आप आठ-दश दिन तक भी भूख और प्यास का कष्ट उठाते हैं। इस धर्म के कारण ही आप दश, मशक, नग्नता आदि के भयंकर कष्ट भोगते हैं। यदि आपने इस धर्म को धारण नहीं किया होता हो आप सुखी होता, तो अब सब प्रकार सुखी रहते?"

                     ?समाधान?
             महराज ने कहा - "इस धर्म ने हमे अवर्णनीय निरकुलता दी है। इससे बड़ी शांति प्राप्त हुई है। बाह्य परिग्रह आदि से सुख पाने का भ्रम है, उसके त्याग से सच्चा आनंद मिलता है।
                  उपवास आदि हम इसलिए करते हैं कि पूर्व में बांधे गए कर्मो की निर्जरा हो जाए। अग्नि के ताप के बिना जैसे सुवर्ण शुद्ध नहीं होता उसी प्रकार तपश्चरण के बिना संचित कर्मों का नाश नहीं होता। व्रताचरण के द्वारा कर्मों का संवर होता है। और कष्ट सहन करने से पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा होती है। 
                जैन धर्म ने हमे दुख दिया यह समझना भूल है। इसने हमे बड़ा दिया, बहुत शांति दी।"

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  20. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
                  आज के प्रसंग का पूज्य शान्तिसागरजी महराज का उद्बोधन बहुत ही महत्वपूर्ण उदभोधन है। यह हर श्रावक को अवश्य ही पढ़ना चाहिए।
                संभव हो तो रोज पढ़ना चाहिए। यह उद्बोधन प्राणी मात्र को कल्याण का कारक है। उद्बोधन के अनुशरण से तो कल्याण होगा ही, उसको पढ़ने से भी अवश्य ही शांति की अनुभूति करेंगे।
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २७०   ?

             "धर्म-पुरुषार्थ पर विवेचन"

                  पूज्य शान्तिसागरजी महराज ने कहा था- "हिंसा आदि पापो का त्याग करना धर्म है। इसके बिना विश्व में कभी भी शांति नहीं हो सकती। इस धर्म का लोप होने पर सुख तथा आनंद का लोप हो जाएगा।
               धर्म का मूल आधार सब जीवों पर दया करना है। यह धर्म, जीवन से भी बहुमूल्य है, इसके रक्षण के लिए प्राणों का भी मोह नहीं करना चाहिए। इस धर्म को भूलने वाला जीव कभी भी सुख नहीं पाता।
              पुराण ग्रंथों में इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि इस धर्म का पालन करने वाले छोटे जीवों ने भी सुख प्राप्त किया और उसे भूलने वालों ने दुर्गति में जाकर दुख भोगा है। इस धर्म के द्वारा जीव सुखी होता है, सब प्रकार का वैभव पाता है; इसलिए इस धर्म का पालन करने में प्रत्येक विवेकी जीव को लगना चाहिए।"
                 महराज का यह भी कथन है- "यदि धर्म डूबता है तो हमें अपने जीवन की भी चिंता नहीं।" उनका यह कथन पूर्णतः ठीक है। जब भी धर्म और कर्तव्य के मार्ग में विपत्ति आई है तब उन्होंने प्राणों की भी चिंता नहीं की है और धर्मभक्ति से विपत्ति की घटा सदा दूर हुई है।
                 उनका यह भी कथन है कि समता जैन धर्म का मूल है। जिनेन्द्र की वाणी के अनुसार चलने में कल्याण है। शक्ति के अनुसार धर्म का पालन करो। यदि हिंसादि पाँच पापों के त्याग की शक्ति नहीं है, तो एक का ही त्याग करो। शक्ति के अनुसार त्याग करने में भलाई है। मार्ग को उल्टा करने में बड़ा पाप है।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  21. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २६९   ?

            "नागपुर के नागरिकों की भक्ति"

                 पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज का शिखरजी की ओर विहार के क्रम में नागपुर नगर में भव्य मंगल प्रवेश हुआ। वहाँ के श्रावकों की अत्यंत भक्ति भावना को लेखक श्री दिवाकरजी ने उपमा देते हुआ लिखा है कि -
               महाभारत में लिखा है कि नागनरेश श्रवणों के उपासक थे। नागकुलीन राजा तक्षक नग्न श्रमण हो गया था। दिगम्बर मुनियों के प्रति नागपुर प्रांतीय जनता की भक्ति ने पुरातन कथन की प्रमाणिकता प्रतिपादित कर दी थी। हमें तो ऐसा लगता है कि नाग युगल को सुर पदवी प्रदान करने वाले इन महामुनि तथा उनके संघ के प्रति लोगों ने अपार भक्ति प्रगट की जो इस विचार की पुष्टि करता था कि यह नगर यथार्थ में नागपुर (फणिपुर) ही है।
                 नागपुर का इतवार बाजार, सराफा बाजार तीन दिन पर्यन्त बंद रहे थे। यथार्थ में देखा जाए तो कहना होगा कि इन रत्नत्रय मूर्ति को प्राप्त कर पारलौकिक धनसंचय में चतुर व्यापारी निमग्न थे, इसी दृष्टि को प्राधान्य दे उन्होंने बड़े-२ दरवाजे बनवाए थे। तोरण वंदनमाल आदि से नागरी को सजाया था। इसलिए नगर नयनाभीराम लगता था। वहाँ ऐलक चंद्रसागर तथा पायसागर ऐनापुर वालों का केशलोंच हुआ। लगभग १५ हजार जनता उपस्थित थी।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  22. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २६८   ?

                      "नागपुर प्रवेश"

               पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज ने शिखरजी की ओर विहार के क्रम में सन् १९२८ को नागपुर नगर में प्रवेश किया। जुलूस तीन मील लंबा था। उसमें छत्र, चमर, पालकी, ध्वजा आदि सोने चाँदी आदि की बहुमूल्य सामग्री थी, इससे उसकी शोभा बड़ी मनोरम थी।
                 नागपुर नगर वासियों के सिवाय प्रांत भर के लोग जैन, अजैन तथा अधिकारी वर्ग आचार्यश्री के दर्शन द्वारा अपने को कृतार्थ करने को खड़े थे। लोगों की धारणा है कि इतना सुंदर विशाल भव्य और भक्ति युक्त जनता का जुलूस पुनः नागपुर में अब तक नहीं निकला, ऐसा उस समय की परिस्थिती में दिवाकर जी ने लिखा है।
     
                     ?अपूर्व स्वागत?

                 अंजनी से चलकर गुरुदेव की सीताबरड़ी में पूजा के अनन्तर जुलूस शांतिनगर की ओर चला। यह नवीन स्थान बाहर से आये हजारों जैनियों के निवास के लिए बनाया गया था। आज भी वह स्थान आचार्यश्री के नाम से स्मारक रूप में विख्यात है। जुलूस की शोभा दर्शनीय थी। 
                   जहां देखो वहाँ भक्त। भीढ़ इतनी अधिक थी कि जब महल के पास श्रीमंत भोंसले सरकार रग्धू जी महराज ने जुलूस रोकने के लिए प्रार्थना करवायी तब प्रयत्न करने पर भी जनता के प्रवाह को रोकना अशक्य हो गया।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?
  23. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २६७   ?

                   "विदर्भ प्रांत में प्रवेश"

                    संघ २६ दिसम्बर को यवतमाळ पहुँचा। यहाँ खामगाँव के श्रावकों ने सर्व संघ की आहार व्यवस्था की। यहाँ प्रद्युम्नसाव जी कारंजा वालों के यहाँ पूज्य आचार्यश्री का आहार हुआ। रात्रि के समय श्री जिनगौड़ा पाटील का मधुर कीर्तन हुआ।
             श्री पाटील गोविन्दरावजी ने संघ की आहार व्यवस्था हेतु दूध, लकड़ी का प्रबंध वर्धा पर्यन्त करके अपनी भक्ति तथा प्रेम भाव व्यक्त किया। ता. २८ को संघ पुलगाँव पहुँचा।
                बालू के बोरे डालकर कृत्रिम पुल बनाने की कुशलता तथा तथा गुरुभक्ति भी जमनालाल जी झांझरी ने प्रदर्शित की। यहाँ सुंदर जुलूस निकाला गया था। संघ ३० दिसम्बर को वर्धा पहुँचा। आचार्य महराज तथा अन्य त्यागियों का उपदेश हुआ। यहाँ से संघ रवाना होकर २ जनवरी सन १९२९ को नागपुर के समीप पहुंच गया।
            नागपुर और वर्धा के मध्य का मार्ग बहुत खराब था। उसे नागपुर जैन समाज ने तत्परतापूर्वक ठीक कराया। रत्नत्रय-मूर्ति आचार्य महराज ने मुनित्रय सहित तीन जनवरी सन १९२८ को नागपुर नगर में प्रवेश किया। पूज्य शान्तिसागरजी महराज का अत्यंत प्रभावना के साथ नागपुर में मंगल प्रवेश का उल्लेख कल के प्रसंग में किया जायेगा।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  24. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से- २६६  ?

                "विदर्भ प्रांत में प्रवेश"

                 श्री चंद्रसागरजी ने, जो कुछ समय के लिए नांदगाँव चले गए थे, लगभग दो सौ श्रावकों सहित नांदेड में आकर संघ में आकर संघ को वर्धमान बनाया। एक दिन वहाँ रहकर संघ ने १७ दिसम्बर को प्रस्थान किया, यहाँ तक निजाम की सीमा थी। अतः स्टेट के कर्मचारीयों और अधिकारियों ने सद्भावना पूर्वक आचार्य महराज को प्रणाम किया और वापिस लौट आये। 
                यह आचार्यश्री का आत्मबल था जिसमें निजाम स्टेट में से बिहार करते हुए तनिक भी गडबड़ी नहीं हुई, अपितु वीतराग गुरुओं का आत्मबल बढ़ा।
               अब संघ स्टेट के बाहर उमरखेड में ता. २० दिसम्बर को पहुँच गया। इसके पश्चात तारीख २१ को संघ पुसद के लिए रवाना हुआ। कारंजा की धार्मिक मंडली ने पं. देवकीनन्दन व्याख्यानवाचस्पति के नेतृत्व में पूज्यश्री से कारंजा होकर विहार की अनुनय विनय की। किन्तु वह रास्ता चक्कर का पड़ता था, इससे उनकी प्रार्थना अस्वीकृत हुई।
                पूसद में आसपास की बहुत जैन जनता ने आकर गुरुदर्शन का लाभ लिया। इसके पश्चात तारीख २३ दिसम्बर को संघ डिगरस आया। दूसरे दिन दाखा पहुँचा। वहाँ लघभग २००० श्रावकों का समुदाय इकठ्ठा हो गया था। आचार्यश्री का उपदेश सुनकर भव्यात्माओं को अवर्णनीय आनंद मिलता था। उनका एक-२ शब्द बड़े प्रेम, बड़ी भक्ति और अतिशय श्रद्धापूर्वक सुना गया था।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?
  25. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
           पूज्य शान्तिसागरजी महराज के शिखरजी की ओर ससंघ मंगल विहार का उल्लेख किया जा रहा है। इस उल्लेख में आपको अनेक रोचक बातें जानने मिलेंगी। आज के ही प्रसंग के माध्यम से भी आपको सभी स्थानों में पूज्यश्री द्वारा उस देशकाल में भी अपूर्व धर्मप्रभावना का भान होगा।
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २६१  ?

              "मिरज नरेश द्वारा भक्ति"

            सांगली से संघ सानंद प्रस्थान कर मिरज पहुंचा। महराज के शुभागमन का समाचार मिलने पर वहाँ के नरेश आचार्यश्री के दर्शनार्थ पधारे। महराज का दर्शन कर संत समागम से उन्होंने अपने को धन्य समझा। 
               वहाँ से संघ अथणी होता हुआ अतिशय क्षेत्र बाबानगर पहुँचा। पश्चात संघ बीजापुर आया। यहाँ सार्वजनिक सभा में मुनि वीरसागर महराज तथा ऐलक पायसागरजी का प्रभावशाली उपदेश हुआ।

    'अक्कलकोट में शाहीस्वागत व धर्मप्रभावना'

                वहाँ से चलकर संघ मगसिर सुदी ६ को अक्कल कोट पहुँचा वहाँ सरकारी बाजे द्वारा संघ का भक्ति पूर्वक स्वागत किया गया। २ बजे दिन को नेमिसागर मुनिराज तथा ऐलक नेमिसागरजी का केशलोंच हुआ। 
               उस समय राज्य के उच्च अधिकारी महोदय ने कचहरी की छुट्टी कर दी जिससे राज कर्मचारी भी केशलोंच को देख सकें। संघ के दर्शनार्थ बहुत लोग आए थे। केशलोंच को देखकर जैन साधु की आत्म निमग्नता, वीतरागता, निष्पृहता, अहिंसापरता का जनता पर गहरा प्रभाव हुआ।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
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