?एक शंका - अमृत माँ जिनवाणी से - २७१
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जय जिनेन्द्र बंधुओं,
सामान्यतः हम सभी के मन में प्रश्न रहता है कि क्यों इतनी सुख सुविधाओं को छोड़कर एक मनुष्य निर्ग्रन्थ का जीवन जीता है, सर्व सुख-सुविधाओं के स्थान पर कष्ट के जीवन में वह अत्यधिक प्रसन्न कैसे रहते हैं।
यह प्रश्न हम सभी का रहता है विशेषकर जैनेत्तर लोगों का तो रहता ही है। कभी-२ हमारे सामने अन्य लोगों को दिगम्बर मुनिराज की चर्या के रहस्य को व्यक्त करना दुविधा का कार्य होता है।
आज के प्रसंग में लेखक द्वारा व्यक्त की गई शंका हम सभी के प्रश्नों के समाधान के लिए भी है। धर्म प्रभावना की बातों के इन प्रसंगों को जैनेत्तर लोगों तक भी अवश्य पहुंचना चाहिए।
? अमृत माँ जिनवाणी से - २७१ ?
"एक शंका"
एक बार मैंने महराज के मुख से सुना था कि जैन धर्म के द्वारा जीव को सुख मिलता है, तब मैंने पूछा था- "महराज ! इस जैन धर्म ने आपको जितना दुख दिया, उतना किसी दूसरे को नहीं दिया, तब आपका कथन कैसे है कि यह सब को सुख का दाता है?"
महराज ने मेरी ओर देखकर पूंछा- "तुम्हारा क्या अभिप्राय है, स्पष्ट करो?"
मैंने पूंछा- "महराज ! इस जैन धर्म ने आपको गृह, वस्त्र, वैभव, कुटुम्ब आदि से पृथक कर दिया। श्रीमंत परिवार के मुख्य पुरुष होते हुए भी आपके पास कोई भी सामग्री नहीं है जिससे आप शरीर के कष्ट का निवारण कर सकें।
इस जैन धर्म की शिक्षा के कारण आप आठ-दश दिन तक भी भूख और प्यास का कष्ट उठाते हैं। इस धर्म के कारण ही आप दश, मशक, नग्नता आदि के भयंकर कष्ट भोगते हैं। यदि आपने इस धर्म को धारण नहीं किया होता हो आप सुखी होता, तो अब सब प्रकार सुखी रहते?"
?समाधान?
महराज ने कहा - "इस धर्म ने हमे अवर्णनीय निरकुलता दी है। इससे बड़ी शांति प्राप्त हुई है। बाह्य परिग्रह आदि से सुख पाने का भ्रम है, उसके त्याग से सच्चा आनंद मिलता है।
उपवास आदि हम इसलिए करते हैं कि पूर्व में बांधे गए कर्मो की निर्जरा हो जाए। अग्नि के ताप के बिना जैसे सुवर्ण शुद्ध नहीं होता उसी प्रकार तपश्चरण के बिना संचित कर्मों का नाश नहीं होता। व्रताचरण के द्वारा कर्मों का संवर होता है। और कष्ट सहन करने से पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा होती है।
जैन धर्म ने हमे दुख दिया यह समझना भूल है। इसने हमे बड़ा दिया, बहुत शांति दी।"
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
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