?गाँजा पीने की प्रार्थना - अमृत माँ जिनवाणी से - २८७
? अमृत माँ जिनवाणी से - २८७ ?
"गांजा पीने की प्रार्थना"
पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज ने चैत्र वदी एकम् को ससंघ शिखरजी से प्रस्थान किया। वहाँ से उन्होंने चम्पापुरी, पावापुरी, बनारस, इलाहाबाद आदि स्थानों को होते हुए १९ जून १९२८ को मैहर राज्य में प्रवेश किया।
पलासवाड़ा ग्राम के समीप एक गृहस्थ महराज के समीप आया। उसने भक्तिपूर्वक इन्हें प्रणाम किया। वह समझता था, ये साधु महराज हमारे धर्म के नागा बाबा सदृश होंगे, जो गाँजा, चिल्लम, तम्बाकू पीते हैं।
इस कलिकाल में सत्य का सूर्य मोह और मिथ्यात्व के मेघों से आच्छन्न हैं, अतः विषयवासनाओं की पुष्टि करने वाले जीव के हित प्रदर्शक तथा परम आराध्य माने जाते हैं। उसी धारणा वश भक्त महराज से बोला, "स्वामीजी ! एक प्रार्थना है, अरज करूँ?"
महराज ने कहा, "क्या कहना है, कहो?"
वह बोला, "भगवन ! थोड़ा सा गाँजा मंगवा देता हूँ, उसको पीने से आपका मन चंगा हो जायेगा।"
महराज ने कहा, "हमारा मन सदा चंगा रहता है। हम लोग गाँजा नहीं पीते हैं।"
वह सुनते ही चकित हुआ। उसने कहा, "महराज ! सब साधु पीते हैं, आप क्यों नहीं पीते हैं?
महराज ने उस भोले प्राणी को समझाया, "ये मादक पदार्थ है, इसके सेवन से जीव के भावों में मलिनता उत्पन्न होती है, इससे बड़ा पाप होता है, सच्चे साधु की बात ही दूसरी है, किसी भी मनुष्य को गाँजा आदि मादक वस्तुओं को नहीं लेना चाहिए।"
गाँजा, भांग, चरष, मदिरा सब मादक द्रव्य की अपेक्षा भाई बंधु ही हैं। यह बात उस गृहस्थ के ध्यान में आ गई फिर भी गुरुदेव की भक्ति करनी थी, अतः प्रेमवश बोला- "महराज ! थोड़ी मिठाई ला देता हूँ। उसे ग्रहण कर मुझे कृतार्थ कीजिए।"
महराज ने कहा, "साधु के भोजन का नियम कठिन होता है, वह जैसा तैसा भोजन नहीं करता है।"
उसके प्रेम को देखकर महराज ने सोचा यह भद्र जीव प्रतीत होता है, अतः उसे उपदेश दिया। उसकी स्त्री ने जीवन भर के लिए अनछने जल का त्याग कर दिया और पुरुष ने परस्त्री त्याग का व्रत लिया।
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
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