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Abhishek Jain

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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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Blog Entries posted by Abhishek Jain

  1. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २२८   ?

                        "अनुकम्पा"

            पूज्य शान्तिसागरजी महराज के अंतःकरण में दूसरे के दुख में यथार्थ अनुकंपा का उदय होता था। एक दिन वे कहने लगे- "लोगों की असंयमपूर्ण प्रवृत्ति को देखकर हमारे मन में बड़ी दया आती है, इसी कारण हम उनको व्रतादि के लिए प्रेरणा देते हैं।
              जहां जिस प्रकार के सदाचरण की आवश्यकता होती है, उसका प्रचार करने की ओर उनका ध्यान जाता है।
              बेलगाँव, कोल्हापुर आदि की ओर जैन भाई ग्रहीत मिथ्यात्व की फेर में थे, अतः महराज उस धर में ही आहार लेते थे, जो मिथ्यात्व का त्याग करता था। 
             उनकी इस प्रतिज्ञा के भीतर आगम के साथ सुसंगति थी। मिथ्यात्व की आराधना करने वाला मिथ्यात्वी होगा। मिथ्यात्वी के यहाँ का आहार साधु को ग्रहण करना योग्य नहीं है। उसके श्रद्धादि गुणों का सद्भाव भी नहीं होगा।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  2. Abhishek Jain
    आज १६ मई, दिन सोमवार, वैशाख शुक्ल दशमी की शुभ तिथी की शुभ तिथी को २४ वे तीर्थंकर देवादिदेव श्री १००८ महावीर भगवान का ज्ञानकल्याणक पर्व है।
  3. Abhishek Jain
    ?          कल अष्टमी पर्व              ?

    जय जिनेन्द्र बंधुओ,

                  कल १४ मई, दिन शनिवार को अष्टमी पर्व है।

    ??
    कल जिनमंदिर जाकर देवदर्शन करें।
    ??
    जो श्रावक प्रतिदिन देवदर्शन करते है उनको अष्टमी/चतुर्दशी के दिन भगवान का अभिषेक और पूजन करना चाहिए।
    ??
    इस दिन रात्रि भोजन व् आलू-प्याज आदि जमीकंद का त्याग करना चाहिए।
    ??
    जो श्रावक अष्टमी/चतुर्दशी का व्रत करते है कल उनके व्रत का दिन है।
    ??
    इस दिन राग आदि भावो को कम करके ब्रम्हचर्य के साथ रहना चाहिए।


    इस दिन धर्म करने से विशेषरूप से अशुभ कर्मो का नाश होता है।

    अपकी संतान को लौकिक शिक्षा के समान ही धर्म की शिक्षा जरुरी है।अपने बच्चों को पाठशाला भेजें।क्योकि धार्मिक शिक्षा वर्तमान में उनको तनाव मुक्त जीवन व् शांति प्रदान करेगी ही साथ ही भविष्य में नरक,तिर्यन्च आदि अधोगतियों से बचायगी।

    ?तिथी - वैशाख शुक्ल अष्टमी।

    ?? आचार्यश्री विद्यासागर सेवासंघ ??

    इस तरह की सूचनाओं को आप भी अन्य श्रावकों को प्रेषित कर पुण्य के भागीदारी बन सकते हैं।
  4. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
           जिनेन्द्र भगवान की वाणी मनुष्य की चिंताओं को समाप्त करने वाली तथा अद्भुत आनंद का भंडार है। अतः हम सभी को भले ही थोड़ा हो लेकिन माँ जिनवाणी का अध्यन प्रतिदिन अवश्य ही करना चाहिए।
             नए लोगों को इस कार्य का प्रारम्भ महापुरुषों के चरित्र वाले ग्रंथों अर्थात प्रथमानुयोग के ग्रंथों से करना चाहिए।
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २१४   ?

                    "गृहस्थी के झंझट"

              लेखक दिवाकरजी लिखते हैं कि पूज्य शान्तिसागरजी महराज का कथन कितना यथार्थ है कि लौकिक कार्यों में कितना कष्ट नहीं उठाना पड़ता है? 
             क्षुधा तृषा की व्यथा सहनी पड़ती है? और भी कितने शारीरिक व मानसिक कष्ट नहीं होते? धन के लिए, कुटुम्ब के लिए गृहस्थ को क्या-२ कष्ट नहीं उठाना पड़ते? क्या क्या प्रपंच नहीं करने पड़ते?
            अंत में कुछ वस्तु हाथ में नहीं लगती है। किन्तु थोड़ा सा व्रत जीव का कितना उद्धार करता है, इसके प्रमाण प्रथमानुयोग रूप आगम में भरे हुए हैं।
              उस दिन के विवेचन को सुनकर ज्ञात हुआ कि व्रत, दान की प्रेरणा के पीछे कितना प्रेम, कितना ममत्व, कितनी उज्ज्वल करुणा की भावना गुरुदेव के अंतःकरण में भरी हुई है।
             सुनकर ऐसा लगा मानो कोई पिता विषपान करने वाले अपने पुत्र से आग्रह कर यह कह रहा हो कि बेटा ! विषपान मत करो, मेरे पास आओ, मैं तुम्हे अमृत पिलाउंगा।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का 
  5. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २२०   ?

                "उत्तूर में क्षुल्लक दीक्षा -१"

                 पूज्य शान्तिसागरजी महराज के क्षुल्लक दीक्षा की संबंधित जानकारी कल के प्रसंग में प्रस्तुत की गई थी, उसी में आगे-
            चंपाबाई ने बताया दीक्षा का निश्चय हमारे घर पर हुआ था। दीक्षा का संस्कार घर से लगे छोटे मंदिर में हुआ था। उस गाँव में १३ घर जैनों के हैं।
            अप्पा जयप्पा वणकुदरे ने कहा मेरे समक्ष दीक्षा का जलूस निकला था। भगवान पार्श्वनाथ की मूर्ति का अभिषेक भी हुआ था। महराज ने गुरु से कहा था, "मला दीक्षा द्या" (मुझे दीक्षा दीजिए)। गुरु ने दीक्षा दी।
             सातगौड़ा क्षुल्लक शान्तिसागर हो गए। उनमें गुरु की अपेक्षा अधिक तेज तथा कांति थी।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  6. Abhishek Jain
    ☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,
               प्रस्तुत प्रसंग से ज्ञात होता है कि किस प्रकार पूज्य शान्तिसागरजी महराज ने गृहस्थ अवस्था में ही उस समय की प्लेग जैसी भयंकर महामारी के संक्रमण की परवाह ना करते हुए अपने मित्र रुद्रप्पा का समाधिमरण कराया। अजैन व्यक्ति की भी समाधि करवाने उनके संस्कार जन्म जन्मान्तर की उत्कृष्ट साधना के परिचायक है।
           हमेशा अपने जीवन में हम सभी को अच्छे लोगो की संगति रखना चाहिए क्योंकि रुद्रप्पा जैसा हम लोगों के लिए सातगौड़ा (शान्तिसागर महराज) जैसे मित्र बुराइयों से बचाते ही साथ समाधिमरण की सफलता में भी पूर्ण सहभागी भी बनते हैं।
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १६२   ?

                   "रुद्रप्पा की समाधि-२"

              अपनी अंतिम अवस्था में पूज्य शान्तिसागरजी महराज (गृहस्थ अवस्था में) की वाणी सुनकर रुद्रप्पा को लगा कि जिनधर्म ही खरा (सच्चा) धर्म है। जैनगुरु ही सच्चे गुरु हैं। जैन शास्त्र ही सच्चे शास्त्र हैं। इनकी महिमा को कोई नहीं समझ सकता। उसके मन में श्रद्धा जगी। मिथ्यात्व की अंधियारी दूर हुई।
             उस समय उसका भाग्य जगा, ऐसा मालूम होता है, तभी तो वह जिनेन्द्र के नाम से प्यार करने लगा। अब उसके मुख पर अन्य नाम के लिए भी स्थान नहीं है।
            वह अरिहंता कहता है। वाणी क्षीण हो गई है अतः शब्दों का उच्चारण नहीं कर सकता, ओष्ठों का स्पंदनमात्र होता है।
            महराज कहते हैं- "रुद्रप्पा ध्यान दो। शरीर और आत्मा  जुदे-जुदे हैं। अरिहंत का स्मरण करो।"
           इतने में शरीर चेष्टाहीन हो गया। अब रुद्रप्पा वहाँ नहीं है। समाधिमरण के प्रेमी शान्तिसागरजी महराज ने गृहस्थ जीवन में ही अपने मित्र को सुपथ पर लगा दिया। सचमुच में उसकी सदगति करा दी।
           ऐसी मैत्री आज कौन दिखाता है। आज तो भवसिन्धु में डूबने वाले यार-दोस्त मिलते हैं। मोक्ष के मार्ग पर लगाने वाले सन्मित्र का लाभ दुर्लभ है।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  7. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ७४     ?

                     "अनिष्ट का संकेत"

                     एक बार सन् १९४८ की जनवरी में आचार्यश्री शान्तिसागरजी  महाराज ने विहार करते हुए शिष्य मण्डली से कहा था, "हमारा ह्रदय कहता है कि देश में कोई भयंकर अनिष्ट शीघ्र ही होगा।"
                    महाराज के इस कथन के दो चार रोज बाद गोडसे ने गाँधी जी की निर्मम हत्या की थी। उस समय सब बोले, "महाराज के ज्ञान में भावी घटनाओं की विशेष सूचना प्रायः स्वतः आ जाया करती है।"

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  8. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ५०     ?

             "असंख्य चींटियों द्वारा उपसर्ग"
                  
                   एक बार पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज जंगल के मंदिर के भीतर एकांत स्थान में ध्यान करने बैठे वहाँ पुजारी दीपक जलाने आया दीपक में तेल डालते समय कुछ तेल भूमि पर बह गया। वर्षा की ऋतु थी। दीपक जलाने के बाद पुजारी अपने स्थान पर आ गया था।
                     आचार्य महाराज ने बताया उस समय हम निंद्राविजय तप का पालन करते थे। इससे उस रात्रि को जाग्रत रहकर हमने ध्यान में काल व्यतीत करने का नियम कर लिया था। पुजारी के जाने के कुछ काल पश्चात चींटियों ने आना प्रारम्भ कर दिया। धीरे-२ असंख्य चींटियों का समुदाय इकठ्ठा हो गया और हमारे शरीर पर आकर फिरने लगी। कुछ काल के अनंतर उन्होंने हमारे शरीर के अधोभाग नितम्ब आदि को काटना प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने जब शरीर को खाना प्रारम्भ किया, तो अधोभाग से खून बहने लगा। उस समय हम सिद्ध भगवान का ध्यान करते थे। रात्रि भर यही अवस्था रही। चीटियाँ नोच-नोच कर खाती जाती थी।"
                        कभी एकाध चींटी शरीर से चिपक जाती है, तब उसके काटने से जो पीढ़ा होती है,उससे सारी देह व्यथित हो जाती है। जब शरीर मे असंख्य चीटियाँ चिपकी हों और देह के अत्यंत कोमल अंग गुप्तांग को सारी रात लगातार खाती रहें और नरदेह स्थित आत्माराम बिना प्रतिकार किये एक दो मिनिट नहीं, घंटे दो घंटे नहीं, लगातार सारी रात इस दृश्य को ऐसे अलिप्त होकर देख रहे थे, मानो सांख्य दर्शन का पुष्कर पलाशवत निर्लिप्त पुरुष प्रकृति की लीला देख रहा हो। 
                     यदि कोई इस भीषण स्थिति का मनोवैज्ञानिक दृष्टि से गहरे रूप मे विचार करे, तो ज्ञात होगा कि इस नरक तुल्य व्यथा को स्वाधीन वृत्ति वाले योगीराज शान्तिसागरजी निर्ग्रन्थ एकांत स्थल में सहन करते रहे, तो उनकी आत्मा कितनी परिष्कृत, सुसंस्कृत वैराग्य तथा भेद विज्ञान के भाव से परिपूर्ण होगी।
                    एक समय सर्पराज शरीर से लिपटा था। वह मृत्युराज का बंधु था, यही भय था किन्तु जिस असहनीय और अवर्णनीय वेदना को महाराज ने समता पूर्वक सहन किया था, उसे कहा नहीं जा सकता।
                       जब यह उपसर्ग हो रहा था तब रात्रि के उत्तरार्ध में उस मंदिर के पुजारी को स्वप्न आया कि महाराज को बड़ा भारी कष्ट हो रहा है। वह एकदम घबरा कर उठा, किन्तु उस भयंकर स्थान में रात्रि को जाने की उसकी हिम्मत नहीं होती थी। कारण वहाँ शेर का विशेष भय था। उसने अपने साथी दूसरे जैन बंधु को स्वप्न की बात सुनाकर वहाँ चलने को कहा, किन्तु भय व प्रमादवश उसने उस बात पर ध्यान नहीं दिया। 
                     रात्रिभर निर्ग्रन्थराज की देह पर निर्मम हो छोटी-सी चींटियों ने जो धोर उपद्रव किया था। उसको प्रकाश में लाने हेतु ही मानो सूर्य ने उदित हो प्रकाश पहुंचाया। 
                लोग वहाँ आकर देखते हैं, तो उनके नेत्रो से अश्रुधारा बहने लगी, कारण महाराज के शरीर के गुह्य भाग से रक्तधारा निकल रही थी और शरीर सूजा हुआ था तथा फिर भी चीटियाँ शरीर को खाने के उद्योग मे पराक्रम दिखा रहीं थी।
                लोगों ने दूसरी जगह शक्कर डालकर धीरे-२ उनको अलग किया, पश्चात गुरुदेव की योग्य वैययावृत्ति की। उस उपसर्ग का जिसने प्रत्यक्ष हाल देखा, उनकी आँखो में अश्रु आये बिना न रहे। सर्वत्र इस उपसर्ग की चर्चा पहुँची।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?
  9. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
         आज के प्रसंग में आप पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज द्वारा गाय के दूध के संबंध में एक महत्वपूर्व जिज्ञासा के दिए गए रोचक समाधान को जानेगे। आप अवश्य पढ़ें।
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३२१   ?

              "महत्वपूर्ण शंका समाधान"

            अलवर में एक ब्राम्हण प्रोफेसर महाशय आचार्यश्री के पास भक्तिपूर्वक आए और पूछने लगे कि- "महराज ! दूध क्यों सेवन किया जाता है? दुग्धपान करना मुत्रपान के समान है?"
            महराज ने कहा,"गाय जो घास खाती है, वह सात धातु-उपधातु रूप बनता है। पेट में दूध का कोठा तथा मल-मूत्र का कोठा जुदा-२ है। दूध में रक्त, मांस का भी संबंध नहीं है। इससे दुग्धपान करने में मल मूत्र का संबंध नहीं है।"
             इसके पश्चात महराज ने पूंछा,"यह बताओ की तालाब, नदी आदि में मगर, मछली आदि जलचर जीव रहते हैं या नहीं?"
           प्रोफेसर,"हाँ ! महराज वे रहते हैं, वह तो उनका घर ही है।"
         महराज, "अब विचारो जिस जल में मछली आदि, आदि मल मूत्र मिश्रित रहता है, उसे आप पवित्र मानते हुए पीते हो, और जिसका कोठा अलग रहता है, उस दूध को अपवित्र कहते हो, यह न्यायोचित बात नहीं है।
           इसके पश्चात महराज ने कहा, "हम लोग तो पानी छानते हैं, किन्तु जो बिना छना पानी पीते हैं, उनके पीने में मलादि का उपयोग हो जाता है।"
            यह सुनते ही वे विद्वान चुप हो गए। संदेह का शल्य निकल जाने से मन को बड़ा संतोष होता है। 
            पुनः महराज ने यह भी कहा, "जो यह सोचते हैं कि गाय का दूध उसके बछड़े के लिए ही होता है, वह भी दोषपूर्ण कथन है। गाय के अंदर बच्चे की आवश्यकता से अधिक दूध होता है।" आचार्यश्री की इस अनुभव उक्ति से उन पठित पुरुषों की भ्रांति दूर हो जाती है, जिन्होंने दूध ग्रहण को सर्वथा क्रूरता पूर्ण समझ रखा है।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
     ?आज की तिथी - वैशाख शुक्ल ३?
  10. Abhishek Jain
    ?    कल अक्षय तृतीया पर्व है      ?

    जय जिनेन्द्र बंधुओ,

               कल ९ मई, वैशाख शुक्ल तृतीया को "दान तीर्थ प्रवर्तन" पर्व अक्षय तृतीया है। आज की तिथी को राजा श्रेयांस ने प्रथम तीर्थंकर देवादिदेव श्री १००८ ऋषभनाथ भगवान को मुनि अवस्था में आहार दान देकर, हम सभी श्रावकों के अतिशय पुण्योपार्जन का कारण आहार दान की विधी का सभी को ज्ञान कराया था।
            हम श्रावक मुनिराज को आहार दान देकर गृहस्थ कार्यों में लगे दोषों की निर्वृत्ति करते हैं।
          इस विशेष अवसर पर मुनि महराज को आहार दान देना चाहिए तथा उनकी वैयावृत्ति करना चाहिए।
  11. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
              पूज्य शान्तिसागरजी महराज का सर्वत्र विहार आप सभी सामान्य दृष्टि से देख रहे होंगे। उस समय पूज्यश्री का विहार एक सामान्य बात नहीं थी क्योंकि उस समय भी देश परतंत्र ही था, ऐसी स्थिति में भी सन १९३१ में देश की राजधानी दिल्ली में चातुर्मास एक विशेष ही बात थी। उस समय परतंत्रता के समय में देश के केंद्र राजधानी दिल्ली में चातुर्मास पूज्य आचार्यश्री के दिगम्बरत्व को पुनः सर्वत्र प्रचारित होने की भावना का परिचायक है। और देश में सर्वत्र उनका अत्यंत प्रभावना के साथ निर्विध्न विहार उनके संयम और तपश्चरण का ही प्रभाव था।
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३१९   ?

                    "दिल्ली चातुर्मास"

                 दिल्ली आगमन के उपरांत पूज्य शान्तिसागरजी महराज का हस्तिनापुर की ओर प्रस्थान हुआ। वहाँ अनेक स्थानों के भव्य जीवों का कल्याण करते हुए दिल्ली समाज के सौभाग्य से पुनः संघ का वहाँ आगमन हुआ।
                पूज्यश्री ने ससंघ राजधानी में ही चातुर्मास करने का निश्चय किया। संघ का निवास दरियागंज में हुआ था। पहले गुरुदेव के वियोग से जिन लोगों को संताप पहुँचा था, उनके आनंद का पारावार न रहा जब उनको ज्ञात हुआ कि अब दिल्ली का भाग्य पुनः जग गया, जहाँ ऐसे मुनिराज का चार माह तक धर्मोपदेश होगा।
              लोगों के मन में आशंका होती थी कि अंग्रेजों का राज्य है, कही राजधानी में मुनि विहार पर प्रतिबंध न आ जावे, किन्तु आचार्यश्री के सामने भय का नाम नहीं था। वे तो पूर्णतः निर्भय हैं। जो मृत्यु से भी सदा झूजने को तैयार रहते रहे हैं। उनको किस बात का डर होगा।

    ?समस्त देहली में दिगम्बर मुनियों का            
                       स्वतंत्र विहार?
                      मुनि संघ दरियागंज में स्थित था, किन्तु संघ के साधु आहार के लिए दिल्ली शहर के मुख्य-मुख्य राजपत्रों से आया जाया करते थे। कहीं कोई भी रोक टोक नहीं हुई। यह उनके तप का महान तेज था, जो उस समय दिगम्बर मुनियों का संघ निर्विघ्न रीति से भारत की राजधानी में भ्रमण करता रहा।
            बड़े-बड़े राज्याधिकारी, न्यायाधीश आदि महराज के दर्शन करके अपने को धन्य मानते थे। दिगम्बर मुनियों का विहार न होने से कई लोगों को दिगम्बरत्व यथार्थ में 'अंधे की टेढ़ी खीर' जैसी समस्या बन जाया करता है, किन्तु किन्तु प्रत्यक्ष परिचय में आने वाले लोगों को वे परमाराध्य, सर्वदा, वंदनीय और मुक्ति का अनन्य उपाय प्रतीत होते हैं।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
      ?आजकी तिथी - वैशाख शुक्ल २?

        कल दान तीर्थ प्रवर्तन पर्व "अक्षय तृतीया पर्व" है। अक्षय तृतीया ही वह विशेष तिथी थी जिसमें हम सभी श्रावकों को मुनियों को आहार दान द्वारा अतिशय पुण्योपर्जन की विधी का ज्ञान हुआ था। 
              इस विशेष पर्व को मुनियों को नवधा भक्ति पूर्वक आहार दान तथा वैयावृत्ति करके मनाना चाहिए।
  12. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओ,
        
              आज के प्रसंग में हम सभी देखेंगे कि किस तरह पूज्य शान्तिसागरजी महराज के ससंघ त्याग तथा तपश्चरण के फलस्वरूप पूज्यश्री के दिल्ली में १९३० के दिल्ली प्रवास के समय अपूर्व प्रभावना हुई। हर सम्प्रदाय के लोगों ने इनके सम्मुख व्रत नियम आदि स्वीकार कर अपने आपको धन्य किया।
              राजधानी दिल्ली में सैकड़ों श्रावक आजीवन शुद्र जल का त्याग कर पूज्यश्री के ससंघ को आहार देने का सौभाग्य सहर्ष प्राप्त कर रहे थे। 
           अवश्य ही उन क्षणों का लेखक का यह चित्रण हम सभी श्रावकों के मन को आह्लाद से भर देता है।
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३१९   ?

                 "दिल्ली प्रवास में प्रभावना"

                   पूज्य शान्तिसागरजी महराज ससंघ का जनता पर बड़ा प्रभाव पड़ता था। बहुत से मुसलमानों आदि ने मांस तथा मदिरा का त्याग किया था।
                हरिजनों आदि का महराज ने सच्चा कल्याण किया था। बहुत से गरीब साधु महराज के दर्शन को आये थे, महराज उनको प्रेममय बोली में समझाते थे, "भाई, जीवों की दया पालने से जीव सुखी होता है। दूसरों जीवों को मारकर खाना बड़ा पाप है, इससे ही जीव दुखी रहता है।"
               महराज के शब्दों का बड़ा प्रभाव होता था। तपश्चर्या से वाणी का प्रभाव बहुत अधिक हो जाता है। सैकड़ो हजारों हरिजनों आदि लोगों ने शराब तथा मांस सेवन का त्याग किया था तथा और भी व्रत लोग लेते थे। 
                अग्नि में संतप्त किया स्वर्ण विशेष दीप्तिमान होता है, उसी प्रकार तपोग्नि द्वारा जीवन वाणी, विचार, मलिनता विमुक्त हो तेजोमय तथा दिव्यतापूर्ण होते हैं।
              आचार्यश्री के प्रति भक्ति इतनी बड़ रही थी कि लगभग सत्तर अस्सी चौके लगा करते थे। बिना शुद्र जल का त्याग किये कोई आहार नहीं दे सकता था लेकिन महराज को आहार देने के अपूर्व सौभाग्य के आगे नियम की कठिनता लोगों को कुछ भी नहीं दिखती थी। 
               उस समय लोग कहते थे कि छोटी सी प्रतिज्ञा ने हमारा अशुध्द भोजन से पिण्ड छुड़ा दिया अतः आत्म कल्याण के साथ-साथ शरीर की निरोगता का कारण बन गई। इसने स्वावलंबी जीवन को भी प्रेरणा दी।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
      ?आजकी तिथी - वैशाख शुक्ल १?
  13. Abhishek Jain
    ?   कल मोक्ष कल्याणक पर्व    ?

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,

                 कल ७ मई, दिन शनिवार, वैशाख शुक्ल एकम् की शुभ तिथी को १७ वे तीर्थंकर देवादिदेव श्री १००८ कुन्थुनाथ भगवान का मोक्ष कल्याणक पर्व है

    ??
    कल अत्यंत भक्ति भाव से कुन्थुनाथ भगवान की पूजन करना चाहिए तथा निर्वाण लाडू आदि चढ़ाकर मोक्ष कल्याणक पर्व मनाना चाहिए। निर्वाण महोत्सव के इस विशेष अवसर पर अपने भी निर्वाण की भावना करना चाहिए।
    ?
    इस अवसर पर हम सभी को कुन्थुनाथ भगवान के श्री चरणों में यही भावना करना चाहिए कि हे भगवन जिस तरह आपके जीव ने अहिंसा व्रतों को धारण कर विशेष पुरुषार्थ द्वारा वीतराग अवस्था को प्राप्त किया एवं तदनंतर उत्कृष्ट सुख को प्राप्त किया उसी तरह हम भी अहिंसा व्रतों को धारण कर शीघ्र ही अपना कल्याण करें।
    ??
    भगवान के निर्वाण कल्याणक आदि विशेष पर्वों को सभी जगह की जैन समाज को अपने-२ शहर में सामूहिक रूप से विशेष प्रभावना के साथ मनाना चाहिए।

        ??कुन्थुनाथ भगवान की जय??
     ??निर्वाण स्थल  ज्ञानधरकूट की जय??
        ??निर्वाण भूमि शिखरजी की जय??

            ?तिथी - वैशाख शुक्ल १?

       ?? आचार्यश्री विद्यासागर सेवासंघ ??
  14. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
           आज का प्रसंग हर एक मनुष्य के मष्तिस्क में उठ सकने वाले प्रश्न का समाधान है। पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज द्वारा दिया गया समाधान बहुत ही आनंद प्रद है।
              अपने जीवन के प्रति गंभीर दृष्टिकोण रखने वाले पाठक श्रावक अवश्य ही इस समाधान को जानकर आनंद का अनुभव करेंगे।
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३१८   ?

            "एक अंग्रेज का शंका समाधान"

           एक दिन एक विचारवान भद्र स्वभाव वाला अंग्रेज आया।
          उसने पूज्य शान्तिसागरजी महराज से पूंछा, "महराज ! आपने संसार क्यों छोड़ा, क्या संसार में रहकर आप शांति प्राप्त नहीं कर सकते थे?"
             महराज ने समझाया, "परिग्रह के द्वारा मन में चंचलता, राग, द्वेष आदि विकार होते हैं। पवन के बहते रहने से दीपशिखा कम्पन रहित नहीं हो सकती है। पवन के आघात से समुद्र में लहरों की परम्परा उठती जाती है। पवन के शांत होते ही दीपक की लौ स्थिर हो जाती है, समुद्र प्रशांत हो जाता है, इसी प्रकार राग- द्वेष के कारण रूप धन वैभव कुटुम्ब आदि को छोड़ देने पर मन में चंचलता नहीं रहता है। 
            मन के शांत रहने पर आत्मा भी शांत हो जाती है। निर्मल जीवन द्वारा मानसिक शांति आती है।
             विषय भोग की आसक्ति द्वारा इस जीव की मनोवृत्ति मलिन होती है। मलिन मन पाप का संचय करता हुआ दुर्गति में जाता है। परिग्रह को रखते हुए पूर्णतः अहिंसा धर्म का पालन नहीं हो सकता है, अतएव आत्मा की साधना निर्विघ्न रुप से करने के लिए विषय भोगों का त्याग आवश्यक है। 
              विषय भोगों से शांति भी तो नहीं होती है। आज तक इतना खाया, पिया, सुख भोगा, फिर भी क्या तृष्णा शांत हुई? विषयों की लालसा का रोग कम हुआ? वह तो बढ़ता ही जाता है।
            इससे भोग के बदले त्याग का मार्ग अंगीकार करना कल्याणकारी है। संसार का जाल ऐसा है कि उसमें जाने वाला मोहवश कैदी बन जाता है। वह फिर आत्मा का चिंत्वन नहीं कर पाता है।
           दूसरी बात यह है कि जब जीव मरता है, तब सब पदार्थ यही रह जाते हैं, साथ में अपने कर्म के सिवाय कोई भी चीज नहीं जाती है, इससे बाह्य पदार्थों में मग्न रहना, उनसे मोह करना अविचारित कार्य है।"
           इस विषय में आचार्यश्री की मार्मिक, अनुभवपूर्ण बातें सुनकर हर्षित हो वह अंग्रेज नतमस्तक हो गया।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
    ?आजकी तिथी-वैशाख कृ०अमावस?
  15. Abhishek Jain
    ?दीक्षा दिवस ?
    दिनांक ०६ मई १६
    दिन शुक्रवार
    आज से ३६ वर्ष पूर्व 
    वैशाख कृष्ण अमावस्या दि. १५ एप्रिल १९८० को "आज के ही दिन"
    परम पूज्य आचार्य गुरूवर श्री विद्यासागर जी महाराज के कर कमलों से आज के ही दिन म.प्र. प्रान्त के बुन्देलखंड की धरा- सागर नगर में मुनिश्री नियमसागरजी महाराज जी एवं मुनिश्री योगसागर जी महाराज जी की मुनि दीक्षा संपन्न हुयी थी।            
    मुनि द्वय के३६ वे दीक्षा दिवस पर हम सभी मुनि द्वय के चरणों में बारंबार नमोस्तु करते हैं??????।
    नोट- मुनिश्री नियम सागर जी महाराज पुणे नगर (चिंचवड) में विराजमान हैं ।
    मुनि श्री योग सागर जी महाराज कुंडलपुर में विराजमान हैं ।
     




     
  16. Abhishek Jain

            मैं पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के जीवन चरित्र का लगातार अध्ययन कर रहा हूँ, फलस्वरूप मेरी दृष्टि में पूज्यश्री का दिल्ली का चातुर्मास एक महत्वपूर्ण चातुर्मास था। इस चातुर्मास के माध्यम से दिगम्बरत्व का प्रचार भली प्रकार से हुआ। सर्वत्र दिगम्बर मुनिराज के दर्शन व जन-जन तक उनके स्वरूप की जानकारी पहुँचना पूज्य शान्तिसागरजी महराज के उत्कृष्ट तपश्चरण का ही प्रभाव था।
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३१७   ?

      "भारत की राजधानी दिल्ली में प्रवेश"

                    पूज्य शान्तिसागरजी महराज ने ससंघ  ललितपुर चातुर्मास के उपरांत बूंदेलखड की सभी तीर्थ, ग्वालियर, आगरा, मथुरा विभिन्न स्थानों को अपनी पदरज से धन्य करते हुए राजधानी दिल्ली में प्रवेश किया। 
             खुरजा के अपने अमृत-उपदेश से उपकृत करते हुए संघ ने प्रस्थान कर सिकन्दराबाद में निवास किया। इसके अनंतर गजियाबाद तथा शहादरा होते हुए पौष सुदी दशमी को संघ ने भारत की राजधानी दिल्ली में प्रवेश किया।
           कहते हैं, अब पचास हजार से भी अधिक संख्या हो गई है। वहाँ धार्मिक प्रकृति के लोग बहुत हैं, इसलिए संघ के आने पर दिल्ली समाज के रोम-रोम में आनंद व्याप्त होता था। 
              राजधानी के योग्य गौरवपूर्ण जुलूस द्वारा आचार्य शान्तिसागर महराज के प्रति भक्ति व्यक्त की गई। बडे-बड़े प्रतिष्ठान तथा विचारशील नागरिक तथा उच्च अधिकारी लोग आचार्यश्री के दर्शनार्थ आते थे, अनेक महत्वपूर्ण प्रश्न करते थे तथा समाधान प्राप्त कर हर्षित होते थे।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
    ?आजकी तिथी- वैशाख कृ० १३/१४?
  17. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३१६   ?

    "सरसेठ हुकुमचंद और उनका ब्रम्हचर्य प्रेम"

                लेखक दिवाकरजी ने लिखा है कि सर सेठ हुकुमचंद जी के विषय में बताया कि आचार्य महराज ने उनके बारे ये शब्द कहे थे, "हमारी अस्सी वर्ष की उम्र हो गई, हिन्दुस्तान के जैन समाज में हुकुमचंद सरीखा वजनदार आदमी देखने में नहीं आया। 
            राज रजवाड़ों में हुकुमचंद सेठ के वचनों की मान्यता रही है। उनके निमित्त से जैनों का संकट बहुत बार टला है। उनको हमारा आशीर्वाद है, वैसे तो जिन भगवान की आज्ञा से चलने वाले सभी जीवों को हमारा आशीर्वाद है।'
                 हुकुमचंद के विषय में एक समय आचार्य महराज ने कहा था, "एक बार संघपति गेंदनमल और दाडिमचंद ने हमारे पास से जीवन भर के लिए ब्रम्हचर्य व्रत लिया, तब हुकुमचंद सेठ ने इसकी बहुत प्रसंशा की। उस समय आचार्यश्री ने हुकुमचंद सेठ से कहा 'तुमको भी ब्रम्हचर्य व्रत लेना चाहिए।'
             हुकुमचंद ने तुरंत ब्रम्हचर्य व्रत लिया और कहा था, 'महराज ! आगामी भव में भी ब्रम्हचर्य का पालन करूँ।' हुकुमचंद का ब्रम्हचर्य व्रत पर इतना प्रेम है।"

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
     ?आज की तिथी - वैशाख कृष्ण १२?
  18. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १८५    ?

                    "सबके उपकारी"

               सातगौड़ा अकारण बंधु तथा सबके उपकारी थे। उनको धर्म तथा नीति के मार्ग में लगाते थे। वे भोज भूमि के पिता तुल्य प्रतीत होते थे।
           उनके साधु बनने पर ऐसा लगा कि नगर के पिता अब हमेशा के लिए नगर को छोड़कर चले गए। उस समय उनकी चर्चा होते ही आँसू आ जाते हैं कि उस जैसी विश्वपूज्य विभूति के ग्राम में हम लोगों का जन्म हुआ है।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?
  19. Abhishek Jain
    ? कल गर्भ,मोक्ष व चतुर्दशी पर्व है?

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,

                 कल ५ मई, दिन गुरुवार, वैशाख कृष्ण चतुर्दशी की शुभ तिथी को २१ वे तीर्थंकर देवादिदेव श्री १००८ नमिनाथ भगवान का मोक्ष कल्याणक पर्व तथा १५ वे तीर्थंकर देवादिदेव श्री १००८ धर्मनाथ भगवान का गर्भ कल्याणक तथा चतुर्दशी पर्व है।

    ??
    कल अत्यंत भक्ति भाव से नमिनाथ भगवान की पूजन करना चाहिए तथा निर्वाण लाडू आदि चढ़ाकर जन्म, ज्ञान व मोक्ष कल्याणक पर्व मनाना चाहिए। निर्वाण महोत्सव के इस विशेष अवसर पर अपने भी निर्वाण की भावना करना चाहिए।
    ?
    इस अवसर पर हम सभी को नमिनाथ भगवान के श्री चरणों में यही भावना करना चाहिए कि हे भगवन जिस तरह आपके जीव ने अहिंसा व्रतों को धारण कर विशेष पुरुषार्थ द्वारा वीतराग अवस्था को प्राप्त किया एवं तदनंतर उत्कृष्ट सुख को प्राप्त किया उसी तरह हम भी अहिंसा व्रतों को धारण कर शीघ्र ही अपना कल्याण करें।
    ??
    भगवान के निर्वाण कल्याणक आदि विशेष पर्वों को सभी जगह की जैन समाज को अपने-२ शहर में सामूहिक रूप से विशेष प्रभावना के साथ मनाना चाहिए।
    ??????????
    नाथ नमि को माथ नमि के,
    मैं करूँ नित वंदना।
    वंदना का फल मिले वस,
    होय अब तो बंध ना।।
    चिन्ह इनका कमल है ये,
    कमल सम ही मनहरा।
    आपके दर्शन किये तो,
    काम मेरा सब सरा।।
    ??????????

          ??नमिनाथ भगवान की जय??
     ??निर्वाण स्थल  मित्रधरकूट की जय??
        ??निर्वाण भूमि शिखरजी की जय??

        ?तिथी - वैशाख कृष्ण १३/१४?

       ?? आचार्यश्री विद्यासागर सेवासंघ ??
  20. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
            आज चारित्र चक्रवर्ती पूज्य शान्तिसागरजी महराज के जीवन पर्यन्त के एक महत्वपूर्ण विवरण को आपके सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह पोस्ट आप संरक्षित रखकर बहुत सारे रोचक प्रसंगों के वास्तविक समय का अनुमान लगा पाएँगे तथा उनके तपश्चरण की भूमि का समय के सापेक्ष में भी अवलोकन कर पाएँगे। विवरण ग्रंथ में उपलब्ध जानकारी के आधार पर ही है।

    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३१५   ?
                  "चातुर्मास सूची"
    पूज्य शान्तिसागर जी महराज की दीक्षा संबंधी जानकारी का विवरण निम्न है-

    क्षुल्लक दीक्षा         -  १९१५
    ऐलक    दीक्षा        -  १९१९
    मुनि      दीक्षा        -   १९२०
    आचार्य    पद        -   १९२४
    चारित्र चक्रवर्ती पद -   १९३७
    आचार्य पद त्याग   -   १९५५
    समाधि                -   १९५५ 

                   ?चातुर्मास विवरण?

    क्र.       सन          स्थान
    १.       १९१५       कोगनोली
    २.       १९१६       कुम्भोज
    ३.       १९१७       कोगनोली
    ४.       १९१८       जैनवाड़ी
    ५.       १९१९       नसलापुर
    ६.       १९२०       ऐनापुर
    ७.       १९२१    नसलापुर
    ८.       १९२२       ऐनापुर
    ९.       १९२३       कोंनुर
    १०.    १९२४       समडोली
    ११.    १९२५       कुम्भोज
    १२.    १९२६       नांदनी
    १३.    १९२७       बाहुबली
    १४.    १९२८       कटनी
    १५.   १९२९       ललितपुर
    १६.   १९३०       मथुरा
    १७.   १९३१       दिल्ली
    १८.   १९३२       जयपुर
    १९.   १९३३       ब्यावर
    २०.   १९३४       उदयपुर
    २१.   १९३५       गोरल
    २२.   १९३६       प्रतापगढ़
    २३.   १९३७       गजपंथा
    २४.   १९३८       बारामती
    २५.   १९३९       पावागढ़
    २६.   १९४०       गोरल
    २७.   १९४१       अकलुज
    २८.   १९४२       कोरोची
    २९.   १९४३       डिगरज
    ३०.   १९४४       कुंथलगिरी
    ३१.   १९४५       फलटन
    ३२.   १९४६       कवलाना
    ३३.   १९४७       सोलापुर
    ३४.   १९४८       फलटण
    ३५.   १९४९       कवलाना
    ३६.   १९५०       गजपंथा
    ३७.   १९५१       बारामती
    ३८.   १९५२       लोनंद
    ३९.   १९५३       कुंथलगिरी
    ४०.   १९५४       फलटन
    ४१.   १९५५       कुंथलगिरी

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
      ?आज की तिथी - वैशाख कृष्ण ११?
  21. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३१४   ?

           "वैयावृत्त धर्म और आचार्यश्री"

            किन्ही मुनिराज के अस्वस्थ होने पर वैयावृत्त की बात तो सबको महत्व की दिखेगी, किन्तु श्रावक की प्रकृति भी बिगड़ने पर पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज का ध्यान प्रवचन-वत्सलता के कारण विशेष रूप से जाता था। आचार्यश्री श्रेष्ट पुरुष होते हुए भी अपने को साधुओं में सबसे छोटा मानते थे।
           एक बार १९४६ में  कवलाना में ब्रम्हचारी फतेचंदजी परवार भूषण नागपुर वाले बहुत बीमार हो गए थे। उस समय आचार्य महराज उनके पास आकर बोले, "ब्रम्हचारी ! घबराना मत, अगर यहाँ श्रावक लोग तुम्हारी वैयावृत्त में प्रमाद करेंगे, तो हम तुम्हारी सम्हाल करेंगे।"
                  जब लेखक की ब्रम्हचारीजी से कवलाना में भेट हुई, तब उन्होंने आचार्यश्री की सांत्वना और वात्सल्य की बात कही थी। उससे ज्ञात हुआ कि महराज वात्सल्य गुण के भी भंडार थे।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
     ?आज की तिथी - वैशाख कृष्ण १०?
  22. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - १०९   ?

                    "मुनिबन्धु को सन्देश"

                        उस समय ९२ वर्ष की वय वाले मुनिबन्धु चरित्र चूड़ामणि श्री १०८ वर्धमान सागर महाराज के लिए पूज्यश्री ने सन्देश भेजा था कि- "अभी १२ वर्ष की सल्लेखना के ६-७ वर्ष तुम्हारे शेष हैं। अतः कोई गड़बड़ मत करना। जब तक शक्ति है तब तक आहार लेना। धीरज रखकर ध्यान किया करना।
              हमारे अंत पर दुखी नहीं होना और परिणामों में विगाड मत लाना। शक्ति हो तो समीप में विहार करना। नहीं तो थोड़े दिन शेडवाल बस्ती में और थोड़े दिन शेडवाल के आश्रम में समय व्यतीत करना।
                 अपने घराने में पिता, पितामह आदि सभी सल्लेखना करते आये हैं, इसी प्रकार तुम भी उस परम्परा का रक्षण करना। इससे स्वर्ग-मोक्ष मिलता है। अच्छे भाव से ध्यान करते गए, तो स्वर्ग मिलेगा, मोक्ष मिलेगा, इसमे संदेह नहीं है।"

    ?इक्कीसवाँ दिन - ३ सितम्बर १९५५ ?

                     आज पूज्यश्री ने जल लिया। दोपहर में पाँच मिनिट को आचार्यश्री बाहर आये और जनता को दर्शनों का  पुण्यलाभ कराया। दोपहर में पं. जगमोहनजी शास्त्री कटनी, पं. मख्खनलालजी शास्त्री मोरेना, ब. राजकुमारसिंहजी इंदौर, पं. सुमेरचंद जी दिवाकर आदि ने उपस्थित जनता को संबोधा।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  23. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ९५     ?

                    "जीवित समयसार"

                        एक दिन पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज कहने लगे- "आत्मचिंतन द्वारा सम्यकदर्शन होता है। सम्यक्त्व होने पर दर्शन मोह के आभाव होते हुए भी चरित्र मोहनीय कर बैठा रहता है। उसका क्षय करने के लिए संयम को धारण करना आवश्यक है। संयम से चरित्र मोहनीय नष्ट होता होगा। इस प्रकार सम्पूर्ण मोह के क्षय होने से, अरिहंत स्वरुप की प्राप्ति होती है।"
                     मैंने(लेखक) ने कहा "महाराज ! आपके समीप बैठने पर ऐसा लगता है कि हम जीवित समयसार के पास बैठे हों। आप आत्मा और शरीर को न केवल भिन्न मानते है तथा कहते है किन्तु प्रव्रत्ति भी उसी प्रकार कर रहे हैं। शरीर आत्मा से भिन्न है, परभाव रूप है, फिर खिलाने-पिलाने आदि का व्यर्थ क्यों प्रयत्न किया जाय? यथार्थ में इस समय आपकी आत्मप्रवृत्ति अलौकिक है।"
    ?  सातवाँ दिन - २० अगस्त १९५५  ?

                        छह दिनों के उपरांत आज पूज्यश्री ने आज जल ग्रहण किया। कमजोरी के कारण सिर में भी दर्द हो गया। 
                     शरीरिक-स्थिति कमजोर होते जाने पर भी महाराज की चर्या पूर्ववत जारी रही।
    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  24. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ८०     ?
                   "विपत्ति में दृढ़वत्ति"
                
            एक बार गजपंथा में पंचकल्याणक महोत्सव के समय मैंने महाराज से पूंछा था, "महाराज सर्पकृत भयंकर उपद्रव के होते हुए, आपकी आत्मा में घबराहट क्यों नहीं होती है, जबकि सर्प तो साक्षात् मृत्युराज ही है?"
                       महाराज बोले, विपत्ति के समय हमें कभी भी भय या घबराहट नहीं हुई। सर्प आया और शरीर पर लिपटकर चला गया, इसमे महत्व की बात क्या है?"
                         मैंने कहा, "उस मृत्यु के प्रतिनिधि की बात तो दूसरी, जब अन्य साधारण तुच्छ जीवकृत बाधा सहन करते समय सर्वसाधारण मे भयंकर अशांति उत्पन्न हो जाती है, तब आपको भय ना लगा, वह आश्चर्य की बात है।"
                          महाराज, "हमें कभी भी भय नहीं लगता। यहाँ तो भीती की कोई बात भी नहीं थी। यदि सर्प का व् हमारा पूर्व भव का बैर होगा, तो वह बाधा करेगा, अन्यथा नहीं। उस सर्प ने हमारा कुछ भी बिगाड़ नहीं किया।"
                          मैंने कहा, "महाराज, उस समय आप क्या करते थे, जब सर्प आपके शरीर पर लिपट गया था?"
                        महाराज बोले, "उस समय हम सिद्ध भगवान का ध्यान करते थे।"
                        मैंने जिज्ञासु के रूप में पूज्य श्री से पूछा, "जब आपके शरीर पर सर्प चढ़ा, तब उससे शरीर का स्पर्श होने पर आपके शरीर को विशेष प्रकार का स्पर्शजन्य अनुभव होता था अथवा नहीं।"
                      महाराज ने कहा, "हम ध्यान में थे। हमें बाहरी बातों का भान नहीं था।"
                      विचारशील व्यक्ति सोच सकता है कि सर्पकृत महाराज के जीवन की अग्नि परीक्षा से कम नहीं हैं। घन्य है उनकी भेद विज्ञानं की ज्योति, जिससे वह अपनी आत्मा को सर्प-बाधा-मुक्त जानते हुए, आत्मा से भिन्न शरीर को सर्प वेष्टित देखते हुए भी परम शांत रहे। यथार्थ में उनका नाम शान्तिसागर अत्यंत उपयुक्त था।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  25. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - ५१    ?

                     "जाप का क्रम"

               चरित्र चक्रवर्ती ग्रंथ के लेखक दिवाकरजी, पूज्य मुनिश्री वर्धमान सागर के पास उनके दर्शनों के लिए जाया करते थे। जो गृहस्थ जीवन में आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज के बड़े भाई थे। वह ९४ वर्ष की उम्र में भी अपनी मुनि चर्या का पालन भली भांति कर रहे थे।
               वर्धमान सागरजी महाराज बिना किसी की सहायता के ही इस उम्र मे अपने केशलौंच भी शीघ्रता से कर लेते थे। उनसे प्रश्न किया गया- "महाराज ! आपके जाप का क्या क्रम रहता है?"
    उत्तर- "प्रभात में १८ माला, मध्यान्ह में ५ माला, संध्या के समय ३६ माला, मध्य रात्रि में पाँच माला फेरता हूँ और अन्य समय में मै अपनी आत्मा का ध्यान करता हूँ।"
      प्रश्न- "उनके पास समय ज्ञात करने की घड़ी रखी थी। लेखक ने पूंछा- "महाराज महाराज यह घड़ी आपकी नही है, हम तो आपके हैं न?"
         उत्तर (सस्मित वदन से बोल उठे)- "आप भी हमारे हो तो हमारे साथ चलो। हमारे साथ क्यों नही रहते ? इस जगत के मध्य में यह शरीर भी मांझा नाहीं है। कोई भी पदार्थ मेरा नही है। 'अंतकाले कोणी नहीं, जासी एकला' (अंतकाल में जीव का कोई सांथी नही है, यह अकेला जायेगा)।"
                  मुनिश्री वर्धमान सागर जी महाराज की इतनी अधिक उम्र में, उनकी आत्मसाधना व भाव विशुद्धि को देखकर हम सभी अनुभव करते है कि आचार्यश्री शान्तिसागरजी के बड़े भाई के रूप में जन्म लेने वाला जीव अवश्य ही उनकी भांति एक महान साधक होगा।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?
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