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?धर्म-पुरुषार्थ की विवेचना - अमृत माँ जिनवाणी से - २७०


Abhishek Jain

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जय जिनेन्द्र बंधुओं,

              आज के प्रसंग का पूज्य शान्तिसागरजी महराज का उद्बोधन बहुत ही महत्वपूर्ण उदभोधन है। यह हर श्रावक को अवश्य ही पढ़ना चाहिए।

            संभव हो तो रोज पढ़ना चाहिए। यह उद्बोधन प्राणी मात्र को कल्याण का कारक है। उद्बोधन के अनुशरण से तो कल्याण होगा ही, उसको पढ़ने से भी अवश्य ही शांति की अनुभूति करेंगे।

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २७०   ?


         "धर्म-पुरुषार्थ पर विवेचन"


              पूज्य शान्तिसागरजी महराज ने कहा था- "हिंसा आदि पापो का त्याग करना धर्म है। इसके बिना विश्व में कभी भी शांति नहीं हो सकती। इस धर्म का लोप होने पर सुख तथा आनंद का लोप हो जाएगा।

           धर्म का मूल आधार सब जीवों पर दया करना है। यह धर्म, जीवन से भी बहुमूल्य है, इसके रक्षण के लिए प्राणों का भी मोह नहीं करना चाहिए। इस धर्म को भूलने वाला जीव कभी भी सुख नहीं पाता।

          पुराण ग्रंथों में इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि इस धर्म का पालन करने वाले छोटे जीवों ने भी सुख प्राप्त किया और उसे भूलने वालों ने दुर्गति में जाकर दुख भोगा है। इस धर्म के द्वारा जीव सुखी होता है, सब प्रकार का वैभव पाता है; इसलिए इस धर्म का पालन करने में प्रत्येक विवेकी जीव को लगना चाहिए।"

             महराज का यह भी कथन है- "यदि धर्म डूबता है तो हमें अपने जीवन की भी चिंता नहीं।" उनका यह कथन पूर्णतः ठीक है। जब भी धर्म और कर्तव्य के मार्ग में विपत्ति आई है तब उन्होंने प्राणों की भी चिंता नहीं की है और धर्मभक्ति से विपत्ति की घटा सदा दूर हुई है।

             उनका यह भी कथन है कि समता जैन धर्म का मूल है। जिनेन्द्र की वाणी के अनुसार चलने में कल्याण है। शक्ति के अनुसार धर्म का पालन करो। यदि हिंसादि पाँच पापों के त्याग की शक्ति नहीं है, तो एक का ही त्याग करो। शक्ति के अनुसार त्याग करने में भलाई है। मार्ग को उल्टा करने में बड़ा पाप है।


? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?

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