?ज्ञानधरकूट - अमृत माँ जिनवाणी से - २८३
? अमृत माँ जिनवाणी से - २८३ ?
"ज्ञानधर कूट"
कुछ घंटों के उपरांत भगवान कुन्थुनाथ स्वामी की टोंक (निर्वाण स्थल ) आ गई। उस स्थल पर विद्यमान सिध्द भगवान को प्रणाम करते हुए अपनी ज्ञान दृष्टि के द्वारा वे स्थल के ऊपर सात राजू ऊँचाई पर विराजमान सिद्धत्व को प्राप्त भगवान कुंथुनाथ आदि विशुध्द आत्माओं का ध्यान कर रहे थे। चक्रवर्ती, कामदेव, तथा तीर्थंकर पदवी धारी शांतिनाथ, कुंथुनाथ तथा अरनाथ प्रसिद्ध हुए हैं।
उन महामुनि की ध्यान मुद्रा से ऐसा प्रतीत होता था, मानो उन्होंने अपने ज्ञानोपयोग द्वारा मुक्तात्माओं का साक्षात्कार कर लिया हो। उनकी एकाग्रता और स्थिरता देखकर ऐसा प्रतीत होता था कि कोई मूर्ति ही हों।
?शिखरजी शैल पर आचार्य महराज?
इस श्रेष्ठ तीर्थ पर श्रेष्ठ मुनि को देखकर सुरराज का मन भी उन्हें प्रणाम करने को तत्पर होता होगा। आचार्य महराज ने भिन्न-भिन्न टोकों पर भावपूर्वक वंदना की। अंत में पार्श्वनाथ भगवान का निर्वाण स्थल सुवर्णभद्रकूट मिला।
पार्श्वनाथ भगवान की टोंक में पूर्ण शांति तथा स्फूर्ति प्राप्त करने के पश्चात महराज ने पर्वत से उतारना प्रारम्भ किया। उस समुन्नत टोंक पर चढ़ते और उतरते हुए मुनियों की शोभा बड़ी प्रिय लगती थी।
उद्यान की शोभा पुष्पों से होती है, जलासय का सौंदर्य कमलों से होता है, गगन की शोभा चंद्र से होती है, उसी प्रकार आध्यात्मिक पुण्य भूमि की सुंदरता महामुनियों से होती है। उस प्रकृति के भंडार शैलराज पर चलते हुए आचार्य महराज की निर्ग्रन्थ मुद्रा उन्हें प्रकृति का अविछिन्न अंग सा बताती थी। दिगम्बर मुद्रा प्रकृति प्रदत्त मुद्रा है।
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
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