Jump to content
फॉलो करें Whatsapp चैनल : बैल आईकॉन भी दबाएँ ×
JainSamaj.World

Abhishek Jain

Members
  • Posts

    434
  • Joined

  • Last visited

  • Days Won

    4

 Content Type 

Profiles

Forums

Events

Jinvani

Articles

दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

Downloads

Gallery

Blogs

Musicbox

Blog Entries posted by Abhishek Jain

  1. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १५३    ?

                       "मार्मिक विनोद"

               पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज सदा गंभीर ही नहीं रहते थे। उनमे विनोद भी था, जो आत्मा को उन्नत बनाने की प्रेरणा देता था। कुंथलगिरि में अध्यापक श्री गो. वा. वीडकर ने एक पद्य बनाया और मधुर स्वर में गुरुदेव को सुनाया।
           उस गीत की पंक्ति थी- "ओ नीद लेने वाले, तुम जल्द जाग जाना।"
           उसे सुनकर महराज बोले- "तुम स्वयं सोते हो और दूसरों को जगाते हो। 'बगल में बच्चा, गाँव में टेर' -कितनी अद्भुत बात है" यह कहकर वे हसने लगे।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  2. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १५२   ?

                        "दिव्यदृष्टी"

           पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज का राजनीति से तनिक भी सम्बन्ध नहीं था। समाचार-पत्रों में जो राष्ट्रकथा आदि का विवरण छपा करता है, उसे वे न पढ़ते थे, न सुनते थे। उन्होंने जगत की ओर पीठ कर दी थी।
            आज के भौतिकता के फेर में फँसा मनुष्य क्षण-क्षण में जगत के समाचारों को जानने को विहल हो जाता है। लन्दन, अमेरिका आदि में तीन-तीन घंटों की सारे विश्व की घटनाओं को सूचित करने वाले बड़े-बड़े समाचार पत्र छपा करते हैं। आत्मा की सुधि न लेने वाले लोग अपना सारा समय शारीरिक और लौकिक कार्यो में व्यतीत करते हैं।
        आचार्यश्री के पास ऐसा व्यर्थ का क्षण नहीं था, जिसे वे विकथाओं की बातों में व्यतीत करें। फिर भी उनकी विशुद्ध आत्मा कई विषयों पर ऐसा प्रकाश देती थी, कि विशेषज्ञों को भी उनके निर्णय से हर्ष हुए बिना ना रहेगा।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  3. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १५१    ?

                  "एकांतवास से प्रेम"
       
             आचार्य महाराज को एकांतवास प्रारम्भ से ही प्रिय लगता रहा है। भीषण स्थल पर भी एकांतवास पसंद करते थे। वे कहते थे- "एकांत भूमि में आत्मचिंतन और ध्यान में चित्त खूब लगता है।"
              जब महराज बड़वानी पहुँचे थे, तो बावनगजा(आदिनाथ भगवान की मूर्ति) के पास के शांतिनाथ भगवान के चरणों के समीप अकेले रात भर रहे थे। किसी को वहाँ नहीं आने दिया था। साथ के श्रावकों को पहले ही कह दिया था, आज हम अकेले ही ध्यान करेंगे।

                 ?बढ़िया ध्यान?

                 पूज्यश्री की यह विशेषता रही है कि जहाँ एकांत रहता था, वहाँ उनका ध्यान बढ़िया होता था, किन्तु जहाँ एकांत नहीं रहता था, वहाँ भी उनका ध्यान सम्यक प्रकार से संपन्न हुआ करता था।
              उनका अपने मन पर पूर्ण अधिकार हो चुका था। इंद्रियाँ उनकी आज्ञाकारिणी हो गई थी। अतः उनकी आत्मा आदेश देती थी, वैसी ही स्थिति इंद्रिय तथा मन उपस्थित कर देते थे।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  4. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १५०    ?

           "दीवान श्री लट्ठे की कार्यकुशलता"

          पिछले दो प्रसंगों से जोड़कर यह आगे पढ़ें। पूज्य शान्तिसागरजी महाराज के चरणों को प्रणाम कर लट्ठे साहब महराज कोल्हापुर के महल में पहुँचे। महराज साहब उस समय विश्राम कर रहे थे, फिर भी दीवान का आगमन सुनते ही बाहर आ गए।
           दीवान साहब ने कहा, "गुरु महराज बाल-विवाह प्रतिबंधक कानून बनाने को कह रहे हैं। राजा ने कहा, तुम कानून बनाओं मै उस पर सही कर दूँगा।" तुरंत लट्ठे ने कानून का मसौदा तैयार किया। कोल्हापुर राज्य का सरकारी विशेष गजट निकाला गया, जिसमें कानून का मसौदा छपा था।  प्रातःकाल योग्य समय पर उस मसौदे पर राजा के हस्ताक्षर हो गए। वह कानून बन गया।
            दोपहर के पश्चात सरकारी घुड़सवार सुसज्जित हो एक कागज लेकर वहाँ पहुँचा, जहाँ आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज विराजमान थे।
            लोग आश्चर्य में थे कि अशांति और उपद्रव के क्षेत्र में विचरण करने वाले वे शस्त्र सज्जित शाही सवार वहाँ शांति के सागर के पास क्यों आए हैं? महाराज के पास पहुँचकर उन शस्त्रालंकृत घुड़सवारों ने उनको प्रणाम किया और उनके हाथ में एक राजमुद्रा अंकित बंद पत्र दिया गया।
           लोग आश्चर्य में निमग्न थे कि महराज के पास सरकारी कागज आने का क्या कारण है? क्षण भर में कागज पढ़ने पर ज्ञात हुआ कि उसमे महराज को प्रणाम पूर्वक यह सूचित किया गया था कि उनके पवित्र आदेश को ध्यान में रखकर कोल्हापुर सरकार ने बाल-विवाह-प्रतिबंधक कानून बना दिया है। महाराज के मुख मंडल पर एक अपूर्व आनंद की आभा अंकित हो गई।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  5. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १४९    ?

            "बाल विवाह प्रतिबंधक कानून"

          कल के प्रसंग में हमने पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज की पावन प्रेरणा से  कोल्हापुर राज्य लागू  बाल विवाह प्रतिबंधक कानून के बारे में चर्चा प्रारम्भ की थी।
           एक बार कोल्हापुर के शहुपुरी के मंदिर में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा हो रही थी। वहाँ पूज्य शान्तिसागरजी महाराज विराजमान थे। दीवान बहादुर श्री लट्ठे प्रतिदिन सायंकाल के समय महाराज के दर्शनार्थ आया करते थे। एक दिन लट्ठे महाशय ने आकर आचार्यश्री के चरणों को प्रणाम किया। महाराज ने आशीर्वाद देते हुए कहा- "तुमने पूर्व में पुण्य किया है, जिससे तुम इस राज्य के दीवान बने हो और दूसरे राज्यों में तुम्हारी बात का मान है। मेरा तुमसे कोई काम नहीं है। एक बात है, जिसके द्वारा तुम लोगों का कल्याण करा सकते हो। कारण, कोल्हापुर के महाराज तुम्हारी बात को नहीं टालते।"
             दीवान बहादुर लट्ठे ने कहा- महाराज ! मेरे योग्य सेवा सूचित करने की प्रार्थना है। महराज बोले, छोटे-२ बच्चों की शादी की अनीति चल रही है। अबोध बालक, बालिकाओं का विवाह हो जाता है। लड़के के मरने पर बालिका विधवा कहलाने लगती है। उस बालिका का भाग्य फूट जाता है। इससे तुम बाल विवाह प्रतिबंधक कानून बनाओ। इससे तुम्हारा जन्म सार्थक हो जाएगा। इस काम में तनिक भी देर नहीं हो।"
           कानून के श्रेष्ठ पंडित दीवान लट्ठे साहब की आत्मा आचार्य महराज की बात सुनकर अत्यंत हर्षित हुई। मन ही मन उन्होंने महाराज की उज्जवल सूझ की प्रशंसा की। गुरुदेव को उन्होंने यह अभिवचन दिया कि आपकी इच्छानुसार शीघ्र ही कार्य करने का प्रयत्न करूँगा।
    आगे का वृत्तांत कल के प्रसंग में....

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  6. Abhishek Jain
    ☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,
        आज के प्रसंग से आपको सामाजिक कुरीति के प्रतिबन्ध की ऐसी नई बात पता चलेगी जो पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के पावन आशीर्वाद से महाराष्ट्र प्रान्त कानून के रूप में लागू हुई। 
             मुझे भी यह प्रसंग आप तक पहुचाते हुए अत्यंत हर्ष हो रहा है कि भारत में सर्वप्रथम बाल-विवाह प्रतिबंधक कानून आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज की प्रेरणा से महाराष्ट्र राज्य के कोल्हापुर प्रान्त में बना।

    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १४८    ?

      "बाल विवाह प्रतिबंधक कानून के प्रेरक"

                  भारत सरकार के द्वारा बाल-विवाह कानून निर्माण के बहुत समय पहले ही पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज की दृष्टि उस ओर गई थी। उसके ही प्रताप से कोल्हापुर राज्य में सर्वप्रथम बालविवाह प्रतिबंधक कानून बना था।
           इसकी मनोरंजक कथा इस प्रकार है। कोल्हापुर के दिवान श्री ए.बी. लट्ठे दिगंबर जैन भाई थे। श्री लट्ठे की बुद्धिमत्ता की प्रतिष्ठा महाराष्ट प्रान्त में व्याप्त थी। कोल्हापुर महाराज उनकी बात को बहुत मानते थे। श्री लट्ठे बम्बई प्रान्त के कुशल वित्त मंत्री बने थे।
    आगे का वृत्तांत अगले प्रसंग में.....
    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  7. Abhishek Jain
    ☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,
             प्रस्तुत प्रसंग में पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी द्वारा, जीवन में अधिक विनोद के परिणाम को बताने के लिए कथानक बताया है।
       यह प्रसंग हम सभी गृहस्थों के जीवन के लिए बहुत उपयोगी है।
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १४७    ?

                   "कथा द्वारा शिक्षा"

                 पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने बड़वानी की तरफ विहार किया था। संघ के साथ में तीन धनिक गुरुभक्त तरुण भी थे। वे बहुत विनोदशील थे। उनका हासपरिहास का कार्यक्रम सदा चलता था। उन तीनों को विनोद में विशेष तत्पर देखकर आचार्यश्री ने एक शिक्षाप्रद कथा कही:
       "एक बड़ी नदी थी। उसमें नाव चलती थी। उस नौका में एक ऊँट सवार हो गया। एक तमाशे वाले का बन्दर भी उसमें बैठा था। इतने में एक बनिया अपने पुत्र सहित नाव में बैठने को आया। चतुर धीवर ने कहा- "इस समय नौका में तुम्हारे लड़के को स्थान नहीं दे सकते। वह बालक उपद्रव कर बैठेगा, तो गड़बड़ी हो जाएगी।"
             चालक व्यापारी ने मल्हार को समझा-बुझाकर नाव में स्थान जमा ही लिया। पैसा क्या नहीं करता। नौका चलने लगी। थोड़े देर के बाद बालक का विनोदी मन नहीं माना। बालक तो बालक ही था। उसने बन्दर को एक लकड़ी से छेड़ दिया।
          चंचल बन्दर उछला और ऊँठ की गर्दन पर चढ़ गया। ऊँठ घबरा उठा। ऊँठ के घबड़ाने से नौका उलट पडी और सबके सब नदी में गिर पड़े।
           ऐसी ही दशा बिना विचारकर प्रवृत्ति करने वालों की होती है। बच्चे के विनोद ने संकट उत्पन्न कर दिया। इसी प्रकार यदि अधिक गप्पों में और विनोद में लगोगे, तो उक्त कथा के समान कष्ट होगा। गुरुदेव का भाव यह था, कि जीवन को विनोद में ही व्यतीत मत करो। जीवन का लक्ष्य उच्च और उज्जवल कार्य करना है।"

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  8. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १४६    ?

                       "सुख का रहस्य"

                 एक व्यक्ति ने पूज्य शान्तिसागरजी महाराज के समक्ष प्रश्न किया- "महाराज ! आपके बराबर कोई दुखी नहीं है। कारण आपके पास सुख के सभी साधनों का अभाव है।"
           महराज ने कहा, "वास्तव में जो पराधीन है वह दुखी हैं। जो स्वाधीन हैं वह सुखी है। इंद्रियों का दास दुखी है। 
              हम इंद्रियों के दास नहीं हैं। हमारे सुख की तुम क्या कल्पना कर सकते हो? इंद्रियों से उत्पन्न सुख मिथ्या है। आत्मा के अनुभव द्वारा प्राप्त सुख की तुलना में वह नगण्य है।"

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  9. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १३४    ?

              "विनोद में संयम की प्रेरणा -२"

                आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज की प्रत्येक चेष्ठा संयम को प्रेरणा प्रदान करती थी। उनको विनोद में भी आत्मा को प्रकाश दायिनी सामग्री मिला करती थी। 
                     २८ अगस्त ५५ को क्षुल्लक सिध्दसागर की दीक्षा हुई थी। नवीन क्षुल्लक जी ने महाराज के चरणों में आकर प्रणाम किया और महाराज से क्षमायाचना की।
         महाराज बोले- "भरमा ! तुमको तब क्षमा करेंगे, जब तुम निर्ग्रन्थ दीक्षा लोगे।"
                 ऐसी ही कल्याणकारी मधुर वार्ता एक कोल्हापुर के भक्त बाबूलाल मार्ले की है जो हम पहले देख चुके है। 
                जब पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज का कमण्डलु पकड़ने का प्रसंग आया तो पूज्यश्री ने संयम की प्रेरणा देते हुए विनोदवश कहा "यदि दीक्षा लेने की प्रतिज्ञा करने का इरादा हो, तो कमण्डलु लेना, नहीं तो हम अपना कमण्डलु स्वयं उठवेंगे।"
          वे श्रावक बोले- "महाराज ! कुछ वर्षो के बाद अवश्यमेव मै क्षुल्लक की दीक्षा लूँगा। महाराज को संतोष हुआ।
         उस व्यक्ति की होनहार अच्छी होने से उसने कहा- "महाराज, मै सप्तम प्रतिमा लेता हूँ।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  10. Abhishek Jain
    ☀सात तत्वों की थोड़ी भी जानकारी रखने वाले श्रावक इस प्रसंग को पढ़कर बहुत ही आनंद का अनुभव करेंगे।
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १३३    ?

              "सप्ततत्व निरूपण का रहस्य"

              एक बार आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज से प्रश्न पूंछा गया- "भेद विज्ञान हो तो सम्यक्त्व है; अतः आत्मतत्व का विवेचन करना आचार्यों का कर्तव्य था, परंतु अजीव, आश्रव बन्धादि का विवेचन क्यों किया जाता है?
             उत्तर- "रेत की राशि में किसी का मोती गिर गया। वह रेत के प्रत्येक कण को देखते फिरता है। समस्त बालुका का शोधन उसके लिए आवश्यक है; इसी प्रकार आत्मा का सम्यक्त्व रूप रत्न खो गया है। उसके अन्वेषण के लिए, अजीव, आश्रव, बन्धादि का परिज्ञान आवश्यक है। इस कारण सप्ततत्व का निरूपण सम्यक्तवी के लिए हितकारी है।" आत्मा की प्राप्ति होने के बाद उसे अपने स्वरूप में रहना है, फिर बाहर भटकना प्रयोजन रहित है।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  11. Abhishek Jain
    ☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,
          अभी तक पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज की सल्लेखना के प्रसंगों का वर्णन चल रहा था। शांति के इन सागर की गुणगाथा जितनी भी गाई जाए उतनी कम है। अब हम उनके जीवन चरित्र के अन्य ज्ञात विशेष प्रसंगों के जानेंगे।
         आज का प्रसंग बहुत महत्वपूर्ण है, इस प्रसंग को जानकर आपका मानस निर्ग्रन्थ साधु की सूक्ष्म अहिंसा पालन की भावना को जानकर उनके प्रति भक्ति की भावना के साथ अत्यंत आनंद का अनुभव करेगा।
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १३२    ?

                 "मृत्यु से युद्ध की तैयारी"

                 पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज का जीवन बड़ा व्यवस्थित और नियमित रहा था। यम-समाधि के योग्य अपने मन को बनाने के लिए उन्होंने खूब तैयारी की थी। लोणंद से जब आचार्य महाराज फलटण आये, तब उन्होंने जीवन भर अन्न का परित्याग किया था। कुंथलगिरि पहुँचकर उन्होंने अधिक उपवास शुरू कर दिए थे।
               श्रावण वदी प्रथमा से उन्होंने अवमौदर्य तप का अभ्यास प्रारम्भ कर दिया था। महाराज ने एक ग्रास पर्यन्त आहार को घटा दिया था। वे कहने लगे- "यदि प्रतिदिन दो ग्रास भी आहार लें तो यह शरीर बहुत दिन चलेगा। यदि केवल दूध लेंगे तो शरीर वर्षों टिकेगा।"
             ?धन्य हैं ऐसे मुनिराज ?

             जब प्राणी संयम नहीं पल सकता है, तब इस शरीर के रक्षण द्वारा असंयम का पोषण क्यों किया जाए? जिस अहिंसा महाव्रत की प्रतिज्ञा ली थी, उसको दूषित क्यों किया जाए ? व्रतभ्रष्ट होकर जीना मृत्यु से भी बुरा है। व्रत रक्षण करते हुए मृत्यु का स्वागत परम उज्जवल जीवन तुल्य है इस धारणा ने, इस पुण्य भावना ने, उन साधुराज को यम समाधि की और उत्साहित किया था।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  12. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १३१    ?

                   "देव पर्याय की कथा"

                 लेखक पंडित सुमेरचंदजी दिवाकर ने पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर के उत्कृष्ट सल्लेखना के उपरांत स्वर्गारोहण के पश्चात् अपनी कल्पना के आधार पर उनके स्वर्ग की अवस्था का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया हैं-
              औदारिक शरीर परित्याग के अन्तर्मुहूर्त के भीतर ही उनका वैक्रियिक शरीर परिपूर्ण हो गया और वे उपपाद शैय्या से उठ गए। उस समय उन्होंने विचार किया होगा कि यह आनंद और वैभव की सामग्री कहाँ से आ गई? 
            अवधि ज्ञान से उनको ज्ञात हुआ होगा कि मैंने कुंथलगिरि सिद्धक्षेत्र पर यम सल्लेखनापूर्वक अपने शरीर का संयम सहित त्याग किया था उससे मुझे यह देव पर्याय प्राप्त हुई है। इस ज्ञान के पश्चात् वे आनंद पूर्ण वाद्ययंत्र तथा जयघोष सुनते हुए सरोवर में स्नान करते हैं और आनंदपूर्वक जिनेन्द्र भगवान की अकृतिम रत्नमय प्रतिमाओं के दर्शन, अभिषेक व् पूजन में मग्न हो जाते हैं।
    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  13. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १३०    ?

           "भट्टारक जिनसेन स्वामी का स्वप्न"

                    कोल्हापुर के भट्टारक जिनसेनजी को ७ जुलाई १९५३ में स्वप्न आया था कि आचार्य शान्तिसागर जी महाराज तीसरे भव में तीर्थंकर होंगे। भट्टारक महाराज की बात को सुनकर आचार्य महाराज ने भी कहा कि: "१२ वर्ष पूर्व हमे भी ऐसा स्वप्न आया था कि तुम पुष्करार्ध द्वीप में तीर्थंकर पद धारण करोगे।"
             कभी-कभी अयोग्य, अपात्र, प्रमादी, विषयाशक्त व्यक्ति भी स्वयं तीर्थंकर होने की कल्पना कर बैठते हैं, किन्तु  उनका स्वयं का जीवन आचरण तथा श्रद्धा सूचित करते हैं कि वह प्रलाप मात्र है। रत्नत्रय के द्वारा पुनीत जीवन वाले श्रमणराज का श्रेष्ठ विकास पूर्णतः सुसंगत लगता है। महाराज में सोलहकारण भावनाओं का अपूर्व समागम था। जिनसे तीर्थंकर रूप श्रेष्ठ फल मिलता है।
           यह शंका की जा सकती है कि केवली, श्रुतकेवली के चरण-मूल में तीर्थंकर प्रकृति का बंध प्रारम्भ होता है, तब आज उक्त दोनों विभूतियों के अभाव में किस प्रकार तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो सकेगा?
          यथार्थ में शंका उचित है किन्तु इस भव में तीर्थंकर प्रकृति का बंध ना करके, लौकान्तिक पदवी को छोड़कर पुनः नर पदवी धारण करके तो तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो सकता है। विदेह में तीर्थंकर पंचकल्याणक वाले होते हैं; दीक्षा, ज्ञान तथा मोक्ष तीन कल्याणक वाले भी होते हैं, ज्ञान और मोक्ष दो कल्याणक वाले भी होते हैं। 
             गृहस्थावस्था में यदि तीर्थंकर प्रकृति का बंध किसी चरम शरीरी आत्मा ने किया तो उसके तीन कल्याणक होंगे। यदि निर्ग्रन्थ ने बंध किया, तो ज्ञान और मोक्ष रूप दो ही कल्याणक हो सकेंगे। इस अपेक्षा से सोचा जाए, तो वे सभी भाग्यशाली हो जाते हैं, जिन्होंने ऐसी प्रवर्धमान पुण्यशाली आत्मा के दर्शनादि का लाभ लिया हो। सबसे बड़ा भाग्य तो उनका है जो पूज्य शान्तिसागरजी महाराज के उपदेशानुसार पुण्य जीवन व्यतीत करते हुए जन्म को सफल कर रहे हैं।
    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  14. Abhishek Jain
    ?  अमृत माँ जिनवाणी से - १२८  ?

      "जीवन की उज्जवल घटनाओं की स्मृति"

               आचार्यश्री के शरीर के संस्कार के उपरांत धीरे-धीरे पर्वत से नीचे आए, रात्रि को लगभग ८ बजे पर्वत पर हम पुनः पहुँचे। तपोग्नि से पुनीत देह को घेरे भौतिक अग्नि वेग से जल रही थी। हम वहीं लगभग ३ घंटे बैठे। उठने का मन ही नहीं होता था।
               आचार्यश्री के जीवन की पुण्य घटनाओं तथा सत्संगों की बार-बार याद आती थी, कि इस वर्ष का (सन् १९५५ ) का पर्युषण पर्व इन महामानव के समीप वीताने का मौका ही न आया। अग्नि की लपटें मेरी ओर जोर-जोर से आती थी। मै उनको देखकर विविध विचारों में निमग्न हो जाता था।
              अब महाराज के दर्शन और सत्संग का सौभाग्य सदा के लिए समाप्त हो गया, इस कल्पना से अंतःकरण में असह्य पीड़ा होती थी। तो दूसरे क्षण महापुराण का कथन याद आता था, कि आदिनाथ भगवान के मोक्ष होने पर तत्वज्ञानी भरत शोक-विहल हो रहे थे। उनको दुखी देखकर वर्षभसेन गणधर ने सांत्वना देते हुए कहा था, "अरे भरत ! निर्वाण कल्याणक होना आनंद की बात है। उसमे शोक की कल्पना ठीक नहीं है, 'तोषे विषादः कुतः'।"
              इस प्रकार गुरुदेव की छत्तीस दिन लंबी समाधी श्रेष्ठ रीति से पूर्ण हो गई। यह संतोष की बात मानना चाहिए। शोक की बात सोचना अयोग्य है। ऐसा विचार आने मनोवेदना कम होती थी।
         आगम में कहा है, 'न हि समाधिमरणंशुचे' समाधिमरण शोक का कारण नहीं है।
    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  15. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - १२७   ?

                   "चरणों में प्रणामांजलि"

                     विमानस्थित आचार्य परमेष्ठी के द्रव्य मंगल रूप शरीर के पास पहुँच चरणों को स्पर्श कर मैंने प्रणाम किया। चरण की लम्बी गज रेखा स्पष्ट दृष्टिगोचर हुई। मुझे अन्य लोगों के साथ विमान को कन्धा देने का प्रथम अवसर मिला।
       ?ॐ सिद्धाय नमः की उच्च ध्वनि?

               धर्म सूर्य के अस्तंगत होने से व्यथित भव्य समुदाय ॐ सिद्धाय नमः, ॐ सिद्धाय नमः का उच्च स्वर में उच्चारण करता हुआ विमान के साथ बढ़ता जा रहा था। थोड़ी देर में विमान, क्षेत्र के बाहर बनी हुई पाण्डुक शिला के पास लाया गया। पश्चात् पावन पर्वत की प्रदक्षिणा देता हुआ विमान पर्वत पर लाया गया।
            महाराज का शरीर जब देखो ध्यान मुद्रा में ही लीन दिखता था। दो बजे दिन के समय पर्वत पर मानस्तम्भ के समीपवर्ती स्थान पर विमान रखा गया। वहाँ शास्त्रानुसार शरीर के अंतिम संस्कार, लगभग १५ हजार जनता के समक्ष कोल्हापुर जैन मठ के भट्टारक श्री लक्ष्मीसेन स्वामी ने कराया।
                    ?प्रदीप्त अग्नि?
       
                अभिषेक होते ही चन्दन, नारियल की गारी, कपूर आदि द्रव्यों से पद्मासन बैठे हुए उस शरीर को ढांकने का कार्य शुरू हुआ। देखते-देखते आचार्यश्री का मुखमंडल भर जो दृष्टीगोचर होता था, कुछ क्षण बाद वह भी दाह-द्रव्य में दब गया। विशेष मन्त्र से परिशुद्धि की गई। 
                  अग्नि के द्वारा शरीर का चार बजे शाम को दाहसंस्कार प्रारम्भ हुआ। कपूर आदि सामग्री को पाकर अग्नि को वृद्धिंगत होते देर न लगी। अग्नि की बड़ी-बड़ी ज्वालाएँ पवन का सहयोग पाकर चारों दिशाओं में फैलकर दिग्दिगंत को पवित्र बना रही थी। देह दाह का संस्कार हो गया।
             ?हमे भी समाधि लाभ हो?
                   उसे देखकर ज्ञानी जन सोचते थे। हे सधुराज ! जैसी आपकी सफल संयम पूर्ण जीवन यात्रा हुई है। श्रेष्ठ स्माधि रूपी अमृत आपने प्राप्त किया ऐसा ही जिनेन्द्र देव के प्रसाद से हमे भी हो और अपना जन्म कृतार्थ करने का अवसर प्राप्त हो।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  16. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १२६    ?

                       "निधि लुट गई"

                     समाधिमरण की सफल साधना से बड़ी जीवन में कोई निधि नहीं है। उस परीक्षा में पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज प्रथम श्रेणी में प्रथम आए, इस विचार से तो मन में संतोष होना था, किन्तु उस समय मन विहल हो गया था। जीवन से अधिक पूज्य और मान्य धर्म की निधि लूट गई, इस ममतावश नेत्रों से अश्रुधारा बह रही थी।
              उनके पद्मासन शरीर को पर्वत के उन्नत स्थल पर विराजमान कर सब लोगों को दर्शन कराया गया। उस समय दर्शकों को यही लगता था कि महाराज तो हमारे नेत्रों के समक्ष साक्षात् बैठे हैं और पुण्य दर्शन दे रहे हैं। पर्वत पर साधुओं आदि ने भक्ति का पाठ पढ़ा, कुछ संस्कार हुए।
                बाद में विमान में उनकी तपोमयी देह को विराजमान गया। यहाँ उनका शरीर काष्ट के विमान विराजमान किया गया था। परमार्थतः महाराज की आत्मा संयम साधना के प्रसाद से स्वर्ग के श्रेष्ठ विमान में विराजमान हुई होगी। यह विमान दिव्य विमान का प्रतीक दिखता था।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  17. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - १२४  ?

            ?आचार्यश्री का स्वर्ग प्रयाण?

                आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के सल्लेखनारत अब तक ३५ दिन निकल गए थे, रात्री भी व्यतीत हो गई। नभोमंडल में सूर्य का आगमन हुआ। घडी में ६ बजकर ५० मिनिट हुए थे जब चारित्र चक्रवर्ती साधु शिरोमणी पूज्य क्षपकराज आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने स्वर्ग को प्रयाण किया।
               वह दिन रविवार था। अमृतसिद्धि योग था। १८ सितम्बर भादों सुदी द्वितीया का दिन था। उस समय हस्त नक्षत्र था।

              ?धर्मसूर्य का अस्तंगत?

                 मै तुरंत पर्वत पर पहुँचा। कुटी में जाकर देखा। वहाँ आचार्य महाराज नहीं थे। चारित्र चक्रवर्ती गुरुदेव नहीं थे। आध्यात्मिकों के चूड़ामणि क्षपकराज नहीं थे। धर्म के सूर्य नहीं थे। उनकी पावन आत्मा ने जिस शरीर में ८४ वर्ष निवास किया था, केवल वह पौद्गलिक शरीर था। वही कुटी थी किन्तु अमरज्योति नहीं थी। ह्रदय में बड़ी वेदना हुई।

                 ?गहरी मनोवेदना?

                  प्रत्येक के ह्रदय में गहरी पीडा उत्पन्न हो गई। बंध के मूल कारण बंधु का यह वियोग नहीं था। अकारण बंधु, विश्व के हितैषी आचार्य परमेष्ठी का यह चिर वियोग था।
            मनोव्यथा को कौन लिख सकता है, कह सकता है, बता सकता है। कंठ रुंध गया था। वाणी-विहीन ह्रदय फूट-फूट कर रोता था। आसपास की प्रकृति रोती सी लगती थी। पर्वत का पाषाण भी रोता-सा दिखता था। आज कुंथलगिरी ही नहीं सारा भारतवर्ष सचमुच अनाथ हो गया, उसके नाथ चले गए। हमारे स्वछन्द जीवन पर संयम की नाथ लगाने वाले चले गए।
            आँखों से अश्रु का प्रवाह बह चला। आज हमारी आत्मा के गुरु सचमुच में यहाँ से प्रयाण कर गए। शरीर की आकृति अत्यंत सौम्य थी, शांत थी। देखने पर ऐसा लगता था कि आचार्य शान्तिसागर महाराज गहरी समाधि में लीन हैं, किन्तु वहाँ शान्तिसागर महाराज नहीं थे। वे राजहंस उड़कर सुरेन्द्रों के साथी बन गए थे।
    ?३६वाँ अंतिमदिन - १८ सितम्बर ५५?

                   आज आचार्यश्री की सल्लेखना का ३६ वाँ दिन था और आचार्यश्री की इस लोक की जीवनलीला का अंतिम दिन।
                 आचार्यश्री जाग्रत अवस्था में सिद्धोहम का ध्यान करते रहे। साढ़े ६ बजे गंधोदक ले जाकर क्षुल्लक सिद्धसागरजी ने कहा, महाराज अभिषेक का जल है, महाराज ने हूँ में उत्तर दिया और गंधोदक लगा दिया गया। महाराज की आत्मा सिद्धोहम का ध्यान करते हुए ६ बजकर ५० मिनिट पर स्वर्गारोहण कर गई।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  18. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - १२३   ?

              "सल्लेखना का ३५ वाँ दिन"

                     युग के अनुसार हीन सहनन को धारण करने वाले किसी मनुष्य का यह निर्मलता पूर्वक स्वीकृत समाधिमरण युग-२ तक अद्वितीय माना जायेगा।
               आचार्य महाराज का मन तो सिद्ध भगवान के चरणों का विशेष रूप से अनुगामी था। वह सिद्धालय में जाकर अनंतसिद्धों के साथ अपने स्वरुप में निमग्न होता था।
               आचार्य महाराज के समीप अखंड शांति थी। जो संभवतः उन शांति के सागर की मानसिक स्थिति का अनुशरण करती थी। उनके पास कोई शब्दोच्चार नहीं हो रहा था। शरीर चेष्टारहित था। श्वासोच्छ्वास के गमनागमन-कृत देह में परिवर्तन दिख रहा था। यदि वह चिन्ह शेष न रहता, तो देह को चेतना शून्य भी कहा जा सकता था। 
                 "प्रतीत होता था कि वे म्यान से जैसे तलवार भिन्न रहती है, उस प्रकार शरीर से पृथक अपनी आत्मा का चिंतवन में निमग्न थे।"
           उस आत्मा-समाधि में जो उनको आनंद की उपलब्धि हो रही थी, उसकी कल्पना आर्तध्यान, रौद्रध्यान के जाल में फसा हुआ गृहस्थ क्या कर सकता है? महान कुशल वीतराग योगीजन ही उस परमामृत की मधुरता को समझते हैं। 
              जिस प्रकार अंधा व्यक्ति सूर्य के प्रकाश के विषय में कल्पना नहीं कर सकता, उसी प्रकार अंधा व्यक्ति सूर्य के प्रकाश के विषय में कल्पना नहीं कर सकते। बाह्य सामग्री से यह अनुमान होता था कि महाराज उत्कृष्ट योग साधना में संलग्न हैं। घबराहट, वेदना आदि का लेश नहीं था।

    ? ३५ वाँ दिन - १७ अगस्त १९५५ ?
                  आज सल्लेखना का ३५ वाँ दिन था। आज गुफा की दालान में आचार्यश्री को लिटा दिया गया। फलतः उपस्थित हजारों की जनता ने देषभूषण कुलभूषण मंदिर तथा आचार्यश्री के पुण्य दर्शनों का लाभ लिया। 
             शाम को श्री भवरीलालजी सेठी श्री मिश्रीलालजी गंगवाल का भाषण हुआ। आचार्यश्री ने अपना समय आत्मध्यान में व्यतीत किया।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  19. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - १२२  ?

                   "परलोक यात्रा के पूर्व"

                     आज का प्रसंग पिछले प्रसंग के आगे का ही कथन है। उससे जोड़कर ही आगे पढ़ें।
                   मुझे (लेखक को) आशा नहीं थी कि अब पर्वत पर गुरुदेव के पास पहुँचने का सौभाग्य मिलेगा। मै तो किसी-किसी भाई से कहता था, "गुरुदेव तो ह्रदय में विराजमान हैं, वे सदा विराजमान रहेंगे। उनके भौतिक शरीर के दर्शन न हुए, तो क्या? मेरे मनोमंदिर में तो उनके चरण सदा विद्यमान  हैं। उनका दर्शन तो सर्वदा हुआ ही करेगा।"
             कुछ समय के पश्चात् मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि एक व्यक्ति मेरे पास आया और उसने कहा कि पर्वत पर आपको बुलाया है।
               मै पर्वत पर लगभग तीन बजे पहुँचा और महाराज की कुटी में गया। वहाँ मुझे उन क्षपकराज के अत्यंत निकट लगभग दो घंटे रहने का अपूर्व अवसर मिला। वे चुपचाप लेते थे, कभी-कभी हांथों का सञ्चालन हो जाता था। अखंड सन्नाटा कुटी में रहता था। महाराज की श्रेष्ठ समाधि निर्विध्न हो, इस उद्देश्य से मैं भगवान का जाप करता हुआ तेजःपुंज शरीर को देखता था।

    ?३४ वाँ दिन -   १६ सितम्बर १९५५ ?

                   आज सल्लेखना का ३४ वाँ दिन था। जल ग्रहण ना करने का आज १२ वाँ दिन था। शरीर की हालात बहुत नाजुक थी, फिर भी गुफा में आत्मध्यान में समय व्यतीत किया।
    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  20. Abhishek Jain
    ?  अमृत माँ जिनवाणी से - १२१  ?

                      "पीठ का दर्शन"

                एक-एक व्यक्ति ने पंक्ति बनाकर बड़े व्यवस्थित ढंग से तथा शांतिपूर्वक क्षपकराज पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के दर्शन किये। महाराज तो आत्मध्यान में निमग्न रहते थे। वास्तव में ऐसा दिखता था कि मानो वे लेटे-लेटे सामायिक कर रहे हों। बात यथार्थ में भी यही थी।
             जब मै (लेखक) पर्वत पर पहुँचा, तब महाराज करवट बदल चुके थे, इससे उनकी पीठ ही दिखाई पड़ी। मैंने सोचा- "सचमुच में अब हमे महाराज की पीठ ही तो दिखेगी। उनकी दृष्टी आत्मा की ओर हो गई है। इस जगत की ओर उन्होंने पीठ कर ली है।"
              पर्वत से लौटकर नीचे आए। लोगो को बड़ा संतोष हुआ कि जिस दर्शन के लिए हजारों मील से आए, वह कामना पूर्ण हो गई। कई लोग दूर दूर से पैदल भी आए। आने वालों में अजैनी भी थे।
             सब को दर्शन मिल गए, इससे लोगों के मन में संतोष था; किन्तु रह-रह कर याद आती थी कि यदि ऐसी व्यवस्था पहले हो जाती, तो निराश लौटे लोगों की कामना पूर्ण हो सकती थी। वास्तव में अंतराय कर्म का उदय आने पर समझदार व्यक्तियों का विवेक भी साथ नहीं देता है और अनुकूल सामग्री भी प्रतिकूलता धारण करने लगती है।
    ?३३ वाँ दिन - १५ सितम्बर १९५५?
                        सल्लेखना का आज ३३ वाँ दिन था। आचार्यश्री के शरीर को आज अशक्तता तो थी ही, नाड़ी की गति भी धीमी रफ्तार से चल रही थी। दर्शनार्थियों के अति आग्रह होने पर भी आचार्यश्री के दर्शन नहीं कराये गए। ऐसे नाजुक हालात पर भी महाराज आत्मसाधना में लीन रहे। जनता को आचार्यश्री की पूर्व में उपयोग में लाई गई पिच्छी व् कमंडल के दर्शन कराये गए।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  21. Abhishek Jain
    ?  अमृत माँ जिनवाणी से - १२०  ?

                     "अंतिम दर्शन"

               पिछले प्रसंग में देखा दूर-२ से लोग अहिंसा के श्रेष्ठ आराधक के दर्शनार्थ आ रहे थे। उस समय जनता में अपार क्षोभ बढ़ रहा था।
                  कुछ बेचारे दुखी ह्रदय से लौट गए और कुछ इस आशा से कि शायद आगे दर्शन मिल जाएँ ठहरे रहे। अंत में सत्रह सितम्बर को सुबह महाराज के दर्शन सब को मिलेंगे, ऐसी सूचना तारीख १६ की रात्री को लोगों को मिली।
                बड़े व्यवस्थित ढंग से तथा शांतिपूर्वक एक-एक व्यक्ति की पंक्ति बनाकर लोगों ने आचार्यश्री के दर्शन किये।
                महाराज तो आत्मध्यान में निमग्न रहते थे। वास्तव में ऐसा दिखता था मानों वे लेटे-लेटे सामायिक कर रहे हों। बात यथार्थ में भी यही थी।

    ?३२ वाँ दिन - १४ सितम्बर १९५५?
                     आज सल्लेखना का ३२ वाँ दिन और जल न  ग्रहण करने को १० वाँ दिन हो जाने पर भी आचार्यश्री की आत्मसाधना और ध्यान बराबर जारी रहा। आज के दिन उस्मानावाद के कलेक्टर मय पुलिस अफसरान के आचार्यश्री के दर्शनार्थ पधारे थे। शरीर की कमजोरी अधिक बढ़ जाने के कारण जनता को आज आचार्यश्री के दर्शन नहीं कराये गए।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  22. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ११९  ?

                 "चिंतापूर्ण शरीर स्थिति"

                  तारीख १३ सितम्बर को सल्लेखना का ३१ वां दिन था। उस दिन आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के शरीर की स्थिति बहुत ही चिंताजनक हो गई और ऐसा लगने लगा कि अब इस आध्यात्मिक सूर्य के अस्तंगत होने में तनिक भी देर नहीं है। 
            यह सूर्य अब क्षितिज को स्पर्श कर चूका है। भूतल पर से आपका दर्शन लोगों को नहीं होता; हाँ शैल शिखर से उस सूर्य की कुछ-२ ज्योति दिखाई पड़ रही है। उस समय महाराज की स्थिति अद्भुत थी। उनकी सारी ही बातें अद्भुत रहीं हैं। जितने काम उस विभूति के द्वारा हुए वे विश्व को चकित ही करते थे।
            तारीख १३ को महाराज का दर्शन दुर्लभ बन गया। हजारों यात्री आए थे, किन्तु उनकी शरीर स्थिति को देखकर जन साधारण को दर्शन लाभ मिलना अक्षम्य दिखने लगा। उस दिन बाहर से आगत टेलिफोनो के उत्तर में हमने यह समाचार भेजा था- "महाराज के शरीर की प्राकृति अत्यंत क्षीण है दर्शन असंभव है। नाड़ी कमजोर है। भविष्य अनिश्चित है। आसपास की पंचायतों को तार या फोन से सुचना दे दीजिये, इससे दर्शनार्थी लोग यहाँ आकर निराश ना हों।"
           अन्य लोगों ने भी आसपास समाचार भेज दिए कि अब यह धर्म सूर्य शीध्र ही लोकान्तर को प्रयाण करने को है। जैसे-२ समय बीतता था, वैसे-२ दूर-दूर के लोग अहिंसा के श्रेष्ठ आराधक के दर्शनार्थ आ रहे थे। बहुभाग तो ऐसे लोगों का था, जिनके मन में दर्शन के प्रति अवनर्णीय ममता थी। कारण, उन्होंने जीवन में एक बार भी इन लोकोत्तर सधुराज की प्रत्यक्ष वंदना न की थी। उस समय जनता में अपार क्षोभ बड़ रहा था।

    ?३१ वां दिन - १३ सितम्बर १९५५?
                  कल बाहर के कमरे में आचार्यश्री ४-५ घंटे लेटे रहे,  जिसके कारण आज काफी कष्ट रहा। नाडी की गति अत्यंत मंद होने पर भी सारा समय गुफा में आत्मध्यान में व्यतीत किया।
           आचार्यश्री की साधना में कोई विघ्न ना हो, इसलिए देशभूषण-कुलभूषण मंदिर भी दर्शनों के लिए बंद रहा। आचार्यश्री गुफा से बाहर नहीं आये, अतः जनता दर्शन लाभ न कर सकी।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  23. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ११८    ?

                       "तेजपुञ्ज शरीर"

                  पूज्य शान्तिसागरजी महाराज का शरीर आत्मतेज का अद्भुत पुञ्ज दिखता था। ३० से भी अधिक उपवास होने पर देखने वालों को ऐसा लगता था, मानों महाराज ने ५ - १० उपवास किये हों। उनके दर्शन से जड़वादी मानव के मन में आत्मबल की प्रतिष्ठा अंकित हुए बिना नहीं रहती थी।
             देशभूषण-कुलभूषण भगवान के अभिषेक का जब उन्होंने अंतिम बार दर्शन किया था, उस दिन शुभोदय से महाराज के ठीक पीछे मुझे (लेखक को) खड़े होने का सौभाग्य मिला था।
             मै महाराज के सम्पूर्ण शरीर को ध्यान से देख रहा था।उनके शरीर के तेज की दूसरों के शरीर से तुलना करता था। तब उनकी देह विशेष दीप्तियुक्त लगती थी। मुखमंडल पर तो आत्मतेज की ऐसी ही आभा दिखती थी, जिस प्रकार सूर्योदय के पूर्व प्राची दिशा में विशेष प्रकाश दिखता है। 
               उनके हाथ, पैर, वक्षःस्थल उस लंबे उपवास के अनुरूप क्षीण लगते थे, फिर भी दो माह से महान तपस्या के कारण क्षीणतायुक्त शरीर और उस पर यह महान सल्लेखना का भार, ये तब अद्भुत सामग्री का विचार, आत्म-शक्ति और उस तेज को स्पष्ट करते थे।

    ? ३० वां दिन - १२सितम्बर ५५ ?

                   आज सल्लेखना के ३० वें और जल न ग्रहण करने के ८ वें दिन आचार्यश्री के शरीर की हालत चिंताजनक रही। फिर भी जनता के विशेष आग्रह से आचार्य महाराज के दर्शन की छूट दे दी गई।
               आचार्य महाराज बाहर कमरे में दिन के १ बजे से ५ बजे तक लेटे हुए आत्मचिंतन करते रहे और ५ - ६ हजार जनता ने आचार्यश्री के पुनीत दर्शनों का लाभ लिया।
           आचार्यश्री के शरीर की हालत अत्यंत नाजुक तथा नाडी की गति अत्यंत मंद रही। आँखों की ज्योति क्षीण होने के अतिरिक्त और किसी भी प्रकार की शारीरिक वेदना न होने के कारण आत्म ध्यान में लीन रहे।
    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  24. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ११७   ?

                 "जिनेश्वर के लघुनंदन"

                  संसार मृत्यु के नाम से घबड़ाता है और उसके भय से नीच से नीच कार्य करने को तत्पर हो जाता है, किन्तु शान्तिसागरजी महाराज मृत्यु को चुनौती दे, उससे युद्ध करते हुए जिनेश्वर के नंदन के समान शोभायमान होते थे।
             जैन शास्त्र कहते हैं कि मृत्यु विजेता बनने के लिए मुमुक्षु को मृत्यु के भय का परित्याग कर उसे मित्र सदृश मानना चाहिए। इसी मर्म को हृदयस्थ करने के कारण आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने अपने जीवन की संध्या बेला पर समाधिपूर्वक-शान्त भाव सहित प्राणों का परित्याग करके रत्नत्रय धर्म की रक्षा का सुदृढ़ संकल्प किया था।

    ? २९ वां दिन - ११ सितम्बर १९५५ ?
                 सल्लेखना का आज २९ वां दिन था। आज प्रातः और दोपहर दोनों ही समय आचार्यश्री के शरीर की अशक्तता बहुत ज्यादा बढ़ जाने के कारण बाहर नहीं आये, अतः जनता दर्शन ना कर सकी।
    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  25. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ११६   ?

                    "आत्मबल का प्रभाव"

                   पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज की शरीर रूपी गाड़ी तो पूर्णतः शक्तिशून्य हो चुकी थी, केवल आत्मा का बल शरीर को खीच रहा था।
                  यह आत्मा का ही बल था, जो सल्लेखना के २६ वें दिन ८ सितम्बर को सायंकाल के समय उन सधुराज ने २२ मिनिट पर्यन्त लोककल्याण के लिए अपना अमर सन्देश दिया, जिससे विश्व के प्रत्येक शांतिप्रेमी को प्रकाश और प्रेरणा प्राप्त होती है।

    ?  २८ वां दिन - १० सितम्बर १९५५ ?

                आज सल्लेखना का २८ वां दिन था। अशक्तता बहुत ज्यादा थी, फिर भी प्रातः अभिषेक के समय आचार्यश्री पधारे और आधे घंटे ठहरे थे।
            प्रातः अभिषेक के समय पधारने का यह अंतिम दिन था। इसके बाद अभिषेक के समय आचार्यश्री नहीं पधारे। दोपहर में आचार्यश्री के दर्शनों का लाभ जनता को नहीं मिला।
           हालत बहुत ही चिंता जनक रही। आज शीत का असर भी मालूम हुआ।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
×
×
  • Create New...