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    1. संसार द्वारा पूजे जाने वाले जिन भगवान् को, सर्वश्रेष्ठ गिनी जाने वाली जिनवाणी को और राग, द्वेष, मोह, माया आदि दोषों से रहित परम वीतरागी साधुओं को नमस्कार कर जिनपूजा द्वारा फल प्राप्त करने वाले एक मेंढक की कथा लिखी जाती है ॥१॥

      शास्त्रों में उल्लेख किए उदाहरणों द्वारा यह बात खुलासा देखने में आती है कि जिन भगवान् की पूजा पापों की नाश करने वाली और स्वर्ग - मोक्ष के सुखों की देने वाली है। इसलिए जो भव्यजन पवित्र भावों द्वारा धर्मवृद्धि के अर्थ जिनपूजा करते हैं वे ही सच्चे सम्यग्दृष्टि हैं और मोक्ष जाने के अधिकारी हैं। इसके विपरीत पूजा की जो निन्दा करते हैं वे पापी हैं और संसार में निन्दा के पात्र हैं। ऐसे लोग सदा दुःख, दरिद्रता, रोग, शोक आदि कष्टों को भोगते हैं और अन्त में दुर्गति में जाते हैं। अतएव भव्यजनों को उचित है कि वे जिनभगवान् का अभिषेक, पूजन, स्तुति, ध्यान आदि सत्कर्मों को सदा किया करें। इसके सिवा तीर्थयात्रा, प्रतिष्ठा, जिन मन्दिरों का जीर्णोद्धार आदि द्वारा जैनधर्म की प्रभावना करना चाहिए। इन पूजा प्रभावना आदि कारणों से सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। जिनभगवान् इंद्र, धरणेन्द्र, विद्याधर, चक्रवर्ती आदि सभी महापुरुषों द्वारा पूज्य हैं। इसलिए उनकी पूजा तो करनी ही चाहिए। जिनपूजा के द्वारा सभी उत्तम - उत्तम सुख मिलते हैं। जिनपूजा करना महापुण्य का कारण है, ऐसा शास्त्रों में जगह-जगह लिखा मिलता है। इसलिए जिनपूजा समान दूसरा पुण्य का कारण संसार में न तो हुआ और न होगा। प्राचीन काल में भरत जैसे अनेक बड़े-बड़े पुरुषों ने जिनपूजा द्वारा जो फल प्राप्त किया है, किसकी शक्ति है जो उसे लिख सके । आठ द्रव्यों से पूजा करने वाले जिनपूजा द्वारा जो फल लाभ करते हैं, उनके सम्बन्ध में हम क्या लिखें, जब कि केवल फूल से पूजा कर एक मेंढक ने स्वर्ग सुख प्राप्त किया ॥२-११॥

      समन्तभद्र स्वामी ने भी इस विषय में लिखा है - राजगृह में हर्ष से उन्मत्त हुए एक मेंढक ने सत्पुरुषों को यह स्पष्ट बतला दिया कि केवल एक फूल द्वारा भी जिन भगवान् की पूजा करने से उत्तम फल प्राप्त होता है जैसा कि मैंने प्राप्त किया।

      अब मेंढक की कथा सुनिए

      यह भारतवर्ष जम्बूद्वीप के मेरु की दक्षिण दिशा में है। इसमें अनेक तीर्थंकरों का जन्म हुआ है। इसलिए यह महान् पवित्र है । मगध भारतवर्ष एक प्रसिद्ध और धनशाली देश है। सारे संसार की लक्ष्मी जैसे यहीं आकर इकट्ठी हो गई हो। यहाँ के निवासी प्रायः धनी है, धर्मात्मा है, उदार है और परोपकारी हैं॥१२-१३॥

      जिस समय की यह कथा है उस समय मगध की राजधानी राजगृह एक बहुत सुन्दर शहर था । सब प्रकार की उत्तम से उत्तम भोगोपभोग की वस्तुएँ वहाँ बड़ी सुलभता से प्राप्त थीं । विद्वानों का उसमें निवास था। वहाँ के पुरुष देवों से और स्त्रियाँ देवबालाओं से कहीं बढ़कर सुन्दर थीं। स्त्री- पुरुष प्रायः सब ही सम्यक्त्वरूपी भूषण से अपने को सिंगारे हुए थे और इसलिए राजगृह उस समय मध्यलोक का स्वर्ग कहा जाता था । वहाँ जैनधर्म का ही अधिक प्रचार था । उसे प्राप्त कर सब सुख-शान्ति लाभ करते थे ॥१४-१६॥

      राजगृह के राजा तब श्रेणिक थे । श्रेणिक धर्मज्ञ थे । जैनधर्म और जैनतत्त्व पर उनका पूर्ण विश्वास था। भगवान् की भक्ति उन्हें उतनी ही प्रिय थी, जितनी कि भौरे को कमलिनी । उनका प्रताप शत्रुओं के लिए मानों धधकती आग थी । सत्पुरुषों के लिए वे शीतल चन्द्रमा थे। पिता अपनी सन्तान को जिस प्यार से पालता है श्रेणिक का प्यार भी प्रजा पर वैसा ही था । श्रेणिक की कई रानियाँ थी। चेलना उन सबमें उन्हें अधिक प्रिय थी । सुन्दरता में, गुणों में, चतुरता में चेलना का आसन सबसे ऊँचा था। उसे जैनधर्म से, भगवान् की पूजा - प्रभावना से बहुत ही प्रेम था । कृत्रिम भूषणों द्वारा सिंगार करने को महत्त्व न देकर उसने अपने आत्मा को अनमोल सम्यग्दर्शन रूप भूषण से भूषित किया था । जिनवाणी सब प्रकार के ज्ञानविज्ञान से परिपूर्ण है और अतएव वह सुन्दर है, चेलना में किसी प्रकार के ज्ञान-विज्ञान की कमी न थी । इसलिए उसकी रूपसुन्दरता ने और अधिक सौन्दर्य प्राप्त कर लिया था । ' सोने में सुगन्ध' की उक्ति उस पर चरितार्थ थी ॥१७–२०॥

      राजगृह में एक नागदत्त नाम का सेठ रहता था । वह जैनी न था । इसकी स्त्री का नाम भवदत्ता था। नागदत्त बड़ा मायाचारी था। सदा माया के जाल में वह फँसा हुआ रहता था। इस मायाचार के पाप से मरकर यह अपने घर के आँगन की बावड़ी में मेंढक हुआ । नागदत्त यदि चाहता तो कर्मों का नाश कर मोक्ष जाता, पर पाप कर वह मनुष्य पर्याय से पशुजन्म में आया, एक मेंढक हुआ । इसलिए भव्य-जनों को उचित है कि वे संकट समय भी पाप न करें ॥२१-२३॥

      एक दिन भवदत्ता इस बावड़ी पर जल भरने को आई उसे देखकर मेंढक को जातिस्मरण हो गया। वह उछल कर भवदत्ता के वस्त्रों पर चढ़ने लगा । भवदत्ता ने डरकर उसे कपड़ों पर से झिड़क दिया। मेंढक फिर भी उछल-उछलकर उसके वस्त्रों पर चढ़ने लगा। उसे बार-बार अपने पास आता देखकर भवदत्ता बड़ी चकित हुई और डरी भी । पर इतना उसे भी विश्वास हो गया कि इस मेंढक का और मेरा पूर्वजन्म का कुछ न कुछ सम्बन्ध होना ही चाहिए। अन्यथा बार-बार मेरे झिड़क देने पर भी यह मेरे पास आने का साहस न करता । जो हो, मौका पाकर कभी किसी साधु-सन्त से इसका यथार्थ कारण पूछूंगी ॥२४-२७॥

      भाग्य से एक दिन अवधिज्ञानी सुव्रत मुनिराज राजगृह में आकर ठहरे। भवदत्ता को मेंढक का हाल जानने की बड़ी उत्कण्ठा थी । इसलिए वह तुरन्त उनके पास गई उनसे प्रार्थना कर उसने मेंढक का हाल जानने की इच्छा प्रकट की । सुव्रत मुनिराज ने तब उससे कहा-जिसका तू हाल पूछने को आई है, वह दूसरा कोई न होकर तेरा पति नागदत्त है। वह बड़ा मायाचारी था, इसलिए मर कर माया के पाप से यह मेंढक हुआ है। उन मुनि के संसार - पार करने वाले वचनों को सुनकर भवदत्ता को सन्तोष हुआ। वह मुनि को नमस्कार कर घर पर आ गई उसने फिर मोहवश हो उस मेंढक को भी अपने यहाँ ला रखा। मेंढक वहाँ आकर बहुत प्रसन्न रहा ॥२८-३०॥

      इसी अवसर में वैभार पर्वत पर महावीर भगवान् का समवसरण आया। वनमाली ने आकर श्रेणिक को खबर दी कि राजराजेश्वर, जिनके चरणों को इन्द्र, नागेन्द्र, चक्रवर्ती, विद्याधर आदि प्रायः सभी महापुरुष पूजा-स्तुति करते हैं, वे महावीर भगवान् वैभार पर्वत पर पधारे हैं। भगवान् के आने के आनन्द-समाचार सुनकर श्रेणिक बहुत प्रसन्न हुए । भक्तिवश हो सिंहासन से उठकर उन्होंने भगवान् को परोक्ष नमस्कार किया। इसके बाद इन शुभ समाचारों की सारे शहर में सबको खबर हो जाए, इसके लिए उन्होंने आनन्द घोषणा दिलवा दी। बड़े भारी लाव-लश्कर और वैभव के साथ भव्यजनों को संग लिए वे भगवान के दर्शनों को गए। वे दूर से उन संसार का हित करने वाले भगवान के समवसरण को देखकर उतने ही खुश हुए, जितने खुश मोर मेघों को देखकर होते हैं । रासायनिक लोग अपना मन चाहा रस लाभ कर होते हैं। समवसरण में पहुँचे। भगवान के उन्होंने दर्शन किए और उत्तम से उत्तम द्रव्यों से उनकी की । अन्त में उन्होंने भगवान् के गुणों का गान किया ॥३१-३७॥

      हे भगवान्! हे दया के सागर ! ऋषि- महात्मा आपको 'अग्नि' कहते हैं, इसलिए कि आप कर्मरूपी ईंधन को जला कर खाककर देने वाले हैं। आपको वे 'मेघ' भी कहते हैं, इसलिए कि आप प्राणियों को जलाने वाली दुःख, शोक, चिन्ता, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष आदि दावाग्नि को क्षणभर में अपने उपदेश रूपी जल से बुझा डालते हैं । आप 'सूरज' भी हैं, इसलिए कि अपने उपदेशरूपी किरणों से भव्यजनरूपी कमलों को प्रफुल्लित कर लोक और अलोक के प्रकाशक हैं। नाथ, आप एक सर्वोत्तम वैद्य हैं, इसलिए कि धन्वन्तरी से वैद्यों की दवा से भी नष्ट न होने वाली ऐसी जन्म, जरा, मरण रूपी महान् व्याधियों को जड़ मूल से खो देते हैं । प्रभो, आप उत्तमोत्तम गुणरूपी जवाहरात के उत्पन्न करने वाले पर्वत हो, संसार के पालक हो, तीनों लोक के अनमोल भूषण हो, प्राणी मात्र के निःस्वार्थ बन्धु हो, दुःखों के नाश करने वाले हो और सब प्रकार के सुखों के देने वाले हो । जगदीश! जो सुख आपके पवित्र चरणों की सेवा से प्राप्त हो सकता है वह अनेक प्रकार के कठिन से कठिन परिश्रम द्वारा भी प्राप्त नहीं होता। इसलिए हे दयासागर ! मुझ गरीब को अपने चरणों को पवित्र और मुक्ति का सुख देने वाली भक्ति प्रदान कीजिए। जब तक कि मैं संसार से पार न हो जाऊँ । इस प्रकार बड़ी देर तक श्रेणिक ने भगवान् का पवित्र भावों से गुणानुवाद किया। बाद वे गौतम गणधर आदि महर्षियों को भक्ति से नमस्कार कर अपने योग्य स्थान पर बैठ गए ॥३८-४४॥

      भगवान् के दर्शनों के लिए भवदत्ता सेठानी भी गई, आकाश में देवों का जय-जयकार और दुन्दुभी बाजों की मधुर - मनोहर आवाज सुनकर उस मेंढक को जातिस्मरण हो गया । वह भी तब बावड़ी में एक कमल की कली को अपने मुँह में दबाये बड़े आनन्द और उल्लास के साथ भगवान् की पूजा के लिए चला । रास्ते में आता हुआ वह हाथी के पैर नीचे कुचला जाकर मर गया। पर उसके परिणाम त्रैलोक्य पूज्य महावीर भगवान् की पूजा में लगे हुए थे, इसलिए वह उस पूजा के प्रेम से उत्पन्न होने वाले पुण्य से सौधर्म स्वर्ग में महर्द्धिक देव हुआ । देखिये, कहाँ तो वह मेंढक और कहाँ अब स्वर्ग का देव पर इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं । कारण जिनभगवान् की पूजा से सब कुछ प्राप्त हो सकता है ॥४५-५०॥

      एक अंतर्मुहूर्त में वह मेंढक का जीव आँखों में चकाचौंध लाने वाला तेजस्वी और सुन्दर युवा देव बन गया। नाना तरह के दिव्य रत्नमयी अलंकारों की कान्ति से उसका शरीर ढक रहा था, बड़ी सुन्दर शोभा थी। वह ऐसा जान पड़ता था, मानों रत्नों की एक बहुत बड़ी राशि रखी हो या रत्नों का पर्वत बनाया गया हो। उसके बहुमूल्य वस्त्रों की शोभा देखते ही बनती थी । गले में उसके स्वर्गीय कल्पवृक्षों के फूलों की सुन्दर मालाएँ शोभा दे रही थी। उनकी सुन्दर सुगन्ध ने सब दिशाओं को सुगन्धित बना दिया था। उसे अवधिज्ञान से जान पड़ा कि मुझे जो यह सब सम्पत्ति मिली है और मैं देव हुआ हूँ, यह सब भगवान् की पूजा की पवित्र भावना का फल है। इसलिए सबसे पहले मुझे जाकर पतित-पावन भगवान् की पूजा करनी चाहिए। इस विचार के साथ ही वह अपने मुकुट पर मेंढक का चिह्न बनाकर महावीर भगवान् के समवसरण में आया । भगवान् की पूजन करते हुए इस देव के मुकुट पर मेंढक के चिह्न को देखकर श्रेणिक को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने गौतम भगवान् को हाथ जोड़ कर पूछा-हे संदेहरूपी अँधेरे को नाश करने वाले सूरज ! कृपाकर कहिए कि इस देव के मुकुट पर मेंढक का चिह्न क्यों है? मैंने तो आज तक देव के मुकुट पर ऐसा चिह्न नहीं देखा । ज्ञान की प्रकाशमान ज्योतिरूप गौतम भगवान् ने तब श्रेणिक को नागदत्त के भव से लेकर जब तक की सब कथा कह सुनाई उसे सुनकर श्रेणिक को तथा अन्य भव्यजनों को बड़ा ही आनन्द हुआ। भगवान की पूजा करने में उनकी बड़ी श्रद्धा हो गई। जिनपूजन का इस प्रकार उत्कृष्ट फल जानकर अन्य भव्यजनों को भी उचित है कि वे सुख देने वाली इस जिन पूजन को सदा करते रहें। जिन पूजा के फल से भव्यजन धन- दौलत, रूप-सौभाग्य,राज्य - वैभव, बाल-बच्चे और उत्तम कुछ जाति आदि सभी श्रेष्ठ सुख-चैन की मनचाही सामग्री लाभ करते हैं, वे चिरकाल तक जीते हैं, दुर्गति में नहीं जाते और उनके जन्म-जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं। जिनपूजा सम्यग्दर्शन और मोक्ष का बीज है, संसार का भ्रमण मिटाने वाली है और सदाचार, सद्विद्या तथा स्वर्ग - मोक्ष के सुख की कारण है । इसलिए आत्महित के चाहने वाले सत्पुरुषों को चाहिए कि वे आलस छोड़कर निरन्तर जिनपूजा किया करें। इससे उन्हें मनचाहा सुख मिलेगा ॥५१-६४॥

      यही जिन-पूजा सम्यग्दर्शनरूपी वृक्ष के सींचने को वर्षा सरीखी है, भव्यजनों को ज्ञान देने वाली मानों सरस्वती हैं, स्वर्ग की सम्पदा प्राप्त कराने वाली दूती है, मोक्षरूपी अत्यन्त ऊँचे मन्दिर तक पहुँचाने को मानो सीढ़ियों की श्रेणी है और समस्त सुखों को देने वाली है। यह आप भव्यजनों की पाप कर्मों से सदा रक्षा करें । जिनके जन्मोत्सव के समय स्वर्ग के इन्द्रों ने जिन्हें स्नान कराया, जिनके स्नान का स्थान सुमेरु पर्वत नियम किया गया और समुद्र जिनके स्नानजल के लिए बावड़ी नियत की गई, देवता लोगों ने बड़े आदर के साथ जिनकी सेवा बजाई, देवांगनाएँ जिनके इस मंगलमय समय में नाची और गन्धर्व देवों ने जिनके गुणों को गाया, जिनका यश बखान किया ऐसे जिन भगवान् आप भव्य-जनों को और मुझे शान्ति प्रदान करें ॥६५-६६॥

      वह भगवान् की पवित्र वाणी जय लाभ करे, संसार में चिर समय तक रहकर प्राणियों को ज्ञान के पवित्र मार्ग पर लगाये, जो अपने सुन्दर वाहन मोर पर बैठी हुई अपूर्व शोभा को धारण किए हैं, मिथ्यात्वरूपी गाढ़े अँधेरे को नष्ट करने के लिए जो सूरज के समान तेजस्विनी है, भव्यजनरूपी कमलों के वन को विकसित कर आनन्द की बढ़ाने वाली है, जो सच्चे मार्ग को दिखाने वाली है और स्वर्ग के देव, विद्याधर, चक्रवर्ती आदि सभी महापुरुष जिसे बहुत मान देते हैं ॥६७॥

      मूलसंघ के सबसे प्रधान सारस्वत नाम के गच्छ में कुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा में प्रभाचन्द एक प्रसिद्ध आचार्य हुए हैं। वे जैनागमरूपी समुद्र के बढ़ाने के लिए चन्द्रमा की शोभा को धारण किए थे। बड़े-बड़े विद्वान् उनका आदर सत्कार करते थे। वे गुणों के मानों जैसे खजाने थे, बड़े गुणी थे ॥६८॥

      इसी गच्छ में कुछ समय बाद मल्लिभूषण भट्टारक हुए। वे मेरे गुरु थे । वे जिनभगवान् के चरण-कमलों के मानों जैसे भौरे थे - सदा भगवान् की पवित्र भक्ति में लगे रहते थे। मूलसंघ में इनके समय में यही प्रधान आचार्य गिने जाते थे । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय के ये धारक थे। विद्यानन्दि गुरु के पट्टरूपी कमल को प्रफुल्लित करने को ये जैसे सूर्य थे। इनसे उनके पट्ट की बड़ी शोभा थी। ये आप सत्पुरुषों को सुखी करें ॥६९॥

      वे सिंहनन्दी गुरु भी आपको सुखी करें, जो जिन भगवान् की निर्दोष भक्ति में सदा लगे रहते थे। अपने पवित्र उपदेश से भव्यजनों को सदा हितमार्ग दिखाते रहते थे। जो कामरूपी निर्दयी हाथी का दुर्मद नष्ट करने को सिंह सरीखे थे, काम को जिन्होंने वश कर लिया था । वे बड़े ज्ञानी ध्यानी थे, रत्नत्रय के धारक थे और उनकी बड़ी प्रसिद्धि थी ॥७०॥

      वे प्रभाचन्द्राचार्य विजय लाभ करें, जो ज्ञान के समुद्र हैं। देखिये, समुद्र में रत्न होते हैं आचार्य महाराज सम्यग्दर्शनरूपी श्रेष्ठ रत्न को धारण किए हैं। समुद्र में तरंगें होती हैं वे भी सप्तभंगीरूपी तरंगों से युक्त हैं-स्याद्वादविद्या के बड़े ही विद्वान् हैं। समुद्र की तरंगें जैसे कूड़े-करकट को निकाल बाहर फेंक देती हैं उसी तरह ये अपनी सप्तभंगी वाणी द्वारा एकान्त मिथ्यात्वरूपी कूड़े-करकट को हटा दूर करते थे, अन्य मत के बड़े-बड़े विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित कर विजय लाभ करते थे । समुद्र में मगरमच्छ, घड़ियाल आदि अनेक भयानक जीव होते हैं पर प्रभाचन्द्ररूपी समुद्र में उससे यह विशेषता थी, अपूर्वता थी कि उसमें क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेषरूपी भयानक मगरमच्छ न थे। समुद्र में अमृत रहता है और इनमें जिन भगवान् का वचनमयी अमृत समाया हुआ था और समुद्र में अनेक बिकने योग्य वस्तुएँ रहती है ये भी व्रतों द्वारा उत्पन्न होने वाली पुण्यरूपी विक्रय वस्तु को धारण किए थे। अतएव वे समुद्र की उपमा दिये गए ॥७१॥

      इन्हीं के पवित्र चरणकमलों की कृपा से जैनशास्त्रों के अनुसार मुझ नेमिदत्त ब्रह्मचारी ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप को प्राप्त करने वालों की इन पवित्र पुण्यमय कथाओं को लिखा है । कल्याण करने वाली ये कथाएँ भव्यजनों की धन-दौलत, सुख-चैन, शान्ति-सुयश और आमोद-प्रमोद आदि सभी सुख सामग्री प्राप्त कराने में सहायक हो । यह मेरी पवित्र कामना है ॥७२॥

    2. शुभ प्रभात🙏🙏आज का सुविचार-

      आत्म चेतना ही व्यक्ति की सबसे बडी शक्ति है।

      जब हवा काम नहीं करती तब दवा काम करती है और जब दवा काम नहीं करती  तब दुआ काम करती है परन्तु जब दुआ भी काम नहीं करती तब यह जो स्वयंभुवा चेतना है काम करती है। मात्र आत्म चेतना जागृत होने पर हवा, दुआ और दवा अपने आस पास स्वयं चक्कर काटती रहती है। आत्म जागरण के अभाव में व्यक्ति इन तीनो के पीछे चक्कर काटता रहता है।

      🙏🙏मूकमाटी पृष्ठ सं 240

    3. ..........🙏 जय जिनेन्द्र 🙏🙏 नमस्ते 🙏........

      * शास्त्रों में लिखा है हमे रोज़ एक नियम/त्याग लेना ही चाहिये । 
      * सभी धर्मो में त्याग /नियम को बहुत महत्व दिया गया है ।
      * त्याग / नियम कितना भी छोटा क्यों न हो (सिर्फ 10 मिनिट का भी) बहुत अशुभ कर्म नष्ट होते हैं।
      * रोज़ कुछ त्याग करने से असंख्यात बुरे कर्मो की निर्ज़रा (क्षय होना) होती है
       * नरक गति का बंध अगर हमारा हो चुका है तो हम किसी भी तरह  के नियम जीवन में नहीं ले पाते हैं  ।

      दिनांक  - 10 - 12 - 2020
       ------------------------------
      "" आप चाहे तो सिर्फ आज के लिये ये नियम / त्याग भी ले सकते हैं या और 
      कोई भी नियम अपने अनुसार ले सकते हैं  

      🙏* आज  मंगसिर  माह कृष्ण पक्ष की दशमी ,गुरुवर  है 🙏 आज काजू खाने का त्याग 🙏*

           
         🔻विनम्र आग्रह🔻 
      🐄🐈  एक रोटी या कुछ  भी जीव दया के लिए हम भी देवे और अपने सभी जानकारों को भी रोज़ ऐसा करने के लिए प्रेरित करें 🙏🙏  

       🙏🙏 निवेदन :-(शहर में विराजित साधू संतो के दर्शन की भावना  रखे )

      आज - 10 - 12 - 2020 एक दिन का  संकल्प करना चाहते हैं तो प्रति उत्तर में  नियम / त्याग 
        लिखकर के वापिस ग्रुप में पोस्ट भी कर सकते हैं

      (आप नीचे दिए गए लिंक पर नियम लेने के लिए comment कर के भी नियम ले सकते हैं ) 

      https://jainsamaj.vidyasagar.guru/blogs/blog/8-1 

    4. *INDIA नहीं 🚫 भारत बोले🇮🇳*

      *⚖️SUPREME COURT* में *Namah* नाम से याचिकाकर्ता ने WRIT PETITION (C) क्रमांक 000422 / 2020 को register किया है और 2 जून 2020 को इसके Admission के निर्णय के लिए सुप्रीम कोर्ट ने तारीख दी हुई है। 

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      ➡️याचिका में लिखा है कि संविधान के Article 21 के अनुसार सभी भारतीय नागरिकों को मौलिक अधिकार है कि वो अपने देश को *भारत* कह सके। इस आधार पर यह याचिकाकर्ता ने देश के India नाम को हटाकर *भारत* करने की प्रार्थना की है 

      *आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज* का अनेक वर्षों से यह विचार रहा है कि देश का India नाम हटाकर भारत होना चाहिए

      *➡️ ज्ञात रहे इससे पहले भी सुप्रीम कोर्ट में इस तरह की याचिकाएं अन्य व्यक्तियों द्वारा दाखिल की हुई थी लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उनको निरस्त कर दिया*

      *➡️ यदि जैन समाज के प्रबुद्ध जन इस याचिका को support करने के लिए अपनी पहचान आदि का उपयोग करते हैं और पूरी समाज सार्वजनिक मंचों पर इस याचिका को प्रचारित करके अन्य RSS जैसे हिन्दू संगठनों को भी इस याचिका के सहयोग के लिए प्रेरित करते हैं तथा प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्री आदि नेताओं तक पहुँचकर इस याचिका के समर्थन और पक्ष में उतरने के लिए बयान आदि जारी करवाने के लिए निवेदन करें तो संभव है कि सुप्रीम कोर्ट यह याचिका निरस्त न करके इसकी सुनवाई करे*

      *➡️ जैन समाज अपनी तरफ से सुप्रीम कोर्ट में सहायक वकील देकर भी इस याचिकाकर्ता को बाहर से दिशानिर्देश और सलाह दे सकते हैं*

      *🙏🏽अतः आप सभी से करबद्ध निवेदन है कि इस याचिका के लिए समर्थन और सार्वजनिक माहौल तैयार करने के लिए अपने अपने स्तर पर पूरी कोशिश करें। 2 जून से पहले कुछ करने की कोशिश करें🙏🏽*

      *🖼️ याचिका की सर्व जानकारी सलग्न photo में दी है*

       

      *जिनशासन जयवंत हो*

          *💎जिनशासन संघ💎*

       

       

    5. सादर जय जिनेन्द्र,
      आपको यह आज शाम 9 बजे तक भेजनी है।

      आओ शब्दो से भजन बनाये

      उदहारण :-
      ध     क   म      ज
      धरम करो  मस्त  जवानी में

      1  जी      है      पा     की     बूं    क

      2  मे      आ    कृ      से     स    का

      3   पा      प्या      ला     च    प्या

      4   मं      ण    ह    प्रा     से  प्या

      5    ज      से     गु    द   मि    म

      6   स     ध    क    जि    दि    मौ    की

      7    अ     ज   ज   सि      प्र    ज    ज

      8    ण     मं     है     न्या     जि    ला

      9    छो     सा      मं     ब    वी    गु

      10   वि     की     तृष्     को     छो   के

      11  हिं      पी      वि    रा    म

      12 तू      जा     रे     चे    प्रा    क

      13 ते      पां    हु    कल्     प्र    ए    बा

      14  सो     सो    में     नि     ग    सा    जिं

      15  मु      आ     मे     कु      में      आ    है

      16  मि        है       सच्    सु      के      भ

      17  मा      तू     द      क     क       से

      18 ल       ल      ल     के       झं       जि     का

      19 क      हूं      में      अ     स्वी    क

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    • ManjuJain24

      आदिनथ दिगंबर जैन मंदिर ,🙏 गायत्री नगर महारानी फार्म दुर्गापुरा जयपुर🙏

      · 0 replies
    • ManjuJain24

      भगवान महावीर के माताका नाम
       

      · 0 replies
    • Vijay K Jain

      Ācārya Vidyāsāgara (1946-2024) has undoubtedly been among the most influential and acclaimed Jaina ascetics during the last quarter of the twentieth century and the first quarter of the twenty-first century. Throughout his entire life, he drank the nectar of dharma and at the end embraced pious death through sallekhanā, strictly as per the Doctrine expounded in the Scripture. His influence through his profound preachings and, more importantly, through his worthy disciple-saints will illumine our universe for centuries.
      His life was the epitome of the quintessence of reality that the Jaina Doctrine expounds: “The soul is distinct from the matter and the matter is distinct from the soul.” There is an utter distinction between the body and the soul; these two can never, in the three times, acquire the attributes of one another. The body is known through the instrument of the senses and the soul by self-experience. The soul has consciousness (cetanā) and is incorporeal (amūrta) whereas the body has no consciousness and is corporeal (mūrta). In its worldly state, the soul is always accompanied by the body. This perhaps is the cause of confusion about the relationship between the two.
      After knowing the true nature of the soul and the karmic matter, Ācārya Vidyāsāgara engaged himself in the practice of ridding his soul of the bondage of the karmic shackles. He reckoned that the soul is pure consciousness and all dispositions, auspicious and inauspicious, are alien to it. Further, only the various forms of the karmas have kept his soul confined to and whirling in the mire of the world. When all karmas associated with the soul are annihilated, there is no cause for the soul to wander further in the cycle of worldly existence.
      At the time of sallekhanā he turned his soul inwards and relinquished all outward concerns, including the responsibilities of his huge congregation. 
      In his next incarnation, Ācārya Vidyāsāgara is destined to enjoy the long-lasting happiness appertaining to the heavenly being of the fourth order as a vaimānika deva. In a subsequent incarnation, he is bound to get freed from all worldly sufferings and attain ineffable bliss appertaining to the state of liberation (nirvāṇa). 
      I make obeisance humble at the Most Worshipful feet of Ācārya Vidyāsāgara.
       
      Vijay K. Jain, Dehradun
      19 February, 2024
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    • Adinath babab

      Ananatanuband क्रोध कषाय
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