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Abhishek Jain

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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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  1. Abhishek Jain
    ☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,
           कल वर्णीजी के जयपुर यात्रा का ग्वालियर में सामान चोरी होने के कारण असफलता का उल्लेख प्रारम्भ हुआ। आज की प्रस्तुती में देखेंगे कि वर्णीजी ने उस समय कैसी-२ परिस्थितियों का सामना किया।
    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?
          *"जयपुर की असफल यात्रा"*
                           क्रमांक - २१
                     शाम की भूख ने सताया, अतः बाजार से एक पैसे के चने और एक छदाम का नमक लेकर डेरे मैं आया और आनंद से चने चबाकर सायंकाल जिन भगवान के दर्शन किये तथा अपने भाग्य की निंदा करता हुआ कोठी में सो गया।
          प्रातःकाल सोनागिरी के लिए प्रस्थान किया। पास में न तो रोटी बनाने को बर्तन थे और न सामान ही था। एक गाँव में जो ग्वालियर से १२ मील होगा, वहाँ जाकर दो पैसे चने और थोड़ा सा नमक लेकर एक कुएँ पर आया और उन्हें आनंद से चवाकर विश्राम के बाद सायंकाल चल दिया।
           १२ मील चलकर फिर दो पैसे की वियालू की। फिर पंचपरमेष्ठी का ध्यान कर सो गया। यही विचार आया कि जन्मान्तर में जो कमाया था उसे भोगने में अब आनाकानी से क्या लाभ?
           इस प्रकार ३ या ४ दिन बाद सोनागिर आ गया। फिर से सिद्धक्षेत्र की वंदना की। पुजारी के बर्तनों में भोजन बनाकर फिर पैदल चल दतिया आया। मार्ग में चने खाकर ही निर्वाह करता था।
             दतिया में एक पैसा भी पास न रहा, बाजार में गया, पास में कुछ न था, केवल एक छतरी थी।  दुकानदार से कहा- 'भैया!  इस छतरी को लेलो।' उसने कहा- 'चोरी की तो नहीं है, मैं चुप रह गया। आँखों में अश्रु आ गए, परंतु उसने उन अश्रुओं को देखकर कुछ भी संवेदना प्रगट न की।'
          कहना लगा- 'लो छह आना पैसे ले जाओ।' मैंने कहा छतरी नवीन है, कुछ और दे दो।' उसने तीव्र स्वर में कहा- 'छह आने ले जाओ, नहीं तो चले जाओ।' लाचार छह आने लेकर चल पड़ा।          
    ? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?? आजकी तिथी- वैशाख शुक्ल१२?
  2. Abhishek Jain
    ☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,
              आत्मकथा में आज की प्रस्तुती से आगे आप वर्णी जी के जीवन में धर्ममार्ग में ज्ञानार्जन के बीच आई अनेक कठिनाइयों का उल्लेख प्राप्त करेंगे।
          वर्णीजी के जीवन के यह प्रसंग हम पाठको के अंतःकरण को छूने वाले हैं। इन सब प्रसंगों से विदित होता है कि वर्तमान में सर्वविदित महापुरुषों के जीवन सरल नहीं थे। उनकी लक्ष्य के प्रति दृढ़ता ने ही उनको लोक में सर्वविदित कर दिया।
              ज्ञानाभ्यास की प्रबल चाह रखने वाले पूज्य वर्णीजी अपने प्रारंभिक समय में जयपुर जाकर ज्ञानाभ्यास के लिए आतुर थे। बाईजी द्वारा व्यवस्था के आधार पर जयपुर के लिए निकलते हैं लेकिन ग्वालियर में सामान चोरी हो जाने से उनकी जयपुर यात्रा असफल हो जाती है।
    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?
               *"जयपुर की असफल यात्रा"*
                           क्रमांक - २०
                    मैंने बाईजी आज्ञा शिरोधार्य की और भाद्रमास के बीतने पर निवेदन किया कि 'मुझे जयपुर भेज दो।'
    बाईजी ने कहा- 'अभी जल्दी मत करो, भेज देंगे।'
    मैंने पुनः कहा- 'मैं तो जयपुर जाकर विद्याभ्यास करूँगा।'
    बाईजी बोलीं- 'अच्छा बेटा, जो तुम्हारी इच्छा हो, सो करो।'
            जाते समय बाईजी ने कहा- 'भैया ! तुम सरल हो, मार्ग में सावधानी से जाना, ऐसा न हो कि सब सामान खोकर फिर वापिस आ जाओ।'
           मैं श्री बाईजी के चरणों में प्रणाम कर सिमरा से श्री सोनागिरी की यात्रा को चल पड़ा। यहाँ से १६ मील दूर मऊरानीपुर है। वहाँ आया और वहाँ के जिनालयों के दर्शन कर आनंद में मग्न हो गया।
              यहाँ से रेलगाड़ी में बैठकर श्री सोनागिरी पहुँच गया। यहाँ की वंदना व परिक्रमा की। दो दिन यहाँ पर रहा। पश्चात लश्कर ग्वालियर के लिए स्टेशन पर गया।
           टिकिट लेकर ग्वालियर पहुँचा। चम्पाबाग की धर्मशाला में ठहर गया। यहाँ के मंदिरों की रचना देख आश्चर्य में डूब गया। चूंकि ग्रामीण मनुष्यों को बड़े-२ शहरों के देखने का अवसर नहीं आता, अतः उन्हे इन रचनाओं को देख महान आश्चर्य होना स्वाभाविक ही है।
             श्री जिनालय व जिनबिम्बों को देखकर मुझे जो आनंद हुआ वह वर्णनातीत है। दो दिन इसी तरह निकल गए। तीसरे दिन दो बजे दिन के शौच की बाधा होने पर आदत के अनुसार गाँव के बाहर दो मील तक चला गया।
             लौटकर शहर के बाहर कुआँ पर हाथ पाँव धोए, स्नान किया और बड़ी प्रसन्नता के साथ धर्मशाला में लौट आया। 
           आकर देखता हूँ कि जिस कोठी में ठहरा था, उसका ताला टूटा पड़ा है और पास में जो कुछ सामान था वह सब नदारत है। 
            केवल बिस्तर बच गया था। इसके सिवा अँटी में पाँच आना पैसे, एक लोटा, छन्ना, डोरी, एक छतरी, एक धोती, जो बाहर ले गया था, इतना सामान शेष बचा था।
           चित्त बहुत खिन्न हुआ। 'जयपुर जाकर अध्यन करूँगा' यह विचार अब वर्षों के लिए टल गया। शोक सागर में डूब गया। किस प्रकार सिमरा जाऊँ? इस चिंता में पड़ गया।                     
    ? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?? आजकी तिथी- वैशाख शुक्ल११?
  3. Abhishek Jain
    ☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,
             जो मनुष्य अपनी कमियों को ईमानदारी से अनुभव करता है वह निश्चत ही उन कमियों को दूर करने में सक्षम होता हैं, संयम के संबंध में वर्णीजी के जीवन में यह बात आपको यहाँ और अनेकों जगह देखने मिलेगी।
            आजकी प्रस्तुती में हम देखेंगे बाई जी का गणेशप्रसाद को धर्म के संबंध में उदभोदन, यह हम सभी के लिए भी बहुत लाभकारी है।
           तीसरी बात ज्ञानार्जन के प्रति वर्णीजी की तीव्र लालसा देखने को मिलेगी जो उनकी विशेष होनहार का परिचायक है।
    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?
          *"धर्ममाता श्री चिरौंजाबाई जी"*
                           क्रमांक - १९
                   भाद्रमास था, संयम से दिन बिताने लगा, पर संयम क्या वस्तु है, यह नहीं जानता था। संयम जानकर भाद्रमास भरके लिये छहों रस छोड़ दिए थे। 
             रस छोड़ने का अभ्यास तो था नहीं, इससे महान कष्ट का सामना करना पड़ा। अन्न की खुराक कम हो गई और शरीर शक्तिहीन हो गया।
            व्रतों में बाईजी के यहाँ आने पर उन्होंने व्रत का पालन सम्यक प्रकार से कराया। और अंत में यह उपदेश दिया- 'तुम पहले ज्ञानार्जन करो, पश्चात व्रतों को पालना, शीघ्रता मत करो, जैन धर्म संसार से पार करने की नौका है, इसे पाकर प्रमादी ना होना, कोई भी काम करो समता से करो। जिस कार्य में आकुलता हो, उसे मत करो।'
           मैंने उनकी आज्ञा शिरोधार्य की और भाद्रमास के बीतने पर निवेदन किया कि 'मुझे जयपुर भेज दो।'
           बाईजी ने कहा- 'अभी जल्दी मत करो, भेज देंगे।'
          मैंने पुनः कहा- 'मैं तो जयपुर जानकर विद्याभ्यास करूँगा।'       बाईजी बोलीं- 'अच्छा बेटा, जो तुम्हारी इच्छा हो सो करो।'               
    ? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?? आजकी तिथी- वैशाख शुक्ल१०?
  4. Abhishek Jain
    ☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,
              धर्ममार्ग ही अपना लक्ष्य रखने वाले किसी व्यक्ति को किसी की ओर आगे बढ़ने को सम्बल मिले, किसी का सहारा मिले अथवा प्रोत्साहन मिले तो वह धर्मात्मा मोक्ष मार्ग में भी आगे बढ जाता है। मेरी दृष्टि में बाईजी द्वारा भी वर्णीजी को सम्बल मिला धर्म मार्ग में बढ़ने हेतु।
          बाईजी के वर्णीजी के प्रति इन शब्दों -  'बेटा ! तुम चिंता न करो, मैं तुम्हारा पुत्रवत पालन करूँगी। तुम निशल्य होकर धर्मध्यान करो।' को पढ़कर हम सभी यही सोचेंगे कि धर्मध्यान हेतु प्रबल उपादान शक्ति लिए वर्णीजी की आत्मा को आगे बढ़ने के लिए बाईजी एक आवश्यक निमित्त थी।
         आत्मकथा में आगे-२ रोचकता बढ़ती ही जाएगी।
    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?
          *"धर्ममाता श्री चिरौंजाबाई जी"*
                           क्रमांक - १८
                   उस समय वहाँ उस गाँव के प्रतिष्ठित व्यक्ति बसोरेलाल आदि बैठे हुए थे। वे मुझसे बोले - 'तुम चिंता न करो, हमारे यहाँ रहो और हम लोगों को दोनों समय पुराण सुनाओ। हम लोग आपको कोई कष्ट न होने देंगे।'
              वहाँ पर बाईजी भी बैठी थीं। सुनकर कुछ उदास हो गईं और बोलीं - 'बेटा ! घर पर चलो।' मैं उनके साथ घर चला गया। 
              घर पहुँच कर सांत्वना देते हुए उन्होंने कहा- 'बेटा ! चिंता मत करो, मैं तुम्हारा पुत्रवत पालन करूँगी। तुम निशल्य होकर धर्म साधन करो और दशलक्षण पर्व में यही आ जाओ; किसी के चक्कर में मत आओ। क्षुल्लक महराज स्वयं पढ़े नहीं हैं, तुम्हे वे क्या पढ़ाएंगे? यदि तुम्हे विद्याभ्यास करना ही इष्ट है, तो जयपुर चले जाना।'
              यह बात आज से ५० वर्ष पहले की है। उस समय इस प्रांत में कहीं भी विद्या का प्रचार न था। ऐसा सुनने में आता था जयपुर में बड़े-२ विद्धवान हैं। मैं बाईजी की सम्मति से संतुष्ट हो मध्यन्होंपरांत जतारा चला गया।                
    ? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?? आजकी तिथी- वैशाख शुक्ल ९?
  5. Abhishek Jain
    ☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,
              जैन कुल में जन्म लेने वाले श्रावक को धर्ममार्ग में स्थित होने के लिए विशेष पुरुषार्थ करना पढ़ता है जबकि अपने आत्मकल्याण की दृढ़ भावना रखने वाले गणेश प्रसाद का जन्म तो जैनेत्तर परिवार में हुआ था।
           आत्मकथा के प्रस्तुत प्रसंग पूज्य वर्णीजी के धर्ममार्ग में आगे बढ़ने के प्रारंभिक समय को चित्रित करते हैं। एक महापुरुष के जीवन का यह चित्रण धर्मानुराग रखने वाले सभी पाठकों को लाभप्रद होगा।
    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?
          *"धर्ममाता श्री चिरौंजाबाई जी"*
                           क्रमांक - १७
                    रात्रि को फिर शास्त्रसभा हुई, भायजी साहब ने शास्त्र प्रवचन किया, क्षुल्लक महराज भी प्रवचन में उपस्थित थे। उन्हें देख मेरी उनमें अत्यंत भक्ति हो गई। मैंने रात्रि उन्ही के सहवास में निकाली।
             प्रातःकाल नित्यकार्य से निवृत्त होकर श्री जिनमंदिर गया और वहाँ दर्शन, पूजन व स्वाध्याय करने के बाद क्षुल्लक महराज की वन्दना करके बहुत ही प्रसन्न चित्त से यांचा की।
                निवेदन किया- 'महराज ! ऐसा उपाय बताओ, जिससे मेरा कल्याण हो सके। मैं अनादिकाल से इस संसार बंधन में पड़ा हूँ। आप धन्य हैं, यह आपकी ही सामर्थ्य हैं जो इस पद को अंगीकार कर आत्महित में लगे हो। क्या कोई ऐसा उपाय है, जिससे मेरा हित हो।'
              क्षुल्लक महराज ने कहा- 'हमारे समागम में रहो और शास्त्र लिखकर आजीविका करो। साथ ही व्रत नियमों का पालन करते हुए आनंद से जीवन बिताओ। आत्महित होना दुर्लभ नहीं।'
           मैंने कहा- 'आपके साथ रहना इष्ट है, परंतु आपका यह आदेश कि शास्त्रों को लिखकर आजीविका करो मान्य नहीं। आजीविका का साधन तो मेरे लिए कोई कठिन नहीं, क्योंकि मैं अध्यापकी कर सकता हूँ। वर्तमान में यही आजीविका मेरी है भी। मैं आपके साथ रहकर धार्मिक तत्वों का परिचय प्राप्त करना चाहता था।
           यदि आप इस कार्य की अनुमति दें, तो मैं आपका शिष्य हो सकता हूँ। किन्तु जो कार्य आपने बताया है वह मुझे इष्ट नहीं। संसार में मनुष्य जन्म मिलना अति दुर्लभ हैं। आप जैसे महान पुरुषों के सहवास से आपकी सेवावृत्ति करते हुए जैसे क्षुद्र पुरुषों का भी कल्याण हो वही हमारी भावना है।'
           यह सुन पहले तो महराज अचरज में पड़ गए। बाद में उन्होंने कहा 'यदि तुमको मेरा कहना इष्ट नहीं, तो जो तुम्हारी इच्छा हो, सो करो।'                     
    ? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?? आजकी तिथी- वैशाख शुक्ल ८?
  6. Abhishek Jain
    ☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,
            बहुत मार्मिक है आत्मकथा की प्रस्तुती का आज का यह खंड। निश्चय ही यह पढ़कर आप विशिष्ट आनंद का अनुभव करेंगे।
            यहाँ आपको देखने मिलेगा गणेशप्रसाद की धार्मिक आस्था के प्रति दृढ़ता तथा चिरौंजाबाईजी का साधर्मी बालक के प्रति ममत्व, उनकी सरलता तथा विशाल हृदयता।
    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?
          *"धर्ममाता श्री चिरौंजाबाई जी"*
                           क्रमांक - १६
                                           मैं फिर भी नीची दृष्टि किये चुपचाप भोजन करता रहा। यह देख बाईजी से न रहा गया। उन्होंने भायजी व वर्णीजी से पूछा- 'क्या यह मौन से भोजन करता है? उन्होंने कहा - 'नहीं, यह आप से परिचित नहीं है। इसीसे इसकी ऐसी दशा हो रही है।'
          इस पर बाईजी ने कहा - 'बेटा सानंद भोजन करो, मैं तुम्हारी धर्ममाता हूँ, यह घर तुम्हारे लिए है, कोई चिंता न करो, मैं जब तक हूँ, तुम्हारी रक्षा करूँगा।'
           मैं संकोच में पड़ गया। किसी तरह भोजन करके बाईजी की स्वाध्याय शाला में चला गया। वहीं पर भायजी व वर्णीजी आ गए। भोजन करके बाईजी भी वहीं पर आ गईं।
             उन्होंने मेरा परिचय पूंछा। मैंने जो कुछ था, वह बाईजी से कह दिया। परिचय सुनकर प्रसन्न  हुईं। 
            और उन्होंने भायजी तथा वर्णीजी से कहा- 'इसे देखकर मुझे पुत्र जैसा स्नेह होता है- इसको देखते ही मेरे भाव हो गये हैं कि इसे पुत्रवत पालूँ।'
           बाईजी के ऐसे भाव जानकर भायजी ने कहा 'इसकी माँ और धर्मपत्नी दोनों हैं।'
         बाईजी ने कहा- 'उन दोनों को भी बुला लो, कोई चिंता की बात नहीं, मैं इन तीनों की रक्षा करूँगा।'
         भायजी साहब ने कहा- 'इसने अपनी माँ को एक पत्र डाला है। जिसमें लिखा है कि यदि जो तुम चार मास में जैनधर्म स्वीकार न करोगी तो मैं तुमसे संबंध छोड़ दूँगा।'
            यह सुन बाईजी ने भायजी को डाँटते हुए कहा- 'तुमने पत्र क्यों डालने दिया?' साथ ही मुझे भी डाँटा- 'बेटा ! ऐसा करना तुम्हें उचित नहीं।' इस संसार में कोई किसी का स्वामी नहीं, तुमको कौन सा अधिकार है जो उसके धर्म का परिवर्तन कराते हो।'
          मैंने कहा - 'गलती तो हुई। परंतु मैंने प्रतिज्ञा ले ली थी कि यदि वह जैनधर्म न मानेगी तो मैं उसका संबंध छोड़ दूँगा। बहुत तरह से बाईजी ने समझाया, परंतु यहाँ तो मूढ़ता थी, एक भी बात समझ न आई।'
             यदि दूसरा कोई होता, तो मेरे इस व्यवहार से रुष्ट हो जाता। फिर भी बाईजी शांत रहीं, और उन्होंने समझाते हुए कहा- 'अभी तुम धर्म का मर्म नहीं समझते हो, इसी से यह गलती करते हो, इसी।'
              मैं फिर भी जहाँ का तहाँ बना रहा। बाईजी के इस उपदेश का मेरे ऊपर कोई प्रभाव न पड़ा। अंत में बाईजी ने कहा- 'अविवेक का कार्य अंत में सुखवह नहीं होता।' अस्तु,
           सायंकाल को बाईजी ने दूसरी बार भोजन कराया, परंतु मैं अब तक बाईजी से संकोच करता था। यह देख बाईजी ने फिर समझाया- 'बेटा ! माँ से संकोच मत करो।'
    ? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?? आजकी तिथी- वैशाख शुक्ल ७?
    ☀बंधुओं,
            मुझे पूरा विश्वास है कि रुचिवान पाठक पूज्य वर्णीजी की आत्मकथा के प्रस्तुत अंशों को पढ़कर आनंद का अनुभव करते होंगे। आपको आगे और पढ़ने की इच्छा होती होगी।
             आप *मेरी जीवन गाथा* ग्रंथ को अवश्य पढ़ें। वर्णी जी की सम्पूर्ण की आत्मकथा रोचकता को लिए हुए है।
  7. Abhishek Jain
    ☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,
               आत्मकथा के आज के वर्णन से उन महत्वपूर्ण महिला का भी वर्णन प्रारम्भ हो रहा है जिनका जैनधर्म की पताका फहराने वाले गणेश प्रसाद जी वर्णी के धर्म-ध्यान में विशेष योगदान रहा है। वह महिला है वर्णीजी की धर्ममाता चिरौंजा बाईजी।
              जिनधर्म के सम्बर्धन में पूज्य वर्णीजी का बड़ा योगदान है तो वर्णीजी की धर्मसाधना में बाईजी का बहुत बड़ा सहयोग रहा है।
           बाई एक अत्यंत धार्मिक महिला थी। ऐसी विरली ही माँ होती हैं जो अपने पुत्र का पालन पोषण तो करती है साथ ही उसकी धर्म साधना में भी मार्गदर्शक बनती हैं।
            वर्णीजी के पूर्ण आत्मकथा को जानकर हम सभी यह निर्णय भी अवश्य करेंगे कि जिस प्रकार बाई जी के योगदान के माध्यम से गणेशप्रसाद ने जिनधर्म का महान संवर्धन किया अतः हमको भी धर्ममार्ग में आगे बढ़ रहे सधर्मी के धर्मध्यान में यथासंभव सहभागी बनना चाहिए।
    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?
          *"धर्ममाता श्री चिरौंजाबाई जी"*
                           क्रमांक - १५
                         एक दिन श्री भायजी व मोतीलाल वर्णीजी ने कहा - 'सिमरामें चिरौंजाबाई बहुत सज्जन और त्याग की मूर्ति हैं, उनके पास चलो।'
               मैंने कहा- 'आपकी आज्ञा शिरोधार्य है, परंतु मेरा उनसे परिचय नहीं है, उनके पास कैसे चलूँ?'
            तब उन्होंने कहा- 'वहाँ पर एक क्षुल्लक रहते हैं। उनके दर्शन के निमित्त चलो, अनायास बाईजी का भी परिचय हो जायेगा।'
           मैं दोनों महाशयों के साथ सिमरा गया। यह गाँव जतारा से चार मील पूर्व है। उस समय वहाँ दो जिनालय और जैनियों के बीस घर थे। वे सब सम्पन्न थे। जिनालयों का दर्शन कर चित्त बहुत प्रसन्न हुआ।
             एक मंदिर बाईजी के श्वसुर का बनवाया हुआ है। इसमें संगमरमर की वेदी और चार फुट की एक सुंदर मूर्ति है, जिसके दर्शन करने से बहुत आनंद आया।
             दर्शन करने के बाद शास्त्र पढ़ने का प्रसंग आया। भायजी ने मुझसे शास्त्र पढ़ने को कहा। मैं डर गया। मैंने कहा- 'मुझे तो ऐसा बोध नहीं जो सभा में शास्त्र पढ़ सकूँ। फिर क्षुल्लक महराज आदि अच्छे-अच्छे विज्ञ पुरुष विराजमान हैं। उनके सामने मेरी हिम्मत नहीं होती।'
                 परंतु भायजी साहब के आग्रह से शास्त्र गद्दी पर बैठ गया। देवयोग से शास्त्र पद्मपुराण था, इसलिए विशेष कठिनाई नहीं हुई। दस पत्र बाँच गया। शास्त्र सुनकर जनता प्रसन्न हुई, क्षुल्लक महराज भी प्रसन्न हुए।
          उस दिन भोजन भी बाईजी के घर था। बाईजी साहब हम हम तीनों को भोजन के लिए ले गई। चौकामें पहुँचने पर अपरिचित होने के कारण मैं भयभीत होने लगा, किन्तु अन्य दोनों जन चिरकाल से परिचित होने के कारण बाईजी से वार्तालाप करने लगे। परंतु मैं चुपचाप भोजन करने बैठ गया। यह देखकर बाई ने मुझसे स्नेह भरे शब्दों में कहा- 'भय की कोई बात नहीं सुख पूर्वक भोजन करो।'
          मैं फिर भी नीची दृष्टि किये चुपचाप भोजन करता रहा। यह देखकर बाईजी से न रहा गया। उन्होंने भायजी व वर्णीजी से पूंछा- 'क्या यह मौन से भोजन करता है?' उन्होंने कहा- 'नहीं यह आप से परिचित नहीं है। इसी से इसकी ऐसी दशा हो रही है।'
         इस पर बाईजी ने कहा- 'बेटा सानंद भोजन करो, मैं तुम्हारी धर्ममाता हूँ, यह घर तुम्हारे लिए है, कोई चिंता न करो, मैं जब तक हूँ तुम्हारी रक्षा करूँगी।'
    ? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?? आजकी तिथी- वैशाख शुक्ल ६?
  8. Abhishek Jain
    ☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,
                          किसी के जीवन में बिना किसी उपदेश अथवा प्रेरणा के जिनधर्म के प्रति ऐसी श्रद्धा कि जिनधर्म ही हमारा कल्याण सकता है यह बात पूज्य वर्णी के जीवन को देखकर भली प्रकार स्पष्ट होता है।
        आत्मकथा के पिछले वर्णन में हमने देखा कि वर्णीजी द्वारा अपनी धर्मपत्नी व माँ का जिनधर्म के आचरण हेतु परित्याग को देखकर भायजी के कहने पर उन्होंने अपनी माँ और पत्नी को अपने पास रहने हेतु बुलाया।
          वर्णीजी का अपनी माँ को पत्र उनकी दृढ़ जिनआस्था का स्पष्ट परिचायक है। उनकी धर्म के प्रति का आस्था का योग्य कारण भी स्पष्ट होता है।
             सभी पाठकों को यह अवश्य ही पढ़ना चाहिए।
    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?
        *"मार्गदर्शक कड़ोरेलालजी भायजी"*
                        क्रमांक - १४
                         भायजी का आदेश था कि 'पहले अपनी धर्मपत्नी और पूज्य माता को बुलाओ फिर सानंद धर्मध्यान करो।' मैंने उसे शिरोधार्य किया और एक पत्र उसी दिन अपनी माँ को डाल दिया। पत्र में लिखा था-
          'हे माँ ! मैं आपका बालक हूँ, बाल्यावस्था से ही बिना किसी के उपदेश तथा प्रेरणा के मेरा जैनधर्म में अनुराग है। बाल्यावस्था में ही मेरे ऐसे भाव होते थे कि हे भगवन ! मैं किस कुल में उत्पन्न हुआ हूँ? जहाँ न तो विवेक है और न कोई धर्म की ओर प्रवृत्ति ही है।'
             धर्म केवल पराश्रित ही है। जहाँ गाय की पूजा की जाती है, ब्राम्ह्यणो को भगवान के समान पूजा जाता है, भोजन करने में दिन रात का भेद नहीं किया जाता है।
            ऐसी दुर्दशा में रहकर मेरा कल्याण कैसे होगा? हे प्रभो ! मैं किसी जैनी का बालक क्यों नहीं हुआ? जहाँ पर छना पानी, रात्रि भोजन का त्याग, किसी अन्य धर्मी के हाथकी बनी हुई रोटी का न खाना, निरंतर जिनेन्द्र देव की पूजन करना, स्वाध्याय करना, रोज रात्रि को शास्त्रसभा का होना, जिसमें मुहल्ला भर की स्त्री-समाज और पुरुष समाज का आना, व्रत नियमों के पालने का उपदेश होना आदि धर्म के कार्य होते हैं। 
           यदि मै ऐसे कुल में जनमता तो मेरा भी कल्याण होता......! परंतु आपके भय से मैं नहीं कहता था। आपने मेरे पालन पोषण में कोई त्रुटि नहीं की। यह सब आपका मेरे ऊपर महाउपकार है।
           मैं ह्रदय से वृद्धावस्था में मैं आपकी सेवा करना चाहता हूँ, अतः आप अपनी बधु को लेकर यहाँ आ जावें। मैं यहाँ मदरसा में अध्यापक हूँ। मुझे छुट्टी नहीं मिलती अन्यथा मैं स्वयं आपको लेने के लिए आता।
           किन्तु आपके चरणों में मेरी एक प्रार्थना अब भी है। वह यह की आपने अब तक जिस धर्म में अपनी ६० वर्ष की आयु पूर्ण की, अब उसे बदलकर श्री जिनेनद्रदेव द्वारा प्रकाशित धर्म का आश्रय लीजिए, जिससे आपका जन्म सफल हो और आपकी चरण सेविका बहू का संस्कार भी उत्तम हो।
            आशा है, मेरी विनय से आपका ह्रदय द्रवीभूत हो जायेगा। यदि इस धर्म का अनुराग आपके ह्रदय में न होगा। तब न तो आपके साथ ही मेरा कोई सम्बन्ध रहेगा और न आपकी बहू के साथ ही। मैं चार मास तक आपके चरणों की प्रतीक्षा करूँगा।
             यद्यपि ऐसी प्रतिज्ञा न्याय के विरुद्ध है, क्योंकि किसी को यह अधिकार नहीं कि किसी का बलात्कारपूर्वक धर्म छुडावे, तो भी मैंने यह नियम कर लिया है कि जिसके जिनधर्म की श्रद्धा नहीं उसके हाथका भोजन नहीं करूँगा। अब आपकी कैसी इच्छा है, सो करें।'
            पत्र डालकर मैं निशल्य हो गया और भायजी तथा वर्णी मोतीलालजी के सहवास से धर्म-साधन में काल बिताने लगा। तब मर्यादा का भोजन, स्वाध्याय तथा सामायिक आदि कार्यों में सानंद काल जाता था।
    ? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?? आजकी तिथी- वैशाख शुक्ल ५?
  9. Abhishek Jain
    ☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,
              आत्मकथा प्रस्तुती में आज का खंड हमारी संवेदना को छूने वाला है। जिनधर्म पर श्रद्धा को आधार पर गणेश प्रसाद जी अपनी माँ तथा पत्नी का परित्याग हेतु तत्पर हो गए।
            श्रद्धा का प्रवाह तो था मगर उस समय विवेक का अभाव था जो उन्होंने अपने परिजनों से ऐसा व्यवहार किया। इस बात को वर्णी जी ने स्वयं स्पष्ट किया है।
                आत्मकथा के इन खंडों से गणेशप्रसादजी का जिनधर्म के प्रति दृढ़ श्रद्धान का परिचय अवश्य मिल रहा है।
    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?
        *"मार्गदर्शक कड़ोरेलालजी भायजी"*
                        क्रमांक - १२
                                   एक दिन हम सरोवर पर भ्रमण करने के लिए गए। वहाँ मैंने भायजी साहब से कहा- 'कुछ ऐसा उपाय बतलाइये, जिस कारण कर्म बंधन से मुक्त हो सकूँ।'
          उन्होंने कहा- 'उतावली करने से कर्मबंधन से छुटकारा न मिलेगा, शनैः-शनैः कुछ-कुछ अभ्यास करो, पश्चात जब तत्व ज्ञान हो जावे, तब रागादि निरवृत्ति के लिए व्रतों का पालन करना उचित है।'
             मैंने कहा- 'आपका कहना ठीक है परंतु मेरी स्त्री और माँ हैं, जो कि वैष्णव धर्म को पालने वाली हैं। मैंने बहुत कुछ उनसे आग्रह किया कि यदि आप जैनधर्म स्वीकार करें तो मैं आपके में रहूँगा, अन्यथा मेरा आपसे कोई संबंध नहीं।'
              माँ ने कहा- 'बेटा इतना कठोर वर्ताव करना अच्छा नहीं, मैंने तुम्हारे पीछे क्या क्या कष्ट सहे, यदि उनका दिग्दर्शन कराऊँ, तो तुम्हे रोना आ जाएगा।'
          परंतु मैंने एक न सुनी; क्योंकि मेरी श्रद्धा तो जैनधर्म की ओर गई थी। उस समय विवेक था ही नहीं, अतः माँ से यहाँ तक कह दिया- 'यदि तुम जैनधर्म अंगीकार न करोगी तो माँ ! मैं आपके हाथ का भोजन तक न करूँगा।' मेरी माँ सरल थीं, रह गईं और रोने लगीं।
             उनकी यह धारणा थी कि अभी छोकरा है, भले ही इस समय मुझसे उदास हो जाय, कुछ हानि नहीं, परंतु स्त्री का मोह न छोड़ सकेगा। उसके मोहवश झक मारकर घर रहेगा।
                परंतु मेरे ह्रदय में जैनधर्म का श्रद्धा होने से अज्ञानतावश ऐसी धारणा हो गई थी कि 'जितने जैनी होते हैं वे सब उत्तम प्रकृति के मनुष्य होते हैं। इसके सिवाय दूसरों से संबंध रखना अच्छा नहीं।'
             अतः माँ से कह दिया- 'अब न तो हम तुम्हारे पुत्र ही हैं और न तुम हमारी माता हो।' यही बात स्त्री से भी कह दी; जब ऐसे कठोर वचन मेरे मुख से निकले, तब मेरी माता और स्त्री अत्यंत दुखी होकर रोने लगीं, पर  मैं निष्ठुर होकर वहाँ से चला गया।
    ? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?? आजकी तिथी- वैशाख शुक्ल १?
  10. Abhishek Jain
    ☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,
               आज के उल्लेख से आपको वर्णी का धर्म मार्ग में आरोहण के प्रयासों का वृत्तांत जानने को मिलेगा। 
              वर्णीजी का सम्पूर्ण जीवन हम सभी के लिए प्रेरणास्पद है। वर्तमान में जो उल्लेख चल रहा है वह गणेश प्रसाद का वर्णन है, वर्णी उपाधि तो उनके साथ बाद में जुड़ी। हाँ इस प्रसंग में उल्लखित मोतीलाल जी वर्णी एक अन्य विद्धवान श्रावक थे।
    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?
        *"मार्गदर्शक कड़ोरेलालजी भायजी"*
                         क्रमांक - ११
                  हम लोगों में कड़ोरेलाल जी भायजी अच्छे तत्व ज्ञानी थे। उनका कहना था- 'किसी कार्य में शीघ्रता मत करो, पहले तत्वज्ञान का संपादन करो, पश्चात त्यागधर्म की ओर दृष्टि डालो।'
          परंतु हम तथा मोतीलाल जी वर्णी तो रंगरूट थे ही, अतः जो मन में आता, सो त्याग कर बैठते। वर्णी जी पूजन के बड़े रसिक थे। वे प्रतिदिन श्री जिनेन्द्रदेव की पूजन करने में अपना समय लगाते थे।
              मैं कुछ-कुछ स्वाध्याय करने लगा था और खाने-पीने के पदार्थों को छोड़ने में ही अपना धर्म समझने लगा था। चित तो संसार से भयभीत था ही।
             एक दिन हम लोग सरोवर पर भ्रमण करने के लिए गए। यहाँ मैंने भायजी साहब से कहा- 'कुछ ऐसा उपाय बतलाइये, जिस कारण कर्म बंधन से मुक्त हो सकूँ।'
             उन्होंने कहा- 'उतावली करने से कर्मबंधन से छुटकारा न मिलेगा, शनैः-शनैः कुछ-कुछ अभ्यास करो, पश्चात जब तत्व ज्ञान हो जावे, तब रागादि निरवृत्ति के लिए व्रतों का पालन करना उचित है।'
    ? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?? आजकी तिथी-वैशाख शु. पूर्णिमा?
  11. Abhishek Jain
    ☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,
           धर्मात्मा जीवों का पुरुषार्थ देखो, अजैन कुल में जन्म के उपरांत भी संघर्षों के साथ अपनी शुद्ध परिणति की दिशा में आगे बढ़ते गए। उनकी इस दृढ़ता से उनकी भवितव्यता का परिचय मिलता है। महापुरुषों में ऐसी असामान्य बातें देखने को मिलती हैं।
          आज के उल्लेख में आप देखेंगे की वर्णी जी ने शुद्ध आहार के जैन संस्कारस्वरूप अपनी जातिगत लोगों के मध्य भोजन करना अनुचित समझा भले ही उन्होंने जाति से निष्कासित होना स्वीकार किया।
    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?
        *"मार्गदर्शक कड़ोरेलालजी भायजी"*
                         क्रमांक - १०
                   दो मास के बाद द्विरागमन हो गया। मेरी स्त्री भी माँ के बहकावे में आ गई और कहने लगी- 'तुमने धर्म परिवर्तन कर बड़ी भूल की, अब फिर अपने सनातन धर्म में आ जाओ और सानंद जीवन बिताओ।'
            ये विचार सुनकर उससे प्रेम हट गया। मुझे आपत्ति सी जँचते लगी; परंतु उसे छोड़ने को असमर्थ था। थोड़े दिन बाद मैंने कारोटोरन गाँव की पाठशाला में अध्यापक की कर ली और वही उसे बुला लिया। दो माह आमोद-प्रमोद में अच्छी तरह निकल गए। इतने में मेरे चचेरे भाई लक्ष्मण का विवाह आ गया। उसमें वह गई, मेरी माँ भी गई, और मैं भी गया। 
           वहाँ पँक्ति भोजन में मुझसे भोजन करने के लिए आग्रह किया गया। मैंने काकाजी से कहा कि 'यहाँ तो अशुद्ध भोजन बना है। मैं पंक्ति भोजन में सम्मलित नहीं हो सकता।'
          इससे मेरी जाति वाले बहुत क्रोधित हो उठे, नाना आवाच्य शब्दों से मैं कोशा गया। उन्होंने कहा- 'ऐसा आदमी जाति-बहिष्कृत क्यों न किया जाए, जो हमारे साथ भोजन नहीं करता, किन्तु जैनियों के चौके में खा आता है।'
          मैंने उन सबसे हाथ जोड़कर कहा- कि 'आपकी बात स्वीकार है।' और दो दिन रहकर टीकमगढ़ चला आया। वहाँ आकर मैं श्रीराम मास्टर से मिला। उन्होंने मुझे जतारा स्कूल का अध्यापक बना लिया। यहाँ आने पर मेरा पं. मोतीलाल जी वर्णी, श्रीयुत कडोरेलाल भायजी तथा स्वरूपचंद बनपुरिया आदि से परिचय हो गया।
            इससे मेरी जैन धर्म में अधिक श्रद्धा बढ़ने लगी। दिन रात धर्म श्रवण में समय जाने लगा। संसार की असारता पर निरंतर परामर्श होता था। हम लोगों में कड़ोरेलाल भायजी अच्छे तत्वज्ञानी थे। उनका कहना था - 'किसी कार्य में शीघ्रता मत करो, पहले तत्वज्ञान का सम्पादन करो, पश्चात त्यागधर्म की ओर दृष्टि डालो। '
    ? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?? आजकी तिथी- वैशाख कृष्ण १३?
  12. Abhishek Jain
    ☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,
            आज के वर्णन में आप वर्णी जी के प्रारंभिक जीवन में पिता के देहांत के उपरांत का वर्णन है। यही से हम सभी वर्णी जी के संघर्ष का जीवन देखेंगे।
    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?
     *"जन्म और जैनत्व की ओर आकर्षण"*
                         क्रमांक - ९
                    मेरे पिता ही व्यापार करते थे, मैं तो बुद्धू था ही - कुछ नहीं जनता था। अतः पिता के मरने के बाद मेरी माँ बहुत व्यथित हुईं। इससे मैंने मदनपुर गाँव में मास्टरी कर ली।
           वहाँ चार मास रह कर नार्मल स्कूल में शिक्षा लेने के अर्थ आगरा चला गया, परंतु वहाँ दो मास ही रह सका। इसके बाद अपने मित्र ठाकुरदास के साथ जयपुर की तरफ चला गया।
          एक माह बाद इंदौर पहुँचा,   शिक्षा-विभाग में नौकरी कर ली। देहात में रहना पड़ा। वहाँ भी उपयोग की स्थिरता न हुई, अतः फिर देश चला आया।
    ? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?? आजकी तिथी- वैशाख कृष्ण १२?
  13. Abhishek Jain
    ☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,
          आत्मकथा के कुछ अंश की आजकी प्रस्तुती में पूज्य वर्णीजी को उनके पिता द्वारा अत्यंत लाभकारी उपदेश का वर्णन है। वर्णी जी के पिता ने उनके लिए यह उपदेश दिया था लेकिन यह हम सभी के लिए भी कल्याणकारी है।
           इसके अलावा भी उनके पिता तथा दादा की मृत्यु के क्षणों का वर्णन है।
    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?
     *"जन्म और जैनत्व की ओर आकर्षण"*
                         क्रमांक - ८
                     स्वर्गवास के समय उन्होंने मुझे यह उपदेश दिया कि -
          'बेटा, संसार मे कोई किसी का नहीं। यह श्रद्धान दृढ़ रखना। तथा मेरी एक बात और दृढ़ रीति से हृदयांगम कर लेना। वह यह कि मैंने णमोकार मंत्र के स्मरण से अपने को बड़ी बड़ी आपत्तियों से बचाया है। तुम निरंतर इसका स्मरण करना।
         जिस धर्म में यह मंत्र है उस धर्म की महिमा का वर्णन करना हमारे से तुच्छ ज्ञानियों द्वारा होना असंभव है। तुमको यदि संसार बंधन से मुक्त होना इष्ट है तो इस धर्म में दृढ़ श्रद्धान रखना और इसे जानने का प्रयास करना। बस हमारा यही कहना है।'
          जिस दिन उन्होंने यह उपदेश दिया था, उसी दिन सायंकाल को मेरे दादा, जिनकी आयु ११० वर्ष की थी, बड़े चिंतित हो उठे। अवसान के पहले जब पिताजी को देखने के लिए वैद्य आए, तब दादा ने उनसे पूछा- 'महराज ! हमारा बेटा कब तक अच्छा होगा?'
           वैद्य महोदय ने उत्तर दिया -'शीघ्र नीरोग हो जाएगा ?'
          यह सुनकर दादा ने कहा - 'मिथ्या क्यों कहते हो? वह तो प्रातःकाल तक ही जीवित रहेगा। दुख इस बात का है कि मेरी अपकीर्ति होगी- बुड्डा तो बैठा रहा, पर लड़का मर गया।'
             इतना कह कर वे सो गए। प्रातःकाल मैं दादा को जगाने गया, पर कौन जागे? दादा का स्वर्गवास हो हो चुका था। उनका दाह कर आए ही थे कि मेरे पिता का भी वियोग हो गया। हम सब रोने लगे, अनेक वेदनाएँ हुईं, पर अंत में संतोष कर बैठ गये।
    ? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?? आजकी तिथी- वैशाख कृष्ण ११?
  14. Abhishek Jain
    ☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,
          अद्भुत भावाभिव्यक्ति पूज्य वर्णीजी की श्री वीर प्रभु के चरणों में।
          मैं पूर्ण विश्वास के साथ कर सकता हूँ स्वाध्याय की रुचि रखने वाला हर एक श्रावक जो प्रस्तुत भावों को ध्यानपूर्वक पढ़ता है वह अद्भुत अभिव्यक्ति कहे बिना रहेगा ही नहीं।
           आत्मकथा प्रस्तुती का यह प्रारंभिक चरण ही है इतने में ही हम पूज्य वर्णीजी के भावों की गहराई से उनका परिचय पाने लगे हैं।
          उनकी आत्मकथा ऐसे ही तत्वपरक उत्कृष्ट भावों से भरी पढ़ी है। निश्चित ही वर्णीजी की आत्मकथा एक मानव कल्याणकारी ग्रंथ है।
    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?
              *"रेशन्दीगिरि व कुण्डलपुर"*
                         *क्रमांक - ३९*
            'जिस प्रकार कि भोक्तापन आत्मा का स्वभाव नहीं है। अज्ञान से ही यह आत्मा कर्ता बनता है। अतः अज्ञान के अभाव में अकर्ता ही है।'
            अज्ञानी जीव भक्ति को ही सर्वस्य मान तल्लीन हो जाते हैं, क्योंकि उससे आगे उन्हें कुछ सूझता ही नहीं। परंतु जब ज्ञानी जीव जब श्रेणी चढ़ने को समर्थ नहीं होता तब अन्यत्र- जो मोक्षमार्ग के पात्र नहीं उनमें, राग न हो इस भाव से तथा तीव्र रागज्वर के अपगमकी भावना से श्री अरिहंत देव की भक्ति करता है। श्री अरिहंत देव के गुणों में अनुराग होना यही तो भक्ति है।
           अरिहंत के गुण हैं- वीतरागता, सर्वज्ञता तथा मोक्षमार्ग का नेतापना। उनमें अनुराग होने से कौन सा विषय पुष्ट हुआ? यदि इन गुणों में प्रेम हुआ तो उन्हीं की प्राप्ति के अर्थ तो प्रयास है।
           सम्यकदर्शन होने के बाद चारित्र मोह का चाहे तीव्र उदय हो चाहे मंद उदय हो, उसकी जो प्रवृत्ति होती है उसमें कर्तव्य बुद्धि नहीं रहती। अतएव श्री दौलतरामजी ने एक भजन में लिखा है कि-
          'जे भव-हेतु अबुधिके तस करत बन्ध की छटा छटी'
         अभिप्राय के बिना जो क्रिया होती है वह बंध की जनक नहीं। यदि अभिप्राय के अभाव में भी क्रिया बन्धजनक होने लगे तब यथख्यातचारित्र होकर भी अबन्ध नहीं हो सकता, अतः यह सिद्ध हुआ कि कषाय के सद्भाव में ही क्रिया बन्ध की उत्पादक है।
           इसलिए प्रथम तो हमें अनात्मीय पदार्थों में जो आत्मीयता का अभिप्राय है और जिसके सद्भाव में हमारा ज्ञान तथा चारित्र मिथ्या हो रहा है उसे दूर करने का प्रयास करना चाहिए। तब विपरीत अभिप्राय के अभाव में आत्मा की जो अवस्था होती है वह रोग जाने के बाद रोगी के जो हल्कापन आता है तत्सदृश हो जाती है।
           अथवा भारपगमन के बाद जो दशा भारवाहीकी होती है वही मिथ्या अभिप्राय के जाने के बाद आत्मा की हो जाती है और उस समय उसके अनुमापक प्रशम, संवेग, अनुकम्पा आदि गुणों का विकास आत्मा में स्वयमेव हो जाता है।
            ? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?   ?आजकी तिथी- ज्येष्ठ शुक्ल१४?
  15. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
         आज के वर्णन में आपको वर्णीजी के जीवन की णमोकार महामंत्र के माहात्म्य की बहुत बड़ी घटना पढ़ने मिलेगी। ऐसी महिमा युक्त घटनाएँ सामान्यतः प्रथमानुयोग के ग्रंथों में पढ़ते थे जबकि यह घटना मात्र लगभग १५० पुरानी है।
           हम जैन होकर भी मंत्र के माहात्म्य में श्रद्धा नहीं रख पाते जबकि वर्णी जी के पिताजी के जीवन में जैन धर्म के प्रति श्रद्धा का आधार यही थी।
           कल हम वह वर्णीजी के पिता का अपने बेटे के लिए वह महत्वपूर्ण संदेश पढ़ेंगे, शायद ऐसा महत्वपूर्ण संदेश कोई जैन कुल में पिता, अंतिम समय में अपनी संतान को देता हो।
    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?

     *"जन्म और जैनत्व की ओर आकर्षण"*
                         क्रमांक - ७
         
               मेरे दो भाई थे, एक का विवाह हो गया था, दूसरा छोटा था। वे दोनों ही परलोक सिधार गए। मेरा विवाह अठारह वर्ष में हुआ था। 
            विवाह  होने के बाद ही पिताजी का स्वर्गवास हो गया था। उनकी जैनधर्म में ही दृढ़ श्रद्धा थी। इसका कारण णमोकार मंत्र था।
          वह एक बार दूसरे गाँव जा रहे थे, साथ में बैल पर दुकानदारी का सामान था। मार्ग में भयंकर वन पार करके जाना था।
          ठीक बीच में, जहाँ दो कोश गाँव इधर-उधर न था, शेर-शेरनी आ गए। बीस गज का फासला था, मेरे पिताजी के आँखों के सामने अँधेरा छा गया। उन्होंने मन में णमोकार मंत्र का स्मरण किया, दैवयोग से शेर-शेरनी मार्ग काटकर चले गए। यही उनकी जैनमत में दृढ़ श्रद्धा का कारण हुआ।

    ? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?
    ? आजकी तिथी- वैशाख कृष्ण १०?

    बंधुओं,
        पूज्य वर्णीजी की आत्मकथा हम सभी के लिए बहुत लाभकारी है। यहाँ तो आप छोटे-२ प्रसंगों को ही पढ़ पाते है। अच्छी तरह से पढ़ने के लिए *"मेरी जीवन गाथा"* ग्रंथ को अवश्य पढ़ें।
  16. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
           आज के प्रसंग में जैनेत्तर कुल में जन्में बालक गणेश प्रसाद के जिन धर्म के प्रति श्रद्धान को जानकर सोचेंगे इसे कहते है जिनधर्म की सच्ची श्रद्धा। यह तो शुरुबात है आगे वर्णी के पूरे जीवन में जिन धर्म के प्रति सच्ची व दृढ़ श्रद्धा देखने को मिलेगी।
           आज का प्रकरण भी बहुत रोचक है।

    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?

     *"जन्म और जैनत्व की ओर आकर्षण"*
                         क्रमांक - ६

               मेरे कुल में यज्ञोपवीत संस्कार होता था। १२ वर्ष की अवस्था में बुड़ेरा गाँव से मेरे कुल-पुरोहित आए, उन्होंने मेरा यज्ञोपवीत संस्कार कराया, मंत्र का उपदेश दिया। साथ में यह भी कहा कि यह मंत्र किसी को मत बताना, अन्यथा अपराधी होंगे।
           मैंने कहा - 'महराज ! आपके तो हजारों शिष्य हैं। आपको सबसे अधिक अपराधी होना चाहिए। आपने मुझे दीक्षा दी, यह ठीक नहीं किया, क्योंकि आप स्वयं सदोष हैं।'
          इस पर पुरोहित जी मुझ पर बहुत नाराज हुए। माँने भी बहुत तिरस्कार किया, यहाँ तक कहा कि ऐसे पुत्र से तो अपुत्रवती ही मैं अच्छी थी।
           मैंने कहा- 'माँजी ! आपका कहना सर्वथा उचित है, मैं अब इस धर्म में नहीं रहना चाहता। आज से मैं श्री जिनेन्द्रदेव को छोड़कर अन्य को न मानूँगा। मेरा पहले से यही भाव था। जैनधर्म ही मेरा कल्याण करेगा। बाल्यावस्था से ही मेरी रुचि इसी धर्म की ओर थी।'
       
    ? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?
     ? आजकी तिथी- वैशाख कृष्ण ९?
  17. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
             आज के उल्लेख मैं आप देखेंगे कि कितना गहरी श्रद्धा थी एक अजैन बालक में जिन धर्म के प्रति। अपनी जातिगत मान्यताओं के हटकर किसी अन्य धर्म के प्रति इतनी आस्था!
           कहते हैं पूत के गुण पालने में दिखते हैं। जिनधर्म के प्रति इतना श्रद्धान, इतनी आस्था को देखकर उस समय वर्णीजी के भविष्य को कोई कहने वाला हो ना हो लेकिन हम पाठक जरूर कह सकते हैं कि जिनधर्म के प्रति गहरी आस्था वाला वह बालक सामान्य नहीं था वह अवश्य ही ऐसे महान धर्म का मर्मज्ञ अवश्य बनेगा।
           अत्यंत ही रोचक है वर्णी जी का जीवन आप उनकी आत्मकथा को अवश्य पढ़ें तथा अन्य लोगों को भी इस हेतु प्रेरित करें।

    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?

     *"जन्म और जैनत्व की ओर आकर्षण"*
                         क्रमांक - ५

              एक दिन की बात है, मैं शाला के मंदिर मैं गया। उस दिन वहाँ प्रसाद में  पेड़ा बाँटे गये, मुझे भी मिलने लगे। तब मैंने कहा- "मैंने रात्रि भोजन त्याग दिया है।"
              यह सुन गुरुजी बहुत नाराज हुए। बोले, छोड़ने का क्या कारण है? मैंने कहा- "गुरु महराज ! मेरे घर के सामने जिनमंदिर है। वहाँ पर पुराण प्रवचन होता है। उसको सुन कर मेरी श्रद्धा उसी धर्म में हो गई है।
          पद्मपुराण में पुरुषोत्तम रामचंद्रजी का चरित्र चित्रण किया है। वही मुझे सत्य भासता है। रामायण में रावण को राक्षस और हनुमान को बंदर बतलाया है। इसमें मेरी श्रद्धा नहीं है।
             अब मैं इस मंदिर मे नहीं नहीं आऊँगा। आप मेरे विद्यागुरु हैं, मेरी श्रद्धा को अन्यथा करने का आग्रह न करें।"
         गुरुजी बहुत ही भद्र प्रकृति के थे, अतः वे मेरे श्रद्धान के साधक हो गए। एक दिन का जिकर है- मैं हुक्का भर रहा था। मैंने हुक्का भरते समय तम्बाकू तमाखू पीने के लिए चिलम को पकड़ा, हाथ जल गया। मैंने हुक्का जमीन पर पटक दिया और गुरुजी से कहा- 
         "महराज ! जिसमें इतना दुर्गन्धित पानी रहता है, उसे आप पीते हैं? मैंने तो उसे फोड़ दिया, अब जो करना हो, सो करो।"
          गुरुजी प्रसन्न होकर कहने लगे- "तुमने दस रुपये का हुक्का फोड़ दिया, अच्छा किया, अब न पियेंगे, एक बला टली।" मेरी प्रकृति बहुत भीरु थी, मैं डर गया, परंतु उन्होंने सांत्वना दी। 'कहा - भय की बात नहीं।'

    ? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?
    ? आजकी तिथी- वैशाख कृष्ण ८?
  18. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
              पूज्य वर्णी द्वारा वर्णित उनके जीवन की हर एक बात का वर्णन अत्यंत रोचकता तथा आनंद लिए हुए है। 
           आज के वर्णन में आप देखेंगे की अजैन कुल में जन्म होने के उपरांत भी जैन धर्म की पताका को सर्वत्र फहराने का श्रेय रखने वाले बालक गणेश प्रसाद के जीवन में जैनत्व के संस्कारों का बीजारोपण कैसे हुआ।
          उस भव्य आत्मा की उपादान शक्ति देखो जो रावण के व्रत के प्रसंग पर रात्रि भोजन त्याग का इतना बड़ा संकल्प ले लिया। यहाँ उस समय के लोगों के सहज स्वभाव तथा धार्मिकता का परिज्ञान होता है जो स्वाध्याय में किसी महापुरुष के व्रत ग्रहण आदि के प्रसंग पर स्वयं भी स्वाध्याय के मध्य में नियम ग्रहण करते थे।
    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?

     *"जन्म और जैनत्व की ओर आकर्षण"*
                         क्रमांक - ४

             मैंने ७ वर्ष की उम्र में विद्यारम्भ किया और १४ वर्ष की उम्र में मिडिल पास हो गया। चूंकि यहाँ पर यहीं तक शिक्षा थी, अतः आगे नहीं पढ़ सका।
         मेरे गुरु श्रीमान मूलचंद्रजी ब्राम्हण थे, जो बहुत ही सज्जन थे। उनके साथ मैं गाँव के बाहर श्री रामचंद्रजी के मंदिर में बाहर जाया करता था। वही रामायण का पाठ होता था। उसे मैं सानंद श्रवण करता था।
            किन्तु मेरे घर के सामने जिनालय था इसलिए वहाँ भी जाया करता था। इस मुहल्ले में जितने घर थे, सब जैनियों के थे, केवल एक घर बढ़ई का था।
          उन लोगों के सहवास से प्रायः हमारे पिताजी का आचरण जैनियों के सदृश हो गया था। रात्रिभोजन मेरे पिताजी नहीं करते थे।
            जब मैं १० वर्ष का था, तब की बात है। सामने मंदिरजी के चबूतरे पर प्रतिदिन पुराण का प्रवचन होता था। एक दिन त्याग का प्रकरण आया। इसमें रावण के परस्त्री-त्याग व्रत लेने का उल्लेख किया गया था। बहुत से भाइयों ने प्रतिज्ञा ली, मैंने उस दिन दिन आजन्म रात्रि भोजन त्याग दिया। उसी त्याग ने मुझे जैनी बना दिया।

    ? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?
      ? आजकी तिथी- वैशाख कृष्ण ७?
  19. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
            कल हमने देखा की पूज्य गणेश प्रसाद जी वर्णी का जन्म सवत १९३१ अर्थात सन् १८७४ में हसेरा नामक ग्राम में हुआ था। 
            वर्णीजी द्वारा वर्णित उनकी बाल्यावस्था के समय उस क्षेत्र में लोगों के आचार-विचार तथा जीवन शैली का वर्णन निश्चित ही हम पाठकों के ह्रदय को छूने वाली है। कितना सरल व सहज तथा आनन्दप्रद जीवन था उस समय के लोगों का।
          कल की प्रस्तुत सामग्री से एक महत्वपूर्ण बात हम सभी को जानने को मिली, उस समय लोग आपने हाथों से ही अपने खेतों में उगने वाले कपास से निर्मित वस्त्र पहनते थे। अतः उस समय त्वचा समबन्धी रोग नहीं हुआ करते थे। 
           जो पाठक इस जीवनी को रूची पूर्वक पढ़ रहे होंगे निश्चित ही उनका मन गौरवशाली अतीत के स्पर्श से आनंदित हुए बिना नहीं रह पाया होगा।
        कल आप पढ़ेंगे अजैन कुल में जन्में बालक गणेश प्रसाद में जैतत्व के संस्कारों का आरोपण।
           
    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?

     *"जन्म और जैनत्व की ओर आकर्षण"*
                         क्रमांक - ३
          
                 उस समय मनुष्य के शरीर सुदृढ़ और बलिष्ठ होते थे। वे अत्यंत सरल प्रकृति के होते थे। अनाचार नहीं के बराबर था।
            घर-२ गायें रहती थी। दूध और दही की नदियाँ बहती थी। देहात में दूध और दही की बिक्री नहीं होती थी। 
           तीर्थयात्रा सब पैदल करते थे। लोग प्रसन्नचित्त दिखाई देते थे। वर्षाकाल में लोग प्रायः घर ही रहते थे। वे इतने दिनों का सामान अपने घर में ही रख लेते थे। व्यापारी लोग बैल को लादना बंद कर देते थे। वह समय ही ऐसा था, जो इस समय सबको आश्चर्य में डाल देता है।
            बचपन में मुझे असाता के उदय से सुकीका रोग हो गया था। साथ ही लीवर आदि भी बढ गया था। फिर भी आयुष्कर्म के निषेको की प्रबलता के कारण इस संकट से मेरी रक्षा हो गयी थी।
               मेरी आयु जब ६ वर्ष की हुई, तब मेरे पिता मड़ाबरा आ गए थे। तब यहाँ मिडिल स्कूल था, डाक-खाना था और पुलिस थाना भी था। नगर अतिरमणीक था। वहाँ पर दस जिनालय और दिगम्बर जैनियों के १५० घर थे। प्रायः सब सम्पन्न थे।

    ? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?
      ? आजकी तिथी- वैशाख कृष्ण ६?
  20. Abhishek Jain
    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?

     *"जन्म और जैनत्व की ओर आकर्षण"*
                   प्रस्तुती क्रमांक -२
        
                 मेरा नाम गणेश वर्णी है। जन्म संवत् १९३१, कुवाँर वदि ४ को हसेरा ग्राम में हुआ था। यह जिला ललितपुर (झाँसी), तहसील महरोनी के अंतर्गत मदनपुर थाने में स्थित है।
          पिता का नाम श्री हीरालालजी माता का नाम उजियारी था। मेरी जाति असाटी थी। यह प्रायः बुंदेलखंड में पाई जाती है। इस जाति वाले वैष्णव धर्मानुयायी होते हैं।
         मेरे पिताजी की स्थिति सामान्य थी। वे साधारण दुकानदारी के द्वारा अपने कुटुम्ब का पालन करते थे। यह समय ही ऐसा था, जो आज की अपेक्षा बहुत ही अल्प द्रव्य में कुटुम्ब का भरण पोषण हो जाता था।
         उस समय एक रुपये में एक मनसे अधिक गेहूँ, तीन सेर घी, और आठ सेर तिल का तेल मिलता था। शेष वस्तुएँ इसी अनुपात में मिलती थीं।
           सब लोग कपढ़ा प्रायः घर के सूत के पहनते थे। सबके घर चरखा चलता था। खाने के लिए घी, दूध भरपूर मिलता था। जैसा कि आज कल देखा जाता है उस समय क्षय-रोगियों का सर्वथा अभाव था।

    ?एक आत्मकथा - मेरी जीवन गाथा?
    ? *आजकी तिथी- वैशाख कृष्ण ५*?
  21. Abhishek Jain
    ☀☀
    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
          आज से जैन संस्कृति के महान संवर्धक पूज्य गणेश प्रसादजी वर्णी की जीवनी को उनकी ही आत्मकथा के अनुसार प्रस्तुत करने जा रहा हूँ।
            पूज्य गणेश प्रसाद जी एक ऐसे महापुरुष थे जिन्होंने अजैन कुल में जन्म होने के बाद भी, अत्यंत संघर्ष पूर्ण जीवन के साथ ऐसे समय में जैन संस्कृति का संवर्धन किया जब देश जैन धर्म को जानने वाले विद्धवान बहुत ही कम थे। वर्तमान में इतनी आसानी बड़े-२ ग्रंथों का अध्यापन हेतु विद्धवान उपलब्ध है यह वर्णी जी का उपकार कहा जा सकता है।
            वर्णी जी का जीवनी हम सभी के लिए अत्यंत ही प्रेरणास्पद है। यह पढ़कर निश्चित ही सभी को अत्यंत हर्ष भी होगा।
            यह समस्त सामग्री मैं पूज्य गणेश प्रसाद जी वर्णी द्वारा लिखित उनकी आत्मकथा *मेरी जीवन गाथा* ग्रंथ से प्रस्तुत कर रहा हूँ। सामग्री की महत्वता के स्पष्टीकरण हेतु प्रारम्भ में कही कही मेरे अपने शब्द होंगे जो यथार्थ के समानार्थी ही होंगे।
            वर्णी जी की जीवनी हर श्रावक को पढ़ना क्यों आवश्यक इस बात के स्पष्टीकरण के लिए बहुत बड़े विद्धवान स्वर्गीय पंडित पन्नालाल जी द्वारा ग्रंथ में लिखी अपनी बात को सर्वप्रथम प्रस्तुत कर रहा हूँ।
     
    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?

                     *"अपनी बात"*

                     प्रस्तुती क्रमांक -१

                पाठकगण स्वयं पढ़कर देखेंगे कि "मेरी जीवन गाथा" पुस्तक कितनी कल्याण प्रद है। ये भी अनायास समझ सकेंगे कि एक साधारण पुरुष कितनी विपदाओं की आँच सहकर खरा सोना बन जाता है।
           इस पुस्तक को पढ़कर कहीं पाठकों के नेत्र आंसुओं से भर जावेंगे तो कहीं ह्रदय आनंद में उछलने लगेगा और कहीं वस्तु स्वरूप की तात्विक व्याख्या समझ करके शांतिसुधा का रसास्वादन करने लगेंगे।
           इसमें सिर्फ जीवन घटनाएँ नहीं हैं किन्तु अनेक तात्विक उपदेश भी हैं जिससे यह एक धर्मशास्त्र का ग्रंथ बन गया है।
           पूज्यश्री ने अपने जीवन से सम्बद्ध अनेकों व्यक्तियों का इसमें परिचय दिया है, जिससे यह आगे चलकर इतिहास का भी काम देगा, ऐसा मेरा विश्वास है।
        अंत में मेरी यही भावना है कि इसका ऐसे विशाल पैमाने पर प्रचार हो जिससे सभी इससे लाभान्वित हो सकें।
                                    तुच्छ 
                               पन्नालाल जैन
    ?एक आत्मकथा - मेरी जीवन गाथा?
    ? *आजकी तिथी - वैशाख कृष्ण ४*?
  22. Abhishek Jain
    ☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,
          पूज्य वर्णीजी श्री वीरप्रभु के चरणों में जो चिंतन कर रहे थे वह अंश यहाँ प्रस्तुत है। बहुत ही सुंदर तत्वपरक चिंतन है।
           निरंतर स्वाध्याय की रुचि रखने वाले पाठक पूज्य वर्णीजी के तत्वचिंतन से आनंदानुभूति कर रहे होंगे। अन्य पाठक भी श्रद्धा पूर्वक अवश्य पढ़ें क्योंकि जिनेन्द्र भगवान प्रणीत तत्वों की अभिव्यक्ति संसार के सर्वोत्कृष्ट आनंद का अनुभव कराने वाली होती है।
         अगली प्रस्तुती में भी इसी के शेष अंश का वर्णन रहेगा।
    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?
              *"रेशन्दीगिरि व कुण्डलपुर"*
                         *क्रमांक - ३९*
           मोहकर्म के उदय में यह जीव नाना प्रकार की कल्पनाएँ वर्तमान पर्याय की अपेक्षा तो सत है परंतु कर्मोदय के बिना उनका अस्तित्व नहीं, अतः असत हैं। 
           पुदगल द्रव्य की अचिन्त्य शक्ति है। यही कारण है कि वह अनंत ज्ञानादि गुणों को प्रगट नहीं होने देता और इसी से कार्तिकेय स्वामी ने स्वामि कर्तिकेयानुप्रेक्षा में लिखा है कि-
    "कापि अपुव्वा दिस्सइपुग्गलदव्यस्स एरिसी सत्ती।केवलणाणसहावो,विणासिदौ जाइ जीवस्य।।
           'अर्थात पुदगल द्रव्य में कोई अपूर्व शक्ति है जिससे की जीव का स्वभाव भूत केवलज्ञान भी तिरोहित हो रहा है।' यह बात असत्य नहीं। जब आत्मा मदिरापान करता है तब उसके ज्ञानादि गुण विकृत होते प्रत्यक्ष देखे जाते हैं। मदिरा पुदगल द्रव्य ही तो है। अस्तु,                यद्यपि जो आपके गुणों का अनुरागी है वह पुण्यबंध नहीं चाहता, क्योंकि पुन्यबंध संसार का ही कारण है, अतः ज्ञानी जीव, संसार का कारण जो भाव है उसे उपादेय नहीं मानता। चारित्र मोह के उदय में ज्ञानी जीव के रागादिक भाव होते हैं, परंतु उनमें क्रतत्वबुद्धि नहीं । तथाहि-
    'कर्तत्वं न स्वभावोस्य चितो वेदयितृत्ववत।अज्ञानादेव कर्तायं तदभावादकारकः।।'
            'जिस प्रकार कि भोक्तापन आत्मा का स्वभाव नहीं है। अज्ञान से ही यह आत्मा कर्ता बनता है। अतः अज्ञान के अभाव में अकर्ता ही है।'
            ? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?   ?आजकी तिथी- ज्येष्ठ शुक्ल१३?
  23. Abhishek Jain
    ☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,
          पूज्य वर्णीजी की श्री कुण्डलपुरजी की वंदना के समय वीर प्रभु के सम्मुख प्रार्थना के उल्लेख की प्रस्तुती चल रहीं है।
         आप देखेंगे कि वर्णीजी की प्रस्तुत प्रार्थना में कितने सरल तरीके से जिनेन्द्र प्रभु के दर्शन का विज्ञान प्रस्तुत हो रहा है। वर्णीजी के भावों व तत्व चिंतन को पढ़कर आपको लगेगा जैसे आपके अतःकरण की बहुत सारी जटिलताएँ समाप्त होती जा रही हैं।
    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?
              *"रेशन्दीगिरि व कुण्डलपुर"*
                         *क्रमांक - ३८*
           मोहकर्म के उदय में यह जीव नाना प्रकार की कल्पनाएँ वर्तमान पर्याय की अपेक्षा तो सत है परंतु कर्मोदय के बिना उनका अस्तित्व नहीं, अतः असत हैं। 
           पुदगल द्रव्य की अचिन्त्य शक्ति है। यही कारण है कि वह अनंत ज्ञानादि गुणों को प्रगट नहीं होने देता और इसी से कार्तिकेय स्वामी ने स्वामि कर्तिकेयानुप्रेक्षा में लिखा है कि-
    "कापि अपुव्वा दिस्सइपुग्गलदव्यस्स एरिसी सत्ती।केवलणाणसहावो,विणासिदौ जाइ जीवस्य।।
           'अर्थात पुदगल द्रव्य में कोई अपूर्व शक्ति है जिससे की जीव का स्वभाव भूत केवलज्ञान भी तिरोहित हो रहा है।' यह बात असत्य नहीं। जब आत्मा मदिरापान करता है तब उसके ज्ञानादि गुण विकृत होते प्रत्यक्ष देखे जाते हैं। मदिरा पुदगल द्रव्य ही तो है। अस्तु,                यद्यपि जो आपके गुणों का अनुरागी है वह पुण्यबंध नहीं चाहता, क्योंकि पुन्यबंध संसार का ही कारण है, अतः ज्ञानी जीव, संसार का कारण जो भाव है उसे उपादेय नहीं मानता। चारित्र मोह के उदय में ज्ञानी जीव के रागादिक भाव होते हैं, परंतु उनमें क्रतत्वबुद्धि नहीं । तथाहि-
    'कर्तत्वं न स्वभावोस्य चितो वेदयितृत्ववत।अज्ञानादेव कर्तायं तदभावादकारकः।।'
            'जिस प्रकार कि भोक्तापन आत्मा का स्वभाव नहीं है। अज्ञान से ही यह आत्मा कर्ता बनता है। अतः अज्ञान के अभाव में अकर्ता ही है।'
            ? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?   ?आजकी तिथी- ज्येष्ठ शुक्ल१२?
  24. Abhishek Jain
    ☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,
          पूज्य वर्णीजी की श्री कुण्डलपुरजी की वंदना के समय वीर प्रभु के सम्मुख प्रार्थना के उल्लेख की प्रस्तुती चल रहीं है।
         आप देखेंगे कि वर्णीजी की प्रस्तुत प्रार्थना में कितने सरल तरीके से जिनेन्द्र प्रभु के दर्शन का विज्ञान प्रस्तुत हो रहा है। वर्णीजी के भावों व तत्व चिंतन को पढ़कर आपको लगेगा जैसे आपके अतःकरण की बहुत सारी जटिलताएँ समाप्त होती जा रही हैं।
    ?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?
              *"रेशन्दीगिरि व कुण्डलपुर"*
                         *क्रमांक - ३७*
                   श्री भगवान उपेक्षक हैं, क्योंकि उनके राग द्वेष नहीं है। जब यह बात है तब विचारो, जिनके राग द्वेष नहीं उनकी अपने भक्त की भलाई करने की बुद्धि नहीं हो सकती। वह देवेन्द्र ही क्या?
           फिर प्रश्न हो सकता है कि उनकी भक्ति करने से क्या लाभ ? उनका उत्तर यह है कि जो मनुष्य छायादार वृक्ष के नीचे गया, उसको इस की आवश्यकता नहीं कि वृक्ष से याचना करे-हमें छाया दीजिए। 
          वह तो स्वयं ही वृक्ष के नीचे बैठने से छाया का लाभ ले रहा है। एवं जो रुचि पूर्वक भी अरिहंत देव के गुणों का स्मरण करता है उसके मंद कषाय होने से स्वयं शुभोपयोग होता है और उसके प्रभाव से स्वयं शांति का लाभ होने लगता है।
           ऐसा निमित्त नैमत्तिक संबंध बन रहा है। परंतु व्यवहार ऐसा होता है जो वृक्ष की छाया। वास्तव में छाया तो वृक्ष की नहीं, सूर्य की किरणों का वृक्ष के द्वारा रोध होने से वृक्ष तल में स्वयमेव छाया हो जाती है। एवं श्री भगवान के गुणों का रुचि पूर्वक स्मरण करने से स्वयमेव जीवों के शुभ परिणामों की उत्पत्ति होती है, फिर भी व्यवहार में ऐसा कथन होता है कि भगवान ने शुभ परिणाम कर दिए।
          भगवान को पतित पावन कहते हैं अर्थात जो पापियों का उद्धार करे वह पतित पावन है। यह कथन भी निमित्त कारण की अपेक्षा है। निमित्तकारणों में भी उदासीन निमित्त हैं प्रेरक नहीं, जैसे मछली गमन करे तो जल सहकारी कारण होता है। एवं जो जीव पतित है वह यदि शुभ परिणाम करे तो भगवान निमित्त हैं। यदि वह शुभ परिणाम न करे तो वह निमित्त नहीं।
          वस्तु की मार्यादा यही है परंतु से कथन शैली नाना प्रकार की है। 'यथा कुल दीपकोयं बालकः, 'माणवकः सिंहः'। विशेष कहाँ तक लिखें? आत्मा की अचिन्त्य शक्ति है। वह मोहकर्म के निमित्त से विकास को प्राप्त नहीं होती।
           मोहकर्म के उदय में यह जीव नाना प्रकार की कल्पनाएँ वर्तमान पर्याय की अपेक्षा तो सत है परंतु कर्मोदय के बिना उनका अस्तित्व नहीं, अतः असत हैं।         ? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?   ?आजकी तिथी- ज्येष्ठ शुक्ल१२
  25. Abhishek Jain
    ? अमृत माँ जिनवाणी से - ३३६  ?

           *उपवास तथा महराज के विचार*

              सन १९५८ के व्रतों में १०८ नेमिसागर महराज के लगभग दस हजार उपवास पूर्ण हुए थे और चौदह सौ बावन गणधर संबंधी उपवास करने की प्रतिज्ञा उन्होंने ली।
           महराज ! लगभग दस हजार उपवास करने रूप अनुपम तपः साधना करने से आपके विशुद्ध ह्रदय में भारत देश का भविष्य कैसा नजर आता है?
           देश अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुष्काल, अंनाभाव आदि के कष्टों का अनुभव कर रहा है।
             महराज नेमिसागर जी ने कहा- "जब भारत पराधीन था, उस समय की अपेक्षा स्वतंत्र भारत में जीववध, मांसाहार आदि तामसिक कार्य बड़े वेग से बढ़ रहे हैं। इनका ही दुष्परिणाम अनेक कष्टों का आविर्भाव तथा उनकी वृद्धि है।"

    ? *स्वाध्याय चा. चक्रवर्ती ग्रंथ का*?
        ?आजकी तिथी - वैशाख कृष्ण १?
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