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?शिखरजी में पंच कल्याणक का निश्चय - २७५


Abhishek Jain

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?   अमृत माँ जिनवाणी से - २७५   ?


  "शिखरजी में पंचकल्याणक का निश्चय"


              संघपति जवेरी बंधुओं को धन लाभ में धन के द्वारा मनोविकार आना चाहिए था, किन्तु आचार्यश्री के चरणों के सत्संग से उनकी आत्मा में स्वयं के भाव हुए कि इस द्रव्य को शिखरजी में जिनेन्द्र पंच कल्याणक महोत्सव रूप महापूजा में लगा देना अच्छा होगा।

            गुरुचरण प्रसाद से जो निधि आई है उसे उनके पुण्य चरणों के समीप ही श्रेष्ठ कार्य में लगा देना चाहिए, ऐसा पवित्र भाव उनके चित्त में उदित हुआ। ऐसा होना पूर्णतः स्वाभाविक है। सबका मुक्ति-स्थल सम्मेदाचल को पहुँचने का दृढ़ निश्चय है, मुक्ति के महान आराधक संतों के चरणों का सानिध्य है, अतः मुक्त हस्त से मुक्ता की कमाई को मुक्त भूमि में व्यय करना अच्छा प्रतीत हुआ। यह आश्चर्य की बात नहीं है? 

             भवितव्यता के समान बुद्धि होती है। संघपति को महान पुण्य के सिवाय अपार यश को भी कमाना है, इसलिए उस आय को धर्म का प्रसाद सोचकर इन्होंने शिखरजी में पंचकल्याणक महोत्सव में व्यय करने का पक्का संकल्प किया। 

          किन्तु परिस्थितियाँ अद्भुत थी। अभी दो माह में ये महराज के साथ शिखरजी पहुँच सकेंगे फिर महोत्सव की कैसे शीघ्र व्यवस्था हो सकेगी यह समस्या कठिन दिखती थी। लेकिन पुण्योदय से पुण्यात्माओं को सहज ही सभी अनुकूल वस्तुओं का सानिध्य प्राप्त होता है।


? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?

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