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Abhishek Jain

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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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Blog Entries posted by Abhishek Jain

  1. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - १२९  ?

                   "शिष्यों को सन्देश"
           
            स्वर्गयात्रा के पूर्व आचार्यश्री ने अपने प्रमुख शिष्यों को यह सन्देश भेजा था, कि हमारे जाने पर शोक मत करना और आर्तध्यान नहीं करना।
           आचार्य महाराज का यह अमर सन्देश हमे निर्वाण प्राप्ति के पूर्व तक का कर्तव्य-पथ बता गया है। उन्होंने समाज के लिए जो हितकारी बात कही थी वह प्रत्येक भव में काम की वस्तु है।
                    ?अनुमान?

                  पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के चरणों में बहुत समय व्यतीत करने के कारण तथा उनकी  सर्व प्रकार की चेष्टाओं का सूक्ष्म रीति से निरीक्षण करने के फलस्वरूप ऐसा मानना उचित प्रतीत होता है कि वे लौकांतिक देव हुए होंगे।
               वे अलौकिक पुरुषरत्न थे, यह उनकी जीवनी से ज्ञात होता है। माता के उदर में जब ये पुरुष आये थे तब सत्यवती माता के ह्रदय में १०८ सहस्त्रदल युक्त कमलों से जिनेन्द्र भगवान की वैभव सहित पूजन करने की मनोकामना उत्पन्न हुई थी।
             आज के जड़वाद तथा विषयलोलुपता के युग में उन्होंने जो रत्नत्रय धर्म की प्रभावना की है और वर्धमान भगवान के शासन को वर्धमान बनाया है उससे तो ये भावी जिनेश्वर के नंदन सदृश लगते रहे हैं। हमारी तो यही धारणा है कि लौकांतिक देवर्षि की अवधि पूर्ण होने के पश्चात् ये धर्मतीर्थंकर होंगे।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  2. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १३६    ?

                      "सुन्दर प्राश्चित"

                पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज का अनुभव और तत्व को देखने की दृष्टि निराली थी।
               एक बार महाराज बारामती में थे। वहाँ एक संपन्न महिला की बहुमूल्य नाथ खो गई। वह हजारों रूपये की थी। इससे बडो-२ पर शक हो रहा था। अंत में खोजने के बाद उसी महिला के पास वह आभूषण मिल गया।
             वह बात जब महाराज को ज्ञात हुई, तब महाराज ने उस महिला से कहा- "तुम्हे प्रायश्चित लेना चाहिए। तुमने दूसरों पर प्रमादवश दोषारोपण किया।"
     
    उसने पूंछा- "क्या प्रायश्चित लिया जाए?"
    महाराज ने कहा- "यहाँ स्थित जिन लोगों पर तुमने दोष की कल्पना की थी, उनको भोजन कराओ।"
       महाराज के कथनानुसार ही कार्य हुआ।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  3. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १३७    ?

                   "कुंथलगिरी पर्यूषण"

                  कुंथलगिरी में पूज्य आचार्य शान्तिसागर महाराज के चातुर्मास में पर्यूषण पर्व पर तारीख १२ सितम्बर सन् १९५३ से तारीख २६ सितम्बर सन् १९५३ तक रहने का पुण्य सौभाग्य मिला था। उस समय आचार्यश्री ने ८३ वर्ष की वय में पंचोपवास् मौन पूर्वक किए थे। इसके पूर्व भी दो बार पंचोपवास् हुए थे। करीब १८ दिन तक उनका मौन रहा था। भाद्रपद के माह भर दूध का भी त्याग था। पंचरस तो छोड़े चालीस वर्ष हो गए।

                     ?घोर तप?

       प्रश्न - "महाराज ! घोर तपश्या करने का क्या कारण है?"
    उत्तर - "हम समाधीमरण की तैयारी कर रहे हैं। सहसा आँख की ज्योति चली गई, तो हमे उसी समय समाधि की तैयारी करनी पड़ेगी। कारण, उस स्थिति में समीति नहीं बनेगी, अतः जीवरक्षा का कार्य नहीं बनेगा। हम तप उतना ही करते हैं, जितने में मन की शांति बनी रहे।"

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  4. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १३८    ?

                "निर्वाण-भूमि का प्रभाव"

    प्रश्न - "महाराज ! पाँच-२ उपवास करने से तो शरीर को कष्ट होता होगा?"
    उत्तर- "हमें यहाँ पाँच उपवास एक उपवास सरीखे लगते हैं। यह निर्वाण भूमि का प्रभाव है। निर्वाण-भूमि में तपस्या का कष्ट नहीं होता है। हम तो शक्ति देखकर ही तप करते हैं।"

                   ?मौन से लाभ?

    प्रश्न- "महाराज ! मौन व्रत से आपको क्या लाभ पहुँचता है?"
    उत्तर- "मौन करने से संसार से आधा सम्बन्ध छूट जाता है। सैकड़ों लोगों के मध्य घिरे रहने पर भी ऐसा लगता है, मानो हम अपनी कुटी में ही बैठे हों। उससे मन की शांति बहुत बड़ती है। मन आत्मा के ध्यान की ओर जाता है। वचनालाप में कुछ ना कुछ सत्य का अतिक्रमण भी होता ही है, मौन द्वारा सत्य का संरक्षण भी होता है। चित्तवृत्ति बाहरी पदार्थों की ओर नहीं दौड़ती है।"

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  5. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १३५    ?

                 "असाधारण व्यक्तित्व"

                 पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज का व्यक्तित्व असाधारण रहा है। सारा विश्व खोजने पर भी वे अलौकिक ही लगेंगे। ऐसी महान विभूति के अनुभवों के अनुसार प्रवृत्ति करने वालों को कभी भी कष्ट नहीं हो सकता।
            एक दिन महाराज ने कहा था- हम इंद्रियों का तो निग्रह कर चुके हैं। हमारा ४० वर्ष का अनुभव है। सभी इंद्रियाँ हमारे मन के आधीन हो गई हैं। वे हम पर हुक्म नहीं चलाती हैं।"
             उन्होंने कहा था- "अब प्राणी संयम अर्थात पूर्णरूप से जीवों की रक्षा पालन करना हमारे लिए कठिन हो गया है। कारण नेत्रों की ज्योति मंद हो रही है। अतः सल्लेखना की शरण लेनी पड़ेगी। हमें समाधी के लिए किसी को णमोकार तक सुनाने की जरुरत नहीं पड़ेगी।
    ?  स्वाध्याय चरित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  6. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १३९    ?
         
                     "दयापूर्ण दॄष्टि"

                    लोग पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज को आहार देने में गड़बड़ी किया करते थे, इस विषय में मैंने(लेखक ने) श्रावकों को समझाया कि जिस घर में महराज पड़गाहे जाए, वहाँ दूसरों को अनुज्ञा के नहीं जाना चाहिए, अन्यथा गड़बड़ी द्वारा दोष का संचय होता है। मै लोगों को समझा रहा था, उस प्रसंग पर आचार्यश्री की मार्मिक बात कही थी।
             महाराज बोले- "यदि हम गडबड़ी को बंद करना चाहें, तो एक दिन में सब ठीक हो सकता है। यदि एक घर के भोज्य पदार्थ का नियम ले लिया, तब क्या गडबड़ी होगी? लोगों का मन न  दुखे और हमारा कार्य हो जाए, हम ऐसा कार्य करते हैं।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  7. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १४०    ?

                     "वृद्धा की समाधि"
     
                कुंथलगिरी में सन् १९५३ के चातुर्मास में लोणंद के करीब ६० वर्ष वाली बाई ने १६ उपवास किए थे, किन्तु १५ वे दिन प्रभात में विशुद्ध धर्म-ध्यानपूर्वक उनका शरीरांत हो गया।
              उस वृद्धा के उपवास के बारे में एक बात ज्ञातव्य है। उसने पूज्य शान्तिसागरजी महाराज से १६ उपवास माँगे तब महराज ने कहा- "बाई ! तुम्हारी वृद्धावस्था है। ये उपवास नहीं बनेंगे। उसने आग्रह किया और कहा, महाराज ! मै प्राण दे दूँगी, प्रतिज्ञा भंग नहीं करुँगी। महाराज ने उपवास दे दिए। उस वृद्धा ने प्राण त्याग दिए, किन्तु व्रत भंग नहीं किया। हम स्वयं वहाँ थे। अद्भुत शांति, निर्मलतापूर्वक उसका समाधिमरण हुआ था।
             महराज ने उसके शोकाकुल कुटुम्बियों से कहा था- "हम निश्चय से कहते हैं, उस बाई ने देव पर्याय पाई। इतने उपवास से प्राप्त विशुद्धता और निर्वाण भूमि का योग सामान्य लाभ नहीं है। इसके विषय में तुम लोगों के शोक करने का क्या मतलब?" महाराज के थोड़े से प्रबोधपूर्ण शब्दों ने कुटुम्बियों का सारा दुःख धो दिया था।
    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  8. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १४१    ?

                  "दीनों के हितार्थ विचार"
         
             कुंथलगिरी में पर्युषण पर्व में पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने गरीबों के हितार्थ कहा था- "सरकार को प्रत्येक गरीब को जिसकी वार्षिक आमदनी १२० रूपये हो, पाँच एकड़ जमीन देनी चाहिए और उसे जीववध तथा मांस का सेवन न करने का नियम कराना चाहिए। इस उपाय से छोटे लोगों का उद्धार होगा।"
           महराज के ये शब्द बड़े मूल्यवान हैं- "शूद्रों के साथ जीमने से उद्धार नहीं होता। उनको पाप से ऊपर उठाने से आत्मा का उद्धार होता है। जब तक पाप-प्रवृत्तियों से जीव को दूर कर पुण्य की ओर उसका मन नहीं खींचा जाएगा, तब तक उसका कैसे उद्धार होगा?"

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  9. Abhishek Jain
    ☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,
                   प्रस्तुत प्रसंग उपवास के सम्बन्ध में श्रेष्टचर्या के धारक परम तपस्वी महान आचार्य निग्रंथराज पूज्य शान्तिसागरजी महाराज के श्रेष्ठ अनुभव को व्यक्त करता है।
               इस प्रसंग को पढ़कर, निरंतर अपने कल्याण की भावना से उपवास करने वाले श्रावकों को अत्यंत हर्ष होगा एवं रूचि पूर्वक पढ़ने वाले अन्य सभी श्रावकों के लिए उपवास के महत्व को समझने के साथ आत्मकल्याण हेतु दिशा प्राप्त होगी।
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १४३    ?

                   "महाराज का अनुभव"

    प्रश्न - "उपवास से क्या लाभ होता है? क्या उससे शरीर को त्रास नहीं होता है?"
    उत्तर - "आहार का त्याग करने से शरीर को कष्ट क्यों नहीं होगा? लंबे उपवासों के होने पर शरीर में स्थिलता आना स्वाभाविक बात है। फिर उपवास क्यों किया जाता है, यह पूंछो, तो उसका उत्तर यह होता है कि उपवास द्वारा मोह की मंदता होती है। उपवास करने से शरीर नहीं चलता।
           जब शरीर की सुधि नहीं रहती है, तो रुपया-पैसा, बाल-बच्चों की भी चिंता नहीं सताती है। उस समय मोह भाव मंद होता है, आत्मा की शक्ति जाग्रत होती है। अपने शरीर की चिंता छूटती है, तब दूसरों की क्या चिंता रहेगी?"
         इस विषय के स्पष्टीकरनार्थ महराज ने एक घटना बताई - "एक समय एक हौज में पानी भरा जा रहा था, एक बंदरिया अपने बच्चे को कंधे पर रखकर उस हौज में थी। जैसे-जैसे पानी बढ़ता जाता था, वह गर्दन तक पानी आने के पूर्व बच्चे को कंधे पर रखकर बचाती रही, किन्तु जब जल की मात्रा बड़ गई और स्वयं बदरिया डूबने लगी, तो उसने बच्चे को पैर के नीचे दबाया और उस पर खड़ी हो गई, जिससे वह स्वयं ना डूब पावे।
             इतना अधिक ममत्व स्वयं के जीवन पर होता है। उस शरीर के प्रति मोह भाव उपवास में छूटता है। यह क्या कम लाभ है।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  10. Abhishek Jain
    ☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,
             प्रस्तुत प्रसंग से पूज्यश्री के कथन से जीवन में निमित्त का महत्व बहुत आसानी से समझ में आता है।
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १४४    ?

              "निमित्त कारण का महत्व"
      
             पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने कहा था- "निमित्त कारण भी बलवान है। सूर्य का प्रकाश मोक्ष मार्ग में निमित्त है। यदि सूर्य का प्रकाश न हो तो मोक्षमार्ग ही न रहे। प्रकाश के अभाव में मुनियों का विहार-आहार आदि कैसे होंगे?"
              उन्होंने कहा- "कुम्भकार के बिना केवल मिट्टी से घट नहीं बनता। इसके पश्चात उसका अग्निपाक भी आवश्यक है।" जो निमित्त कारण को अकिंचित्कर मानते हैं, वे आगम और अनुभव तथा युक्तिविरुद्ध कथन करते हैं।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?
  11. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १४५    ?

                 "गृहस्थ जीवन पर चर्चा"

             अपने विषय में पूज्य शान्तिसागरजी महाराज ने कहा- "हम अपनी दुकान में ५ वर्ष बैठे। हम तो घर के स्वामी के बदले में बाहरी आदमी की तरह रहते थे।"

                 ?उदास परिणाम?

             उनके ये शब्द बड़े अलौकिक हैं- "जीवन में हमारे कभी भी आर्तध्यान, रौद्रध्यान नहीं हुए। घर में रहते हुए हम सदा उदास भाव में रहते थे। हानि-लाभ, इष्ट-वियोग, अनिष्ट-संयोग आदि के प्रसंग आने पर भी हमारे परिणामों में कभी भी क्लेश नहीं हुआ।"
         "हमने घर में ५ वर्ष पर्यन्त एकासन की और ५ वर्ष पर्यन्त धारणा-पारणा अर्थात एक उपवास, एक आहार करते रहे"।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  12. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १४२    ?

                     "शासन का दोष"

         वर्तमान देश के अनैतिक वार्तावरण पर चर्चा चलने पर पूज्य शान्तिसागरजी महाराज ने कहा था, "इस भ्रष्टाचार में मुख्य दोष प्रजा का नहीं है, शासन सत्ता का है। 
            गाँधीजी ने मनुष्य पर दया के द्वारा लोक में यश और सफलता प्राप्त की और जगत को चकित कर दिया। इससे तो धर्म गुण दिखाई देता है। यह दया यदि जीवमात्र पर हो जाये तो उसका मधुर फल अमर्यादित हो जायेगा। 
            आज तो सरकार जीवों के घात में लग रही है यह अमंगल रूप कार्य है, भगवान की वाणी "हिंसा-प्रसुतानि सर्वदुःखानि"-समस्त कष्टों का कारण हिंसात्मक जीवन है।
    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  13. Abhishek Jain
    ? कल जन्म व तप कल्याणक पर्व है ?

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,

                कल २ मई, दिन सोमवार, वैशाख कृष्ण दशमी की शुभ तिथी को २० वे तीर्थंकर देवादिदेव श्री १००८ मुनिसुव्रतनाथ भगवान का जन्म व तप कल्याणक पर्व है।

    ??
    कल मुनिसुव्रतनाथ भगवान की पूजन अत्यंत भक्ति करके भगवान का जन्म व तप कल्याणक पर्व मनाएँ।
    ??
    जो श्रावक पंच कल्याणक के व्रत करते हैं कल उनका व्रत का दिन है।

    ?तिथी - वैशाख कृष्ण दशमी।

    ?? आचार्यश्री विद्यासागर सेवासंघ ??
  14. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - १२५  ?

            "स्वर्गारोहण की रात्रि का वर्णन"
          
                      आचार्य महाराज का स्वर्गारोहण भादों सुदी दूज को सल्लेखना ग्रहण के ३६ वें दिन प्रभात में ६ बजकर ५० मिनिट पर हुआ था।
                     उस दिन वैधराज महाराज की कुटि में रात्रि भर रहे थे। उन्होंने महाराज के विषय में बताया था कि- "दो बजे रात को हमने जब महाराज की नाडी देखी, तो नाड़ी की गति बिगड़ी हुई अनियमित थी। तीन, चार ठोके के बाद रूकती थी, फिर चलती थी। हाथ-पैर ठन्डे हो रहे थे। रुधिर का संचार कम होता जा रहा था। चार बजे सबेरे श्वास कुछ जोर का चलने लगा, तब हमने कहा- "अब सावधानी की जरुरत है। अन्त अत्यंत समीप है।"
           सबेरे ६ बजे महाराज का संस्तर से उठाने का विचार क्षुल्लक सिद्धिसागर ने व्यक्त किया। महाराज ने शिर हिलाकर निषेध किया। उस समय वे सावधान थे। उस समय श्वास जोर-जोर से चलती थी। बीच में धीरे-२ रूककर फिर चलने लगती थी। उस समय महाराज के कर्ण में भट्टारक लक्ष्मीसेनजी 'ऊँ नमः सिद्धेभ्यः' तथा 'णमोकार मन्त्र' सुनाते थे।
              ६ बजकर ४० मिनिट पर मेरे कहने पर महाराज को बैठाया, पद्मासन लगवाया, कारण कि अब देर नहीं थी। अब श्वास मंद हो गई। ओष्ठ अतिमंद रूप से हिलते हुए सूचित होते थे मानो वे जाप कर रहे हों। एक दीर्ध श्वास आया और हमारा सौभाग्य सूर्य अस्त हो गया। उस समय उनके मुख से अंत में "ॐ सिद्धाय" शब्द ध्वनि में निकले थे।"
            वैद्यराज ने कहा- "हमारी धारणा है कि महाराज का प्रणोत्क्रमण नेत्रों द्वारा हुआ। मुख पर जीवित सदृश तेज रहा आया था।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  15. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ११५   ?

                   "शरीर के प्रति धारणा"

              अन्न के द्वारा जिस देह का पोषण होता है, वह अनात्मा (आत्मा रहित) रूप है। इस बात को सभी लोग जानते हैं। परंतु इस पर विश्वास नहीं है।
           पूज्य शान्तिसागरजी महाराज ने कहा था- "अनंत काला पासून जीव पुद्गल दोन्ही भिन्न आहे। हे सर्व जग जाणतो, परंतु विश्वास नहीं।"
           उनका यह कथन भी था तथा तदनुसार उनकी दृढ़ धारणा थी कि- "जीव का पक्ष लेने पर पुद्गल का घात होता है और पुद्गल का पक्ष लेने पर जीव का घात होता है।
             इसे वे मराठी में इस प्रकार कहते थे- "जीवाचा पक्ष घेतला तर पुद्गलाचा घात होतो, पुद्गलाचा पक्ष घेतला तर जीवाचा घात होतो।" इस कारण आहार त्याग करने की उनकी प्रवृत्ति हुई।

    ?२७ वां दिन - ९ सितम्बर १९५५?
               आज सल्लेखना का २७ वां व् जल ग्रहण नहीं करने का ५ वां दिन था। दोनों समय आचार्यश्री ने जनता को दर्शन देकर कृतकृत्य किया।
             मध्यान्ह में सिर्फ ७-८ मिनिट ही ठहरे और शुभाशीर्वाद देकर गुफा में चले गए।
            आज के दिन सूरत से जैनमित्र के संपादक श्री मूलचंद किसनचंदजी कपाड़िया भी दर्शनार्थ पधारे। जनता में आचार्यश्री का रिकार्डिंग भाषण सुनाया गया। विशेष बात यह हुई कि परम पूज्यश्री १०८ आचार्यश्री वीरसागरजी का आया हुआ पत्र आचार्यश्री को पढ़कर सुनाया गया।
    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  16. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ८६     ?
            
              "आचार्यश्री का श्रेष्ट विवेक"

                       देशभूषणजी महाराज ने आचार्यश्री शान्तिसागरजी के बारे में कहा- "आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने अपने जीवन की एक विशेष घटना हमें बताई थी-
                   एक ग्राम में एक गरीब श्रावक था। उसकी आहार देने की तीव्र इच्छा थी, किन्तु बहुत अधिक दरिद्र होने से उसका साहस आहार देने का नहीं होता था।
                   एक दिन वह गरीब पडगाहन के लिए खड़ा हो गया। उसके यहाँ आचार्यश्री की विधि का योग मिल गया। उसके घर में चार ज्वार की रोटी थी। उन्होंने सोचा कि यदि उसकी चारों रोटी हम ग्रहण कर लेते हैं, तो गरीब क्या खाएगा? इससे उन्होंने छोटी सी भाकरी, थोडा दाल, चावल मात्र लिया। आहार दान देकर गरीब श्रावक का ह्रदय अत्यंत प्रसन्न हो रहा था।
                  उसके भक्ति से परिपूर्ण आहार को लेकर वे आए सामायिक को बैठे। उस दिन सामायिक में बहुत लगा। बहुत देर तक सामायिक होती रही। शुध्द तथा पवित्र मन से दिए गए आहार का परिणामों पर बहुत प्रभाव पड़ता है। वे लोकोत्तर थे।"

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  17. Abhishek Jain
    ?     कल ज्ञान कल्याणक पर्व है      ?

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,

                कल १ मई, दिन रविवार, वैशाख कृष्ण नवमी की शुभ तिथी को २० वे तीर्थंकर देवादिदेव श्री १००८ मुनिसुव्रतनाथ भगवान का ज्ञान कल्याणक पर्व है।

    ??
    कल मुनिसुव्रतनाथ भगवान की पूजन अत्यंत भक्ति करके भगवान का ज्ञान कल्याणक पर्व मनाएँ।
    ??
    जो श्रावक पंच कल्याणक के व्रत करते हैं कल उनका व्रत का दिन है।

    ?तिथी - वैशाख कृष्ण नवमी।

    ?? आचार्यश्री विद्यासागर सेवासंघ ??
  18. Abhishek Jain
    ?          कल अष्टमी पर्व              ?

    जय जिनेन्द्र बंधुओ,

                  कल ३० अप्रैल, दिन शनिवार को अष्टमी पर्व है।

    ??
    कल जिनमंदिर जाकर देवदर्शन करें।
    ??
    जो श्रावक प्रतिदिन देवदर्शन करते है उनको अष्टमी/चतुर्दशी के दिन भगवान का अभिषेक और पूजन करना चाहिए।
    ??
    इस दिन रात्रि भोजन व् आलू-प्याज आदि जमीकंद का त्याग करना चाहिए।
    ??
    जो श्रावक अष्टमी/चतुर्दशी का व्रत करते है कल उनके व्रत का दिन है।
    ??
    इस दिन राग आदि भावो को कम करके ब्रम्हचर्य के साथ रहना चाहिए।


    इस दिन धर्म करने से विशेषरूप से अशुभ कर्मो का नाश होता है।

    अपकी संतान को लौकिक शिक्षा के समान ही धर्म की शिक्षा जरुरी है।अपने बच्चों को पाठशाला भेजें।क्योकि धार्मिक शिक्षा वर्तमान में उनको तनाव मुक्त जीवन व् शांति प्रदान करेगी ही साथ ही भविष्य में नरक,तिर्यन्च आदि अधोगतियों से बचायगी।

    ?तिथी - वैशाख कृष्ण अष्टमी।

    ?? आचार्यश्री विद्यासागर सेवासंघ ??

    इस तरह की सूचनाओं को आप भी अन्य श्रावकों को प्रेषित कर पुण्य के भागीदारी बन सकते हैं।
  19. Abhishek Jain
    २४ अप्रैल २०१६ दिन रविवार, वैशाख कृष्ण द्वितीया की शुभ तिथी को २३ वे तीर्थंकर देवादिदेव श्री १००८ पार्श्वनाथ भगवान का गर्भ कल्याणक पर्व है।
  20. Abhishek Jain
    ?     कल ज्ञान कल्याणक पर्व है      ?

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,

                कल २१ अप्रैल, दिन गुरुवार, चैत्र शुक्ल पूर्णिमा की शुभ तिथी को ६ वे तीर्थंकर देवादिदेव श्री १००८ पद्मप्रभ भगवान का ज्ञान कल्याणक पर्व है।

    ??
    कल पद्मप्रभ भगवान की पूजन अत्यंत भक्ति करके भगवान का ज्ञान कल्याणक पर्व मनाएँ।
    ??
    जो श्रावक पंच कल्याणक के व्रत करते हैं कल उनका व्रत का दिन है।

    ?तिथी - चैत्र शुक्ल पूर्णिमा।

    ?? आचार्यश्री विद्यासागर सेवासंघ ??
  21. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ७३     ?

      "पिपरौद के रास्ते में सर्पराज का आतंक"

                         आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने ससंघ बिलहरी से पिपरौद ग्राम की ओर प्रस्थान किया, तो एक यात्री ने कहा- "महाराज, रास्ते में एक भीषण सर्प है, वह जाने वालों का पीछा करता है, अतः वह रास्ता खतरनाक है।"
                       सब लोग चिंता में पड़ गए। लोग यही चाहते थे कि महाराज दूसरे रास्ते से चलने की आज्ञा दें। क्रुद्ध सर्प के रास्ते पर चलकर प्राणों के साथ खिलवाड़ करने से लोग डरते थे, किन्तु उन्होंने ऐसे महापुरुष के चरण पकडे थे, जो जीवन भर निर्भीक रहे हैं। अनेकों बार घंटों सर्पराज जिसने शरीर पर काफी उपद्रव करके परीक्षा ले चुके, किन्तु उन शांति के सागर में अशान्ति का लेश ना पाया गया। आचार्यश्री सामान्य श्रेणी के व्यक्ति नहीं थे।
             आचार्य महाराज ने कहा- "घबराओ मत।"
              और वे उसी रास्ते से आगे बढते चले। महाराज के पूण्य प्रताप से सर्पराज बाँस-बिडे में सो रहा था, इससे निष्कंटक रास्ता कट गया। जिनेन्द्र भगवान के वचनो पर श्रद्धा रखने वालों का संकट ऐंसे ही टल जाता है।
            मानतुंग आचार्य ने भी लिखा है:
                हे भगवन ! जिस पुरुष के ह्रदय में आपके नाम रूपी नाग-दमनी औषधि विधमान है, वह शंकारहित हो रक्त नेत्र वाले, समद कोयल के कंठ समान श्याम वर्ण वाला, क्रोधयुक्त, फण उठाकर आते हुए सर्पराज को अपने पैरों से लांघ जाता है।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  22. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी -  ७२     ?

              "राहुरी में जलप्रलय से रक्षा"

           बारामती के गुरुभक्त सेठ चंदूलाल सराफ ने एक घटना सुनाई।
                        महाराष्ट्र राज्य के प्रसिद्ध शहर अहमदनगर की तरफ महाराज का विहार हो रहा था। रास्ते में राहुरी स्टेशन मिलता है। संध्या हो चली थी। उस समय हम पास के ग्राम में रहना चाहते थे, किन्तु महाराज ने हम लोगो की प्रार्थना की परवाह नहीं की और वे दूर तक आगे बढ़ गये। लाचार होकर हमको भी उनकी सेवार्थ हमको भी वहाँ पहुँचना पड़ा।
               कुछ समय के पश्चात् उस ग्राम के पास ऐसी भीषण वर्षा हुई कि वहाँ कोई घर ना बचा। पूर में सब बह गये।
                उस सम्बन्ध में उन्होंने महाराज से पूंछा था, "महाराज ! ऐसे प्रसंग पर आप क्यों उस गाँव के आगे बढ़ गए? क्या आपको वर्षा का ज्ञान हो गया था ?"
                महाराज ने कहा, "ऐसे अवसर पर हमारी वहाँ रहने को नहीं बोलती थी। हमारी आत्मा जैसी बोलती है, वैसा हम करते हैं। किसी के कहने से कुछ नहीं करते हैं।"
                   ऐसी पवित्र आत्मा का शरण लेने वाले को कहाँ विपत्ति होती है?
    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  23. Abhishek Jain
    ?          कल चतुर्दशी पर्व           ?

    जय जिनेन्द्र बंधुओ,

                  कल २० अप्रैल, दिन बुधवार को चतुर्दशी पर्व है।

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    कल जिनमंदिर जाकर देवदर्शन करें।
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    जो श्रावक प्रतिदिन देवदर्शन करते है उनको अष्टमी/चतुर्दशी के दिन भगवान का अभिषेक और पूजन करना चाहिए।
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    इस दिन रात्रि भोजन व् आलू-प्याज आदि जमीकंद का त्याग करना चाहिए।
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    जो श्रावक अष्टमी/चतुर्दशी का व्रत करते है कल उनके व्रत का दिन है।
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    इस दिन राग आदि भावो को कम करके ब्रम्हचर्य के साथ रहना चाहिए।


    इस दिन धर्म करने से विशेषरूप से अशुभ कर्मो का नाश होता है।

    अपकी संतान को लौकिक शिक्षा के समान ही धर्म की शिक्षा जरुरी है।अपने बच्चों को पाठशाला भेजें।क्योकि धार्मिक शिक्षा वर्तमान में उनको तनाव मुक्त जीवन व् शांति प्रदान करेगी ही साथ ही भविष्य में नरक,तिर्यन्च आदि अधोगतियों से बचायगी।

    ?तिथी - चैत्र शुक्ल चतुर्दशी।

    ?? आचार्यश्री विद्यासागर सेवासंघ ??
  24. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - ४४    ?

                   "तृषा-परीषय जय"

                एक दिन की घटना है। ग्रीष्मकाल था। महाराज आहार को निकले। दातार ने भक्तिपूर्वक भोजन कराया, किन्तु वह जल देना भूल गया। दूसरे दिन गुरुवर पूर्ववत मौनपूर्वक आहार को निकले। उस दिन दातार ने महाराज को भोजन कराया, किन्तु अंतराय के विशेष उदय वश वह भी जल देने की आवश्यक बात को भूल गया। कुछ क्षण जल की प्रतीक्षा के पश्चात महाराज चुप बैठ गए। मुख शुद्धि मात्र की। जल नही पिया।
              चुपचाप वापिस आकर सामायिक मे निमग्न हो गए। पिपासा के कष्ट की क्या सीमा है? क्षणभर देर से यदि प्यासे को पानी मिलता है, तो आत्मा व्याकुल हो जाती है, यहाँ तो दो दिन हो गए, किन्तु वे उस परीषह को सहन कर रहे थे।
             तीसरा दिन आया, उस दिन भी दातार की बुद्धि जल देने की बात को विस्मरण कर गई। इस प्रकार आठ दिन बीत गए।
           नवें दिन महाराज के शरीर मे छाती पर बहुत से फोड़े उष्णता के कारण आ गए। शरीर के भीतर की स्थिति को कौन बतावे? शरीर की ऐसी परिस्थिती में भी में वे सागर की भाँति गंभीर रहे आए।
           दशवें दिन अंतराय कर्म का उदय कुछ मंद पड़ा। उस दिन दातार गृहस्थ ने महाराज को जल दिया। कारण अन्य आहार योग्य शरीर नहीं था। महाराज ने जल ही जल ग्रहण किया और बैठ गए।
             पश्चात गंभीर मुद्रा में उन सधुराज ने कहा था, "शरीर को पानी की जरूरत थी और तुम लोग दूध ही डालते थे। चलो ! अच्छा हुआ। कर्मो की निर्जरा हो गई।" साधुओ का मूल्य आकने वाले सोचें, ऐसी तपश्या कहाँ है? ऐसी स्थिति में भी वे अशांत ना हुए। शांति के सागर रहे।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?
  25. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ३१     ?

                "क्या जमाना खराब है?"

              एक दिन आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के सामने चर्चा चली कि आज का जमाना खराब है, शिथिलाचार का युग है।
           पुराना रंग ढंग बदल गया, अतः महाराज को भी अपना उपदेश नय ढंग से देना चाहिए।
             महाराज बोले- "कौन कहता है जमाना खराब है। तुम्हारी बुद्धि खराब है, जो तुम जमाने को खराब कहते हो। जमाना तो बराबर है|
              सूर्य पूर्व से उदित होता था, पश्चिम मे अस्त होता था, वही बात आज भी है।
              अग्नि उष्ण थी जो आज भी है। जल शीतल था, जो आज भी है।
             पुत्र की उत्पत्ति स्त्री से होती थी, आज भी वही बात है। गाय से बछड़ा पैदा होता था, यही नियम आज भी है।
             इन प्राकृतिक नियमो मे कोई अंतर नही पड़ा है, इससे अब जमाना बदल गया है कहना ठीक नही है।
              जमाना बराबर है। बुद्धि में भ्रष्टपना आ गया है। अतः उसे दूर करने को/स्वच्छ करने को, पापाचार के त्याग का उपदेश देना आवश्यक है।"

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
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