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Abhishek Jain

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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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Blog Entries posted by Abhishek Jain

  1. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से  २७     ?

    'क्लांत पुरुष को लादकर राजगिरी की वंदना'

             शिखरजी की वंदना जैसी घटना राजगिरी के पञ्च पहाड़ियों की यात्रा में हुई।
           वहाँ की वंदना बड़ी कठिन लगती है। कारण वहाँ का मार्ग पत्थरो के चुभने से पीढ़ाप्रद होता है।
          जैसे यात्री शिखरजी आदि की अनेक वंदना करते हुए भी नहीं थकता है, वैसी स्थिति राजगिर में नहीं होती है। यहाँ पांचों पर्वतों की वंदना एक दिन  में करने वाला अपने को धन्यवाद देता है।
            महाराज ने देखा कि एक पुरुष अत्याधिक थक गया है और उसके पैर आगे नहीं बड़ रहे हैं।
               उस पहाड़ी पर चढ़ते समय बलवान आदमी भी थकान तथा कठिनता का अनुभव करता है,किन्तु इन बली महात्मा ने उस पुरुष को पीठ पर रखकर वंदना करा दी।
              इससे बाह्य दृष्टि वाले इनके शारीरिक बल की महत्ता आंकते हैं, किन्तु हमे तो इनके अंतःकरण तथा आत्मा की अपूर्वता एवं विशालता का परिज्ञान होता है।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  2. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से -२६    ?

       "वृद्धा को पीठ पर लाद शिखरजी वंदना"

           गृहस्थ अवस्था में आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज जब शिखरजी गए उस समय का प्रसंग है।
           आचार्यश्री(गृहस्थ जीवन में) पर्वत पर चढ़ रहे थे। उनकी करुणा दृष्टि एक वृद्ध माता पर पडी, जो प्रयत्न करने पर भी आगे बढ़ने में असमर्थ हो गयी थी। थोडा चलती थी, किन्तु फिर ठहर जाती थी। पैसा इतना ना था कि पहले से ही डोली का प्रबंध करती।
          उस माता को देखकर इन महामना के ह्रदय में वात्सल्य भाव उत्पन्न हुआ।
         इन्होंने माता को आश्वासन देते हुए धैर्य बंधाया और अपनी पीठ पर उनको बैठकर पर्वतराज की कठिन वंदना कर दी।
           हमे तो लगता है कि उस पर्वतराज पर उस माता का भार ही इन्होंने नहीं उठाया, किन्तु आगामी मानवता का पवित्र भार उठाने की शक्ति की परीक्षा भी की थी।
           आज प्रतिष्ठा का रोगी निर्धन भी थोड़े से भार को उठाने में असमर्थ बन नौकर या वाहन खोजता है, किन्तु ये श्रीमंत भीमगोड़ा पाटिल के अनन्य स्नेह के पात्र आत्मज अपनी प्रतिष्ठा, एक जिन चरण भक्त निर्धन माता को पीठ पर लादकर पर्वत की वंदना करना मानते थे।
          ऐंसी ही घटना आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज के अंतःकरण की पवित्रता व् महानता का अनुमान होता है।

    ?  स्वाध्याय चरित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  3. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - २५     ?

                           "शेर"

           "कोन्नूर की गुफा में एक बार आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ध्यान कर रहे थे, तब शेर आ गया था।"
            मैंने पूंछा, "महाराज शेर के आने से भय का संचार तो हुआ होगा?"
         महाराज ने कहा, "नहीं कुछ देर बाद शेर वहाँ से चला गया ।"
       मैंने पूंछा, "महाराज निर्ग्रन्थ दीक्षा लेने के बाद कभी शेर आपके पास आया था?"
        महाराज ने कहा, "हम मुक्तागिरी के पर्वत पर रहते थे, वहाँ शेर आया करता था। श्रवणबेलगोला की यात्रा में भी शेर मिला था। सोनागिरी क्षेत्र पर भी वह आया था। इस तरह शेर आदि बहुत जगह आते रहे, "किन्तु इसमे महत्त्व की कौन सी बात है?"
          मैंने कहा, "महाराज ! साक्षात् यमराज की मूर्ति व्याघ्रराज के आने पर घबराहट होना साधारण सी बात है।"
          महाराज ने कहा, "डर किस बात का किया जाय? जीवन भर हमे कभी किसी वस्तु का डर नहीं लगा। जब तक कोई पूर्व भव का बैर ना हो अथवा उस जानवर को बाधा ना दो, तब तक वह नहीं सताता है।"
          महाराज ने बड़वानी जाते हुए सतपुड़ा के एक निर्जन वन की घटना बताई कि, "विहार करते समय उस निर्जन वन मे संध्या हो गयी। हम ध्यान करने को बैठ गए। साथ के श्रावक वहाँ डेरा लगाकर ठहर गए। उस समय जब शेर आया श्रावक घबरा गए। एक शेर तो हमारी कुटी के भीतर घुस गया था। "कुछ काल के पश्चात् वह बिना हानि पहुचाये जंगल में चला गया था।"

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  4. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - २४     ?

                       "त्याग भाव"

           एक दिन लेखक ने आचार्य शान्तिसागरजी महाराज से पूंछा, "महाराज आपके वैराग्य परिणाम कब से थे?"
            महाराज, "छोटी अवस्था से ही हमारे त्याग के भाव थे। १७ या १८ वर्ष की अवस्था में ही हमारे निर्ग्रन्थ दीक्षा लेने के परिणाम थे। जो पहले बड़े-बड़े मुनि हुए है, वे सब छोटी ही अवस्था में निर्ग्रन्थ बने थे।"
           मैंने पूछा, "फिर कौन सी बात थी, जो आप उस समय मुनि न बन सके?"
           महाराज, "हमारे पिता का हम पर बड़ा अनुराग था। पिताजी ने आग्रह किया कि जब तक हमारा जीवन है, तब तक तुम घर में ही रहकर धर्म साधन करो। तुम्हारे घर से बाहर चले जाने से हमे बड़ा संक्लेश होगा। 
             योग्य पुत्र का कार्य पिता को क्लेश उत्पन्न करने का नहीं है। अतः पिताजी के आग्रहवश हमे घर में ही रहना पड़ा। घर पर भी हम अत्यंत उदास रहते थे। हमारी भी किसी लौकिक कार्य में रूचि नहीं थी।"

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  5. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - २२     ?

                "जिन प्रभाव की महिमा"
        
               एक बार लेखक ने पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज से पूंछा - 
              महाराज जिनेन्द्र भगवान का नाम, भाव को बिना समझे भी जपने से क्या जीव के दुःख दूर होते हैं?यदि जिनेन्द्र गुण स्मरण से कष्टो का निवारण होता है, तो इसका क्या कारण है?

         आचार्य महाराज ने उत्तर दिया - 

             जिस प्रकार अग्नि के आने से नवनीत द्रवीभूत हो जाता है, उसी प्रकार वीतराग भगवान के नाम के प्रभाव से संकटो का समुदाय भी दूर होता है।जिनेन्द्र भगवान एक प्रकार से अग्नि हैं, क्योंकि उनके द्वारा कर्मो का दाह किया जाता है।
         इस प्रकार अज्ञानी प्राणी भी णमोकार मंत्र के जप द्वारा कल्याण को प्राप्त करता है।
                
                सुभग नाम के गोपाल ने 'णमोकार मंत्र' की जाप मात्र से  सुदर्शन सेठ के रूप में जन्म धारण कर मोक्ष प्राप्त किया। इस प्रकार वीतराग भगवान के नाम में भी अचिन्त्य व् अपार शक्ति है।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  6. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - २१    ?

                  "लोकोत्तर व्यक्तित्व"
           
             अक्टूबर सन १९५१ में बारामती के उद्यान में लेखक ने उनके छोटे भाई के साथ बड़ी विनय के साथ, आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज से उनकी कुछ जीवन गाथा जानने की प्रार्थना की, तब उत्तर मिला कि हम संसार के साधुओ में सबसे छोटे हैं, हमारा लास्ट नंबर है, उससे तुम क्या लाभ ले सकोगे? हमारे जीवन में कुछ भी महत्व की बात नहीं है।
        लेखक ने कहा महाराज आपका साधुओ में प्रथम स्थान है या अंतिम, यह बात देखने वाले ही जान सकते हैं।संसार जानता है कि आपका फर्स्ट नंबर है।
           लोग हमको क्या जानें ? हम अपने को जानते हैं कि तीन कम नव कोटि मुनियो में हमारा अंतिम नंबर है।
         लेखक ने कहा अच्छा ! आपकी दृष्टि में वे सब सधुगण हैं, तब आपके जीवन की बातें हम सबके लिए बड़ी कल्याणप्रद तथा बोधजनक होंगी।
           बड़े-२ ऋद्धिधारी मुनियो तथा महापुरुषो के जीवन चरित्र का पता नहीं है, तब हमारे चरित्र का क्या होगा ? तुम हमे सबसे छोटा समझो। इतना हमने कह दिया अधिक नहीं कहना है।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?
  7. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - २०    ?

       पंचमकाल में मुनियो की अल्प तपस्या्
                  
                   द्वारा महान निर्जरा

          जो व्यक्ति यह सोचता हो कि आज चतुर्थ कालीन मुनियो के समान कठोर तपस्वी जीवन व्यतीत करना अशक्य होने के कारण कर्मो की निर्जरा कम होती होगी, उसे आचार्य देवसेन के ये शब्द बड़े ध्यान पढ़ना चाहिए- 
             "पहले हजार वर्ष तप करने पर जितने कर्मो का नाश होता था आज हीन सहनन में एक वर्ष के तप द्वारा कर्मो का नाश होता है।" 
         इसका कारण यह है कि हीन सहनन में तपस्या करने के लिए अलौकिक मनोबल लगता है। आज शारीरिक स्थिति अदभुत है। यदि एक दिन आहार नहीं मिला तो लोगो का मुख कमल मुरझा जाता है। वज्रवृषभसंहनन धारी सहज ही अनेक उपवास और बड़े-२ कष्ट    सहन करने में होते थे। आज का अल्प संयत पुरातन कालीन बड़े संयम के समान आत्म दृढ़ता चाहता है। 
          जैसे एक करोड़पति किसी कार्य के लिए एक लाख रुपये दान करता है और दूसरा हजार पति नौ सौ रुपये उसी कार्य हेतु  देता है, उन दोनो दानियो में अल्प द्रव्य देने वाला दानी असाधारण महत्व धारण करता है।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?
  8. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १९    ?
        "महाराज के परिवार मे उच्च संस्कार"
           वर्ष १९५२ मे चरित्र चक्रवर्ती ग्रंथ के लेखक आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज के ग्राम मे उनके गृहस्त जीवन के बारे मे जानकारी प्राप्त करने हेतु गए।
          ११ सितम्बर को अष्टमी के  दिन उनको उस पवित्र घर मे भोजन मिला, जहाँ आचार्य महाराज रहा करते थे।
          उस दिन पंडितजी के लिए लवण आदि षटरस विहीन भोजन बना था।वह भोजन करने बैठे।पास मे महाराज के भाई का नाती भोजन कर रहा था।
          बालक भीम की थाली मे बिना नमक का भोजन आया, इसलिए उसने अपनी माता से कहा कि माता मुझे नमक चाहिए।
          पास में बैठी लगभग १० वर्ष की वय वाली बालिका बहन सुशीला बोल उठी कि भैया, जब तुम स्वामी (मुनि) बनोगे, तब तो बिना नमक का आहार लेना होगा, उस समय नमक कैसे मांगोगे?
          उस समय भाई-बहन की स्वाभाविक बातचीत सुनकर मेरी समझ में आया कि परिवार की पवित्रता का पुत्रादि के जीवन पर कैसा प्रभाव पड़ा करता है।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?
  9. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १८    ?

                      "शुभ दोहला"
           चरित्र चक्रवर्ती ग्रंथ के लेखक जब आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के बचपन की स्मृतियों के बारे में जानने हेतु उनके गृहस्थ जीवन के बड़े भाई मुनि श्री वर्धमान सागर जी महाराज के पास गए।
        उन्होंने पूंछा, "स्वामिन् संसार का उद्धार करने वाले महापुरुष जब माता पिता के गर्भ में आते हैं, तब शुभ- शगुन कुटुम्बियों आदि को देखते हैं। माता को भी मंगल स्वप्न आदि का दर्शन होता है। 
            आचार्य महाराज सदृश रत्नत्रय धारको की चूड़ामणि रूप महान विभूति का जन्म कोई साधारण घटना नहीं है। कुछ ना कुछ अपूर्व बात अवश्य हुई होगी?" 
           महापुराण में कहा है कि जब भरतेश्वर माता यशस्वती के गर्भ में आए थे, तब उस माता की इच्छा तलवार रूप दर्पण में मुख की शोभा देखते की होती थी।
        वर्धमान सागर जी ने कुछ काल तक चुप रहकर पश्चात बताया, "उनके गर्भ में आने पर माता को दोहला हुआ था कि एक सहस्त्र दल वाले एक सौ आठ कमलो से जिनेन्द्र भगवान की पूजन करूँ।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  10. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १७    ?

            "सर्पराज का शरीर पर लिपटना"

            आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज की तपस्चर्या अद्भुत थी। कोगनोली में लगभग आठ फुट लंबा स्थूलकाय सर्पराज उनके शरीर से दो घंटे पर्यन्त लिपटा रहा । वह सर्प भीषण होने के साथ ही वजनदार भी था । महाराज का शरीर अधिक बलशाली था, इससे वे उसके भारी भोज का धारण कर सके। 
                दो घंटे बाद में उनके पास पहुँचा । उस समय वे अत्यंत प्रसन्न मुद्रा में थे । किसी प्रकार की खेद, चिंता या मलिनता उनके मुख मंडल पर नहीं थी। उनकी स्थिरता सबको चकित करती थी।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  11. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - १६     ?
                  "असाधारण शक्ति"
         
           आचार्य शान्तिसागरजी महाराज का शरीर बाल्य-काल मे असाधारण शक्ति सम्पन्न रहा है। चावल के लगभग चार मन के बोरों को सहज ही वे उठा लेते थे। उनके समान कुश्ती खेलने वाला कोई नही था। उनका शरीर पत्थर की तरह कड़ा था।
          वे बैल को अलग कर स्वयं उसके स्थान में लगकर, अपने हांथो से कुँए से मोट द्वारा पानी खेच लेते थे। वे दोनो पैर को जोड़कर १२ हाथ लंबी जगह को लांघ जाते थे। उनके अपार बल के कारण जनता उन्हें बहुत चाहती थी। 
              वे बच्चों के साथ बाल क्रीड़ा नही करते थे। व्यर्थ की बात नही करते थे। किसी बात के पूंछने पर संक्षेप में उत्तर देते थे। वे लड़ाई झगड़े में नही पड़ते थे। बच्चों के समान गंदे खेलो में उनका तनिक भी अनुराग नही था। 
            वे लौकिक आमोद-प्रमोद से दूर रहते थे। धार्मिक उत्सवो में जाते थे।

    ? स्वाध्याय चरित्रचक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  12. Abhishek Jain
    ?       अमृत जिनवाणी से -१५       ?

                    "येलगुल मे जन्म"

             जैन संस्कृति के विकास तथा उन्नति के इतिहास पर दृष्टि डालने पर यह ज्ञात होता है कि विश्व को मोह अंधकार से दूर करने वाले तीर्थंकरो ने अपने जन्म द्वारा उत्तर भारत को पवित्र किया तथा निर्वाण द्वारा उसे ही तीर्थस्थल बनाया, किन्तु उनकी धर्ममयी देशना रूप अमृत को पीकर, वीतरागता के रस से भरे शास्त्रो का निर्माण करने वाले धुरंधर आचार्यो ने अपने जन्म से दक्षिण भारत की भूमि को श्रुत तीर्थ बनाया।
          उसी ज्ञानधारा से पुनीत दक्षिण भारत के बेलगाँव जिले को नररत्न आचार्य शान्तिसागर महाराज की जन्मभूमि बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
        भोजग्राम के समीप लगभग चार मील की दूरी पर विद्यमान ग्राम येलगुल में आषाढ़ कृष्णा ६ , विक्रम संवत १९२९, सन् १८७२ मे बुधवार की रात्रि को उनका जन्म हुआ था। 
               वह ग्राम भोजग्राम के अंतर्गत तथा समीप में था, इससे भोजभूमि ही जन्म स्थान है, ऐसी सर्वत प्रसिद्धि हुई।

    ? स्वाध्याय चारित्रचक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  13. Abhishek Jain
    ?      अमृत माँ जिनवाणी से - १४     ?

                    " लोकोत्तर वैराग्य "

           आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के ह्रदय मे अपूर्व वैराग्य था।
          एक समय मुनि वर्धमान स्वामी ने महाराज के पास अपनी प्रार्थना भिजवायी- "महाराज ! मैं तो बानबे वर्ष से अधिक का हो गया। आपके दर्शनों की बड़ी इच्छा है। क्या करूँ ? "
         इस पर महाराज ने कहा- "हमारा वर्धमान सागर का क्या संबंध ? ग्रहस्थावस्था मे हमारा बड़ा भाई रहा है सो इसमें क्या ? हम तो सब कुछ त्याग कर चुके हैं। 
          पंच प्रवर्तन रूप संसार मे हम अनादिकाल से घूमे हैं। इसमें सभी जीव हमारे भाई बंधु रह चुके हैं। ऐसी स्थिति मे किस-२ को भाई,  बहिन, माता , पिता मानना। 
     
           हमको तो सभी जीव समान हैं। हम किसी मे भी भेद नहीं देखते हैं। ऐसी स्थिति मे वर्धमान सागर बार-बार हमे क्यो दर्शन के लिए कहते हैं।"
     
          उस व्यक्ति ने बुद्धिमत्ता पूर्वक कहा- "महाराज ! वे आपके दर्शन अपने भाई के रूप मे नहीं करना चाहते हैं। आपने उन्हें दीक्षा दी है, अतः वे अपने गुरु का दर्शन करना चाहते हैं।"
        महाराज बोले- "यदि ऐसी बात है, तो वहाँ से ही स्मरण कर लिया करें। यहाँ आने की जरूरत क्या है?"
          कितनी मोहरहित, वीतरागपूर्वक परणति आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज की थी। विचारवान व्यक्ति आश्चर्य मे पड़े बिना न रहेगा। 
            जहाँ अन्य त्यागी लौकिक संबंधो और पूर्व सम्पर्को का विचार कर मोही बन जाते हैं। वहाँ आचार्यश्री अपने सगे ज्येष्ठ भाई के प्रति भी आदर्श वीतरागता का रक्षण करते रहे।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?
  14. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १२    ?
    "बाहुबलीस्वामी के विषय मे आलौकिक दृष्टी"
         जब हमने आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज से पुछा- "महाराज गोमटेश्वर की मूर्ति का आपने दर्शन किया है उस सम्बन्ध मे आपके अंतरंग मे उत्पन्न उज्ज्वल भावो को जानने की बड़ी इच्छा है।"
        उस समय महाराज ने उत्तर दिया था उसे सुनकर हम चकित हो गये। 
     
               उन्होंने कहा था- "बाहुबली स्वामी की मूर्ति बड़ी है। यह जिनबिम्ब हमे अन्य मूर्तियो के समान ही लगी। हम तो जिनेन्द्र के गुणों का चिंतवन करते हैं, इसीलिए बड़ी मूर्ति और छोटी मूर्ति मे क्या भेद है?" 
          इससे आचार्य महाराज की मार्मिक दृष्टि का स्पष्ट बोध होता है। प्रत्येक बात मे आचार्य महाराज की लोकोत्तरता मिलती है।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?
  15. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - ११     ?

                        "आत्मबल"

                    आत्मबल जागृत होने पर बड़े-२ उपवास आदि तप सरल दिखते हैं।
         बारहवे उपवास के दिन लगभग आधा मील चलकर मंदिर से आते हुए आचार्य शान्तिसागर महाराज के शिष्य पूज्य नेमिसागर मुनिराज ने कहा था- "पंडितजी ! आत्मा में अनंत शक्ति है।अभी हम दस मील पैदल चल सकते हैं।"
         मैंने कहा था- "महाराज, आज आपके बारह उपवास हो गए हैं।" वे बोले, "जो हो गए, उनको हम नहीं देखते हैं।इस समय हमें ऐंसा लगता है, कि अब केवल पाँच उपवास करना हैं।"
        मैंने उपवास के सत्रहवें दिन पूंछा कि- "महाराज ! अब आपके पुण्योदय से सत्रहवाँ उपवास का दिन है तथा आप में पूर्ण स्थिरता है। प्रमाद नहीं है, देखने में ऐंसा लगता है मानो तीन चार उपवास किए हों।"
           वे बोले- "इसमे क्या बड़ी बात है, हमे ऐंसा लगता है कि अब हमे केवल एक ही उपवास करना है।" उन्होंने यह भी कहा था- "भोजन करना आत्मा का स्वाभाव नहीं है।नरक में अन्य पानी कुछ भी नहीं मिलता है।सागरो पर्यन्त जीव अन्न-जल नहीं पाता है,तब हमारे इस थोड़े से उपवास की क्या बड़ी चिंता है?"
          उस समय उनके समीप बैठने में ऐंसा लगता था, मानो हम चतुर्थकालीन ऋषिराज के पाद पद्मो में पास बैठे हों।
       अठारहवें दिन संघपति गेंदनमलजी, दादिमचंदजी, मोतीलालजी जवेरी बम्बई वालों के यहाँ वे खड़ें-खड़ें करपात्र में यथाविधि आहार ले रहे थे। उस दिन पेय वस्तु का विशेष भोजन हुआ था।गले की नली शुष्क हो गई थी, अतः एक-एक घूँट को बहुत धीरे-धीरे वे निगल रहे थे।
          उस समय प्रत्येक दर्शक के अंतःकरण में यही बात आ रही थी कि इस पंचमकाल में हीन सहनन होते हुए भी वे मुनिराज चतुर्थकालीन पक्षाधिक उपवास करने वाले महान तपस्वीओ के समान नयन गोचर हो रहे हैं।
          गुरु-भक्त नेमिसागर महाराज ने कहा- "उपवास शांति से हो गये, इसमें शान्तिसागर महाराज का पवित्र आशीर्वाद ही था"

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  16. Abhishek Jain
    ?      अमृत माँ जिनवाणी से - ९      ?

                       सामयिक बात

         आचार्य शान्तिसागरजी महाराज सामयिक बात करने में अत्यंत प्रवीण थे।
            एक दिन की बात है, शिरोड के बकील महाराज के पास आकर कहने लगे - 
    "महाराज, हमे आत्मा दिखती है।  अब और क्या करना चाहिए?"
            कोई तार्किक होता, तो बकील साहब के आत्मदर्शन के विषय में विविध प्रश्नो के द्वारा उनके कृत्रिम आत्मबोध की कलई खोलकर उनका उपहास करने का उद्योग करता, किन्तु यहॉ संतराज आचार्य महाराज के मन में उन भले बकील साहब के प्रति दया का भाव उत्पन्न हुआ।
           उन्होंने कहा- " अब तुम्हे माँस,मदिरा आदि छोड़ देना चाहिए: इससे आत्मा का अच्छी तरह दर्शन होगा।" 
            अपनी बात को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा था- "पाप का त्याग करने से यह जीव देवगति में तीर्थंकर की अकृतिम मूर्तिदर्शन आदि द्वारा सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा और तब यथार्थ में आत्मा का दर्शन होगा।"

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  17. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - ७    ?

           "शहद भक्षण में क्या दोष है"

          एक दिन मैंने आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज से पूंछा, "महाराज, आजकल लोग मधु खाने की ओर उद्यत हो रहे हैं क्योंकि उनका कथन है, क़ि अहिंसात्मक पद्धति से जो तैयार होता है, उसमे दोष नहीं हैं।"
       महाराज ने कहा, "आगम में मधु को अगणित त्रस जीवो का पिंड कहा है, अतः उसके सेवन में महान पाप है।
       मैंने कहा, "महाराज सन् १९३४ को मै बर्धा आश्रम में गाँधी जी से मिला था।उस समय वे करीब पाव भर शहद खाया करते थे।मैंने गाँधी जी से कहा था कि आप अहिंसा के बारे में महावीर भगवान के उपदेश को श्रेय देते हैं, उन्होंने अहिंसा के प्राथमिक आराधकों के लिए मांस, मद्य के साथ मधु को त्याज्य बताया है, अतः आप जैसे लब्धप्रतिष्ठित अहिंसा के भक्त यदि शहद सेवन करेंगे, तो आपके अनुयायी इस विषय में आपके अनुसार प्रव्रत्ति करेंगे।"
       इस पर गांधीजी ने कहा था, "पुराने ज़माने में मधु निकालने की नवीन पद्धति का पता नहीं था, आज की पध्दति से निकाले गए मधु में कोई दोष नहीं दिखता है"|
        इस चर्चा को सुनकर आचार्य महाराज बोले, "मख्खी अनेक पुष्पो के भीतर के छोटे-२ कीड़ो को और उनके रस को खा जाती है।खाने के बाद वह आवश्यकता से अधिक रस को वमन कर देती है।नीच गोत्री विकलत्रय जीव का वमन खाना योग्य नहीं है।वमन में जीव रहते हैं।वमन खाना जैनधर्म के मार्ग के बाहर की बात है।थूक का खाना अनुचित कार्य है।" महाराज ने यह भी कहा था, "जो बात केवली के ज्ञान में झलकती है, वह साइंस में नहीं आती।साइंस में इन्द्रियगोचर स्थूल पदार्थो का वर्णन पाया जाता है।"

    ?स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का?
  18. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ६     ?
                   "अपूर्व दयालुता"          

                  भोज ग्राम में गणु जयोति दमाले नामक एक मराठा किसान ८० वर्ष की अवस्था का था।वह एक ब्राम्हण के खेत में मजदूरी करता रहा था।उस बृद्ध मराठा को जब यह समाचार पहुँचा कि महाराज के जीवन के सम्बन्ध में परिचय पाने को कोई व्यक्ति बाहर से आया है, तो वह महाराज का भक्त मध्यान्ह में दो मील की दूरी से भूखा ही समाचार देने को हमारे पास आया| उस कृषक से इस प्रकार की महत्त्व की सामग्री ज्ञात हुई:
               उसने बताया, "हम जिस खेत में काम करते थे उसे लगा हुआ हमारा खेत था।उनकी बोली बड़ी प्यारी लगती थी।मैं गरीब हूँ और वे श्रीमान हैं, इस प्रकार का अहंकार उनमे नहीं था।
          हमारे खेत में अनाज को खाने को सैकड़ो पक्षी आ जाते थे, मैं उनको उडाता था, तो वे उनके खेत में बैठ जाते थे।वे उन पक्षीयो को उड़ाते नहीं थे।पक्षी के झुंड के झुंड उनके खेत में अनाज खाया करते थे।
       एक दिन मैंने कहा कि पाटील हम अपने खेत के सब पक्षीयो को तुम्हारे खेत में भेजेगे।
         वे बोले कि तुम भेजो, वे हमारे खेत का सब अनाज खा लेंगे, तो भी कमी नहीं होगी।
        इसके बाद उन्होंने पक्षीयो के पीने का पानी रखने की व्यवस्था खेत में कर दी।पक्षी मस्त होकर अनाज खाते थे और जी भर कर पानी पीते थे और महाराज चुपचाप यह द्रश्य देखते, मानो वह खेत उनका ना हो।
         मैंने कहा पाटील तुम्हारे मन में इन पक्षीयो के लिए इतनी दया है, तो झाढ़ पर ही पानी क्यों नहीं रख देते हो? 
          उन्होंने कहा कि ऊपर पानी रख देने से पक्षीयो को नहीं दिखेगा, इसीलिए नीचे रखते हैं।
            उनको देखकर कभी-२ मैं कहता था - "तुम ऐसा क्यों करते हो ? क्या बड़े साधु बनोगे ?"तब चुप रहते थे, क्योंकि व्यर्थ की बातें करना उन्होंने पसंद नहीं था।कुछ समय के बाद जब पूरी फसल आई, तब उनके खेत में हमारी अपेक्षा अधिक अनाज उत्पन्न हुआ था।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  19. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ५      ?

      "शिखरजी की वंदना से त्याग और नियम"

         आचार्यश्री शान्तिसागर महाराज गृहस्थ जीवन में जब शिखरजी की वंदना को जब बत्तीस वर्ष की अवस्था में पहुंचे थे, तब उन्होंने नित्य निर्वाण भूमि की स्मृति में विशेष प्रतिज्ञा लेने का विचार किया और जीवन भर के लिए घी तथा तेल भक्षण का त्याग किया।घर आते ही इन भावी मुनिनाथ ने एक बार भोजन की प्रतिज्ञा ले ली।
         रोगी व्यक्ति भी अपने शारीर रक्षण हेतु कड़ा संयम पालने में असमर्थ होता है किन्तु इन प्रचंड -बली सतपुरुष का रसना इंद्रिय पर अंकुश लगाने वाला महान त्याग वास्तव में अपूर्व था।
        शास्त्र में रसना इंद्रिय तथा स्पर्शन इंद्रिय को जीतना बड़ा कठिन कहा है।
        उपरोक्त प्रकार के अनेक आहार की लोलुपता त्याग कराने वाले नियमो द्वारा इन्होंने रसना इंद्रिय को अपने आधीन कर लिया तथा आजीवन ब्रम्हचर्य व्रत द्वारा स्पर्शन इंद्रिय पर विजय प्राप्त की।
         शिखरजी की वंदना ने महाराज को गृहस्थ जीवन में संयम के शिखर पर चढ़ने के लिए त्यागी बनने की प्रबल प्रेरणा तथा महान विशुद्ता प्रदान की थी।
    ?  स्वाध्याय चरित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  20. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - ३    ?

              "माता की धर्म परायणता"

        आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के जीवन में उनके माता-पिता की धार्मिकता का बड़ा प्रभाव था। 
           सन १९४८ के दशलक्षण पर्व में फलटण नगर में उन्होंने बताया था कि, "हमारी माता अत्यंत धार्मिक थी, "वह अष्टमी चतुर्दशी को उपवास करती तथा साधुओ को आहार देती थी। 
               हम भी बचपन से ही साधुओ को आहार देने में योग दिया करते थे, उनके कमण्डलु को हाथ में रखकर उनके साथ जाया करते थे। छोटी अवस्था से ही हमारे मन में मुनि बनने की लालसा जाग गई थी।"
       
        अपने पिताजी के विषय में उन्होंने बताया था कि वे प्रभावशाली, बलवान, रूपवान, प्रतिभाशाली, ऊंचे पूरे क्षत्रिय थे। वे शिवाजी महाराज सरीखे दिखते थे। उन्होंने १६ वर्ष पर्यन्त दिन में एक बार ही भोजन पानी लेने के नियम का निर्वाह किया था, १६ वर्ष पर्यन्त ब्रम्हचर्य व्रत रखा था।
            उन जैसे धर्माधना पूर्वक  सावधानी सहित समाधिमरण मुनियो के लिए भी कठिन है।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  21. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - २     ?

         "मिथ्या देवों की उपासना का निषेध"
                "जैन मंत्र का अपूर्व प्रभाव"
             
                    जैनवाणी नामक ग्राम में महाराज जैनियो को मिथ्यादेवों की पूजा के त्याग करा रहे थे, तब ग्राम के मुख्य जैनियो ने पूज्यश्री से प्रार्थना की, "महाराज ! आपकी सेवा में एक नम्र विनती है।"महाराज ने बड़े प्रेम से पूछा -  "क्या कहना है कहो?"
                  जैन बन्धु बोले -  "महाराज ! इस ग्राम में सर्प का बहुत उपद्रव है। सर्प का विष उतारने में निपुण एक जैनी भाई हैं। वह मिथ्या देवो की भक्ति करके,उस मंत्र पढ़कर सर्प का विष उतारता है। उसने यदि मिथ्यात्व त्याग की प्रतिज्ञा ले ली,तो हम सब को बड़ी विपत्ति उठानी पड़ेगी।
                     इसीलिए उसे छोड़कर सबको आप नियम देवें,इसमे हमारा विरोध नहीं है। आगे आपकी आज्ञा शिरोधार्य है।"
                      अब तो विकट प्रश्न आ गया जो आज बड़े-२ लोगो को विचलित किए बिना नहीं रहेगा। तार्किक व्यक्ति को लोकोपकार, सार्वजनिक हित,जीवदया,प्राणरक्षा के नाम पर अथवा अन्य भी युक्तिवाद की ओट में उस मांत्रिक जैन को नियम के बंधन से मुक्ति देने के विषय में आपको विशेष विचार करना होगा और सार्वजानिक हित के हेतु केवल एक व्यक्ति को पूजा के लिए छुटटी देनी होगी।
                        पूज्य महाराज ने गंभीरता पूर्वक इस समस्या पर विचार किया और उस जैन बन्धु से कहा-"जैन मंत्रो में अचिन्त्य सामर्थ पाई जाती है।हम तुम्हे एक मंत्र बताते हैं।उसका विधिपूर्वक प्रयोग करो यदि दो माह के भीतर यह मंत्र तुम्हारा कार्य ना करे तो तुम बंधन में नहीं रहोगे।अतः तुम दो माह के लिए मिथ्यात्व का त्याग करो"|
                     महाराज ने उस मांत्रिक बंधु को मित्यात्व का त्याग कराकर मंत्र दिया तथा विधि भी कह दी।इतने में कोई व्यक्ति समाचार लाया और बोला की मेरे बैल को सर्प ने काट लिया है।वह तुरंत पञ्च परमेष्ठी का स्मरण करता हुआ वह पहुंचा और जैन मंत्रो का प्रयोग किया ,तत्काल विष बाधा दूर हो गई।
                      इसके पश्यात मंत्र का सफल प्रयोग देखकर वह महाराज के पास आया और बोला- "महाराज अब मुझे जीवन भर के लिए मिथ्यात्व के त्याग का नियम दे दीजिये"

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  22. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - ४    ?

                    "वानरो पर प्रभाव"

                  शिखरजी की तीर्थवंदना से लौटते हुए महाराज का संघ सन् १९२८ में विंध्यप्रदेश में आया। विध्याटवी का भीषण वन चारों ओर था। एक ऐसी जगह पर संघ पहुँचा, जहाँ आहार बनाने का समय हो गया था। श्रावक लोग चिंतित थे कि इस जगह वानरों की सेना स्वछन्द शासन तथा संचार है, ऐसी जगह किस प्रकार भोजन तैयार होगा और किस प्रकार इन सधुराज की विधि सम्पन्न होगी? उस स्थान से आगे चौदह मील तक ठहरने योग्य जगह नही थी।
                  संघ के श्रावकों ने कठिनता से रसोई तैयार की, किन्तु डर था कि महाराज के हाथ से ही बंदर ग्रास लेकर ना भागे, तब तो अंतराय आ जायेगा। इस स्थिति में क्या किया जाय? लोग चिंतित थे।
                  चर्या का समय आया। शुद्धि के पश्चात जैसे ही आचार्य महाराज चर्या के लिए निकले कि सैकड़ो बंदर अत्यंत ही शांत हो गए और चुप होकर महाराज की चर्या की सारी विधि देखते रहे। बिना विध्न के महाराज का आहार हो गया। इसके क्षण भर पश्चात ही बंदरों का उपद्रव पूर्ववत प्रारम्भ हो गया। गृहस्थ बंदरों को रोटी खाने को देते जाते थे और स्वयं भी भोजन करते जाते थे।
                ऐसी अपूर्व दशा महाराज के आत्मविकास व आध्यात्मिक प्रभाव को स्पष्ट करती है।

    ?   स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?
  23. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - १     ?

                         "स्थिर मन"
        
                 एक बार लेखक ने आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज से पूछा, महाराज आप निरंतर स्वाध्याय आदि कार्य करते रहते है क्या इसका लक्ष्य मन रूपी बन्दर को बाँधकर रखना है जिससे वह चंचलता ना दिखाये।महाराज बोले, "हमारा बन्दर चंचल नहीं है"|
               लेखक ने कहा,  "महाराज मन की स्थिरता कैसे हो सकती है,वह तो चंचलता उत्पन्न करता ही है"
             महाराज ने कहा, "हमारे पास चंचलता के कारण नहीं रहे है|जिसके पास परिग्रह की उपाधि रहती है उसको चिंता होती है,उसके मन में चंचलता होती है,हमारे मन में चंचलता नहीं है।हमारा मन चंचल होकर कहाँ जाएगा,इस बात के स्पष्टीकरण के हेतु आचार्य महाराज ने उदाहरण दिया -
                "एक पोपट तोता जहाज के ध्वज के भाले पर बैठ गया,जहाज मध्य समुद्र में चला गया।उस समय वह पोपट उठकर बाहर जाना चाहे तो कहाँ जाएगा?
      
                   उसके ठहरने का स्थल भी तो होना चाहिए।इसीलिए वह एक ही जगह पर बैठा रहता है।
                    इस प्रकार घर परिवार आदि का त्याग करने के कारण हमारा मन चंचल होकर जाएगा कहाँ,यह बताओ?"

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  24. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २८२   ?

      "निर्वाण भूमि सम्मेद शिखरजी की वंदना"

                     मंगल प्रभात का आगमन हुआ। प्रभाकर निकला। सामयिक आदि पूर्ण होने के पश्चात आचार्य महराज वंदना के लिए रवाना हो गए। ये धर्म के सूर्य तभी विहार करते हैं जब गगन मंडल में पौदगलिक प्रभाकर प्रकाश प्रदान कर इर्या समीति के रक्षण में सहकारी होता है। महराज भूमि पर दृष्टि डालते हुए जीवों की रक्षा करते पहाड़ पर चढ़ रहे थे।

           ?गंधर्व,सीतानाला स्याद्वाद 
                             दृष्टि के प्रतीक?

                  विशेष अभ्यास तथा महान शारीरिक शक्ति के कारण वे शीघ्र ही गन्दर्भ नाले के पास पहुँच गए। कुछ काल के अनंतर सीता नाला मिला। वह जल प्रवाह कहता था - "जिस तरह मेरा प्रवाह बहता हुआ लौटकर नहीं आता इसी प्रकार जगत के जीवों का जीवन प्रवाह भी है।" ये दोनो निर्झर स्याद्वाद शैली से बहती हुई द्रव्य पर्याय रुप दृष्टि युगल के प्रतीक लगते थे। मार्ग में कंकर पत्थर की परवाह ना करते हुए महराज शैलराज के शिखर तक पहुँचते जा रहे थे।
    क्रमशः.......

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
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