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?घ्यान- अमृत माँ जिनवाणी से - २८४


Abhishek Jain

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जय जिनेन्द्र बंधुओं,

          चारित्र चक्रवर्ती पूज्य शान्तिसागर महराज का जीवन चरित्र देखते है तो निश्चित ही हम आत्म कल्याण के मार्ग पर उनकी उत्कृष्ट साधना का अवलोकन करते हैं, एक बात और यहाँ देखी जा सकती है कि हम जैसे सामान्य, सातगौड़ा के जीव ने  उत्कृष्ट पुरुषार्थ द्वारा उत्कृष्ट साधना की स्थिति को प्राप्त किया और शान्तिसागर बन गए, सातगौड़ा की भांति हम भी सही दिशा में पुरुषार्थ कर कल्याण का रास्ता पकड़ सकते हैं।

         यहाँ मैं आप सभी का ध्यान इस बात पर केंद्रित करना चाहता हूँ कि यदि आप पूज्यश्री के जीवन चरित्र में उनके गृहस्थ जीवन के संस्मरण देखेंगे तो आपको ज्ञात होगा कि गृहस्थ जीवन में तीर्थराज की वंदना के समय उन्होंने कितना महान त्याग किया है, उनके उस त्याग जैसे विशेष पुरुषार्थ का ही प्रतिफल था कि वह चारित्र के चक्रवर्ती थे तथा विपरीत देशकाल में भी हम सभी के लिए मुनिपरम्परा पुनः जीवंत कर पाए।

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २८४   ?


                      "ध्यान"


              पूज्य शान्तिसागरजी महराज ससंघ ने देवादिदेव श्री १००८ पार्श्वनाथ भगवान की निर्वाण भूमि स्वर्णभद्रकूट की वंदना के उपरांत पर्वतराज की तलहटी की ओर प्रस्थान किया।

            अब प्रभात का सूर्य आकाश के मध्य में पहुँच गया, इससे आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज एक योग्य स्थल पर आत्मध्यान हेतु विराजमान हो गए। आज की सामायिक की निर्मलता व आनंद का कौन वर्णन कर सकता है, उसकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती? 

             आज बीस तीर्थंकरों की निर्वाण भूमि की वंदना करके निर्वाण मुद्राधारी मुनिराज आत्मा और परमात्मा के स्वरूप के चिंतन में निमग्न हो गए हैं। आज की निर्मलता असाधारण है। समता अमृत से आत्मा को परितृप्त करने के पश्चात उन मुनिनाथ ने पुनः मधुवन की ओर प्रस्थान किया। उस समय उनकी पीठ पर्वत की ओर थी लेकिन अंतःकरण के समक्ष तीर्थंकरों के पावन चरण अवश्य आते थे।

                 महराज की स्मरण शक्ति भी तो सामान्य नहीं रही है। उनकी स्मृति वंदना के संस्मरण सुस्पष्ट जागृति कर लेती रही है, तब उस समय की सुस्पष्टता का क्या कहना है।


? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?

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