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Abhishek Jain

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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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Blog Entries posted by Abhishek Jain

  1. Abhishek Jain
    जय जिनेन्द्र बंधुओं,

                कल २४ वे तीर्थंकर देवादिदेव श्री १००८ महावीर भगवान का जन्म कल्याणक पर्व है।
    ??
    कल अपने नजदीकी जिनालय में जाकर धर्म प्रभावना की गतिविधयों में अवश्य ही सम्मलित हों।
    ??
    हम सभी को परस्पर एक दूसरे को वीर प्रभु के जन्म-कल्याणक पर्व की बधाइयाँ और शुभकामनाएं प्रेषित करना चाहिए, क्योंकि वास्तव में यह अवसर ही परस्पर बधाई देने का अवसर है।

    ?? आचार्यश्री विद्यासागर सेवासंघ ??⁠⁠
  2. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - २३     ?

                        "प्राणरक्षा"

              १९५२ को ग्रन्थ के लेखक ने आचार्य शान्तिसागरजी महाराज के बारे मे जानने हेतु उनके गृहस्थ जीवन के छोटे भाई के पुत्र से मिले।उन्होंने बताया-
           महाराज की दुकान पर १५-२० लोग शास्त्र सुनते थे।मलगौड़ा पाटिल उनके पास शास्त्र सुनने रोज आता था। एक रात वह शास्त्र सुनने रोज आता था। एक रात शास्त्र सुनने नहीं आया, तब शास्त्र चर्चा के पश्चात महाराज उनके घर गये, वहाँ नहीं मिलने से रात में ही उनके खेत पर पहुँचे, वहाँ वे क्या देखते हैं कि मलगोड़ा ने गले में फाँसी का फन्दा लगा लिया है और वह मरने के लिए तत्पर है। यदि कुछ देर और हो जाती, तो उसकी जीवन लीला समाप्त हो गयी होती।
         सौभाग्य से वह उसी समय जीवित था। महाराज ने उसका फंदा खोला व् अपनी दुकान में लाकर खूब समझाया।
         उसकी अंतर्वेदना दूर की, जिससे उसने आत्महत्या का विचार बदल किया।गृहस्थ जीवन में महाराज, मेरी माता तथा आजी एक बार ही भोजन करते थे। 
                   जब महाराज मेरी माता के समक्ष अपनी दीक्षा लेने की बात कहते थे, तब मै आकर उनके पैरो से लिपट जाता था और कहता था - 
         "अप्पा ! अभी आपको नहीं जाने दूँगा। अभी मै छोटा हूँ। बड़े होने के बाद आप मुझे समझाकर जावें।" इस पर वे मुझे संतोषित करते थे।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  3. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
            आज का प्रसंग अवश्य पढ़ें। इस प्रसंग को पढ़कर आपको ज्ञात होगा कि किस तरह दिगम्बर मुनिराज अपने ऊपर आये समस्त उपसर्गों को अद्भुत समता के साथ सहन करते हैं और कष्टों के प्रति ग्लानि के भाव नहीं लाते भले ही उनको अपना शरीर ही क्यों न त्यागना  पढे।
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३१०   ?

        "अनंतकीर्ति मुनिराज की समाधि १"
      
                       किसी को पता न था, कि मुनिराज को पुराना मृगी का रोग था, अग्नि का संपर्क पाकर अपस्मार का वेग हो गया। उससे मूर्छित होकर वे गिर गए और उनका पैर सिगड़ी की अग्नि के भीतर पड़ गया। पैर से जो रक्तधारा बही, उसने उस अग्नि को बुझाया।
              होश में आने के बाद मुनिराज ने सच्चे महावीरों के समान दृढ़वृत्ति का परिचय दिया तथा शांत भाव से द्वादश अनुप्रेक्षाओं का चिंतवन पूर्वक उस असह्य वेदना को सहन किया, चुप चाप मौन ही रहे आए।
                प्रभात हुआ। दर्शनार्थी आये। भीषण दृश्य देखकर घबरा गए। अब समाज बड़ा दुखी हुआ, लेकिन एक का दुख दूसरा नहीं बांट सकता है? संयम अविरोधी उपचार किए गए, किन्तु वे फलप्रद न हुए। 
                प्रायः मुनि जीवन में संयमी रहने से रोग आता नहीं है, और यदि कोई बीमारी असाता के उदयवश आई तो शरीर को समाप्त होने से विलंब नहीं लगता है।
              श्री अनंतकीर्ति मुनिराज के शरीर में धनुर्वात रोग ने आक्रमण किया। लोग किंकर्तव्यविमूढ़ थे। बड़े-बड़ेविद्वान थे, किन्तु कर्मों के प्रचण्ड प्रहार के आगे पंडिताई क्या करेगी? उस रोग के कारण वे महराज मूर्छित हो जाते थे। सारा पैर जला है। उसकी वेदना शांत भाव से सहन करते थे। अब नया भीषण रोग आ गया।
                 उस अवस्था में उनके मुख में कोई शब्द निकलते थे, तो  'अरिहंता सीमंधरा'। उस समय वे दुखी श्रावकों को उल्टा साहस देते हुए कहते थे, 'तुम क्यों घबराते हो, शरीर नहीं चलता, उसे छोड़ देना, रत्नत्रय धर्म नहीं छोड़ना' यह कहकर पुनः 'अरिहंता सीमंधरा' उच्चारण करते थे।
                उनकी स्थिरता, निस्पृहता, वैराग्यभाव आदि देखकर आदमी चकित हो जाता था। ऐसी स्थिति में दिखने लगता है कि इस आत्मा में भेद-विज्ञान का कितना उज्ज्वल प्रकाश है? मूर्च्छा आने पर चुप हो जाते, अन्यथा 'अरिहंता सीमांधरा' शब्द कुछ देर तक सुनाई देता था।
            अब प्रभु नाम लेते-लेते प्राणों ने उर्ध्वलोक प्रयाण किया। देखा तो ज्ञात हुआ कि महराज ने स्वर्गारोहण कर दिया। ऐसी विशुद्ध आत्मा का दाह संस्कार बस्ती के बाहर योग्य स्थल पर किया गया था। इस कारण मुरैना अनंतकीर्ति मुनिराज की समाधि भूमि के के रूप में मान्य है।
    धन्य है संसार की यह सर्वोत्कृष्ट निर्ग्रन्थ अवस्था...नमोस्तु,नमोस्तु,नमोस्तु

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  4. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से -१३     ?

           "द्रोणागिरी क्षेत्र में सिंह का आना"
       
          सन १९२८ मे वैसाख सुदी एकम को आचार्य शान्तिसागर महाराज का संघ द्रोणागिरी सिद्ध क्षेत्र पहुँचा।हजारो भाइयो ने दूर-२ से आकर दर्शन का लाभ लिया।
          महाराज पर्वत पर जाकर जिनालय मे ध्यान करते थे। उनका रात्रि का निवास पर्वत पर होता था। प्रभात होते ही लगभग आठ बजे महाराज पर्वत से उतरकर नीचे आ जाते थे।
        एक दिन की बात है कि महाराज समय पर ना आये। सोचा गया संभवतः वे ध्यान मे मग्न होंगे। दर्शनार्थियों की भावना प्रबल हो चली। साढ़े आठ, नौ, साढ़े नौ और भी समय व्यतीत हो रहा था। जब विलंब असह हो गया, तब कुछ लोग पहाड़ पर गये। उसी समय महाराज वहाँ से नीचे उतर रहे थे।
         लोगो ने महाराज का जयघोष किया। चरणों मे प्रणाम किया और पूंछा 'स्वामिन् ! आज तो बड़ा विलंब हो गया, क्या बात हो गयी?' वे चुप रहे। कुछ उत्तर नहीं दिया। 
          लोगो ने पुनः प्रार्थना की। एक बोला- 'महाराज, यहाँ शेर आ जाया करता है। कहीं शेर तो नहीं आ गया था?' अंत मे स्वामीजी का मौन खुल ही पड़ा और उन्होंने बताया कि 'संध्या से ही एक शेर पास मे आ गया। वह रात भर बैठा रहा। अभी थोड़ी देर हुई वह हमारे पास से उठकर चला गया।' 
              प्रतीत होता है वनपति, यतिपति के दर्शनार्थ आया था।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?
  5. Abhishek Jain
    ?      अमृत माँ जिनवाणी से - ८      ?

                 "उपवास से क्या लाभ है?"
            
             उपवास से क्या लाभ होता है इस विषय में आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज ने अपनी अनुभव-पूर्ण वाणी से कहा था - "मदोन्मत्त हाँथी को पकड़ने के लिए कुशल व्यक्ति उसे कृत्रिम हथिनी की ओर आकर्षित कर गहरे गड्ढे में फसाते हैं।
         उसे बहुत समय तक भूखा रखते हैं।इससे उस हाँथी का उन्मत्तपना दूर हो जाता है और वह छोटे से अंकुश के इशारे पर प्रवृति करता है।
         वह अपना स्वछन्द विचरना भूल जाता है।इसी प्रकार इंद्रिय और मन उन्मत्त होकर इस जीव को विवेकशून्य बना पाप मार्ग में लगाते हैं।उपवास करने से इंद्रिय और मन की मस्ती दूर हो जाती है और वे पापमार्ग से दूर हो आत्मा के आदेशानुसार कल्याण की ओर प्रवृत्ति करते हैं।"

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  6. Abhishek Jain
    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
          
            आज जिस प्रसंग का उल्लेख करने जा रहा हूँ वह बहुत ही महत्वपूर्ण प्रसंग है। दो दिनों में इसका उल्लेख किया जायेगा। पूज्य शान्तिसागरजी महराज की अपार क्षमा का यह  बहुत बड़ा उदाहरण है। लगभग पिछले छह महीने से इस प्रसंग का उल्लेख करना चाह रहा था आज इस प्रसंग को प्रस्तुत कर पा रहा हूँ।
             यह वृत्तांत हम सभी को जानना चाहिए और अपार क्षमायुक्त दिगम्बर मुनिराज के विशाल जीवन से जन-२ को अवगत कराना चाहिए।
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३११   ?

                 "राजाखेड़ा में उपसर्ग"

                 पूज्य शान्तिसागरजी महराज अपने संघ के साथ मुरैना, धौलपुर होते हुए ६ फरवरी सन १९३० को राजाखेड़ा पहुँचा। यहाँ की धार्मिक समाज ने संघ की भव्य आगवानी की। जिनमंदिर के समीपवर्ती भवन में आचार्य महराज सप्तर्षि शिष्यों सहित ठहरे थे। उसके सामने के चबूतरे पर सब त्यागी लोग घ्यान, अध्यन, सामायिक करते थे। एक सभा मंडप पास में बनाया गया था, जहां तीन दिन तक धर्म प्रभावना हुई। कोई विध्न का लेश भी न था।
                  उस समय आचार्य महराज के अंतःकरण ने बिहार करने की प्रेरणा की, किन्तु आगत अनेक पंडितों आदि के आग्रह का विचार कर उन्होंने विहार नहीं किया। चौथा दिन भी सानंद व्यतीत हो गया।
                    पांचवा दिन आया। राजाखेड़ा में कुछ पापी लोग, ज़ो संकट का पहाड़ पटकने के पाप-प्रयत्न में जोर से संलग्न थे। इसी से आचार्यश्री के पवित्र अंतःकरण ने प्रस्थान करने का परामर्श किया था, किन्तु सद्भावना वश लोकनुरोध का विचार कर वे रुक गए थे।

    आगे का वृतांत अगले प्रसंग में....

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ से ?
    ?आज की तिथी - चैत्र शुक्ल सप्तमी?
  7. Abhishek Jain
    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
          आज का प्रसंग प्रस्तुत करने का मुख्य उद्देश्य लोगों को मुनि महराज की वैयावृत्ति के बारे में सचेत करना है। हमेशा हम सभी को साधुओं की वैयावृत्ति अत्यंत सचेत रहकर करना चाहिए क्योंकि अच्छे भाव होते हुए भी हमारे क्रियाकलापों से कभी-२ उनपर उपसर्ग भी आ जाते हैं।
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३०९   ?

           "अनंतकीर्ति मुनिराज की समाधि"

                  पूज्य शान्तिसागरजी महराज ससंघ जैन धर्म के मूर्धन्य विद्वान पंडित गोपालदास जी बरैयाजी की जन्मभूमि मुरैना पहुँचा। लेखक ने किसी समय मुरैना में घटित एक दुखद घटना का उल्लेख किया है। जिसको जानकर हम सभी श्रावकों को हमेशा के लिए अपना विवेक जागृत करना चाहिए।
              पंडित गोपालदास जी की जैन धर्म के श्रेष्ठ विद्वानों में गणना होती थी। उनकी कीर्ति से आकर्षित होकर निल्लीकर (दक्षिण) से एक निर्ग्रन्थ मुनिराज १०८ अनंतकीर्ति महराज ज्ञान लाभ हेतु सन १९१९ के लगभग मुरैना पधारे थे, किन्तु दुरदेव वश उनकी मनोकामना पूर्ण नहीं हो पाई और शीघ्र ही उनका स्वर्गवास हो गया।
            वह घटना भी बड़ी विचित्र थी। मुरैना की मिट्टी में रेत का अंश होने से वह गर्मी में भीषण उष्ण हो जाती है। और ठंड में अत्यंत शीतल होती है। 
               उस जमाने में दिगम्बर मुनिराज का उत्तर भारत में कभी किसी को दर्शन नहीं हुआ था, अतः एक भक्त भाई ने सोचा सर्दी की भीषणता से जब हमें असह्य पीढ़ा होती है, तब इन दिगम्बर गुरु महराज को बहुत कष्ट होगा, इससे उसने जिस कमरे में महराज का निवास था, वहाँ एक सिगड़ी जलते हुए कोयलों से भरकर रख दी तथा कमरा बंद कर दिया।
            उसने मन में सोचा, इसमें जो दोष होगा वह मुझे लग जाएगा। रात्रि का समय है। महराज ध्यान में हैं, कुछ बोलेंगे नहीं। कल कुछ कहेंगे तो देखा जाएगा।
    प्रसंग का अगला भाग अगले प्रसंग में.....

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ में ?
      ?आज की तिथी - चैत्र शुक्ल ४?
  8. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३१३   ?

           "ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर"
     
                एक दिन पूज्य शान्तिसागरजी महराज कहने लगे-" हमारी भक्ति करने वाले को जैसे हम आशीर्वाद देते हैं, वैसे ही हम प्राण लेने वालों को भी आशीर्वाद देते हैं।उनका कल्याण चाहते हैं।"
                इन बातों की साक्षात परीक्षा राजाखेड़ा के समय हो गई। ऐसे विकट समय पर आचार्य महराज का तीव्र पुण्य ही संकट से बचा सका, अन्यथा कौन शक्ति थी जो ऐसे योजनाबद्ध षड्यंत से जीवन की रक्षा कर सकती?
                कदाचित आचार्य महराज का विहार ह्रदय की प्रेरणा के अनुसार हो गया होता, तो राजाखेड़ा कांड नहीं होता, किन्तु भवितव्य अमित है। और भी जगह देखा गया है कि भक्त लोग महराज से अनुरोध करते थे और करुणा भाव से वे लोगों का मन रखते थे, तब प्रायः गड़बड़ी हुई है। जब भी महराज ने आत्मा की आवाज के अनुसार काम किया तब कुछ भी बाधा नहीं आयी।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
    ?आज की तिथी - चैत्र शुक्ल नवमीं?
  9. Abhishek Jain
    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
     
             पूज्य शान्तिसागरजी महराज के जीवन के इस प्रसंग को जानकर आपको बहुत सारी बातें देखने को मिलेगीं। साम्य मूर्ति पूज्य शान्तिसागरजी महराज के सम्मुख बड़ी बड़ी विपत्तियाँ यूँ ही टल जाती थीं, यह उनकी महान आत्मसाधना का ही प्रतिफल था। वर्तमान में पूज्य आचार्य विद्यासागरजी महराज तथा अन्य और भी मुनिराजों के जीवन का अवलोकन करने से अनायास ही ज्ञात हो जायेगा।
                   दिगम्बर मुनिराज की अद्भुत क्षमा का इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा कि नंगी तलवारों से उन पर प्रहार करने आए गुंडों के समूह के लोगों को भी उनके अपराध के फलस्वरूप कैद से छुड़वाने के लिए वह यह कहकर आहार को न निकले कि "मेरे कारण यह जेल में दुख भोग रहा है तो ऐसे मैं कैसे आहार को निकल सकता हूँ। ऐसे प्रसंगों को हमको स्वयं जानना चाहिए और अन्य सभी लोगों को भी दिगम्बर मुनिराजों की अनंत क्षमा से परिचित कराना चाहिए।
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३१२   ?

                         "धर्म संकट"

                   अब पाँचवा दिन आया, किसे कल्पना थी कि आज कल्पनातीत उपद्रव होगा, किन्तु सुयोग की बात कि उस दिन आचार्य महराज चर्या के हेतु कुछ पूर्व निकल गए थे। आहार की विधि भी शीघ्र सम्पन्न हो गई।
                 सब त्यागी लोग चबूतरे पर सामायिक करने का विचार कर रहे थे, आचार्यश्री ने आकाश पर दृष्टि डाली और उन्हें कुछ मेघ दिखाई दिए। यथार्थ में वे जल के मेघ नहीं, विपत्ति की घटा के सूचक बादल थे। उनको देखकर आचार्यश्री ने कहा कि 'आज सामायिक भीतर बैठकर करो'।
                  गुरुदेव के आदेश का सबने पालन किया। सब मुनिराज आत्मा के ध्यान में मग्न हो गए। सर्व जीवों के प्रति हमारे मन में समता का भाव है, यह उन्होंने अपने मन में पूर्णतः चिंतवन किया और तत्व चिंतन भी प्रारम्भ किया। अन्य श्रावक लोग अतिथि संविभाग कार्य के पश्चात अपने-२ भोजन में लगे।
                  इतने में क्या देखते हैं, लगभग ५०० गुंडे नंगी चमचमाती तलवार लेकर मुनि संघ पर प्रहार करने के हेतु छिद्दी ब्राम्हण के साथ वहाँ आ गए।
                मुनिराज आज बाहर ध्यान नहीं कर रहे थे, इससे उनकी आक्रमण करने की पाप भावना मन के मन में ही रही आयी। उन नीचों ने जैन श्रावकों पर आक्रमण किया। श्रावकों ने यथायोग्य साधनों से मुकाबला किया। श्रावकों ने जोर की मार लगाकर उन आतताइयों को दूर भगाया था, किन्तु शस्त्र सज्जित होने के कारण वे पुनः बढ़ते आते थे, ताकि जैन साधुओं के प्राणों के साथ होली खेलें। श्रावक भी गुरुभक्त थे। प्राणों की परवाह न करते हुए उनसे खूब लड़े। किसी का हाथ कटा किसी की अंगुली कटी, जगह-२ चोट आई।
             इतने में संध्या को रियासत की सेना आयी, तब इन नर पिशाचों का उपद्रव रुका। छिद्दी नामक ब्राम्हण पकड़ लिया गया। उस उपद्रव के समय संघ के साधुओं में भय का लेश भी नहीं था, वे ऐसे बैठे थे, मानों कोई चिंता की बात ही न होवे। उन्होंने अद्भुत आत्म संयम का परिचय दिया। उस समय मेघो ने भयंकर वर्षा कर दी थी, इससे उपद्रवकारियों का मनोबल सफल न हो पाया। प्रकृति ने धर्म रक्षा में योग दया था।
                पुलिस के बड़े-२ अधिकारी मुनि महाराजों के पास आये। उनके दर्शन कर उनके मन में उपद्रव कारियों के प्रति भयंकर क्रोध जागृत हुआ। वे सोचने लगे, ऐसे महात्मा पर जुल्म करने की उन नरपिशाचों ने चेष्टा कर बड़ा पाप किया। उनको कड़ी से कड़ी सजा देंगे।
       ?साम्य भाव अर्थात विश्व बंधुत्व?
                      प्रभात का समय आया। आचार्य महराज ने यह प्रतिज्ञा की थी, कि जब तक तुम छिद्दी ब्राम्हण को हिरासत से नहीं छोड़ोगे, तब तक हम आहार नहीं लेंगे।
                 आचार्य महराज के व्यवहार को देखकर कौन कहेगा कि इनकी दृष्टि में भी कोई शत्रु नाम की प्राणधारी मूर्ति है? अपने अनन्त प्रेम से ये समस्त विश्व को मंगलमय बनाते हैं।
    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
    ?आज की तिथी - चैत्र शुक्ल अष्टमी?
  10. Abhishek Jain

    बंधुओं, 
           आपके मन में विचार आ सकता है कि हम पूज्य शान्तिसागरजी महराज के पवित्र जीवन चारित्र को जान रहे हैं तो इसके बीच भिन्न-२ ऐतिहासिक धर्म-स्थलों अथवा तीर्थों अथवा व्यक्तियों का उल्लेख क्यों? इसके लिए मेरा उत्तर सिर्फ यही है कि यह हमारा सौभाग्य है कि पूज्यश्री के जीवन चरित्र के साथ हम सभी को उस सब बातों की भी जानकारी मिल रही है जिसकी जानकारी हर एक जैन श्रावक को विरासत और धरोहर के रूप में अवश्य ही होनी चाहिए।
                आज के प्रसंग से तो कई गौरवशाली बातें ज्ञात होंगी। मुरैना पहले जैन धर्म के ज्ञान के लिए केम्ब्रिज जैसा, अन्य धर्मावलंबी विद्वानों के बीच जगह-२ जैन धर्म का पताका फहराने वाले विद्वान आदरणीय गोपालदासजी का व्यक्तित्व आदि।
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३०८   ?

                           "मुरैना"
         
               ग्वालियर में खूब धर्म प्रभावना के उपरांत संघ माध वदी दूज को प्रसिद्ध विद्वान तथा जैन धर्म के प्रभावक पं. गोपालदास जी बरैया की निवास भूमि पहुँचा, जहाँ उनके द्वारा स्थापित जैन सिद्धांत विद्यालय विद्यमान है। पहले इस विद्यालय की जैन समाज में बड़ी प्रतिष्ठा थी। यह जैन समाज के धर्म विद्या के शिक्षण के लिए आक्सफोर्ड अथवा केम्ब्रिज के विद्या मंदिर के सदृश माना जाता था।
                 स्व. बरैयाजी प्रतिभाशाली विद्वान थे। उनके प्रबल तर्क के समक्ष प्रमुख आर्यसमाजी विद्वान दर्शनानंद को शास्त्रार्थ में पराजित होना पड़ा था। कलकत्ता के प्रकांड वैदिक विद्वानों ने उनके तर्कपूर्ण भाषण की बहुत प्रशंसा की थी, त्याय वाचस्पति पदवी दी थी। 
              पं. बरैया त्यागी तथा निष्पृह आदर्श चरित्र विद्वान थे। वे बिना पारिश्रमिक लिए धर्म के ममत्ववश शिक्षा देते थे। वे धन तथा धनिकों के दास नहीं थे। उनका जीवन बड़ा प्रमाणिक था। समाज के श्रेष्ठ विद्वानों में उनकी गणना होती थी। 
          कल प्रसंग में मुरैना में, श्रावको के विवेक के अभाव मे किसी मुनि महराज पर आए प्राणघातक उपसर्ग का इस भावना से उल्लेख किया जायेगा ताकि श्रावक अपने जीवन में इस तरह की त्रुटि कभी भी न होने दें।
      
    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  11. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३०७   ?

                        "ग्वालियर"

                      पूज्य शान्तिसागरजी महराज का संघ सोनागिरि में धर्मामृत की वर्षा करता हुआ संघ ग्वालियर पहुँचा। ग्वालियर प्राचीन काल से जैन संस्कृति का महान केंद्र रहा है।
               ग्वालियर के किले में चालीस, पचास-पचास फीट ऊँची खडगासन दस-पंद्रह मनोज्ञ दिगम्बर प्रतिमाओं का पाया जाना तथा और भी जैन वैभव की सामग्री का समुपलब्ध होना इस बात का प्रमाण है कि पहले ग्वालियर का राजवंश जैन संस्कृति का परम भक्त तथा महान आराधक रहा है।
               एक किले की दीवालों में बहुत सी मूर्तियों का पाया जाना इस कल्पना को पुष्ट करता है, यह स्थल संभवतः तीर्थ स्वरूप रहा हो। ग्वालियर में जो स्थान, तानसेन नामक प्रसिद्ध गायक से संबंधित बताया जाता है, वह पहले जैन मंदिर रहा है।
                   ग्वालियर रियासत तो जैन मूर्तियों तथा जैन कला पूर्ण सामग्री का अद्भुत भंडार प्रतीत होता है। ग्वालियर के जिनालय भी सुंदर हैं। नगर में एक शांतिनाथ भगवान की मूर्ति बड़ी मनोज्ञ, अति उन्नत खड्गासन है। जैनियों में प्राचीन नाम ग्वालियर का गोपाचल प्रचार में रहा है।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
     ?आजकी तिथी - चैत्र शु. प्रतिपदा?
  12. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३०६   ?

             "चार व्रतियों की निर्वाण दीक्षा"

                 चारित्र चक्रवर्ती परम पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के १९२९ के उत्तरभारत की भूमि पर द्वितीय चातुर्मास के उपरांत उनका विहार बूंदेलखंड के भव्य तीर्थस्थलों की वंदना करते हुए निर्वाण स्थल सोनागिरि को हुआ। सोनागिरि में एक नया इतिहास लिखा गया, पूज्य शान्तिसागरजी महराज की भांति, कर्मनिर्जरा के निमित्त घोर तपश्चरण करने वाले चार शिष्यों को निर्ग्रन्थ दीक्षा का सौभाग्य भी सोनागिरि की भूमि को ही प्राप्त हुआ।
              आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज की सोनागिरि यात्रा धार्मिक इतिहास को चिरस्मरणीय वस्तु बन गई, कारण अगहन सुदी पूर्णिमा को नौ बजे सवेरे ऐलक चतुष्टय श्री चंद्रसागरजी, श्री पायसागरजी, श्री पार्श्वकीर्तिजी, श्री नमिसागरजी को आचार्य महराज ने निर्वाण दीक्षा निर्ग्रन्थ पद प्रदान किया।
                पार्श्वकीर्तिजी का मुनिराज कुन्थुसागर रखा गया था। उस समय चार महाभाग्यों का एक साथ दिगम्बर दीक्षा घारण इस पंचमकाल की वर्तमान स्थिति में चौथे काल का दृश्य उपस्थित कर रहा था।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ? 
    ?आज की तिथी - चैत्र कृष्ण द्वादशी?
  13. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३०५   ?

                "टीकमगढ़ नरेश पर प्रभाव"

                         पपौराजी जाते हुए महराज टीकमगढ़ में ठहरे थे। टीकमगढ़ स्टेट में जैनधर्म और जैनगुरु का बड़ा प्रभाव प्रभाव पढ़ा। टीकमगढ़ नरेश आचार्यश्री का वार्तालाप हुआ था। उससे टीकमगढ़ नरेश बहुत प्रभावित हुए थे।
                 आचार्य महराज में बड़ी समय सूचकता रही है। किस अवसर पर, किस व्यक्ति के साथ कैसा व्यवहार उचित और धर्मानुकूल होगा, इस विषय में महराज सिद्ध-हस्त रहे हैं।
                      बुंदेलखंड अपने गजरथों के लिए प्रसिद्ध रहा आया है। वहाँ पंचकल्याणक महोत्सवों से अजैन लोग बहुत प्रभावित हैं। उस भूमि में आचार्य महराज जैसे आध्यात्मिक तेजस्वी मूर्ति का विहार करना बड़ा प्रभाववर्धक हो गया। 
                  लोग तो यही कहते सुने गए कि जीवन में ऐसा आनंद फिर कभी नहीं आएगा और न कभी ऐसे सच्चे परमहंस दिगम्बर मुनिराज के इस कलिकाल में फिर से दर्शन भी होंगे।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
    ?आज की तिथी - चैत्र कृष्ण सप्तमी?
  14. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से -- ३०४   ?

                         "प्रस्थान"

                   मगसिर वदी पंचमी को पूज्य शान्तिसागरजी महराज ससंघ ने ललितपुर से बिहार किया। जब पूज्यश्री ने ललितपुर छोड़ा, तब लगभग चार-पाँच हजार जनता ने दो-तीन मील तक महराज के चरणों को न छोड़ा। अंत मे सबने गुरुचरणों को प्रणाम किया, और अपने ह्रदय में सदा के लिए उनकी पवित्र मूर्ति अंकित कर वे वापिस आ गए। लगभग पाँच सौ व्यक्ति सिरगन ग्राम पर्यन्त गुरुदेव के पीछे-पीछे गए।
                   पूज्यश्री के ललितपुर से प्रस्थान करने के समय का दृश्य चिरस्मरणीय था। विश्व हितंकर संतो के चिरवियोग की कल्पना से हजारों नेत्रों से आँसू बह रहे थे। चार माह का समय जो आचार्य महराज के चरणों से अवर्णनीय शान्ति से बीता था, अब वह जनता को पुनः दुर्लभ है।

             ?बुंदेलखंड की वंदना?

                     इसके अनंतर आचार्यश्री ने बुंदेलखंड के अनेक तीर्थों के दर्शन किए। पपौरा, थूबोन, देवगढ़ आदि अनेक महत्वपूर्ण तथा कलामय तीर्थ बुंदेलखंड के अतीत वैभव, धर्म प्रेम, सुरुचि संस्कृत आध्यात्मिकता पर प्रकाश डालते हैं। सभी पुण्य स्थलों की वंदना द्वारा संघ ने अवर्णनीय आनंद प्राप्त किया।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
      ?आज की तिथी - चैत्र कृष्ण षष्ठी ?
  15. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३०३   ?

    "भयंकर उपवासों के बीच अद्भुत स्थिरता"

                  पूज्य शान्तिसागरजी महराज के लंबे उपवासों के बीच में ही प्रायः ललितपुर का चातुर्मास पूर्ण हो गया। बहुत कम लोग उनको आहार देने का सौभाग्य लाभ कर सके।
                     जैनों के सिवाय जैनेत्तरों में जैन मुनिराज की तपश्चर्या की बड़ी प्रसिद्धि हो रही थी। आचार्य महराज की अपने व्रतों में तत्परता देखकर कोई नहीं सोच सकता, कि इन योगिराज ने इतना भयंकर तप किया है। दूर-दूर के लोंगो ने आकर घोर तपस्वी मुनिराज का दर्शन किया।
                   धीरे-धीरे वे तपःपुनीत पुण्य दिवस पूर्ण हो गए। अब चातुर्मास समाप्त होने को है। ललितपुर की धार्मिक समाज ने कार्तिक सुदी नवमी से पूर्णिमा पर्यन्त रथोत्सव कराया। हजारों की संख्या में लोग आए। पूर्णिमा को रथ क्षेत्रपाल से बस्ती की ओर निकाला गया। 
             उस समय आचार्यश्री का शरीर बहुत कमजोर था, किन्तु आत्मा के बल से वे भी जुलूस में सम्मलित हो गए और उन्होंने शहर के मंदिरों की वंदना की, पश्चात क्षेत्रपाल आए। यथार्थ में महराज में असाधारण शक्ति थी।
    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
    ?आज की तिथी - चैत्र कृष्ण पंचमी?
  16. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३०२   ?

                    "पारणा का दिन"

                 पारणा का प्रभात आया। आचार्यश्री ने भक्ति पाठ वंदना आदि मुनि जीवन के आवश्यक कार्यों को बराबर कर लिया। अब चर्या को रवाना  होना है। सब लोग अत्यंत चिंता  समाकुल हैं।
               प्रत्येक नर-नारी प्रभु से यही प्रार्थना कर रहे हैं कि आज आहार निर्विघ्न हो जाए। क्षीण शरीर में खड़े होने की भी शक्ति नहीं दिखता, चलने की बात दूसरी है, और फिर खड़े होकर आहार का हो जाना और भी कठिन दिखता था। ऐसे विशिष्ट क्षणों में घोर तपस्वी महराज उठे। आत्मा के बल ने शरीर को सामर्थ्य प्रदान किया, ऐसा प्रतीत होता था।
                        अब शान्तिसागरजी महराज आहार चर्या को निकले। एक गृहस्थ ने पडगाहा। विधि मिलने से महराज वहाँ ही खड़े हो गए। उस समय उस गृहस्थ के पाँव डर से काँपने लगे कि कहीं अंतराय हो गया तो क्या स्थिति होगी? उस समय एक-एक क्षण बड़ा महत्वपूर्ण था।
                  ऐसे अवसर पर चंद्रसागर महराज की विचारकता ने बड़ा कार्य किया। उन्होंने तत्काल ही अपने परिचित दक्षिण के कुशल गृहस्थ से कहा- "क्या देखते हो, तुरंत सम्हाल कर आहारदान की विधि सम्पन्न करो।" तदनुसार आहार दिया गया।
                थोड़ी सी गठी-आँवले की कढ़ी तथा अल्प प्रमाण में धान्य व थोड़ा सा उष्ण जल ही उन्होंने लिया और तत्काल बैठ गए। बस, अब आहारपूर्ण हो गया। अब इस अल्प आहार के बाद आगे लगभग एक पक्ष के बाद ये उग्र तपस्वी मुनिराज आहार लेंगे। इस आहार के निर्विध्न हो जाने से लोंगों को अपार हर्ष हुआ।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
       ?आज की तिथी - चैत्र शुक्ल ४?
  17. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३०१   ?

                  "सिंहनिःक्रिडित तप"

                      पूज्य शान्तिसागर महराज के उत्तर भारत में कटनी में प्रथम चातुर्मास के उपरांत उनके द्वितीय चातुर्मास का परम सौभाग्य ललितपुर को प्राप्त हुआ।
                   ललितपुर आने पर आचार्य महराज ने सिंहनिः क्रिडित तप किया था। यह बड़ा कठिन व्रत होता है। इस उग्र तप से आचार्य महराज का शरीर अत्यंत क्षीण हो गया था। लोगों की आत्मा उनको देख चिंतित हो जाती थी कि किस प्रकार आचार्य देव की तपश्या पूर्ण होती है।
                   सब लोग भगवान से यही प्रार्थना करते थे कि हमारे धर्म के पवित्र स्तम्भ आचार्यश्री की तपः साधना निर्विघ्न पूरी हो। आचार्य महराज के न जाने कब बंधे कर्मों का उदय आ गया उस तपश्चर्या की स्थिति में १०४, १०५ डिग्री प्रमाण ज्वर आने लगा।
              भीषण ज्वर चढ़ा था, फिर भी महराज के मुख मंडल पर अद्भुत आत्मतेज था। अग्नि दाह से जिस प्रकार स्वर्ण की विशिष्ट दीप्ति दृष्टिगोचर होती है, वैसे ही तपोग्नि में तपाया गया उनका शरीर तेजपूर्ण दिखता था।
                 उस समय वे आत्मचिंतन में मग्न रहते थे। आहार दान देने से मन विषयों की ओर नहीं जाता था। मन तो उनके आधीन पहले से ही था। अब वह अत्यंत एकाग्र हो आत्मा का अनवरत चिंतन करता था।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
       ?आज की तिथी - चैत्र कृष्ण ३?
  18. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २९९   ?

             "सिवनी के जिनालय की चर्चा"
           
                 एक दिन मैंने आचार्य महराज को सिवनी के विशाल जैनमंदिरों का चित्र दिखाया। उस समय आचार्यश्री ने कहा, "जबलपुर से वह कितनी दूर है?"
          मैंने कहा, "महराज, ९५ मील पर है।"
               महराज बोले, "हम जब जबलपुर आये थे, तब तुमसे परिचय नहीं था, नहीं तो सिवनी अवश्य जाते।"
                मैंने कहा, "महराज ! उस समय तो मैं काशी में विद्याभ्यास करता था, इसी से आपसे वहाँ पधारने की प्रार्थना करने का सौभाग्य नहीं मिला।"
               मैंने मंदिर के चित्र को जब बताया था, तब अधिक प्रकाश न था, इस कारण एक व्यक्ति ने मुझे कहा, आप महराज को दुबारा अच्छे उजेले में यह सुंदर फोटो दिखा देना।" मैंने ऐसा ही किया, तब महराज बोले, "बार-बार क्या बताते हो। हम जिस चीज को एक बार देख लेते हैं, उसे कभी नहीं भूलते हैं।"
                     तब स्मरण आया कि इसी कारण महराज को अनेक शास्त्रो की असाधारण धारणा हो गई है। महराज एक बार बताते थे 'हम रात्रि को तत्वों के बारे में खूब विचार करते रहते हैं।' उसी तत्वचिंतन के पश्चात जो अनुभवपूर्ण वाणी महराज की निकलती है, वह बड़े-२ विद्वानो को मुग्ध कर देती है।
                  एक बार महराज जबलपुर के विशाल हनुमानताल के बारे मे कहते थे, "वह मंदिर किले के सदृश है।" मढ़ियाजी का प्रशांत वातावरण भी उनको अनुकूल लगता था।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  19. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से- २९८   ?

                जबलपुर में भव्य आगवानी"

                 पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज कटनी चातुर्मास के उपरांत जबलपुर की ओर विहार हुआ। आचार्यश्री के सानिध्य में पनागर में हुए समारम्भ में जबलपुर की बहुत सी समाज भी आ गयी थी। इससे वहाँ की शोभा और बढ़ गई थी। संघ का पनागर आना ही जबलपुर के भाग्य उदित होने के उषा काल सदृश था। धार्मिक लोग सोच रहे थे, यहाँ कब संघ आता है? शनिवार के प्रभात में संघ जबलपुर की ओर रवाना हुआ।
                   जबलपुर के अधारताल के पास लोगों ने योगिराज की भव्य आगवानी की। संघ ने आकर मिलोनीगंज के मंदिर की वंदना की। पश्चात संघ गोलबाजार की तरफ रवाना हुआ। हजारों नर-नारियों का समुदाय इन संतराज के स्वागतार्थ इकठ्ठा हुआ था।
                     कटनी के बाद आचार्य महराज एक दिन के अंतराल से आहार लिया करते थे। कटनी में तो उनका त्याग कठिन रूप में था। पाँच-पाँच, छह-छह, उपवास करना साधारण सी बात थी। यह होते हुए भी धार्मिक कार्यों में प्रमाद का लेश नहीं था। 
                 महराज का संघ जैन बोर्डिंग, गोलबाजार में विराजमान था। मुनियों के आहार के बाद जैन व्यापारी अपनी-अपनी दुकानें खोलते थे। जब धर्म पुरुषार्थ का लाभ हो रहा था, तब चतुर समाज ने सही सोचा कि अमूल्य समय पर उस धर्म निधि का संचय करना ठीक होगा।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  20. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २९७   ?

         "भविष्य की बातों का पूर्वदर्शन"

                   सन १९४७ में पूज्य शान्तिसागर महराज ने वर्षायोग सोलापुर में व्यतीत किया था। मैं भी गुरुदेव की सेवा में व्रतों में पहुंचा था। एक दिन व्रतों के समय पूज्यश्री के मुख से निकला "ये रजाकार लोग हैदराबाद रियासत में बड़ा पाप व अनर्थ कर रहे हैं। इनका अत्याचार सीमा को लांघ रहा है। इनको अब खत्म होने में तीन दिन से अधिक समय नहीं लगेगा।"
              महराज के मुख से ये शब्द सुने थे। उसके दो चार रोज बाद ही सरदार बल्लभभाई पटेल के पथ-प्रदर्शन के अनुसार हैदराबाद पर भारत सरकार ने पुलिस कार्यवाही रूप आक्रमण कर दिया और तीन दिन के भीतर ही हैदराबाद ने भारत सरकार के समक्ष घुटने टेक दिए।
                इसके अनंतर मैंने आचार्य महराज से कहा, "महराज ! उस दिन आपके मुख से हैदराबाद का जो भविष्य निकला था, यह पूर्णतः ठीक निकला। यह बताइये, इसका कैसे पता चल गया, आप तो राजनीति आदि की खबरों से दूर रहते हैं।"
           महराज ने कहा, "हमारा जैसा ह्रदय बोला, वैसा हमने कहा रहा।"

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  21. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २९६   ?

                      "देवज्ञ का कथन"

                 एक बार एक उच्चकोटि के ज्योतिषशास्त्र के विद्वान को आचार्य महराज की जन्मकुंडली दिखाई थी। उसे देखकर उन्होंने कहा था, जिस व्यक्ति की यह कुंडली है, उनके पास तिलतुष मात्र भी संपत्ति नहीं होना चाहिए, किन्तु उनकी सेवा करने वाले लखपति, करोड़पति होने चाहिए।
                उन्होंने यह भी कहा था कि इनकी शारीरिक शक्ति गजब की होनी चाहिए। बुद्धि बहुत तीव्र बताई थी और उन्हें महान तत्वज्ञानी भी बताया था।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  22. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २९५   ?

                            "विहार"

                   अगहन कृष्णा एकम् का दिन आया। आहार के उपरांत महराज ने सामयिक की और जबलपुर की ओर विहार किया। उस समय आचार्य महराज में कटनी के प्रति रंचमात्र भी मोह का दर्शन नहीं होता था। उनकी मुद्रा पर वैराग्य का ही तेज अंकित था। 
                   हजारों व्यक्ति, जिनमें बहुसंख्यक अजैन भी थे, बहुत दूर तक महराज को पहुंचाने गए। महराज अब पुनः कटनी लौटने वाले तो थे नहीं, क्या ऐसा सौभाग्य पुनः मिल सकता है?
                 कटनी की समाज के ह्रदय पर महराज का आज भी शासन विद्यमान है। जब कभी वहाँ के श्रावको से समक्ष चर्चा आ जाती है, तो वे आनंद मग्न होकर उन पुण्य दिवसों का स्मरण कर लेते हैं। विशुद्ध जीवन के बिना ऐसा स्थायी पवित्र प्रभाव कैसे हो सकता है? महराज को आहारदान का सौभाग्य मिल जाए, इससे कटनी से श्रावकों की मंडली संघ के साथ रवाना हो गई।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  23. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २९४   ?

                          "पश्चाताप"
        
                  लेखक दिवाकरजी पूर्व समय में उनके द्वारा गलत संगति में पूज्य शान्तिसागरजी महराज की चर्या की परीक्षा का जो भाव था उसके संबंध में लिखते हैं कि ह्रदय में यह भाव बराबर उठते थे कि मैंने कुसंगतिवश क्यों ऐसे उत्कृष्ट साधु के प्रति अपने ह्रदय में अश्रद्धा के भावों को रखने का महान पातक किया? संघ में अन्य सभी साधुओं का भी जीवन देखा, तो वे भी परम पवित्र प्रतीत हुए।
                  मेरा सौभाग्य रहा जो मैं आचार्यश्री के चरणों में आया और मेरा दुर्भाव तत्काल दूर हो गया। मेरे कुछ साथी तो आज भी सच्चे गुरुओं के प्रति मलिन दृष्टि धारण किए हुए हैं: 'बुद्धिः कर्मानुसारीणी' खराब होनहार होने पर दृष्टि बुद्धि होती हैं।
              उस समय कटनी में महराज की तपश्चर्या बड़ी प्रभावप्रद थी। संघ के सभी साधु ज्ञान और वैराग्य की मूर्ति थे। धार्मिकों के लिए तो वे अतुल्य लगते थे। आचार्यश्री कम बोलते थे, किन्तु जो बोलते थे, वह अधिक गंभीर तथा भावपूर्ण रहता था।
               पूजन, भजन, तत्वचर्चा, धर्मोपदेश में दिन जाते पता नहीं चला। वर्षायोग समाप्ति का दिन आ गया। अब कल संघ का कटनी से विहार होगा, इस विचार से लोगों के ह्रदय पर वज्राघात-सा होता था। कितनी शांति, सुख, संतोषपूर्वक समय व्यतीत हुआ, इनकी घर-घर में चर्चा होती थी।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  24. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २९२   ?

            "आचार्य चरणों का प्रथम परिचय"

                      इस चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ के यशस्वी लेखक दिवाकरजी कटनी के चातुर्मास के समय का उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि मैंने भी पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के जीवन का निकट निरीक्षण नहीं किया था। अतः साधु विरोधी कुछ साथियों के प्रभाववश मैं पूर्णतः श्रद्धा शून्य था। 
                 कार्तिक की अष्टान्हिका के समय काशी अध्यन निमित्त जाते हुए एक दिन के लिए यह सोचकर कटनी ठहरा कि देखें इन साधुओं का अंतरंग जीवन कैसा है?
              लेकिन उनके पास पहुँचकर देखा, तो मन को ऐसा लगा कि कोई बलशाली चुम्बक चित्त को खेंच रहा है। मैंने दोष को देखने की दुष्ट बुद्धि से ही प्रेरित हो संघ को देखने का प्रयत्न किया था, किन्तु रंचमात्र भी सफलता नहीं मिली। संघ गुणों का रत्नाकर लगा।
    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  25. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २९१   ?

                      "श्रावकों की भक्ति"

                    पूज्य शान्तिसागरजी महराज के कटनी चातुर्मास निश्चित होने के बाद श्रावकों को अपने भाग्य पर आश्चर्य हो रहा था कि किस प्रकार अद्भुत पुण्योदय से पूज्यश्री ससंघ का चातुर्मास अनायास ही नहीं, अनिच्छापूर्वक, ऐसी अपूर्व निधि प्राप्त हो गई। बस अब उनकी भक्ति का प्रवाह बड़ चला।
               जो जितने प्रबल विरोधी होता है, वह दृष्टि बदलने से उतना ही अधिक अनुकूल भी बन जाता है। इंद्रभूति ब्राह्मण महावीर भगवान के शासन का तीव्र विरोधी था, किन्तु उसने प्रभु के जीवन का सौंदर्य देखा और उसमें अपूर्व सौरभ और प्रकाश पाया। अतः इतना प्रबल भक्त बन गया कि प्रभु के उपदेशानुसार निर्ग्रन्थ मुनि बन कर भगवान के भक्त शिष्यों का शिरोमणि बनकर गौतम गणधर के नाम से विख्यात हो गया। भावों की अद्भुत गति है।
                 अब तो कटनी की समाज में आंतरिक भक्ति का स्त्रोत उमड़ पड़ा, इससे आनंद की अविच्छिन्न धारा भी बह चली। बड़े सुख, शांति, आनंद और धर्मप्रभावना के साथ वहाँ का समय व्यतीत होता जा रहा था।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
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