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Abhishek Jain

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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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  1. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
          
            पूज्य चारित्र चक्रवर्ती शान्तिसागर जी महराज का श्रमण संस्कृति में इतना उपकार है जिसका उल्लेख नहीं किया जा सकता। उनके उपकार का निर्ग्रन्थ ही कुछ अंशों में वर्णन कर सकते हैं।
          पूज्य शान्तिसागर जी महराज ने श्रमण संस्कृति का मूल स्वरूप मुनि परम्परा को देशकाल में हुए उपसर्गों के उपरांत पुनः जीवंत किया था। यह बात लंबे समय से उनके जीवन चरित्र को पढ़कर हम जान रहे हैं। आज का भी प्रसंग उसी बात की पुष्टि करता है।
    *? अमृत माँ जिनवाणी से- ३३५  ?*

             *"देहली चातुर्मास की घटना*"

            पूज्य चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री शान्तिसागर जी महराज के सुयोग्य शिष्य नेमीसागर जी महराज ने देहली चातुर्मास की एक बात पर इस प्रकार प्रकाश डाला था-
         "देहली में संघ का चातुर्मास हो रहा था। उस समय नगर के प्रमुख जैन वकील ने संघ के नगर में घूमने की सरकारी आज्ञा प्राप्त की थी। उसमें नई दिल्ली, लालकिला, जामा मस्जिद, वायसराय भवन आदि कुछ स्थानों पर जाने की रोक थी। 
           जब आचार्य महराज को यह हाल विदित हुआ, तब उनकी आज्ञानुसार मैं, चंद्रसागर, वीरसागर उन स्थानों पर गए थे, जहाँ गमन के लिए रोक लगा दी गई थी। 
           आचार्य महराज ने कह दिया था कि जहाँ भी विहार में रोक आवे, तुम वहीं बैठ जाना।
           हम सर्व स्थानों पर गए। कोई रोक-टोक नहीं हुई। उन स्थानों पर पहुँचने के उपरांत फोटो उतारी गई थी, जिससे यह प्रमाणित होता था कि उन स्थानों पर दिगम्बर मुनि का विहार हो चुका हैं।"
           नेमीसागर महराज ने बम्बई में उन स्थानों पर भी विहार किया है, जहाँ मुनियों के विहार को लोग असंभव मानते थे। हाईकोर्ट, समुद्र के किनारे जहाँ जहाजों से माल आता जाता है। ऐसे प्रमुख केन्दों पर भी नेमीसागर महराज गए, इसके चित्र भी खिचें हैं।
            इनके द्वारा दिगम्बर जैन मुनिराज के सर्वत्र विहार का अधिकार स्पष्ट सूचित होता है। साधुओं की निर्भीकता पर भी प्रकाश पड़ता है।
    ? *स्वाध्याय चा. चक्रवर्ती ग्रंथ का*?
    ?आजकी तिथी - चैत्र शुक्ल पूर्णिमा?
  2. Abhishek Jain
    ? *अमृत माँ जिनवाणी से - ३३४* ?
         *"घुटनों के बल पर आसान"*
             नेमीसागर महराज घुटनों के बल पर खड़े होकर आसान लगाने में प्रसिद्ध रहे हैं। मैंने पूंछा- "इससे क्या लाभ होता है?" उन्होंने बताया - "इस आसान के लिए विशेष एकाग्रता लगती है। इससे मन का निरोध होता है। बिना एकाग्रता के यह आसन नहीं बनता है। इसे "गोड़ासन" कहते हैं।
           इससे मन इधर उधर नहीं जाता है और कायक्लेश तप भी पलता है। दस बारह वर्ष पर्यन्त मैं वह आसन सदा करता था, अब वृद्ध शरीर हो जाने से उसे करने में कठिनता का अनुभव होता है।"
           मैंने पूंछा- "महराज ! गोड़ासन करते समय घुटने के नीचे कोई कोमल चीज आवश्यक है या नहीं?"
           वे बोले- "मैं कठोर चट्टान पर भी आसन लगाकर जाप करता था। भयंकर से भयंकर गर्मी में भी गोड़ासन पाषाण पर लगाकर सामयिक करता था। मेरे साथी अनेक लोगों ने इस आसन का उद्योग किया, किन्तु वे सफल नहीं हुए।"
             ध्यान के लिए सामान्यतः पद्मासन, पल्यंकासन और कायोत्सर्ग आसन योग्य हैं। अन्य प्रकार का आसन कायक्लेश रूप है। गोड़ासन करने की प्रारम्भ की अवस्था में घटनों में फफोले उठ आए थे। मैं उनको दबाकर बराबर अपना आसन का कार्य जारी रखता था।"
    ? *स्वाध्याय चा. चक्रवर्ती ग्रंथ का* ?
    ?आजकी तिथी - चैत्र शुक्ल त्रयोदशी?
  3. Abhishek Jain
    ?  अमृत माँ जिनवाणी से - ३३३  ?
           *"सर्वप्रथम ऐलक शिष्य"*
            पूज्य शान्तिसागर जी महराज के सुशिष्य नेमीसागर जी महराज ने बताया कि- "आचार्य महराज जब गोकाक पहुँचे तब वहाँ मैंने और पायसागर ने एक साथ ऐलक दीक्षा महराज से ली। उस समय आचार्य महराज ने मेरे मस्तक पर पहले बीजाक्षर लिखे थे। मेरे पश्चात पायसागर के दीक्षा के संस्कार हुए थे।
        *"समडोली में निर्ग्रन्थ दीक्षा*"
              "दीक्षा के दस माह बाद मैंने समडोली में निर्ग्रन्थ दीक्षा ली थी। वहाँ आचार्य महराज ने पहले वीरसागर के मस्तक पर बीजाक्षर लिखे थे, पश्चात मेरे मस्तक पर लिखे थे। इस प्रकार मेरी और वीरसागर की समडोली में एक साथ मुनि दीक्षा हुई थी। वहाँ चंद्रसागर ऐलक बने थे।"
    *? स्वाध्याय चा. चक्रवर्ती ग्रंथ का ?*
    ?आजकी तिथी - चैत्र शुक्ल द्वादशी?
  4. Abhishek Jain
    ?  अमृत माँ जिनवाणी से - ३३२  ?

                    *पिताजी से चर्चा*

          पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर जी महराज के सुयोग्य शिष्य नेमीसागर जी महराज द्वारा उनके मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति का वृतांत ज्ञात हुआ। गृहस्थ जीवन के बारे में उन्होंने बताया कि-
       "एक दिन मैंने अपने पिताजी से कुड़ची में कहा- "मैं चातुर्मास में महराज के पास जाना चाहता हूँ।"
           वे बोले -"तू चातुर्मास में उनके समीप जाता है, अब क्या वापिस आएगा? "पिताजी मेरे जीवन को देख चुके थे, इससे उनका चित्त कहता था कि आचार्य महराज का महान व्यक्तित्व मुझे सन्यासी बनाए बिना नहीं रहेगा। यथार्थ में हुआ भी ऐसा।"

                *जीवनधारा में परिवर्तन*
            "चार माह के सत्संग ने मेरी जीवन धारा बदल दी। मैंने महराज से कहा- "महराज ! मेरे दीक्षा लेने के भाव हैं। अपने कुटुम्ब से परवानगी लेने का विचार नहीं है। घर वाले कैसे मंजूरी देंगे? मुफ्त में नौकर मिलता है, जो कुटुम्ब की सेवा करता रहता है, तब फिर परवानगी कौन देगा?"
           महराज ने कहा- "ऐसा शास्त्र में कहा है कि आत्मकल्याण के हेतु आज्ञा प्राप्त करना परम आवश्यक नहीं है।"
         "नेमीसागर जी ने बताया कि मेरे दीक्षा लेने के भाव अठारह वर्ष की अवस्था में ही उत्पन्न हो चुके थे। उसके पूर्व की मेरी कथा विचित्र थी।"
      यह कथा प्रसंग क्रमांक ३३० में भेजी गई थी। पुनः प्रेषित करता हूँ??
    *? स्वाध्याय चा. चक्रवर्ती ग्रंथ का ?*
        ?आजकी तिथी - चैत्र शुक्ल ११?
  5. Abhishek Jain
    ? अमृत माँ जिनवाणी से - ३३१ ?
                       *परिचय*

            पंडित श्री दिवाकर जी ने लिखा कि पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर जी महराज के योग्य शिष्य मुनिश्री १०८ नेमीसागर जी महराज महान तपस्वी हैं।
          नेमीसागर जी महराज ने बताया कि "हमारा और आचार्य महराज का ५० वर्ष पर्यन्त साथ रहा। चालीस वर्ष के मुनिजीवन के पूर्व मैंने गृहस्थ अवस्था में भी उनके सत्संग का लाभ लिया था।
           आचार्य महराज कोन्नूर में विराजमान थे। वे मुझसे कहते थे- "तुम शास्त्र पढ़ा करो। मैं उनका भाव लोगों को समझाऊँगा।"
            वे मुझे और बंडू को शास्त्र पढ़ने को कहते थे। मैं पाँच कक्षा तक पढ़ा था। मुझे भाषण देना नहीं आता था। शास्त्र बराबर पढ़ लेता था, इससे महराज मुझे शास्त्र बाचने को कहते थे। मेरे तथा बंडू के शास्त्र बाँचने पर जो महराज का उपदेश होता था, उससे मन को बहुत शांति मिलती थी। 
             अज्ञान भाव दूर होता था। ह्रदय के कपाट खुल जाते थे। उनका सत्संग मेरे मन में मुनि बनने का उत्साह प्रदान करता था। मेरा पूरा झुकाव गृह त्यागकर साधु बनने का हो गया था।"
    *? स्वाध्याय चा. चक्रवर्ती ग्रंथ का ?*
     ?आजकी तिथी - चैत्र शुक्ल दशमी?
  6. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
            कल से हमने पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर जी महराज के योग्य शिष्य महान तपस्वी नेमीसागर जी महराज के जीवन चरित्र को जानना प्रारम्भ किया था।
            आज के प्रसंग को जानकर हम सभी को ज्ञात होगा कि जीव कैसे-कैसे वातावरण से निकल कर मोक्ष मार्ग में लग सकता है।
    ? *अमृत माँ जिनवाणी से - ३३०*  ?
          *"पूर्व जीवन में मुस्लिम प्रभाव"*

           पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर जी महराज के योग्य शिष्य नेमीसागर जी महराज का पूर्व जीवन सचमुच में आश्चर्यप्रद था। उन्होंने यह बात बताई थी - 
        "मैं अपने निवास स्थान कुड़ची ग्राम में मुसलमानों का स्नेह पात्र था। मैं मुस्लिम दरगाह में जाकर पैर पड़ा करता था। सोलह वर्ष की अवस्था तक मैं वहाँ जाकर उदबत्ती जलाता था। शक्कर चढ़ाता था।"
          "जब मुझे अपने धर्म की महिमा का ज्ञान हुआ, तब मैंने दरगाह आदि की तरफ जाना बंद कर दिया। मेरा परिवर्तन मुसलमानों को सहन नहीं हुआ। वे लोग मेरे विरुद्ध हो गए और मुझे मारने का विचार करने लगे।"
            *"ऐनापुर में स्थान परिवर्तन*"
             "ऐसी स्थिति में अपनी धर्म-भावना के रक्षण के निमित्त मैं कुचडी से चार मील की दूरी पर स्थित ऐनापुर ग्राम में चला गया। वहाँ के पाटील की धर्म में रुचि थी। वह हम पर बहुत प्यार करता था। इससे मैंने ऐनापुर में ही रहना ठीक समझा।"

    *? स्वाध्याय चा.चक्रवर्ती ग्रंथ का ?*
    ?आजकी तिथी - चैत्र शुक्ल नवमी?
  7. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
           चारित्र चक्रवर्ती पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर जी महराज के जीवन चरित्र की प्रस्तुती की इस श्रृंखला में प्रस्तुत किए शान्तिसागर जी महराज के योग्य शिष्य मुनिश्री पायसागर जी महराज के जीवन चरित्र को सभी ने बहुत ही पसंद किया तथा सभी के जीवन को प्रेरणादायी जाना।
            आज से पूज्य पायसागर जी महराज की भांति आश्चर्य जनक जीवन चरित्र के धारक पूज्य नेमीसागर जी महराज के जीवन चरित्र की कुछ प्रसंगों में प्रस्तुती की जायेगी।
    *? अमृत माँ जिनवाणी से - ३२९  ?*
            
              *"जीवन में उपवास साधना"*

            पूज्य चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री शान्तिसागर जी महराज के योग्य शिष्य पूज्य नेमीसागर जी महराज के दीक्षा के ४४ वर्ष ही हो गए एक उपवास, एक आहार का क्रम प्रारम्भ से चलता आ रहा है। इस प्रकार उनका नर जन्म का समय उपवासों में व्यतीत हुआ।
    उन्होंने तीस चौबीसी व्रत के ७२० उपवास किए।
     कर्मदहन के १५६ तथा चारित्रशुद्धि व्रत के १२३४ उपवास किए। 
    दशलक्षण के ५ बार १०-१० उपवास किये।
    अष्टान्हिका में तीन बार ८-८ उपवास किए।
    लोणंद में महराज नेमीसागर ने सोलहकारण के १६ उपवास किए थे।
          इस प्रकार उनकी तपस्या अद्भुत रही है। २, ३, ४ उपवास तो वह जब चाहे तब करते थे।

    *? स्वाध्याय चा. चक्रवर्ती ग्रंथ का ?*
    ?आजकी तिथी - चैत्र शुक्ल अष्टमी?
  8. Abhishek Jain
    ?  अमृत माँ जिनवाणी से - ३२८  ?

              *"नवधा भक्ति का कारण"*

           आचार शास्त्र पर पूज्य आचार्य श्री शान्तिसागर जी महराज का असाधारण अधिकार था, यही कारण है कि सभी उच्च श्रेणी के विद्वान आचार शास्त्र की शंकाओं का समाधान आचार्य महराज से प्राप्त करते थे। आचार्यश्री की सेवा में रहने से अनेक महत्व की बातें ज्ञात हुआ करती थी।
         शास्त्र में कथित नवधा-भक्ति के संबंध में आचार्यश्री ने कहा था-
    "नवधा भक्ति अभिमान-पोषण के हेतु नहीं है। वह धर्म रक्षण के लिए है। उससे जैनी की परीक्षा होती है। अन्य लोग धोखा नहीं दे सकते हैं।"
    *? स्वाध्याय चा. चक्रवर्ती ग्रंथ का ?*
        ?आजकी तिथी - चैत्र शुक्ल ७?
  9. Abhishek Jain
    ? अमृत माँ जिनवाणी से - ३२७  ?
                        *शरीरविस्मृति*

            सन् १९५२ के आरम्भ में पूज्य आचार्य महराज शान्तिसागर जी महराज दहीगाँव नाम के तीर्थक्षेत्र में विराजमान थे। एक दिन वहाँ के मंदिर से दूसरी जगह जाते हुए उनका पैर ठीक सीढ़ी पर न पड़ा, इसलिए वे जमीन पर गिर पड़े।
           यह तो बड़े पुण्य की बात थी कि वह प्राण लेने वाली दुर्घटना एक पैर में गहरा घाव ही दे पाई। महराज के पैर में डेढ़ इंच गहरा घाव हो गया, जिसमें एक बादाम सहज ही समा सकती थी। उस स्थिति में महराज ने पैर में किसी प्रकार की पट्टी वगैरह नहीं बंधवाई, एक साधारण सी निर्दोष औषधि पैर में लगती थी।
              उनके पास सिवनी से दो व्यक्ति दर्शनार्थ पहुँचे थे। उन्होंने आकर हमें सुनाया कि महराज के पास हमें तीन चार घंटे रहने का सौभाग्य मिला था। उस समय हम लोगों ने यह विलक्षण बात देखी कि पैर में भयंकर चोट होते हुए भी उन्होंने हमारे सामने एक बार भी अपने पैर के घाव की ओर दृष्टि नहीं दी।
            उनकी शरीर के प्रति कितनी निर्ममता थी इसका ज्ञान उनके पैर के घाव के प्रति उपेक्षा भाव से स्पष्ट होता था।
    *?स्वाध्याय चा. चक्रवर्ती ग्रंथ का ?*
  10. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २६५    ?
                    *"जाप का काल"*
        
             एक दिन मैंने (७ सितम्बर सन् १९५१ के) सुप्रभात के समय आचार्य महराज से पूंछा था- "महराज आजकल आप कितने घंटे जाप किया करते है?"
            महराज ने कहा - रात को एक बजे से सात बजे तक, मध्यान्ह में तीन घंटे तथा सायंकाल में तीन घंटे जाप करते हैं।" इससे सुहृदय सुधी सोच सकता है कि इन पुण्य श्लोक महापुरुष का कार्यक्रम कितना व्यस्त रहता है।
    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  11. Abhishek Jain
    ?  अमृत माँ जिनवाणी से - २६४  ?

                  "आलंद में प्रभावना"

                  आलंद की जैन समाज ने उत्साह पूर्वक संघ का स्वागत किया। वहाँ संघ सेठ नानचंद सूरचंद के उद्यान में ठहरा था।
                पहले ऐंसी कल्पना होती थी, कि कहीं संकीर्ण चित्तवाले अन्य सम्प्रदाय के लोग विघ्न उपस्थित करें, किन्तु महराज शान्तिसागर जी के तपोबल से ऐंसा अद्भुत परिणमन हुआ कि ब्राम्हण, मुसलमान, लिंगायत, हिंदु आदि सभी धर्म वाले भक्तिपूर्वक दर्शनार्थ आए और प्रसाद के रूप में पवित्र धर्मोपदेश तथा कल्याणकारी बातें साथ में लेते गए।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  12. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३२३   ?
                    "विवेकशून्य भक्ति"
       
           बारामती में एक धुरंधर शास्त्री आए। उन्होंने महराज के चरणों में पुष्प रख दिया। महराज ने पूंछा, "यह क्या किया?"
           वे बोले- "महराज देव, गुरु, शास्त्र समान रूप से पूज्यनीय हैं। देव की पुष्प से पूजा के समान आपकी चरणपूजा की है।
          महराज ने कहा ऐसा करोगे तो बड़ा अनर्थ हो जायेगा, भगवान के अभिषेक के समान शास्त्र का अभिषेक नहीं किया जाता है। हर एक बात की मर्यादा होती है।"
           अपने वचन के पोषनार्थ में पुनः शास्त्री जी ने पूंछा, "महराज चरणों में पुष्प रखने से क्या बाधा हो गई?"
           महराज ने कहा -"शरीर की उष्णता से जीवों का प्राणघात हो जायेगा, अतः ऐंसा नहीं करना चाहिए।"

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  13. Abhishek Jain
    *?  आज ज्ञान कल्याणक पर्व है  ?*

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
       
              आज ११ नवंबर दिन शुक्रवार, कार्तिक शुक्ल ग्यारस की शुभ तिथी को १८ वें तीर्थंकर *देवादिदेव श्री १००८ अरहनाथ भगवान* का *ज्ञान कल्याणक* पर्व है।
    ??
    आज अत्यंत भक्तिभाव से अरहनाथ भगवान की पूजन कर भगवान का गर्भ कल्याणक पर्व मनाएँ।
    ??
    जो श्रावक पंचकल्याणक के व्रत करते हैं कल उनके व्रत का दिन है।

    *?? आचार्यश्री विद्यासागर सेवासंघ ??*
  14. Abhishek Jain
    *?    आज गर्भ कल्याणक पर्व है    ?*

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
       
              आज ६ नवंबर दिन रविवार, कार्तिक शुक्ल छठवी की शुभ तिथी को २२ वें तीर्थंकर *देवादिदेव श्री १००८ नेमिनाथ भगवान* का *गर्भ कल्याणक* पर्व है।
    ??
    आज अत्यंत भक्तिभाव से नेमिनाथ भगवान की पूजन कर भगवान का गर्भ कल्याणक पर्व मनाएँ।
    ??
    जो श्रावक पंचकल्याणक के व्रत करते हैं कल उनके व्रत का दिन है।

    *?? आचार्यश्री विद्यासागर सेवासंघ ??*
  15. Abhishek Jain
    *?     आज मोक्षसप्तमी पर्व है।    ?*

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,

                 आज ९ अगस्त, दिन मंगलवार, श्रावण शुक्ल सप्तमी की शुभ तिथी को २३ वे तीर्थंकर *देवादिदेव श्री १००८ पार्श्वनाथ भगवान* का *मोक्ष कल्याणक* पर्व है

    ??
    इस अवसर पर हम सभी को अपने भी निर्वाण की भावना के साथ भगवान पार्श्वनाथ की पूजन अत्यंत भक्ति भाव से *निर्वाण लाडू* चढ़ाकर करना चाहिए।
    ?
    इस अवसर पर हम सभी को पार्श्वनाथ भगवान के श्री चरणों में यही भावना करना चाहिए कि हे भगवन जिस तरह आपके जीव ने अहिंसा व्रतों को धारण कर विशेष पुरुषार्थ द्वारा वीतराग अवस्था को प्राप्त किया एवं तदनंतर उत्कृष्ट सुख को प्राप्त किया उसी तरह हम भी अहिंसा व्रतों को धारण कर शीघ्र ही अपना कल्याण करें।
    ??
    भगवान के निर्वाण कल्याणक आदि विशेष पर्वों को सभी जगह की जैन समाज को अपने-२ शहर में सामूहिक रूप से विशेष प्रभावना के साथ मनाना चाहिए।
    ??????????
      हम पार्श्व के हैं भक्त निशदिन,
        पार्श्व को ही पूजते।
      आप बिन हे नाथ हमरे,
        पाप् कैसे धूजते।।
      यह सत्य है कि दस भवों तक,
       आप समता धारते।
      सर्व विधि को नाथ करके,
       मोक्ष पहुँचे पार है।।
    ??????????
          ??पार्श्वनाथ भगवान की जय??
     ??निर्वाणस्थल  सुवर्णभद्रकूट की जय??
        ??निर्वाण भूमि शिखरजी की जय??

     पार्श्वनाथ भगवान के मोक्ष कल्याणक के इस विशेष अवसर पर अनेकों श्रावक उपवास रखते हैं। उपवास रखने वाले सभी श्रावक के धर्म-ध्यान के इस पुरुषार्थ की ह्रदय से अनुमोदना।
      *??आचार्यश्री विद्यासागर सेवासंघ??*
  16. Abhishek Jain
    *?        कल अष्टमी पर्व है           ?*

    जय जिनेन्द्र बंधुओ,

                  कल  २७ जुलाई, दिन बुधवार को अष्टमी पर्व है।

    ??
    कल जिनमंदिर जाकर देवदर्शन करें।
    ??
    जो श्रावक प्रतिदिन देवदर्शन करते है उनको अष्टमी/चतुर्दशी के दिन भगवान का अभिषेक और पूजन करना चाहिए।
    ??
    इस दिन रात्रि भोजन व् आलू-प्याज आदि जमीकंद का त्याग करना चाहिए।
    ??
    जो श्रावक अष्टमी/चतुर्दशी का व्रत करते है कल उनके व्रत का दिन है।
    ??
    इस दिन राग आदि भावो को कम करके ब्रम्हचर्य के साथ रहना चाहिए।


    इस दिन धर्म करने से विशेषरूप से अशुभ कर्मो का नाश होता है।

    अपकी संतान को लौकिक शिक्षा के समान ही धर्म की शिक्षा जरुरी है।अपने बच्चों को पाठशाला भेजें।क्योकि धार्मिक शिक्षा वर्तमान में उनको तनाव मुक्त जीवन व् शांति प्रदान करेगी ही साथ ही भविष्य में नरक,तिर्यन्च आदि अधोगतियों से बचायगी।

    ? *तिथी* - श्रावक कृष्ण अष्टमी।

    *?? आचार्यश्री विद्यासागर सेवासंघ ??*
       *"मातृ भाषा अपनाएँ, संस्कृती बचाएँ"*

    इस तरह की सूचनाओं को आप भी अन्य श्रावकों को प्रेषित कर पुण्य के भागीदारी बन सकते हैं।
  17. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३२६   ?

                      "पथ प्रदर्शक"

           कल के प्रसंग के माध्यम से हमने जाना कि पूज्य चारित्र चक्रवर्ती शान्तिसागरजी महराज के प्रारंभिक जीवन में किन ग्रंथो का महत्वपूर्ण प्रभाव रहा था।
           दिवाकर जी जिज्ञासा पर पूज्य शान्तिसागर जी महराज ने कहा, "शास्त्रों में स्वयं कल्याण नहीं है। वे तो कल्याण के पथ प्रदर्शक हैं। देखो ! सड़क पर कहीं खम्भा गड़ा रहता है, वह मार्गदर्शन कराता है। इष्ट स्थान पर जाने को तुम्हें पैर बढ़ाना होगा। वासनाओं की दासता का त्याग ही कल्याणजनक है।"

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
     ?आज की तिथी - आषाढ़ शुक्ल ५?
  18. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३२५   ?

              "किन ग्रंथों का प्रभाव पढ़ा"

               एक बार पूज्य शान्तिसागरजी महराज के जीवन चरित्र के लेखक दिवाकरजी ने पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज से पूछा, "महराज ! प्रारम्भ में कौन से शास्त्र आपको विशेष प्रिय लगते थे और किन ग्रंथो  ने आपके जीवन को विशेष प्रभावित किया?
             महराज ने कहा, "जब हम पंद्रह-सोलह वर्ष के थे तब हिन्दी में समयसार तथा आत्मानुशासन बांचा करते थे। हिन्दी रत्नकरंडश्रावकाचार की टीका भी पढ़ते थे। इससे मन को बड़ी शांति मिलती थी।
             आत्मानुशासन पढ़ने से मन में वैराग्य भाव बढ़ता था। इसमें वैराग्य तथा स्त्रीसुख से विरक्ति का अच्छा वर्णन है। इससे हमारा मन त्याग की ओर बढ़ता था। इरादा १७-१८ वर्ष की अवस्था से ही मुनि बनने का था।"
          महराज ने यह भी बताया कि आत्मानुशासन की चर्चा अपने श्रेष्ट सत्यव्रती मित्र रुद्रप्पा नामक लिंगायत बंधु से किया करते थे। इन दोनो महापुरुषों का परस्पर में तत्व विचार चला करता था। महराज ने कहा था कि "आत्मानुशासन की कथा रुद्रप्पा को बड़ी प्रिय लगती थी।"

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
      ?आजकी तिथी - आषाढ़ शुक्ल ४?
  19. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३२४   ?

                     "बालकों पर प्रेम"

            वीतराग की सजीव मूर्ति होते हुए आचार्यश्री में अपार वात्सल्य पाया जाता था। लगभग १९३८ के भाद्रपद की बात है। उस समय महराज ने बारामती में सेठ रामचंद्र के उद्यान में चातुर्मास किया था।
            एक दिन अपरान्ह में महराज का केशलोंच हो रहा था। उनके समीप एक छोटा तीन वर्ष की अवस्था वाला स्वस्थ सुरूप तथा नग्न मुद्रा वाला बालक महराज को केशलोंच करते देखकर नकल करने वाले बंदर के समान अपने बालों को पकड़कर धीरे-२ खीचता था।
          उस बालक को देखकर महराज का मुख सस्मित हो गया और उन्होंने सहज आशीर्वाद दे उसके सिर पर अपनी पिच्छी से स्पर्श कर दिया। 
          लौंच के उपरांत जब महराज का मौन खुला, तब मैंने महराज से पूंछा- "महराज इस बालक के मस्तक पर आपने पिच्छी का स्पर्श क्यों करा दिया?"
            जब वे कुछ न बोले, तब मैंने कहा - "महराज ! मुनिपद को बालकवत निर्विकार कहा गया है। अपने पक्षवालों को देखकर किसे प्रेम उत्पन्न नहीं होता है। प्रतीत होता है, इसी कारण उस बालक पर आपका वात्सल्य जागृत हो गया?"
        महराज के सस्मित मुख से प्रतीत होता है कि मौन द्वारा मेरा समर्थन किया।
    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
      ?आज की तिथी- आषाढ़ शुक्ल ३?
  20. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २५८   ?

               "राजधर्म पर प्रकाश - १"

                पूज्य शान्तिसागरजी महराज ने अपने सम्बोधन में कहा - "राजनीति तो यह है कि राज्य भी करे तथा पुण्य भी कमावे। पूर्व में तप करने वाला राजा बनता था। दान देने वाला धनी बनता है। राज्य पर कोई आक्रमण करे तो उसको हटाने के लिए प्रति आक्रमण करना विरोधी हिंसा है, उसका त्याग गृहस्थी में नहीं बनता है, उसे अपना घर सम्हालना है और चोर से भी रक्षा करना है।
               सज्जन राजा गरीबों के उद्धार का उपाय करता है। गरीब दो प्रकार के हैं, जो ह्रष्ट-पुष्ट गरीब आजीविका विहीन हैं, उनको आजीविका से लगाना चाहिए। जो गरीब अंगहीन हैं, उनका रक्षण करना चाहिए।" 
            महराज ने कहा- "जो पंच पाप करता है वह पापी है, जो उन्हें छोड़ता है वह पुण्यवान है। पंच पाप की पुष्टि से राज्य करना अन्याय है। प्रजा का अपने बच्चे की तरह पालन करना राजनीति है।"

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  21. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
                आज के प्रसंग से आपको ज्ञात होगा कि परम पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज की चर्या के माध्यम से धीरे-२ पुनः  सर्वत्र मुनिसंघ का विचरण प्रारम्भ हुआ।
               वर्तमान में मुनिराजों द्वारा पू. शान्तिसागरजी महराज के निजाम राज्य प्रवेश संबंध में ज्ञात होता है कि उस समय दिगम्बरों के राज्य में विचरण में प्रतिबंघ था लेकिन पूज्य शान्तिसागरजी महराज के प्रभाव से मुनिसंघ का विहार अप्रतिबंधित हुआ ही साथ ही राज्य प्रवेश में उनकी आगमानी स्वयं वहाँ के शासक ने अपनी बेगम के साथ किया।
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २६३   ?

                     "निजाम राज्य प्रवेश"

                अक्कलकोट आदि स्थानों से होते हुए संघ ने तत्कालीन निजाम राज्य में प्रवेश किया था जो आज स्वतंत्र भारत में विलीन हो गया है। इसके कुछ समय पूर्व आलंद के सेठ माणिकचंद मोतीचंद शाह तथा बालचंद जी कोठारी (बकील), गुलवर्गा ने निजाम रियासत के धार्मिक विभाग के पास प्रार्थना ता. १( सन १९२७ में) दिया, उस पर श्री दिगम्बर आचार्य महराज के संघ के विहार के लिए स्वीकृति प्राप्त हो गई तथा मार्ग में संघ कोई तकलीफ ना हो इससे तत्कालीन पुलिस सुपरिंटेंडेंट मौलवी मुहम्मद जलालुद्दीन ने दो पुलिस के सिपाहियों को दिगम्बर मुनि संघ के साथ-साथ रहने की विशेष आज्ञा तारीख ३ वहमन १३३७ फ. को दी थी।
                   जिसमें लिखा था "मुहम्मद जलालुद्दीन मोहतमिम कोतवाली जिला गुलवर्गा की ओर से मि. बालचंद कोठारी बी.ए., एल.एल.बी. बकील, गुलवर्गा के नाम उत्तर निवेदन है कि आपके प्रार्थना पत्र पर अब्दुल करीमखा आवाजीराम नामक दो जवान(सिपाही) आज तारीख ३ वहमन सन १३३७ फसली को एक माह के लिए रवाना किए जाते हैं, अतः यह अवधि की समाप्ति पर दो इंफन्ददार सन १३३७ फसली को वापिस दिया जावे।"
                जब संघ वागधरी पहुँचा तब वहाँ स्व. सेठ लीलाचंद हेमचंद की धार्मिक सेठानी राजूबाई के सारे संघ तथा अन्य यात्रियों का बड़े आदर पूर्वक भोजन सत्कार किया। यहाँ आहार के उपरांत सामयिक हुई। तत्पश्यात संघ का आलंद की ओर विहार हुआ।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?
  22. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
                आज के प्रसंग में केशलोंच के संबंध में पूज्यश्री द्वारा की गई विवेचना अत्यंत ही महत्वपूर्ण है।
               सामान्यतः हम लोगों को मुनिराज के केशलोंच की क्रिया देखकर ही कष्ट होने लगता है और जिज्ञासा होती है कि मुनिराज इन कष्टकारक क्रियाओं को प्रसन्नता के साथ कैसे संपादित कर लेते हैं? इस प्रसंग को जैनों को जानना ही चाहिए जैनेतर जनों तक भी यह बातें पहुँचाना चाहिए।
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २६२   ?

         "केशलोंच पर अनुभव पूर्ण प्रकाश"

                    एक बार मैंने आचार्य महराज से पूंछा था- "महराज ! आप लोग केशों को उखाड़ते जाते हैं, मुख की मुद्रा में विकृति नहीं आती, मुख पर शांति का भाव पूर्णतया विराजमान रहता है, क्या आपको कष्ट नहीं होता ?"
                  महराज ने कहा था- "हमें केश-लोंच करने में कष्ट मालूम नहीं पड़ता। जब शरीर में मोह नहीं रहता है, तब शरीर-पीढ़ा होने पर भावों में संक्लेश नहीं होता है।"
                 एक बात और है, निरंतर वैराग्य भावना के कारण शरीर के प्रति मोह भाव दूर हो जाता है, अतः आत्मा से शरीर को भिन्न देखने वाले इन तपस्वीयों को केशलोंच आत्मविकास का कारण होता है।
             अन्य सम्प्रदाय वालों के अतःकरण पर इसका गहरा प्रभाव पड़ता है, जिनधर्म की प्रभावना होती है। अहिंसा और अपरिग्रह भाव के रक्षणार्थ यह कार्य किया जाता है।
                    यथार्थ में सुख-दुख संवेदन मनोवृत्ति पर अधिक आश्रित रहता है। जब मन उच्च आदर्श की ओर लगा रहता है तब जघन्य संकटों का भान भी नहीं होता है। 
                  इसे देखकर यह भी समझ में आता है कि मुनिराज जिस प्रकार शरीर से दिगम्बर होते हैं उसी उनका मन भी वासनाओं के अम्बर से उन्मुक्त होता है।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  23. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २९३   ?

                  "गुरुदेव का व्यक्तित्व"

                 दिवाकर जी लिखते हैं कि पूज्य आचार्यश्री महराज को देखकर आँखे नहीं थकती थी। उनके दो बोल आँखों में अमृत घोल घोल देते थे। उनकी तात्विक-चर्चा अनुभूतिपूर्ण चर्चा अनुभवपूर्ण एवं मार्मिक होती थी।
                वहाँ से काशी आने की इच्छा नहीं होती थी। ह्रदय में यही बात आती थी कि जब सच्चे गुरु यहाँ विराजमान हैं, तो इनके अनुभव से सच्चे तत्वों को समझ जाए। यही तो सच्चे शास्त्रों का अध्ययन है।
                 हमारा पूरा अष्टान्हिका पर्व वहाँ ही व्यतीत हो गया। महराज का जीवन तो हीरे के समान ही दीप्तिमान था। उस समय उनके दर्शन से ऐसा ही आनंद आता था, मानों अन्धे को आँख मिल गई हों, दरिद्र को निधि प्राप्त हो गई हो।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  24. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
           आज इस श्रृंखला के ३०० प्रसंग पूर्ण हुए। ग्रंथ के यशस्वी लेखक स्वर्गीय पंडित श्री सुमरेचंदजी दिवाकर का  हम सभी पर महान उपकार रहा जो उनकी द्वारा लिखित ग्रंथ "चारित्र चक्रवर्ती" के माध्यम से पूज्य शान्तिसागरजी महराज के दिव्य जीवन को अनुभव कर पा रहे हैं।
            अभी तक आचार्यश्री के अनेक जीवन प्रसंगों को प्रस्तुत किया गया, लेकिन ग्रंथ के आधार पर अभी भी पूज्य शान्तिसागरजी महराज के जीवन चरित्र के अनेकों प्रसंग प्रस्तुत करना शेष है। प्रस्तुती का यह क्रम चलता रहेगा।
               प्रस्तुती का उद्देश्य, लोगों तक पूज्य शान्तिसागरजी महराज का जीवन चरित्र प्रस्तुत करना है, मैं अपना कर्म कर रहा हूँ, अब पाठक जितना लाभ लें?
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३००   ?

                           "देव-द्रव्य"

                 एक दिन मैंने पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज से पूछा था- "महराज ! अब देव-द्रव्य पर सरकार की शनि दृष्टि पड़ी है, ऐसी स्थिति में उसका क्या उपयोग हो सकता है?"
              महराज ने कहा था- "अपने ही मंदिर में उसका उपभोग करने का मोह छोड़कर अन्य स्थानों के भी जिन मंदिरों को यदि आत्मीय भाव से देखकर उनके रक्षण, व्यवस्था, जीर्णोद्धार आदि में रकम का उपयोग करोगे, तो विपत्ति नहीं आएगी।"
                  धर्मादा की रकम का ठीक-ठीक उपभोग करने से मनुष्य समृद्ध होता है, वैभव सम्पन्न बनता है। उसी द्रव्य को स्वयं हजम करने लगे, तो संपत्ति को क्षय रोग लगता जाता है। आदमी पनपने नहीं पाता है।
                जिन प्रांतों में मंदिर की द्रव्य जैन भाई खाते हैं, वहाँ उनकी स्थिति देखकर दया आती है। अतः इस विषय में सावधानी पूर्वक प्रवृत्ति रखना श्रेयस्कर है।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का 
  25. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३२२   ?
                      "निवासकाल"
        
                नीरा में जैनमित्र के संपादक श्री मूलचंद कापड़िया ने "दिगम्बर जैन" का 'त्याग' विशेषांक पूज्यश्री को समर्पित किया। उस समय आचार्य महराज पूना के समीपस्थ नीरा स्टेशन के पास दूर एक कुटी में विराजमान थे।
                कुछ समय के बाद पूज्यश्री का आहार हुआ। पश्चात आचार्य महराज सामायिक को जा रहे थे। संपादकजी तथा संवाददाता महाशय महराज की सेवा में आये। कापढ़िया ने पूंछा- "महराज आप अभी यहाँ कब तक हैं?"
            महराज ने कहा- "हमें नहीं मालूम। सामायिक तक तो यहाँ ही हैं। आगे का क्या निश्चित ?"
           जैनमित्र संपादक ने कहा- "महराज ! हमे अभी रेल से जाना है।"
          महराज ने कहा- "तुमको इतनी जल्दी क्या है?"
          उन्होंने कहा- "महराज अभी फुरसत नहीं है।"
          महराज ने पूंछा- "फुरसत कब मिलेगी कापडिया ! तुम इतने वृध्द हो गए। अब कब फुरसत मिलेगी?
         इस प्रश्न का उत्तर वे या हम सभी क्या देंगे? परिग्रह की आराधना में निमग्न सारे संसार के समक्ष आचार्य देव का यह महान प्रश्न है- "अब कब फुरसत मिलेगी?"
        महराज ने बताया था- "एक व्यक्ति ने हमें आहार दिया। हम सामायिक को बैठ गए। सामायिक पूर्ण होने पर हमें यह खबर दी गई कि आपको आहार देने वाले उन व्यक्ति का प्राणांत हो गया।"

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
    ?आज की तिथी - वैशाख शुक्ल ११?
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