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अनंतकीर्ति मुनिराज की समाधि - अमृत माँ जिनवाणी से - ३१०

☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं,         आज का प्रसंग अवश्य पढ़ें। इस प्रसंग को पढ़कर आपको ज्ञात होगा कि किस तरह दिगम्बर मुनिराज अपने ऊपर आये समस्त उपसर्गों को अद्भुत समता के साथ सहन करते हैं और कष्टों के प्रति ग्लानि के भाव नहीं लाते भले ही उनको अपना शरीर ही क्यों न त्यागना  पढे। ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३१०   ?     "अनंतकीर्ति मुनिराज की समाधि १"                       किसी को पता न था, कि मुनिराज को पुराना मृगी का रोग था, अग्नि का संपर्क पाकर अपस्मार का वेग हो गया। उससे मूर्छित

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अनंतकीर्ति मुनिराज की समाधि - अमृत माँ जिनवाणी से - ३०९

जय जिनेन्द्र बंधुओं,       आज का प्रसंग प्रस्तुत करने का मुख्य उद्देश्य लोगों को मुनि महराज की वैयावृत्ति के बारे में सचेत करना है। हमेशा हम सभी को साधुओं की वैयावृत्ति अत्यंत सचेत रहकर करना चाहिए क्योंकि अच्छे भाव होते हुए भी हमारे क्रियाकलापों से कभी-२ उनपर उपसर्ग भी आ जाते हैं। ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३०९   ?        "अनंतकीर्ति मुनिराज की समाधि"               पूज्य शान्तिसागरजी महराज ससंघ जैन धर्म के मूर्धन्य विद्वान पंडित गोपालदास जी बरैयाजी की जन्मभूमि मुरैना पहु

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?मुरैना - अमृत माँ जिनवाणी से - ३०८

☀ बंधुओं,         आपके मन में विचार आ सकता है कि हम पूज्य शान्तिसागरजी महराज के पवित्र जीवन चारित्र को जान रहे हैं तो इसके बीच भिन्न-२ ऐतिहासिक धर्म-स्थलों अथवा तीर्थों अथवा व्यक्तियों का उल्लेख क्यों? इसके लिए मेरा उत्तर सिर्फ यही है कि यह हमारा सौभाग्य है कि पूज्यश्री के जीवन चरित्र के साथ हम सभी को उस सब बातों की भी जानकारी मिल रही है जिसकी जानकारी हर एक जैन श्रावक को विरासत और धरोहर के रूप में अवश्य ही होनी चाहिए।             आज के प्रसंग से तो कई गौरवशाली बातें ज्ञात होंगी। म

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ज्ञानी व्यक्ति की क्रिया

आचार्य योगीन्दु ज्ञानीव्यक्ति के विषय में कहते हैं कि वह दुःख और सुख को समता भाव से सहता है, जिसके कारण उसके कर्मों की निर्जरा होती है और वह आसक्ति से रहित कहा जाता है।  देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 36.   दुक्खु वि सुक्खु सहंतु जिय णाणिउ झाण-णिलीणु।      कम्महँ णिज्जर-हेउ तउ वुच्चइ संग-विहीणु।।। अर्थ - दुःख और सुख को सहता हुआ ध्यान में पूर्णरूप से विलीन ज्ञानी जीव निर्जरा (कर्मों के क्षय) का कारण होता है, तब वह आसक्ति से रहित कहा जाता है।  शब्दार्थ - दुक्खु-दुःख, वि-और, सुक्

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?ग्वालियर - अमृत माँ जिनवाणी से - ३०७

?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३०७   ?                     "ग्वालियर"                   पूज्य शान्तिसागरजी महराज का संघ सोनागिरि में धर्मामृत की वर्षा करता हुआ संघ ग्वालियर पहुँचा। ग्वालियर प्राचीन काल से जैन संस्कृति का महान केंद्र रहा है।            ग्वालियर के किले में चालीस, पचास-पचास फीट ऊँची खडगासन दस-पंद्रह मनोज्ञ दिगम्बर प्रतिमाओं का पाया जाना तथा और भी जैन वैभव की सामग्री का समुपलब्ध होना इस बात का प्रमाण है कि पहले ग्वालियर का राजवंश जैन संस्कृति का परम भक्त तथा महान आर

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सद्बोधात्मक ज्ञान ही स्थिर ज्ञान है

स्वदर्शन के बाद आचार्य योगीन्दु ज्ञान के विषय में स्पष्टरूप से कहते हैं कि जो ज्ञान सम्यक्दर्शन होने में कारण है तथा जो वस्तु के भेओ को स्पष्टतः जानता है वह सद्बोधात्मक ज्ञान ही स्थिर ज्ञान है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 35.   दंसण-पुव्वु हवेइ फुडु जं जीवहँ विण्णाणु।       वत्थु-विसेसु मुणंतु जिय तं मुणि अविचलु णाणु।। अर्थ -दर्शन का कारण (तथा) वस्तु के भेदों को जानता हुआ जो जीवों का स्पष्ट निश्चयात्मक (सद्बोधात्मक) ज्ञान है उसको (तू) अचल ज्ञान समझ। शब्दार्थ - दंसण-पु

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?चार व्रतियों की निर्वाण दीक्षा - अमृत माँ जिनवाणी से - ३०६

?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३०६   ?          "चार व्रतियों की निर्वाण दीक्षा"              चारित्र चक्रवर्ती परम पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के १९२९ के उत्तरभारत की भूमि पर द्वितीय चातुर्मास के उपरांत उनका विहार बूंदेलखंड के भव्य तीर्थस्थलों की वंदना करते हुए निर्वाण स्थल सोनागिरि को हुआ। सोनागिरि में एक नया इतिहास लिखा गया, पूज्य शान्तिसागरजी महराज की भांति, कर्मनिर्जरा के निमित्त घोर तपश्चरण करने वाले चार शिष्यों को निर्ग्रन्थ दीक्षा का सौभाग्य भी सोनागिरि की भूमि को ही प

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स्व दर्शन क्या है ?

आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि स्व दर्शन के बिना आत्मा का ध्यान संभव नहीं है, इसलिए सर्वप्रथम स्वदर्शन को जानना आवश्यक है। स्वदर्शन के विषय में वे कहते हैं कि जीवों का पदार्थ के भेद रहित सब पदार्थों का जो मुख्य ग्रहण है, वह ही स्व दर्शन है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 34.   सयल-पयत्थहँ जं गहणु जीवहँ अग्गिमु होइ।       वत्थु-विसेस-विवज्जियउ तं णिय-दंसणु जोइ।। अर्थ - जीवों का पदार्थ के भेद रहित सब पदार्थों का जो मुख्य ग्रहण (अधिगम) है, उसको (तू)       निज (स्व) दर्शन जान।

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?टीकमगढ़ नरेश पर प्रभाव - अमृत माँ जिनवाणी से - ३०५

?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३०५   ?             "टीकमगढ़ नरेश पर प्रभाव"                      पपौराजी जाते हुए महराज टीकमगढ़ में ठहरे थे। टीकमगढ़ स्टेट में जैनधर्म और जैनगुरु का बड़ा प्रभाव प्रभाव पढ़ा। टीकमगढ़ नरेश आचार्यश्री का वार्तालाप हुआ था। उससे टीकमगढ़ नरेश बहुत प्रभावित हुए थे।              आचार्य महराज में बड़ी समय सूचकता रही है। किस अवसर पर, किस व्यक्ति के साथ कैसा व्यवहार उचित और धर्मानुकूल होगा, इस विषय में महराज सिद्ध-हस्त रहे हैं।                   बुंदेलखंड अपने ग

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आत्मा का ध्यान ही मोक्ष प्राप्ति का सही मार्ग है

आचार्य योगीन्दु पुनः इसी बात को दृढता के साथ कहते हैं कि रत्नत्रययुक्त आचरण के साथ आत्मा का ध्यान करनेवाले ज्ञानी निश्चय से मुक्ति को प्राप्त होते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 33.   अप्पा गुणमउ णिम्मलउ अणुदिणु जे झायंति।       ते पर णियमे ँ परम-मुणि लहु णिव्वाण लहंति।। अर्थ - जो प्रतिदिन विशुद्ध और गुणमय आत्मा का प्रतिदिन ध्यान करते हैं, मात्र वे (ही)  श्रेष्ठ मुनि निश्चय से शीघ्र मुक्ति को प्राप्त करते हैं। शब्दार्थ - अप्पा- आत्मा का, गुणमउ-गुणमय, णिम्मलउ-विशुद्ध,  अणुद

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?प्रस्थान - अमृत माँ जिनवाणी से - ३०४

?   अमृत माँ जिनवाणी से -- ३०४   ?                      "प्रस्थान"                मगसिर वदी पंचमी को पूज्य शान्तिसागरजी महराज ससंघ ने ललितपुर से बिहार किया। जब पूज्यश्री ने ललितपुर छोड़ा, तब लगभग चार-पाँच हजार जनता ने दो-तीन मील तक महराज के चरणों को न छोड़ा। अंत मे सबने गुरुचरणों को प्रणाम किया, और अपने ह्रदय में सदा के लिए उनकी पवित्र मूर्ति अंकित कर वे वापिस आ गए। लगभग पाँच सौ व्यक्ति सिरगन ग्राम पर्यन्त गुरुदेव के पीछे-पीछे गए।                पूज्यश्री के ललितपुर से प्रस्था

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रत्नत्रय मोक्षपद प्राप्ति का प्रथम सोपान

आचार्य योगिन्दु यहाँ मोक्षपद अर्थात शाश्वत शान्तिपद प्राप्ति की सही राह बताते हैं। वे कहते हैं कि जो व्यक्ति विशुद्ध रत्नत्रय से ही आत्मस्वरूप की प्राप्ति होना मानते हैं तथा मोक्षपद प्राप्ति के इच्छुक हैं वे ही अपनी आत्मा का ध्यान कर मोक्षपद प्राप्त कर सकते हैं। इस प्रकार इस दोहे में योगिन्दुदेव ने मोक्षपद प्राप्ति का प्रथम सोपान रत्नत्रय को माना है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 32.   जे रयण-त्तउ णिम्मलउ णाणिय अप्पु भणंति।       ते आराहय सिव-पयहँ णिय अप्पा झायंति।। अर्थ - ज

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?भयंकर उपवासों के बीच अद्भुत स्थिरता - अमृत माँ जिनवाणी से - ३०३

?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३०३   ? "भयंकर उपवासों के बीच अद्भुत स्थिरता"               पूज्य शान्तिसागरजी महराज के लंबे उपवासों के बीच में ही प्रायः ललितपुर का चातुर्मास पूर्ण हो गया। बहुत कम लोग उनको आहार देने का सौभाग्य लाभ कर सके।                  जैनों के सिवाय जैनेत्तरों में जैन मुनिराज की तपश्चर्या की बड़ी प्रसिद्धि हो रही थी। आचार्य महराज की अपने व्रतों में तत्परता देखकर कोई नहीं सोच सकता, कि इन योगिराज ने इतना भयंकर तप किया है। दूर-दूर के लोंगो ने आकर घोर तपस्वी मुनिरा

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?पारणा का दिन - अमृत माँ जिनवाणी से - ३०२

?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३०२   ?                 "पारणा का दिन"              पारणा का प्रभात आया। आचार्यश्री ने भक्ति पाठ वंदना आदि मुनि जीवन के आवश्यक कार्यों को बराबर कर लिया। अब चर्या को रवाना  होना है। सब लोग अत्यंत चिंता  समाकुल हैं।            प्रत्येक नर-नारी प्रभु से यही प्रार्थना कर रहे हैं कि आज आहार निर्विघ्न हो जाए। क्षीण शरीर में खड़े होने की भी शक्ति नहीं दिखता, चलने की बात दूसरी है, और फिर खड़े होकर आहार का हो जाना और भी कठिन दिखता था। ऐसे विशिष्ट क्षणों में घो

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?सिंह निष्क्रिडित व्रत - अमृत माँ जिनवाणी से - ३०१

?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३०१   ?               "सिंहनिःक्रिडित तप"                   पूज्य शान्तिसागर महराज के उत्तर भारत में कटनी में प्रथम चातुर्मास के उपरांत उनके द्वितीय चातुर्मास का परम सौभाग्य ललितपुर को प्राप्त हुआ।                ललितपुर आने पर आचार्य महराज ने सिंहनिः क्रिडित तप किया था। यह बड़ा कठिन व्रत होता है। इस उग्र तप से आचार्य महराज का शरीर अत्यंत क्षीण हो गया था। लोगों की आत्मा उनको देख चिंतित हो जाती थी कि किस प्रकार आचार्य देव की तपश्या पूर्ण होती है।

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रत्नत्रय के आराधक का लक्षण

आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि सच्चे अर्थ में रत्नत्रय का आराधक वही है जिसका ध्येय मात्र एक गुणों का आवास आत्मा है। गुणनिधि आत्मा का ध्यान ही शुद्ध भावों का जनक है। व्यवहारिकरूप में भी यह देखा जाता है कि व्यक्ति का आन्तरिक विकास उसके शुद्ध भावों पर ही आधारित है जबकि बाहरी विकास मात्र दिखावे पर आधारित है। आन्तरिक विकास शाश्वत है जबकि बाहरी विकास क्षणिक और परिवर्तनशील है। आन्तरिक विकास से व्यक्ति सुख-दुःख से कम प्रभावित होता है जबकि बाहरी विकास जरा से दुःख में भी व्यक्ति को आहत कर देता है। इसीलिए रत्

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स्वकीय शुद्ध स्वभाव ही चारित्र है

ज्ञान के विषय में संक्षेप में कथन करने के बाद आचार्य चारित्र के विषय में संक्षेप में कहते हैं कि स्वकीय शुद्ध भाव ही चारित्र है और यह चारित्र स्व और पर को समझन के बाद पर स्वभाव का त्याग करने पर फलित होता है। यह है आचार्य योगीन्दु की विचक्षणता। उन्होंने विशालकाय चारित्र को स्वकीय शुद्धभाव की नींव पर टिका दिया। स्वकीय शुद्धभाव की नींव पर टिका हुआ चारित्ररूपी महल का कथन कर शुद्ध चारित्र का निर्वाह बहुत आसान कर दिया। व्यक्ति प्रत्येक क्रिया अपने भाव से करता है। अतः शुद्धभावपूर्वक की गयी क्रिया शुद्ध

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?देवद्रव्य - अमृत माँ जिनवाणी से - ३००

☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं,        आज इस श्रृंखला के ३०० प्रसंग पूर्ण हुए। ग्रंथ के यशस्वी लेखक स्वर्गीय पंडित श्री सुमरेचंदजी दिवाकर का  हम सभी पर महान उपकार रहा जो उनकी द्वारा लिखित ग्रंथ "चारित्र चक्रवर्ती" के माध्यम से पूज्य शान्तिसागरजी महराज के दिव्य जीवन को अनुभव कर पा रहे हैं।         अभी तक आचार्यश्री के अनेक जीवन प्रसंगों को प्रस्तुत किया गया, लेकिन ग्रंथ के आधार पर अभी भी पूज्य शान्तिसागरजी महराज के जीवन चरित्र के अनेकों प्रसंग प्रस्तुत करना शेष है। प्रस्तुती का यह क्रम चलता रह

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द्रव्यों की सही समझ ही ज्ञान है

आचार्य योगीन्दु ज्ञान के विषय में कहते हैं कि जो द्रव्य जिस तरह स्थित है उसको जो उस ही प्रकार जानता है, आत्मा के जानने का वह सही स्वभाव ही ज्ञान है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 29.     जं जह थक्कउ दव्वु जिय तं तह जाणइ जो जि।         अप्पहं केरउ भावडउ णाणु मुणिज्जहि सो जि।।29।। अर्थ - जो द्रव्य जिस तरह स्थित है (और) उसको जो (आत्मा) उस ही प्रकार जानता है, (उस) आत्मा के उस स्वभाव (सहज गुण) को ही तू ज्ञान समझ। शब्दार्थ - जं - जो, जह-जिस प्रकार, थक्कउ-स्थित, दव्वु -द्रव्य,

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आगे सम्यक्ज्ञान व चारित्र का कथन किये जाने की सूचना

आचार्य योगिन्दु ने द्रव्यों के कथन के साथ पिछले दोहों में सम्यग्दर्शन के कथन को पूरा किया। अब वे सिद्धत्व की प्राप्ति के लिए सम्यग्ज्ञान व चारित्र का कथन करेंगे। इसी सूचनात्मक कथन से सम्बन्धित देखिये इनका अग्रिम दोहा - 28.     णियमे ँ कहियउ एहु मइँ ववहारेण वि दिट्ठि।        एवहि ँ णाणु चरित्तु सुणि जे ँ पावहि परमेट्ठि।। अर्थ -. नियमपूर्वक मेरे द्वारा व्यवहार (नय) से यह ही (सम्यक्) दर्शन कहा गया। अब तू ज्ञान और चरित्र को सुन, जिससे तू परम पूज्य (सिद्धत्व) को प्राप्त करे। शब्दा

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द्रव्यों का ज्ञान ही शान्ति का मार्ग है

समस्त द्रव्यों के बारे में मूलभूत जानकारी देने के बाद आचार्य योगिन्दु स्पष्टरूप से कहते हैं कि प्रत्येक द्रव्य के मूल स्वभाव को समझकर ही दुःख व सुख के कारणों को समझा जा सकता है। तभी दुःख के कारणों से बचकर तथा सुख के कारणों में लगकर ही शान्ति के मार्ग से श्रेष्ठ लोक मोक्ष में जाया जा सकता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 27.     दुक्खहँ कारणु मुणिवि जिय दव्वहँ एहु सहाउ।         होयवि मोक्खहँ मग्गि लहु गम्मिज्जइ पर-लोउ।। अर्थ - हे जीव! द्रव्यों के इस स्वभाव कोे दुःख का कारण ज

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संसार भ्रमण का कारण द्रव्य ही हैं

द्रव्यों का संक्षिप्त में स्पष्टरूप से कथन करने के बाद आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि जीवों की क्रिया का कारण ये द्रव्य ही हैं। इन द्रव्यों के फलस्वरूप ही जीव विभिन्न प्रकार के कर्म करते हैं। इन कर्म के कारण ही जीव चारों गतियों के दुःखों को सहन करते हुए संसार में भ्रमण करते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित अग्रिम दोहा - 26.     एयइँ दव्वइँ देहियहँ णिय-णिय-कज्जु जणंति।         चउ-गइ-दुक्खु सहंत जिय ते ँ संसारु भमंति।।26।। अर्थ - ये द्रव्य जीवों के लिए अपने- अपने कार्य को उत्पन्न करते हैं। उ

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द्रव्यों की स्थिति

आचार्य योगिन्दु इन द्रव्यों की स्थिति के विषय में कहते हैं कि ये सभी द्रव्य लोकाकाश को धारण कर यहाँ संसार में एक में मिले हुए अपने-अपने गुणों में रहते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 25.       लोयागासु धरेवि जिय  कहियइँ  दव्वइँ जाइँ।          एक्कहिं मिलियइँ इत्थु जगि सगुणहि णिवसहि ताइँ।। अर्थ - हे जीव! (ये) जो द्रव्य कहे गये हैं वे सब लोकाकाश को धारण कर यहाँ संसार में एक में मिले हुए निजी (आत्मीय)े गुणों में रहते हैं। शब्दार्थ - लोयागासु -लोकाकाश को, धरेवि-धारणकर, ज

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