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३. सनत्कुमार चक्रवर्ती की कथा


admin

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स्वर्ग और मोक्ष सुख के देने वाले श्री अर्हंत , सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुओं को नमस्कार करके मैं सम्यक् चारित्र का उद्योत करने वाले चौथे सनत्कुमार चक्रवर्ती की कथा लिखता हूँ ॥१॥

अनन्तवीर्य भारतवर्ष के अन्तर्गत वीतशोक नामक शहर के राजा थे। उनकी महारानी का नाम सीता था। हमारे चरित्रनायक सनत्कुमार इन्हीं के पुण्य के फल थे। वे चक्रवर्ती थे। सम्यग्दृष्टियों में प्रधान थे। उन्होंने छहों खण्ड पृथ्वी अपने वश में कर ली थी। उनकी विभूति का प्रमाण ऋषियों ने इस प्रकार लिखा है-नवनिधि, चौदहरत्न, चौरासी लाख हाथी, इतने ही रथ, अठारह करोड़ घोड़े, चौरासी करोड़ शूरवीर, छ्यानवें करोड़ धान्य से भरे हुए ग्राम छ्यानवें हजार सुन्दरियाँ और सदा सेवा में तत्पर रहने वाले बत्तीस हजार बड़े-बड़े राजा इत्यादि संसार श्रेष्ठ संपत्ति से वे युक्त थे। देव विद्याधर उनकी सेवा करते थे। वे बड़े सुन्दर थे, बड़े भाग्यशाली थे। जिनधर्म पर उनकी पूर्ण श्रद्धा थी। वे अपना नित्य-नैमित्तिक कर्म श्रद्धा के साथ करते, कभी उनमें विघ्न नहीं आने देते। इसके सिवा अपने विशाल राज्य का वे बड़ी नीति के साथ पालन करते और सुखपूर्वक दिन व्यतीत करते ॥२-१०॥

एक दिन सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र अपनी सभा में पुरुषों के रूप सौन्दर्य की प्रशंसा कर रहा था। सभा में बैठे हुए एक विनोदी देव ने उनसे पूछा - प्रभो ! जिस रूप गुण की आप बेहद तारीफ कर रहे हैं, भला, ऐसा रूप भारतवर्ष में किसी का है भी या केवल यह प्रशंसा ही मात्र है? ॥११-१२॥

उत्तर में इन्द्र ने कहा-हाँ, इस समय भी भारतवर्ष में एक ऐसा पुरुष है, जिसके रूप की मनुष्य तो क्या देव भी तुलना नहीं कर सकते। उसका नाम है सनत्कुमार चक्रवर्ती ॥१३॥

इन्द्र के द्वारा देव दुर्लभ सनत्कुमार चक्रवर्ती के रूपसौन्दर्य की प्रशंसा सुनकर मणिमाल और रत्नचूल नाम के दो देव चक्रवर्ती की रूपसुधा के पान की बढ़ी हुई लालसा को किसी तरह नहीं रोक सके। वे उसी समय गुप्त वेश में स्वर्गधरा को छोड़कर भारतवर्ष में आए और स्नान करते हुए चक्रवर्ती का वस्त्रालंकार रहित, पर उस हालत में भी त्रिभुवनप्रिय और सर्वसुन्दर रूप को देखकर उन्हें अपना सिर हिलाना ही पड़ा। उन्हें मानना पड़ा कि चक्रवर्ती का रूप वैसा ही सुन्दर है, जैसा इन्द्र ने कहा था और सचमुच यह रूप देवों के लिए भी दुर्लभ है। इसके बाद उन्होंने अपना असली वेष प्रकट कर पहरेदार से कहा तुम जाकर अपने महाराज से कहो कि आप के रूप को देखने के लिए स्वर्ग से दो देव आए हुए हैं। पहरेदार ने जाकर महाराज से देवों के आने का हाल कहा। चक्रवर्ती ने इसी समय अपना श्रृंगार किया। इसके बाद वे सिंहासन पर आकर बैठे और देवों को राजसभा में आने की आज्ञा दी ॥१४-१९॥

देव राजसभा में आए और चक्रवर्ती का रूप उन्होंने देखा । देखते ही वे खेद के साथ बोल उठे, महाराज! क्षमा कीजिए; हमें बड़े दुःख के साथ कहना पड़ता है कि स्नान करते समय वस्त्राभूषण रहित आपके रूप में जो सुन्दरता, जो माधुरी हमने छुपकर देखी थी, अब वह नहीं रही। इससे जैनधर्म का यह सिद्धान्त बहुत ठीक है कि संसार की सब वस्तुएँ क्षण-क्षण में परिवर्तित होती है - सब क्षणभंगुर हैं ॥२०-२१॥

देवों की विस्मय उत्पन्न करने वाली बात सुनकर राज कर्मचारियों तथा और उपस्थित सभ्यों ने देवों से कहा-हमें तो महाराज के रूप में पहले से कुछ भी कमी नहीं दिखती, न जाने तुमने कैसे पहली सुन्दरता से इसमें कमी बतलाई है। सुनकर देवों ने सबको उसका निश्चय कराने के लिए एक जल भरा हुआ घड़ा मँगवाया और उसे सबको बतलाकर फिर उसमें से तृण द्वारा एक जल की बूँद निकाल ली। उसके बाद फिर घड़ा सबको दिखलाकर उन्होंने उनसे पूछा- बतलाओ पहले जैसे घड़े में जल भरा था अब भी वैसा ही भरा है, पर तुम्हें पहले से इसमें कुछ विशेषता दिखती है क्या? सबने एक मत होकर यही कहा कि नहीं। तब देवों ने राजा से कहा- महाराज, घड़ा पहले जैसा था, उसमें से एक बूँद जल की निकाल ली गई, तब भी वह इन्हें वैसा ही दिखता है । इसी तरह हमने आपका जो रूप पहले देखा था, वह अब नहीं रहा । वह कमी हमें दिखती है, पर इन्हें नहीं दिखती। यह कहकर दोनों देव स्वर्ग की ओर चले गए ॥२२-२८॥

चक्रवर्ती ने इस चमत्कार को देखकर विचारा - स्त्री, पुत्र, भाई, बन्धु, धन, धान्य, दासी, दास, सोना, चाँदी आदि जितनी सम्पत्ति है, वह सब बिजली की तरह क्षणभर में देखते-देखते नष्ट होने वाली है और संसार दुःख का समुद्र है। यह शरीर भी, जिसे दिन-रात प्यार किया जाता है, घिनौना है, सन्ताप को बढ़ाने वाला है, दुर्गन्धयुक्त है और अपवित्र वस्तुओं से भरा हुआ है। तब इस क्षण विनाशी शरीर के साथ कौन बुद्धिमान् प्रेम करेगा? ये पाँच इन्द्रियों के विषय ठगों से भी बढ़कर ठग हैं। इनके द्वारा ठगा हुआ प्राणी एक पिशाचिनी की तरह उनके वश होकर अपनी सब सुध भूल जाता है और फिर जैसा वे नाच नचाते हैं नाचने लगता है । मिथ्यात्व जीव का शत्रु है, उसके वश हुए जीव अपने आत्महित के करने वाले, संसार के दुःखों से छुड़ाकर अविनाशी सुख के देने वाले, पवित्र जिनधर्म से भी प्रेम नहीं करते। सच भी तो है - पित्तज्वर वाले पुरुष को दूध भी कड़वा ही लगता है परन्तु मैं तो अब इन विषयों के जाल से अपनी आत्मा को छुड़ाऊँगा । मैं आज ही मोह-माया का नाशकर अपने हित के लिए तैयार होता हूँ। यह विचार कर वैरागी चक्रवर्ती ने जिनमन्दिर में पहुँचकर सब सिद्धि की  प्राप्ति कराने वाले भगवान् की पूजा की, याचकों को दयाबुद्धि से दान दिया और उसी समय पुत्र को राज्यभार देकर आप वन की ओर रवाना हो गए और चारित्रगुप्त मुनिराज के पास पहुँचकर उनसे जिनदीक्षा ग्रहण कर ली, जो कि संसार का हित करने वाली है। इसके बाद वे पंचाचार आदि मुनिव्रतों का निरतिचार पालन करते हुए कठिन से कठिन तपश्चर्या करने लगे । उन्हें न शीत सताती है और न आताप सन्तप्त करता है। न उन्हें भूख की परवाह है और न प्यास की। वन के जीव-जन्तु उन्हें खूब सताते हैं, पर वे उससे अपने को कुछ भी दुःखी ज्ञान नहीं करते। वास्तव में जैन साधुओं का मार्ग बड़ा कठिन है, उसे ऐसे ही धीर वीर महात्मा पाल सकते हैं । साधारण पुरुषों में गम्य नहीं । चक्रवर्ती इस प्रकार आत्मकल्याण के मार्ग में आगे-आगे बढ़ने लगे ॥२९-३६॥

एक दिन की बात है कि वे आहार के लिए शहर में गए। आहार करते समय कोई प्रकृति-विरुद्ध वस्तु उनके खाने में आ गई उसका फल यह हुआ कि उनका सारा शरीर खराब हो गया, , उसमें अनेक भयंकर व्याधियाँ उत्पन्न हो गई और सबसे भारी व्याधि तो यह हुई कि उनके सारे शरीर में कोढ़ फूट निकली। उससे रुधिर, पीप बहने लगा, दुर्गन्ध आने लगी । यह सब कुछ हुआ पर इन व्याधियों का असर चक्रवर्ती के मन पर कुछ भी नहीं हुआ। उन्होंने कभी इस बात की चिन्ता तक भी नहीं की कि मेरे शरीर की क्या दशा है? किन्तु वे जानते थे कि-

बीभत्सु तापकं पूति शरीरमशुचेर्गृहम् । का प्रीतिर्विदुषामत्र यत्क्षणार्थे परिक्षयि॥

इसलिए वे शरीर से सर्वथा निर्मोही रहे और बड़ी सावधानी से तपश्चर्या करते रहे-अपने व्रत पालते रहे ॥३७-३८॥

एक दिन सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र अपनी सभा में धर्म-प्रेम के वश हो मुनियों के पाँच प्रकार के चारित्र का वर्णन कर रहा था। उस समय एक मदनकेतु नामक देव ने उनसे पूछा-प्रभो ! जिस चारित्र का आपने अभी वर्णन किया उसका ठीक पालने वाला क्या कोई इस समय भारतवर्ष में है? उत्तर में इन्द्र ने कहा, सनत्कुमार चक्रवर्ती हैं। वे छह खण्ड पृथ्वी को तृण की तरह छोड़कर संसार, शरीर, भोग आदि से उदास हैं और दृढ़ता के साथ तपश्चर्या तथा पंच प्रकार का चारित्र पालन करते हैं ॥३९-४३॥

मदनकेतु सुनते ही स्वर्ग से चलकर भारतवर्ष में जहाँ सनत्कुमार मुनि तपश्चर्या करते थे, वहाँ पहुँचा। उसने देखा कि उनका सारा शरीर रोगों का घर बन रहा है, तब भी चक्रवर्ती सुमेरु के समान निश्चल होकर तप कर रहे हैं। उन्हें अपने दुःख की कुछ परवाह नहीं हैं। वे अपने पवित्र चारित्र का धीरता के साथ पालन कर पृथ्वी को पावन कर रहे हैं। उन्हें देखकर मदनकेतु बहुत प्रसन्न हुआ। तब भी वे शरीर से कितने निर्मोही हैं, इस बात की परीक्षा करने के लिए उसने वैद्य का वेष बनाया और लगा वन में घूमने। वह घूम-घूमकर यह चिल्लाता था कि "मैं एक बड़ा प्रसिद्ध वैद्य हूँ, सब वैद्यों का शिरोमणि हूँ। कैसी ही भयंकर से भयंकर व्याधि क्यों न हो उसे देखते-देखते नष्ट करके शरीर को क्षणभर में मैं निरोग कर सकता हूँ।” देखकर सनत्कुमार मुनिराज ने उसे बुलाया और पूछा तुम कौन हो? किसलिए इस निर्जन वन में घूमते फिरते हो? और क्या कहते हो? उत्तर में देव ने कहा-मैं एक प्रसिद्ध वैद्य हूँ। मेरे पास अच्छी से अच्छी दवाएँ हैं। आपका शरीर बहुत बिगड़ रहा है, यदि आज्ञा दे तो मैं क्षणमात्र में इसकी सब व्याधियाँ खोकर इसे सोने सरीखा बना सकता हूँ। मुनिराज बोले- हाँ तुम वैद्य हो? यह तो बहुत अच्छा हुआ जो तुम इधर अनायास आ निकले। मुझे एक बड़ा भारी और महाभयंकर रोग हो रहा है, मैं उसके नष्ट करने का प्रयत्न करता हूँ, पर सफल प्रयत्न नहीं होता। क्या तुम उसे दूर कर दोगे? ॥४४-५०॥

देव ने कहा-निस्सन्देह मैं आपके रोग को जड़ मूल से खो दूँगा । वह रोग शरीर से गलने वाला कोढ़ ही है न। मुनिराज बोले-नहीं, यह तो एक तुच्छ रोग है। इसकी तो मुझे कुछ भी परवाह नहीं। जिस रोग की बात मैं तुमसे कह रहा हूँ, वह तो बड़ा ही भयंकर है । देव बोला- अच्छा, तब बतलाइए यह क्या रोग है, जिसे आप इतना भयंकर बतला रहे हैं? मुनिराज ने कहा - सुनो, वह रोग है संसार का परिभ्रमण। यदि तुम मुझे उससे छुड़ा दोगे तो बहुत अच्छा होगा । बोलो क्या कहते हो? सुनकर देव बड़ा लज्जित हुआ। वह बोला, मुनिनाथ ! इस रोग को तो आप ही नष्ट कर सकते हैं । आप ही इसके दूर करने में शूरवीर और बुद्धिमान् हैं। तब मुनिराज ने कहा- भाई, जब इस रोग को तुम नष्ट नहीं कर सकते, तब मुझे तुम्हारी आवश्यकता भी नहीं । कारण विनाशीक, अपवित्र, निर्गुण और दुर्जन के समान इस शरीर की व्याधियों को तुमने नष्ट कर भी दिया तो उसकी मुझे जरूरत नहीं । जिस व्याधि का वमन के स्पर्शमात्र से जब क्षय हो सकता है, तब उसके लिए बड़े-बड़े वैद्यशिरोमणि की और अच्छी-अच्छी दवाओं की आवश्यकता ही क्या है? यह कहकर मुनिराज ने अपने वमन द्वारा एक हाथ के रोग को नष्टकर उसे सोने-सा निर्मल बना दिया। मुनि की इस अतुल शक्ति को देखकर देव भौंचक्का रह गया । वह अपने कृत्रिम वेष को पलटकर मुनिराज से बोला- भगवन्! आपके विचित्र और निर्दोष चारित्र की तथा शरीर में निर्मोहपने की सौधर्म इन्द्र ने धर्म प्रेम के वश होकर जैसी प्रशंसा की थी, वैसा ही मैंने आपको पाया। प्रभो ! आप धन्य है, संसार में आप ही का मनुष्य जन्म प्राप्त करना सफल और सुख देने वाला है। इस प्रकार मदनकेतु सनत्कुमार मुनिराज की प्रशंसा कर और बड़ी भक्ति के साथ उन्हें बारम्बार नमस्कार कर स्वर्ग में चला गया ॥५१-६०॥

इधर सनत्कुमार मुनिराज क्षणक्षण में बढ़ते हुए वैराग्य के साथ अपने चारित्र को क्रमशः उन्नत करने लगे अन्त में शुक्लध्यान के द्वारा घातिया कर्मों का नाशकर उन्होंने लोकालोक का प्रकाशक केवलज्ञान प्राप्त किया और इन्द्र धरणेन्द्रादि द्वारा पूज्य हुए ॥६१-६२॥

इसके बाद वे संसार में दुःखरूपी अग्नि से झुलसते हुए अनेक जीवों को सद्धर्मरूपी अमृत की वर्षा से शान्त कर उन्हें मुक्ति का मार्ग बतलाकर और अन्त में अघातिया कर्मों का भी नाशकर मोक्ष जा विराजे, जो कभी नाश नहीं होने वाला है ॥६३॥

उन स्वर्ग और मोक्ष-सुख देने वाले श्रीसनत्कुमार केवली की हम भक्ति और पूजन करते हैं, उन्हें नमस्कार करते हैं । वे हमें भी केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी प्रदान करें ॥६४॥

जिस प्रकार सनत्कुमार मुनिराज ने सम्यक्चारित्र का उद्योत किया उसी तरह सब भव्य पुरुषों को भी करना उचित है । वह सुख का देने वाला है ॥६५॥

श्रीमूलसंघ सरस्वतीगच्छ में चारित्रचूड़ामणि श्रीमल्लिभूषण भट्टारक हुए । सिंहनन्दी मुनि उनके प्रधान शिष्यों में थे । वे बड़े गुणी थे और सत्पुरुषों को आत्मकल्याण का मार्ग बतलाते थे। वे मुझे भी संसार समुद्र से पार करें ॥६६॥

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