? अमृत माँ जिनवाणी से - ३३६ ?
*उपवास तथा महराज के विचार*
सन १९५८ के व्रतों में १०८ नेमिसागर महराज के लगभग दस हजार उपवास पूर्ण हुए थे और चौदह सौ बावन गणधर संबंधी उपवास करने की प्रतिज्ञा उन्होंने ली।
महराज ! लगभग दस हजार उपवास करने रूप अनुपम तपः साधना करने से आपके विशुद्ध ह्रदय में भारत देश का भविष्य कैसा नजर आता है?
देश अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुष्काल, अंनाभाव आदि के कष्टों का अनुभव कर रहा है।
महराज नेमिसागर जी ने कहा- "जब भारत
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जय जिनेन्द्र बंधुओं,
पूज्य चारित्र चक्रवर्ती शान्तिसागर जी महराज का श्रमण संस्कृति में इतना उपकार है जिसका उल्लेख नहीं किया जा सकता। उनके उपकार का निर्ग्रन्थ ही कुछ अंशों में वर्णन कर सकते हैं।
पूज्य शान्तिसागर जी महराज ने श्रमण संस्कृति का मूल स्वरूप मुनि परम्परा को देशकाल में हुए उपसर्गों के उपरांत पुनः जीवंत किया था। यह बात लंबे समय से उनके जीवन चरित्र को पढ़कर हम जान रहे हैं। आज का भी प्रसंग उसी बात की पुष्टि करता है।
*? अमृत माँ जिनवाणी से- ३३५ ?*
? *अमृत माँ जिनवाणी से - ३३४* ?
*"घुटनों के बल पर आसान"*
नेमीसागर महराज घुटनों के बल पर खड़े होकर आसान लगाने में प्रसिद्ध रहे हैं। मैंने पूंछा- "इससे क्या लाभ होता है?" उन्होंने बताया - "इस आसान के लिए विशेष एकाग्रता लगती है। इससे मन का निरोध होता है। बिना एकाग्रता के यह आसन नहीं बनता है। इसे "गोड़ासन" कहते हैं।
इससे मन इधर उधर नहीं जाता है और कायक्लेश तप भी पलता है। दस बारह वर्ष पर्यन्त मैं वह आसन सदा करता था, अब वृद्ध शरीर हो जाने से उसे करने में कठिनता का अनु
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३३३ ?
*"सर्वप्रथम ऐलक शिष्य"*
पूज्य शान्तिसागर जी महराज के सुशिष्य नेमीसागर जी महराज ने बताया कि- "आचार्य महराज जब गोकाक पहुँचे तब वहाँ मैंने और पायसागर ने एक साथ ऐलक दीक्षा महराज से ली। उस समय आचार्य महराज ने मेरे मस्तक पर पहले बीजाक्षर लिखे थे। मेरे पश्चात पायसागर के दीक्षा के संस्कार हुए थे।
*"समडोली में निर्ग्रन्थ दीक्षा*"
"दीक्षा के दस माह बाद मैंने समडोली में निर्ग्रन्थ दीक्षा ली थी। वहाँ आचार्य महराज ने पहले वीरसाग
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३३२ ?
*पिताजी से चर्चा*
पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर जी महराज के सुयोग्य शिष्य नेमीसागर जी महराज द्वारा उनके मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति का वृतांत ज्ञात हुआ। गृहस्थ जीवन के बारे में उन्होंने बताया कि-
"एक दिन मैंने अपने पिताजी से कुड़ची में कहा- "मैं चातुर्मास में महराज के पास जाना चाहता हूँ।"
वे बोले -"तू चातुर्मास में उनके समीप जाता है, अब क्या वापिस आएगा? "पिताजी मेरे जीवन को देख चुके थे, इससे उनका चित्त कहता था कि
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३३१ ?
*परिचय*
पंडित श्री दिवाकर जी ने लिखा कि पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर जी महराज के योग्य शिष्य मुनिश्री १०८ नेमीसागर जी महराज महान तपस्वी हैं।
नेमीसागर जी महराज ने बताया कि "हमारा और आचार्य महराज का ५० वर्ष पर्यन्त साथ रहा। चालीस वर्ष के मुनिजीवन के पूर्व मैंने गृहस्थ अवस्था में भी उनके सत्संग का लाभ लिया था।
आचार्य महराज कोन्नूर में विराजमान थे। वे मुझसे कहते थे- "तुम शास्त्र पढ़ा करो। मैं उनका भाव लोगों को
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जय जिनेन्द्र बंधुओं,
कल से हमने पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर जी महराज के योग्य शिष्य महान तपस्वी नेमीसागर जी महराज के जीवन चरित्र को जानना प्रारम्भ किया था।
आज के प्रसंग को जानकर हम सभी को ज्ञात होगा कि जीव कैसे-कैसे वातावरण से निकल कर मोक्ष मार्ग में लग सकता है।
? *अमृत माँ जिनवाणी से - ३३०* ?
*"पूर्व जीवन में मुस्लिम प्रभाव"*
पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर जी महराज के योग्य शिष्य नेमीसागर जी महराज का पूर्व जीवन सचमुच में आश्चर्यप्रद था।
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जय जिनेन्द्र बंधुओं,
चारित्र चक्रवर्ती पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर जी महराज के जीवन चरित्र की प्रस्तुती की इस श्रृंखला में प्रस्तुत किए शान्तिसागर जी महराज के योग्य शिष्य मुनिश्री पायसागर जी महराज के जीवन चरित्र को सभी ने बहुत ही पसंद किया तथा सभी के जीवन को प्रेरणादायी जाना।
आज से पूज्य पायसागर जी महराज की भांति आश्चर्य जनक जीवन चरित्र के धारक पूज्य नेमीसागर जी महराज के जीवन चरित्र की कुछ प्रसंगों में प्रस्तुती की जायेगी।
*? अमृत माँ जिनवाणी से - ३२९ ?*
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३२८ ?
*"नवधा भक्ति का कारण"*
आचार शास्त्र पर पूज्य आचार्य श्री शान्तिसागर जी महराज का असाधारण अधिकार था, यही कारण है कि सभी उच्च श्रेणी के विद्वान आचार शास्त्र की शंकाओं का समाधान आचार्य महराज से प्राप्त करते थे। आचार्यश्री की सेवा में रहने से अनेक महत्व की बातें ज्ञात हुआ करती थी।
शास्त्र में कथित नवधा-भक्ति के संबंध में आचार्यश्री ने कहा था-
"नवधा भक्ति अभिमान-पोषण के हेतु नहीं है। वह धर्म रक्षण के लिए है। उससे जैनी की प
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३२७ ?
*शरीरविस्मृति*
सन् १९५२ के आरम्भ में पूज्य आचार्य महराज शान्तिसागर जी महराज दहीगाँव नाम के तीर्थक्षेत्र में विराजमान थे। एक दिन वहाँ के मंदिर से दूसरी जगह जाते हुए उनका पैर ठीक सीढ़ी पर न पड़ा, इसलिए वे जमीन पर गिर पड़े।
यह तो बड़े पुण्य की बात थी कि वह प्राण लेने वाली दुर्घटना एक पैर में गहरा घाव ही दे पाई। महराज के पैर में डेढ़ इंच गहरा घाव हो गया, जिसमें एक बादाम सहज ही समा सकती थी। उस स्थिति में महराज ने पैर में क
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३२६ ?
"पथ प्रदर्शक"
कल के प्रसंग के माध्यम से हमने जाना कि पूज्य चारित्र चक्रवर्ती शान्तिसागरजी महराज के प्रारंभिक जीवन में किन ग्रंथो का महत्वपूर्ण प्रभाव रहा था।
दिवाकर जी जिज्ञासा पर पूज्य शान्तिसागर जी महराज ने कहा, "शास्त्रों में स्वयं कल्याण नहीं है। वे तो कल्याण के पथ प्रदर्शक हैं। देखो ! सड़क पर कहीं खम्भा गड़ा रहता है, वह मार्गदर्शन कराता है। इष्ट स्थान पर जाने को तुम्हें पैर बढ़ाना होगा। वासनाओं की दासता का त
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३२५ ?
"किन ग्रंथों का प्रभाव पढ़ा"
एक बार पूज्य शान्तिसागरजी महराज के जीवन चरित्र के लेखक दिवाकरजी ने पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज से पूछा, "महराज ! प्रारम्भ में कौन से शास्त्र आपको विशेष प्रिय लगते थे और किन ग्रंथो ने आपके जीवन को विशेष प्रभावित किया?
महराज ने कहा, "जब हम पंद्रह-सोलह वर्ष के थे तब हिन्दी में समयसार तथा आत्मानुशासन बांचा करते थे। हिन्दी रत्नकरंडश्रावकाचार की टीका भी पढ़ते थे। इससे मन को बड़ी शांत
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३२४ ?
"बालकों पर प्रेम"
वीतराग की सजीव मूर्ति होते हुए आचार्यश्री में अपार वात्सल्य पाया जाता था। लगभग १९३८ के भाद्रपद की बात है। उस समय महराज ने बारामती में सेठ रामचंद्र के उद्यान में चातुर्मास किया था।
एक दिन अपरान्ह में महराज का केशलोंच हो रहा था। उनके समीप एक छोटा तीन वर्ष की अवस्था वाला स्वस्थ सुरूप तथा नग्न मुद्रा वाला बालक महराज को केशलोंच करते देखकर नकल करने वाले बंदर के समान अपने बालों को पकड़कर धीरे-२ खीचत
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३२३ ?
"विवेकशून्य भक्ति"
बारामती में एक धुरंधर शास्त्री आए। उन्होंने महराज के चरणों में पुष्प रख दिया। महराज ने पूंछा, "यह क्या किया?"
वे बोले- "महराज देव, गुरु, शास्त्र समान रूप से पूज्यनीय हैं। देव की पुष्प से पूजा के समान आपकी चरणपूजा की है।
महराज ने कहा ऐसा करोगे तो बड़ा अनर्थ हो जायेगा, भगवान के अभिषेक के समान शास्त्र का अभिषेक नहीं किया जाता है। हर एक बात की मर्यादा होती है।"
अपने वचन के पो
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३२२ ?
"निवासकाल"
नीरा में जैनमित्र के संपादक श्री मूलचंद कापड़िया ने "दिगम्बर जैन" का 'त्याग' विशेषांक पूज्यश्री को समर्पित किया। उस समय आचार्य महराज पूना के समीपस्थ नीरा स्टेशन के पास दूर एक कुटी में विराजमान थे।
कुछ समय के बाद पूज्यश्री का आहार हुआ। पश्चात आचार्य महराज सामायिक को जा रहे थे। संपादकजी तथा संवाददाता महाशय महराज की सेवा में आये। कापढ़िया ने पूंछा- "महराज आप अभी यहाँ कब तक हैं?"
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जय जिनेन्द्र बंधुओं,
आज के प्रसंग में आप पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज द्वारा गाय के दूध के संबंध में एक महत्वपूर्व जिज्ञासा के दिए गए रोचक समाधान को जानेगे। आप अवश्य पढ़ें।
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३२१ ?
"महत्वपूर्ण शंका समाधान"
अलवर में एक ब्राम्हण प्रोफेसर महाशय आचार्यश्री के पास भक्तिपूर्वक आए और पूछने लगे कि- "महराज ! दूध क्यों सेवन किया जाता है? दुग्धपान करना मुत्रपान के समान है?"
महराज ने कहा,"गाय जो घास खाती है, वह
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जय जिनेन्द्र बंधुओं,
पूज्य शान्तिसागरजी महराज का सर्वत्र विहार आप सभी सामान्य दृष्टि से देख रहे होंगे। उस समय पूज्यश्री का विहार एक सामान्य बात नहीं थी क्योंकि उस समय भी देश परतंत्र ही था, ऐसी स्थिति में भी सन १९३१ में देश की राजधानी दिल्ली में चातुर्मास एक विशेष ही बात थी। उस समय परतंत्रता के समय में देश के केंद्र राजधानी दिल्ली में चातुर्मास पूज्य आचार्यश्री के दिगम्बरत्व को पुनः सर्वत्र प्रचारित होने की भावना का परिचायक है। और देश में सर्वत्र उनका अत्यंत प्रभावना के साथ निर
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जय जिनेन्द्र बंधुओ,
आज के प्रसंग में हम सभी देखेंगे कि किस तरह पूज्य शान्तिसागरजी महराज के ससंघ त्याग तथा तपश्चरण के फलस्वरूप पूज्यश्री के दिल्ली में १९३० के दिल्ली प्रवास के समय अपूर्व प्रभावना हुई। हर सम्प्रदाय के लोगों ने इनके सम्मुख व्रत नियम आदि स्वीकार कर अपने आपको धन्य किया।
राजधानी दिल्ली में सैकड़ों श्रावक आजीवन शुद्र जल का त्याग कर पूज्यश्री के ससंघ को आहार देने का सौभाग्य सहर्ष प्राप्त कर रहे थे।
अवश्य ही उन क्षणों का लेखक का यह चित
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जय जिनेन्द्र बंधुओं,
आज का प्रसंग हर एक मनुष्य के मष्तिस्क में उठ सकने वाले प्रश्न का समाधान है। पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज द्वारा दिया गया समाधान बहुत ही आनंद प्रद है।
अपने जीवन के प्रति गंभीर दृष्टिकोण रखने वाले पाठक श्रावक अवश्य ही इस समाधान को जानकर आनंद का अनुभव करेंगे।
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३१८ ?
"एक अंग्रेज का शंका समाधान"
एक दिन एक विचारवान भद्र स्वभाव वाला अंग्रेज आया।
उसने पूज्य शान्तिसागरजी मह
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मैं पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के जीवन चरित्र का लगातार अध्ययन कर रहा हूँ, फलस्वरूप मेरी दृष्टि में पूज्यश्री का दिल्ली का चातुर्मास एक महत्वपूर्ण चातुर्मास था। इस चातुर्मास के माध्यम से दिगम्बरत्व का प्रचार भली प्रकार से हुआ। सर्वत्र दिगम्बर मुनिराज के दर्शन व जन-जन तक उनके स्वरूप की जानकारी पहुँचना पूज्य शान्तिसागरजी महराज के उत्कृष्ट तपश्चरण का ही प्रभाव था।
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३१७ ?
"भारत की राजधानी दिल्ली में प्रवेश"
पूज्य
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३१६ ?
"सरसेठ हुकुमचंद और उनका ब्रम्हचर्य प्रेम"
लेखक दिवाकरजी ने लिखा है कि सर सेठ हुकुमचंद जी के विषय में बताया कि आचार्य महराज ने उनके बारे ये शब्द कहे थे, "हमारी अस्सी वर्ष की उम्र हो गई, हिन्दुस्तान के जैन समाज में हुकुमचंद सरीखा वजनदार आदमी देखने में नहीं आया।
राज रजवाड़ों में हुकुमचंद सेठ के वचनों की मान्यता रही है। उनके निमित्त से जैनों का संकट बहुत बार टला है। उनको हमारा आशीर्वाद है, वैसे तो जिन भगवान की आज्ञा से चलने व
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जय जिनेन्द्र बंधुओं,
आज चारित्र चक्रवर्ती पूज्य शान्तिसागरजी महराज के जीवन पर्यन्त के एक महत्वपूर्ण विवरण को आपके सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह पोस्ट आप संरक्षित रखकर बहुत सारे रोचक प्रसंगों के वास्तविक समय का अनुमान लगा पाएँगे तथा उनके तपश्चरण की भूमि का समय के सापेक्ष में भी अवलोकन कर पाएँगे। विवरण ग्रंथ में उपलब्ध जानकारी के आधार पर ही है।
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३१५ ?
"चातुर्मास सूची"
पूज्य शान्तिसागर जी महराज की दीक्षा संबंधी जानकारी का
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३१४ ?
"वैयावृत्त धर्म और आचार्यश्री"
किन्ही मुनिराज के अस्वस्थ होने पर वैयावृत्त की बात तो सबको महत्व की दिखेगी, किन्तु श्रावक की प्रकृति भी बिगड़ने पर पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज का ध्यान प्रवचन-वत्सलता के कारण विशेष रूप से जाता था। आचार्यश्री श्रेष्ट पुरुष होते हुए भी अपने को साधुओं में सबसे छोटा मानते थे।
एक बार १९४६ में कवलाना में ब्रम्हचारी फतेचंदजी परवार भूषण नागपुर वाले बहुत बीमार हो गए थे। उस समय आचार्य महराज
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३१३ ?
"ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर"
एक दिन पूज्य शान्तिसागरजी महराज कहने लगे-" हमारी भक्ति करने वाले को जैसे हम आशीर्वाद देते हैं, वैसे ही हम प्राण लेने वालों को भी आशीर्वाद देते हैं।उनका कल्याण चाहते हैं।"
इन बातों की साक्षात परीक्षा राजाखेड़ा के समय हो गई। ऐसे विकट समय पर आचार्य महराज का तीव्र पुण्य ही संकट से बचा सका, अन्यथा कौन शक्ति थी जो ऐसे योजनाबद्ध षड्यंत से जीवन की रक्षा कर सकती?
कदाच
जय जिनेन्द्र बंधुओं,
पूज्य शान्तिसागरजी महराज के जीवन के इस प्रसंग को जानकर आपको बहुत सारी बातें देखने को मिलेगीं। साम्य मूर्ति पूज्य शान्तिसागरजी महराज के सम्मुख बड़ी बड़ी विपत्तियाँ यूँ ही टल जाती थीं, यह उनकी महान आत्मसाधना का ही प्रतिफल था। वर्तमान में पूज्य आचार्य विद्यासागरजी महराज तथा अन्य और भी मुनिराजों के जीवन का अवलोकन करने से अनायास ही ज्ञात हो जायेगा।
दिगम्बर मुनिराज की अद्भुत क्षमा का इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा कि नंगी तलवारों से उन पर प्रहार करने