स्वकीय शुद्ध स्वभाव ही चारित्र है
ज्ञान के विषय में संक्षेप में कथन करने के बाद आचार्य चारित्र के विषय में संक्षेप में कहते हैं कि स्वकीय शुद्ध भाव ही चारित्र है और यह चारित्र स्व और पर को समझन के बाद पर स्वभाव का त्याग करने पर फलित होता है। यह है आचार्य योगीन्दु की विचक्षणता। उन्होंने विशालकाय चारित्र को स्वकीय शुद्धभाव की नींव पर टिका दिया। स्वकीय शुद्धभाव की नींव पर टिका हुआ चारित्ररूपी महल का कथन कर शुद्ध चारित्र का निर्वाह बहुत आसान कर दिया। व्यक्ति प्रत्येक क्रिया अपने भाव से करता है। अतः शुद्धभावपूर्वक की गयी क्रिया शुद्ध ही होगी। अतः शुद्ध चारित्र का निर्वाह करने के लिए मात्र शुद्ध भावों का होना ही पर्याप्त है। अशुभ भाव से अशुभ क्रिया, शुभ भाव से शुभ क्रिया तथा वैसे ही शुद्ध भाव से शुद्ध क्रिया ही भाव व क्रिया की गणित है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
30. जाणवि मण्णवि अप्पु परु जो पर-भाउ चएइ।
सो णिउ सुद्धउ भावडउ णाणिहिं चरणु हवेइ।।
अर्थ - जो स्व और पर (स्वभाव) को जानकर,(तथा) समझकर पर स्वभाव का त्याग करता है, ज्ञानियों में वह स्वकीय शुद्ध स्वभाव ही चारित्र होता है।
शब्दार्थ - जाणवि -जानकर, मण्णवि-समझकर, अप्पु-स्व, परु-पर को, जो-जो, पर-भाउ-पर भाव का, चएइ- त्याग करता है, सो - वह, णिउ-स्वकीय, सुद्धउ-विशुद्ध, भावडउ-स्वभाव, णाणिहिं-ज्ञानियों में चरणु-चारित्र, हवेइ-होता है।
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