रत्नत्रय के आराधक का लक्षण
आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि सच्चे अर्थ में रत्नत्रय का आराधक वही है जिसका ध्येय मात्र एक गुणों का आवास आत्मा है। गुणनिधि आत्मा का ध्यान ही शुद्ध भावों का जनक है। व्यवहारिकरूप में भी यह देखा जाता है कि व्यक्ति का आन्तरिक विकास उसके शुद्ध भावों पर ही आधारित है जबकि बाहरी विकास मात्र दिखावे पर आधारित है। आन्तरिक विकास शाश्वत है जबकि बाहरी विकास क्षणिक और परिवर्तनशील है। आन्तरिक विकास से व्यक्ति सुख-दुःख से कम प्रभावित होता है जबकि बाहरी विकास जरा से दुःख में भी व्यक्ति को आहत कर देता है। इसीलिए रत्नत्रय के आराधकों का ध्येय आन्तरिक विकास का साधन मात्र एक आत्मा ही होती है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
31. जो भत्तउ रयण-त्तयहँ तसु मुणि लक्खणु एउ।
अप्पा मिल्लिवि गुण-णिलउ तासु वि अण्णु ण झेउ।।
अर्थ -जो रत्नत्रय का शृद्धालु (आराधक) है उसका यह लक्षण जान। गुणों के आवास, आत्मा को छोड़कर उसका और दूसरा ध्येय नहीं है।
शब्दार्थ - जो - जो, भत्तउ - आराधक, रयण-त्तयहँ - रत्नत्रय का, तसु- उसका, मुणि - जान, लक्खणु -लक्षण, एउ-यह, अप्पा-आत्मा को, मिल्लिवि - छोड़कर, गुण-णिलउ - गुणों के आवास, तासु- उसका, वि - और, अण्णु -दूसरा, ण-नहीं, झेउ-ध्येय।
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