ज्ञानी व्यक्ति की क्रिया
आचार्य योगीन्दु ज्ञानीव्यक्ति के विषय में कहते हैं कि वह दुःख और सुख को समता भाव से सहता है, जिसके कारण उसके कर्मों की निर्जरा होती है और वह आसक्ति से रहित कहा जाता है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
36. दुक्खु वि सुक्खु सहंतु जिय णाणिउ झाण-णिलीणु।
कम्महँ णिज्जर-हेउ तउ वुच्चइ संग-विहीणु।।।
अर्थ - दुःख और सुख को सहता हुआ ध्यान में पूर्णरूप से विलीन ज्ञानी जीव निर्जरा (कर्मों के क्षय) का कारण होता है, तब वह आसक्ति से रहित कहा जाता है।
शब्दार्थ - दुक्खु-दुःख, वि-और, सुक्खु-सुख को, सहंतु-सहता हुआ, जिय-जीव, णाणिउ-ज्ञानी, झाण-णिलीणु-ध्यान में पूर्णरूप से विलीन, कम्महँ -कर्मों की, णिज्जर-हेउ-निर्जरा का कारण, तउ-तब, वुच्चइ-कहा जाता है, संग-विहीणु-आसक्ति से रहित।
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