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आत्मा का मूल स्वभाव संयम, तप, दर्शन और ज्ञान है आचार्य योगीन्दु आगे कहते हैं कि आत्मा का मूल स्वभाव संयम, शील, तप, दर्शन और ज्ञान है। इन मूल स्वभाव की प्राप्ति ही आत्मा की प्राप्ति का साधन है। मूल स्वभाव के नष्ट होने पर विकारी भाव आत्मा की प्राप्ति म

आचार्य योगीन्दु आगे कहते हैं कि आत्मा का मूल स्वभाव संयम, शील, तप, दर्शन और ज्ञान है। इन मूल स्वभाव की प्राप्ति ही आत्मा की प्राप्ति का साधन है। मूल स्वभाव के नष्ट होने पर विकारी भाव आत्मा की प्राप्ति में बाधक हो जाते हैं। देखिये इससे सयम्बन्धित आगे का दोहा - 93.   अप्पा संजमु सीलु तउ अप्पा दंसणु णाणु ।       अप्पा सासय- मोक्ख-पउ जाणंतउ अप्पाणु।। 93।। अर्थ - आत्मा संयम (है), शील (है), तप (है), आत्मा दर्शन (है), ज्ञान (है), आत्मा स्वयं को जानता हुआ शाश्वत सुख का स्थान है। शब्द

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?ज्ञानधरकूट - अमृत माँ जिनवाणी से - २८३

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २८३   ?                     "ज्ञानधर कूट"                 कुछ घंटों के उपरांत भगवान कुन्थुनाथ स्वामी की टोंक (निर्वाण स्थल ) आ गई। उस स्थल पर विद्यमान सिध्द भगवान को प्रणाम करते हुए अपनी ज्ञान दृष्टि के द्वारा वे स्थल के ऊपर सात राजू ऊँचाई पर विराजमान सिद्धत्व को प्राप्त भगवान कुंथुनाथ आदि विशुध्द आत्माओं का ध्यान कर रहे थे।   चक्रवर्ती, कामदेव, तथा तीर्थंकर पदवी धारी शांतिनाथ, कुंथुनाथ तथा अरनाथ प्रसिद्ध हुए हैं।            उन महामुनि की ध्यान मुद्

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आत्मा का सम्बन्ध चेतन अवस्था से है द्रव्यों से नहीं

आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि आत्मा का जब मूढ स्वभाव नष्ट हो जाता है और आत्मा का ज्ञान गुण विकसित होने लगता है तब व्यक्ति को समझ में आता है कि आत्मा का सम्बन्ध मात्र उसके चेतन स्वभाव से है, द्रव्यों से नहीं है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 92.    पुण्णु वि पाउ वि कालु णहु धम्माधम्मु वि काउ।       एक्कु वि अप्पा होइ णवि मेल्लिवि चेयण-भाउ।। अर्थ -आत्मा चेतन स्वभाव को छोडकर पुण्य और पाप, और काल, आकाश, धर्म, अधर्म और शरीर (इनमें से) एक भी नहीं है। शब्दार्थ - पुण्णु-पुण्य, वि

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?निर्वाण भूमी सम्मेद शिखरजी की वंदना - अमृत माँ जिनवाणी से - २८२

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २८२   ?   "निर्वाण भूमि सम्मेद शिखरजी की वंदना"                  मंगल प्रभात का आगमन हुआ। प्रभाकर निकला। सामयिक आदि पूर्ण होने के पश्चात आचार्य महराज वंदना के लिए रवाना हो गए। ये धर्म के सूर्य तभी विहार करते हैं जब गगन मंडल में पौदगलिक प्रभाकर प्रकाश प्रदान कर इर्या समीति के रक्षण में सहकारी होता है। महराज भूमि पर दृष्टि डालते हुए जीवों की रक्षा करते पहाड़ पर चढ़ रहे थे।        ?गंधर्व,सीतानाला स्याद्वाद                           दृष्टि के प्रतीक

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व्यक्ति की किसी भी अवस्था का सम्बन्ध उसके कर्मों से है आत्मा से नहीं

आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि आत्मा का जब मूढ स्वभाव नष्ट हो जाता है और आत्मा का ज्ञान गुण विकसित होने लगता है तब व्यक्ति को समझ में आता है कि उसकी लघुता व महानता का सम्बन्ध उसकी आत्मा से नहीं बल्कि उसके कर्मों से है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -  91   अप्पा पंडिउ मुक्खु णवि णवि ईसरु णवि णीसु।       तरुणउ बूढउ बालु णवि अण्णु वि कम्म-विसेस।। 91।। अर्थ - आत्मा बुद्धिमान (तथा) मूर्ख नहीं है, धनवान नहीं है, धनरहित (दरिद्र) नहीं है, जवान, बूढा (और) बालक नहीं है, (ये सब) (आत्मा) से

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?संघ का राँची पहुँचना - अमृत माँ जिनवाणी से - २८१

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २८१   ?               "संघ का राँची पहुँचना"              इस प्रकार सच्चा लोक कल्याण करते हुए आचार्य महराज का संघ १२ फरवरी को राँची पहुंचा। वहाँ बहुत लोगों ने अष्टमूलगुण धारण किए। वहाँ के सेठ रायबहादुर रतनलाल सूरजमलजी ने धर्मप्रभावना के लिए बड़ा उद्योग किया था।  "फाल्गुन सुदी तृतीया को शिखरजी पहुँचना"                 संघ हजारीबाग पहुंचा तब वहाँ की समाज ने बड़ी भक्ति प्रगट की। ऐलक पन्नालाल जी संघ में सम्मलित हो गए, वहाँ से चलकर संघ फाल्गुन स

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आत्मा का सम्बन्ध किसी गति से नहीं है

आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि आत्मा का जब मूढ स्वभाव नष्ट हो जाता है और आत्मा का ज्ञान गुण विकसित होने लगता है तब व्यक्ति को समझ में आता है कि आत्मा का सम्बन्ध न छोटे से है न बड़े से। आत्मा तो मात्र दर्शन, ज्ञान और चेतना स्वरूप मात्र है। आत्मा के जाग्रत होने पर वह समझता है कि आत्मा का सम्बन्ध न मनुष्य गति से है, न देव गति से, न तिर्यंच गति से और न नरक गति से। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -  90.    अप्पा माणुसु देउ ण वि अप्पा तिरिउ ण होइ ।       अप्पा णारउ कहि ँ वि णवि णाणिउ जाणइ जोइ ।।

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?आदिवासियों की कल्याणसाधना - अमृत माँ जिनवाणी से - २८०

? अमृत माँ जिनवाणी से - २८० ?      "आदिवासियों की कल्याण साधना"                 रायपुर में धर्म प्रभावना के उपरांत संघ २० जनवरी को रवाना होकर आरंग होते हुए संभलपुर पहुँचा। वहाँ से प्रायः जंगली मार्ग से संघ को जाना पड़ा था।                 उस जगह इन दिगम्बर गुरु के द्वारा सरल ग्रामीण जनता का कल्याण हुआ था। रास्ते भर हजारों लोग इन नागा बाबा के दर्शन को दूर दूर से आते थे।               पूज्य शान्तिसागरजी महराज तथा मुनि संघ को  भगवान सा समझ वे लोग प्रमाण करते थे तथा इनके उपद

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?नादिरशाही आदेश - अमृत माँ जिनवाणी से - २७९

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २७९   ?              "नादिरशाही आदेश"               सन १९५१ की बात है। नीरा जिला पूना में नवनिर्मित सुंदर जिन मंदिर की प्रतिष्ठा के समय हजारों जैन बंधु आये थे। उस समय आचार्य शान्तिसागर महराज भी वहाँ विराजमान थे।                  पूना जिलाधीश ने विवेक से काम न ले आचार्य शान्तिसागर महराज के सार्वजनिक विहार पर बंधन लगा दिया, जिससे भयंकर स्थिति उत्पन्न होने की संभावना थी।                  उद्योगपति सेठ लालचंद हीराचंद, सदस्य, केंद्रीय परिषद तथा स्व.

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आत्मा का सम्बन्ध छोटे- बडे से नहीं है

आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि आत्मा का जब मूढ स्वभाव नष्ट हो जाता है और आत्मा का ज्ञान गुण विकसित होने लगता है तब व्यक्ति को समझ में आता है कि आत्मा का सम्बन्ध न छोटे से है न बड़े से । आत्मा तो मात्र दर्शन, ज्ञान और चेतना स्वरूप मात्र है। आत्मा के जाग्रत होने पर वह समझता है कि आत्मा न गुरु है, न शिष्य है, न स्वामी है, न सेवक है, न शूरवीर (और) कायर है, और न श्रेष्ठ (और) नीच है। दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के आचार्य योगीन्दु के अनुसार यदि प्रत्येक मनुष्य मात्र इस एक गाथा पर गहराई से विचारकर अपनी आत्मा को ज

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?अंग्रेज अधिकारी का भ्रम निवारण - अमृत माँ जिनवाणी से - २७८

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २७८   ?     "अंग्रेज अधिकारी का भ्रम निवारण"             संघ १८ जनवरी सन १९२८ को रायपुर पहुँचा। यहाँ सुंदर जुलूस निकालकर धर्म की प्रभावना की गई। यहाँ अनंतकीर्ति मुनि महराज का केशलोंच भी हुआ था।               यहाँ के एक अंग्रेज अधिकारी की मेम ने दिगम्बर संघ को देखा, तो उसकी यूरोपियन पध्दति को धक्का सा लगा। उसने तुरंत अपने पति अंग्रेज साहब के समक्ष कुछ जाल फैलाया, जिससे संघ के बिहार में बाधा आए।               अंग्रेज अधिकारी अनर्थ पर उतर उतारू हो

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आत्मा का किसी भी धर्म सम्प्रदाय से सम्बन्ध नहीं है

आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि आत्मा का जब मूढ स्वभाव नष्ट हो जाता है और आत्मा का ज्ञान गुण विकसित होने लगता है तब वह समझता है कि आत्मा का सम्बन्ध ना बौद्ध धर्म से है, न दिगम्बर जैन धर्म से, न श्वेताम्बर से न किसी अन्य धर्म सम्प्रदाय से। उसके लिए आत्मा मात्र एक आत्मा है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -  88.  अप्पा वंदउ खवणु ण वि अप्पा गुरउ ण होइ।      अप्पा लिंगिउ एक्कु ण वि णाणिउ जाणइ जोइ।। अर्थ -आत्मा वन्दना करनेवाला, (और) तपस्वी जैन मुनि नहीं है, आत्मा धर्माचार्य नहीं है, तथा आत्मा

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?पाप त्याग द्वारा ही जीव का उद्धार होता है - अमृत माँ जिनवाणी से - २७७

?   अमृत माँ जिनवाणी - २७७   ? "पाप त्याग द्वारा ही जीव का उद्धार होता है"              कल हमने देखा की पूज्य शान्तिसागरजी महराज ने अनेकों अजैन भाइयों को मद्य, मांस तथा मदिरा का त्याग कराकर उनका उद्धार किया।               इसी संबंध में वर्धा में सन १९४८ के मार्च माह में मैं वर्तमान राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्रप्रसाद जी से मिला था, लगभग डेढ़ घंटे चर्चा हुई थी। उस समय हरिजन सेवक पत्र के संपादक श्री किशोर भाई मश्रुवाला भी उपस्थित थे। श्री विनोवा भावे से भी मिलना हुआ था।        

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आत्मा का जाति व लिंग से सम्बन्ध नहीं

आचार्य योगिन्दु ज्ञानी आत्मा का स्वरूप बताते हुए आगे कहते हैं कि ज्ञानी आत्मा, ब्राह्मण, वणिक, क्षत्रिय, क्षुद्र जातियाँ तथा पुरुष, नपुंसक, स्त्री लिंगो का भी आत्मा से कोई सम्बन्ध नहीं मानता है। वह आत्मा को मात्र दर्शन, ज्ञान चेतना स्वरूप मानता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 87.   अप्पा बंभणु वइसु ण वि  ण वि खत्तिउ ण वि सेसु।      पुरिसु णउंसउ इत्थि ण वि णाणिउ मुणइ असेसु।। अर्थ - आत्मा ब्राह्मण तथा वणिक नहीं है, क्षत्रिय भी नहीं है और बाकी बचा हुआ (क्षुद्र) भी नहीं है, तथ

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आत्मा का जाति व लिंग से सम्बन्ध नहीं

आचार्य योगिन्दु ज्ञानी आत्मा का स्वरूप बताते हुए आगे कहते हैं कि ज्ञानी आत्मा, ब्राह्मण, वणिक, क्षत्रिय, क्षुद्र जातियाँ तथा पुरुष, नपुंसक, स्त्री लिंगो का भी आत्मा से कोई सम्बन्ध नहीं मानता है। वह आत्मा को मात्र दर्शन, ज्ञान चेतना स्वरूप मानता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 87.   अप्पा बंभणु वइसु ण वि  ण वि खत्तिउ ण वि सेसु।      पुरिसु णउंसउ इत्थि ण वि णाणिउ मुणइ असेसु।। अर्थ - आत्मा ब्राह्मण तथा वणिक नहीं है, क्षत्रिय भी नहीं है और बाकी बचा हुआ (क्षुद्र) भी नहीं है, तथ

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?अगणित ग्रामीणों का व्रतदान द्वारा उद्धार - अमृत माँ जिनवाणी से - २७६

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २७६   ? "अगणित ग्रामीणों का व्रतदान द्वारा उद्धार"                    छत्तीसगढ़ प्रांत के भयंकर जंगल के मध्य से संघ का प्रस्थान हुआ। दूर-२ के ग्रामीण लोग इन महान मुनिराज के दर्शनार्थ आते थे। महराज ने हजारों को मांस, मद्य आदि का त्याग कराकर उन जीवों का सच्चा उद्धार किया था। पाप त्याग द्वारा ही जीव का उद्धार होता है। पाप प्रवृत्तियों के परित्याग से आत्मा का उद्धार होता है।                 कुछ लोग सुंदर वेशभूषा सहभोजनादि को आत्मा के उत्कर्ष का अंग सोचते

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जाग्रत आत्मा का स्वरूप

आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि जैसे ही आत्मा का मूढ स्वभाव नष्ट होता है वैसे ही आत्मा जाग्रत अवस्था को प्राप्त होने लगती है। जाग्रत अवस्था से पूर्व मूढ अवस्था में उसकी जो क्रियाएँ होती थी वे जाग्रत अवस्था में पूर्ण परिवर्तन के साथ होती हैं। मूढ अवस्था में वह आत्मा को गोरा, काला आदि विभिन्न वर्णोवाला मानता था किन्तु जाग्रत अवस्था प्राप्त कर लेने पर वह गम्भीर भाव चिन्तन से यह समझ जाता है कि आत्मा गोरवर्णवाली, काले रंगवाली, नहीं है, आत्मा लाल नहीं है, आत्मा सूक्ष्म और स्थूल भी नहीं है। देखिये इससे सम्

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?शिखरजी में पंच कल्याणक का निश्चय - २७५

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २७५   ?   "शिखरजी में पंचकल्याणक का निश्चय"               संघपति जवेरी बंधुओं को धन लाभ में धन के द्वारा मनोविकार आना चाहिए था, किन्तु आचार्यश्री के चरणों के सत्संग से उनकी आत्मा में स्वयं के भाव हुए कि इस द्रव्य को शिखरजी में जिनेन्द्र पंच कल्याणक महोत्सव रूप महापूजा में लगा देना अच्छा होगा।             गुरुचरण प्रसाद से जो निधि आई है उसे उनके पुण्य चरणों के समीप ही श्रेष्ठ कार्य में लगा देना चाहिए, ऐसा पवित्र भाव उनके चित्त में उदित हुआ। ऐसा होना

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मूढता का कारण और निवारण और फल

आचार्य योगिन्दु व्यक्ति की मूढता का कथन करने के बाद कहते हैं कि उसकी इस मूढता का कारण उसका अपना मोह स्वभाव है, और जैसे-जैसे उपयुक्त समय आने पर उसका मोह नष्ट होता है उसकी मूढता नष्ट होती है। उसके बाद ही उसकी सत्य तत्त्व पर श्रद्धा होती है और तब ही आत्मा से उसकी पहचान शुरु होने लगती है।  देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 85  काल लहेविणु जोइया जिमु जिमु मोह गलेइ।     तिमु तिमु दंसणु लहइ जिउ णियमे ँ अप्पु मुणेइ। अर्थ -हे योगी! समय प्राप्तकर जैसे-जैसे मोह नष्ट होता है, वैसे-वैसे मनु

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विपरीत दृष्टि मूर्ख व्यक्ति की क्रिया

बन्धुओं!, जैसा कि आप को पूर्व में बताया जा चुका है कि परमात्मप्रकाश में 3 अधिकार हैं। 1. आत्माधिकार 2. मोक्ष अधिकार 3. महाधिकार। अभी हमारा प्रवेश आत्माधिकार में ही है। आत्मा के विषय में पूर्णरूप से जान लेने के बाद ही हम आत्मा की शान्ति अर्थात् मोक्ष में प्रवेश होने की बात कर सकते है। आत्माधिकार के 82 दोहों तक हम आत्मा के विषय में जान चुके हैं। आत्माधिकार के 41 दोहे और शेष हैं, इसके बाद हमारा मोक्ष अधिकार में प्रवेश होगा। निश्चितरूप से मोक्ष अधिकार हमें आसानी से समझ आयेगा। आत्माधिकार के अगले

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?शुभ समाचार - अमृत माँ जिनवाणी से - २७४

☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं,            हम विचार कर सकते है कि वह श्रावक कितने भाग्यशाली होंगे जिनको पूज्य शान्तिसागर ससंघ तीर्थराज की वंदना को ले जाने में सम्पूर्ण व्यवस्था का लाभ मिला।               आज का प्रसंग हम सभी को उदारता का एक अच्छा प्रेरणास्पद उदाहरण, एक सच्चे गुरुभक्त श्रावक लक्षणों तथा सोच को व्यक्त करता है। उदारता तथा संतोष एक सच्चे धर्मात्मा की पहचान है। ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २७४   ?                    "शुभ समाचार"                नागपुर धर्म प्रभावना

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?जैन धर्म की घटती का कारण - अमृत माँ जिनवाणी से - २७३

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २७३   ?         "जैन धर्म की घटती का कारण"                एक भाई ने पूज्यश्री से पूंछा- "महराज जैन धर्म की घटती का क्या कारण है जबकि उसमें जीव को सुख और शांति देने की विपुल सामग्री विद्यमान है?"                  महराज ने कहा- "दिगम्बर जैन धर्म कठिन है। आजकल लोग ऐहिक सुखों की ओर झुकते हैं। मोक्ष की चिंता किसी को नहीं है। सरल और विषय पोषक मार्ग पर सब चलते हैं, जैन धर्म की क्रिया कठिन है। अन्यत्र सब प्रकार का सुभीता है। स्त्री आदि के साथ भी अन्यत्र साध

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मूढ व्यक्ति के अन्य लक्षण

पुनः आचार्य योगिन्दु मूर्छित आत्मा वाले मूढ व्यक्ति का लक्षण बताते हैं कि वह आत्मा को छोड़कर जाति, लिंग, अवस्था तथा अपने सम्प्रदाय को अपना मानता है और उस पर अहंकार करता है, जबकि ये सब उसके ऊपरी आवरण या भेद हैं। आत्मा के अतिरिक्त सभी वस्तुए भिन्न हैं। जाग्रत आत्मा अपनी आत्मा में स्थित हुआ बाकी सब भेदों को आत्मा से भिन्न मानता है। देखिये इससे सम्बन्धित दो दोहे- 81.  हउँ वरु बंभणु वइसु हउँ हउं खत्तिउ हउँँ सेसु।     पुरिसु णउँसउ इत्थि हउँ मण्णइ मूढु विसेसु।। अर्थ - मैं (सबमें) श्रेष्ठ

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