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धर्म विशुद्ध भाव का ही दूसरा नाम है

आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि धर्म का सम्बन्ध विशुद्ध भाव से है तथा विशुद्ध भावपूर्वक की गयी क्रिया ही धार्मिक क्रिया है। विशुद्ध भाव रहित की गयी बाहरी क्रियाओं का कोई मूल्य नहीं है। बन्धुओं यही है आचार्य योगीन्दु का पाप -पुण्य से परे सच्चा न्याय युक्त कथन। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -  68.   भाउ विसद्धउ अप्पणउ धम्मु भणेविणु लेहु।       चउ-गइ-दुक्खहँ जो धरइ जीउ पडंतउ एहु।। अर्थ -अपने विशुद्ध भाव को (ही) धर्म कहकर ग्रहण करो। जो (विशुद्ध भाव), (संसार में) पड़े हुए इस जीव की चार

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चित्त की शुद्धि ही प्रमुख है

आचार्य योगीन्दु का स्पष्ट उद्घोष है कि यदि हम शान्ति चाहते हैं तो यह बिना चित्त शुद्धि के संभव है ही नहीं। चित्त शुद्धि ही भाव शुद्धि का साधन है। जिसका चित्त शुद्ध है, वह ही संयम, शील, तप, दर्शन, ज्ञान का सच्चा अधिकारी है और वह ही कर्मों का नाश कर सकता है। चित्त की शुद्धता के बिना इनमें से कुछ भी संभव नहीं है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 67.   सुद्धहँ संजमु सीलु तउ सुद्धहँ दंसणु णाणु।       सुद्धहँ कम्मक्खउ हवइ सुद्धउ तेण पहाणु।। अर्थ -शुद्ध(चित्तवालों) के (ही) संयम, शील (

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विशुद्ध भावों के बिना स्तुति, स्वनिंदा एवं पापों के प्रायश्चित का कोई महत्व नहीं है

आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि जिसके मन में संयम नहीं है, वही उसके अशुभ भाव का कारण है और विशुद्धता के अभाव में स्तुति, निंदा, प्रायश्चित का कोई महत्व नहीं है। मन की विशुद्धता ही आत्मोत्थान है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 66.   वंदउ णिंदउ पडिकमउ भाउ असुद्धउ जासु।       पर तसु संजमु अत्थि णवि जं मण-सुद्धि ण तासु।। अर्थ -जिसके अशुभ भाव है, वह स्तुति कर,े (अपने द्वारा किये) पापों की निंदा करे, अपने पापों  का प्रायश्चित करे, किन्तु उसके संयम नहीं है क्योंकि उसके मन में विशुद्धता

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ज्ञानी की पहचान

आचार्य योगीन्दु ज्ञानी का स्वरूप बताने के बाद स्पष्टरूप से कहते हैं कि ज्ञानी वंदना, निंदा, पापों के प्रायश्चित आदि से परे रहकर मात्र शुद्ध भाव में स्थित रहता है। मात्र शुद्ध भाव में स्थित रहनेवाला ही सच्चा ज्ञानी है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 65.      वंदणु णिंदणु पडिकमणु णाणिहि ँ एहु ण जुत्तु।         एक्कु जि मेल्लिवि णाणमउ सुद्धउ भाउ पवित्तु।। अर्थ -  मात्र एक ज्ञानमय पवित्र शुद्धभाव को छोेड़कर यह स्तुति,(आत्म) निन्दा, (अपने द्वारा किये) पापों का प्रायश्चित ज्ञानियों

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ज्ञानी का सच्चा स्वरूप

आचार्य योगीन्दु का एक-एक दोहा अध्यात्म के सच्चे स्वरूप का ज्ञान कराता है। अभी तक हम समझते थे कि वंदना, अपनी निन्दा और अपने पापों का प्रायश्चित यह ही जीवन का लक्ष्य हैं। किन्तु आचार्य योगीन्दु ने इन को मात्र पुण्य कहकर इससे उच्च स्तर की अनुभूति करायी है। इस दोहे से ऐसा लगता है जैसे आचार्य योगीन्दु महाराज हम भव्यजनों के कन्धे पर हाथ रखकर यह समझा रहे हंै कि कब तक दूसरों की वन्दना करते रहोगे, ऐसे काम करो कि स्वयं ही वन्दनीय हो जाओ। फिर समझाते हैं कि ऐसा गलत काम करो ही क्यों कि अपनी निन्दा और पश्चाता

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ज्ञानी का सच्चा स्वरूप

आचार्य योगीन्दु का एक-एक दोहा अध्यात्म के सच्चे स्वरूप का ज्ञान कराता है। अभी तक हम समझते थे कि वंदना, अपनी निन्दा और अपने पापों का प्रायश्चित यह ही जीवन का लक्ष्य हैं। किन्तु आचार्य योगीन्दु ने इन को मात्र पुण्य कहकर इससे उच्च स्तर की अनुभूति करायी है। इस दोहे से ऐसा लगता है जैसे आचार्य योगीन्दु महाराज हम भव्यजनों के कन्धे पर हाथ रखकर यह समझा रहे हंै कि कब तक दूसरों की वन्दना करते रहोगे, ऐसे काम करो कि स्वयं ही वन्दनीय हो जाओ। फिर समझाते हैं कि ऐसा गलत काम करो ही क्यों कि अपनी निन्दा और पश्चाता

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गति का आधार कर्म ही है

आचार्य योगीन्दु कहते है कि हमारी गति का आधार हमारे कर्म ही हैं। हमने पाप और पुण्य दोनों प्रकार के कर्म किये थे, इसलिए हमने यह मनुष्य गति पायी। जब हम पाप (अशुभ) कर्म करेंगे तो हम नारकी और तिर्यंच गति में जन्म लेंगे और जब पुण्य (शुभ) कर्म करेंगे तो देव गति प्राप्त करेंगे। यदि हम पाप पुण्य की क्रियाओं से रहित होकर सम्पूर्ण कर्मों का नाश कर देंगे तो मोक्ष गति को प्राप्त होंगे। इसलिए हमारी गति  हमारे अपने कर्मों के आधार पर ही सुनिश्चित है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 63.     पावे ँ णारउ

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शुभ कर्म से द्वेष ही पाप है

आचार्य योगीन्दु ने पाप, पुण्य और मोक्ष को कितने सहज तरीके से तीन चार गाथाओं में समझा दिया है, यह है उनकी मनोवैज्ञानिकता। जितना आश्चर्य लोगों के प्रतिकूल आचरण पर होता है उतना ही आश्चर्य हम अज्ञानियों को आचार्य योगिन्दु मुनिराज की सरलता पर होता है। सर्व प्रथम वे कहते हैं कि स्व दर्शन से ही सुख की प्राप्ति संभव है। उसके बाद वे कहते हैं स्व दर्शन रहित पुण्य भी पाप है । फिर कहते हैं कि शुभ कर्म मात्र पुण्य के कारण हैं मोक्ष के कारण नहीं है और अन्त में पाप का कथन कर अपने सम्पूर्ण मन्तव्य को स्पष्ट कर

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शुभ कर्म मात्र पुण्य के कारण हैं मोक्ष के कारण नहीं हैं

आचार्य योगीन्दु स्पष्टरूप से कहते हैं कि मोक्ष अर्थात् मुक्ति कर्मों के क्षय से ही संभव है। परमेश्वरों की, शास्त्रों की (और) मुनिवरों की भक्ति से तो पुण्य होता है और वह भी यदि स्वदर्शन सहित नहीं हो तो आगे चलकर पाप में परिवर्तन हो जाता है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -  61.      देवहं सत्थहं मुणिवरहँ भत्तिए पुण्णु हवेइ।         कम्म-क्खउ पुणु होइ णवि अज्जउ संति भणेइ।। अर्थ - परमेश्वरों की, शास्त्रों की (और) मुनिवरों की भक्ति से पुण्य होता है, लेकिन कर्मों का क्षय नहीं होता। शान्ति

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?निवासकाल - अमृत माँ जिनवाणी से - ३२२

?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३२२   ?                   "निवासकाल"                  नीरा में जैनमित्र के संपादक श्री मूलचंद कापड़िया ने "दिगम्बर जैन" का 'त्याग' विशेषांक पूज्यश्री को समर्पित किया। उस समय आचार्य महराज पूना के समीपस्थ नीरा स्टेशन के पास दूर एक कुटी में विराजमान थे।             कुछ समय के बाद पूज्यश्री का आहार हुआ। पश्चात आचार्य महराज सामायिक को जा रहे थे। संपादकजी तथा संवाददाता महाशय महराज की सेवा में आये। कापढ़िया ने पूंछा- "महराज आप अभी यहाँ कब तक हैं?"         म

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स्व दर्शन रहित पुण्य भी पाप है

आचार्य योगिन्दु एक विशुद्ध अध्यात्मकार हैं। योगी जितने जितने आध्यात्मिक होते हैं उतने उतने ही सहज होते चले जाते हैं। इस दोहे के माध्यम से आचार्य योगिन्दु की सहज अध्यात्मिकता को देखा जा सकता है। वे कहते हैं कि स्वदर्शन से रहित पुण्य पाप का कारण है, क्योंकि स्वदर्शन रहित पुण्य से वैभव तो होता है किन्तु वह वैभव अहंकार उत्पन्न करता है। उस अहंकार से मति मूढ हो जाती है जिससे सारी क्रियाएँ पापमय होती है। इसलिए आचार्य कहते हैं कि स्वदर्शन से रहित पुण्य भी किसी प्रकार कार्यकारी नहीं है। आज के इस वैभव प्र

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आज १६ मई, दिन सोमवार, वैशाख शुक्ल दशमी की शुभ तिथी की शुभ तिथी को २४ वे तीर्थंकर देवादिदेव श्री १००८ महावीर भगवान का ज्ञानकल्याणक पर्व है।

आज १६ मई, दिन सोमवार, वैशाख शुक्ल दशमी की शुभ तिथी की शुभ तिथी को २४ वे तीर्थंकर देवादिदेव श्री १००८ महावीर भगवान का ज्ञानकल्याणक पर्व है।

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स्व दर्शन से ही सुख की प्राप्ति संभव है

आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि स्व दर्शन के साथ ही पुण्य कार्यकारी है। स्व दर्शन के अभाव में पुण्य भी दुखदायी है। 59.       जे णिय-दंसण अहिमुहा सोक्खु अणंतु लहंति।           तिं विणु पुण्णु करंता वि दुक्खु अणंतु सहंति।।59।। अर्थ -  जो निज दर्शन के सम्मुख हैं,(वे) अनन्त सुख को प्राप्त करते हैं और उसके बिना वे पुण्य करते हुए भी अनन्त दुःख झेलते हैं। शब्दार्थ - जे-जो, णिय-दंसण अहिमुहा- निज दर्शन के सम्मुख हैं, सोक्खु-सुख को, अणंतु-अनन्त, लहंति-प्राप्त करते हैं, तिं-उसके, विणु-बिना,

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? कल १४ मई, दिन शनिवार को अष्टमी पर्व है।

?          कल अष्टमी पर्व              ? जय जिनेन्द्र बंधुओ,               कल १४ मई, दिन शनिवार को अष्टमी पर्व है। ?? कल जिनमंदिर जाकर देवदर्शन करें। ?? जो श्रावक प्रतिदिन देवदर्शन करते है उनको अष्टमी/चतुर्दशी के दिन भगवान का अभिषेक और पूजन करना चाहिए। ?? इस दिन रात्रि भोजन व् आलू-प्याज आदि जमीकंद का त्याग करना चाहिए। ?? जो श्रावक अष्टमी/चतुर्दशी का व्रत करते है कल उनके व्रत का दिन है। ?? इस दिन राग आदि भावो को कम करके ब्रम्हचर्य के साथ रहना

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स्व दर्शन ही मानव जीवन की सच्ची सार्थकता है

आचार्य योगीन्दु मानव जीवन की सार्थकता का मूल व्यक्ति के निज दर्शन में मानते हैं। वे कहते हैं कि स्व दर्शन से विमुख व्यक्ति के द्वारा की गयी पुण्य क्रियाओं का भी महत्व नहीं है जबकि स्वदर्शन पूर्वक मरण भी श्रेष्ठ है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 58.       वर णिय-दंसण-अहिमुहउ मरणु वि जीव लहेसि।           मा णिय-दंसण-विम्मुहउ पुण्णु वि जीव करेसि।। अर्थ - हे जीव! (तू) स्व दर्शन के सम्मुख हुआ मृत्यु को भी प्राप्त करता है (तो) अच्छा है, किन्तु निज दर्शन से विमुख हुआ पुण्य भी करता है तो (

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ज्ञानी की क्रिया पुण्य पाप से रहित मोक्षमार्गी होती है

पूर्व के दोहे में आचार्य योगीन्दु ने उस पाप को भी सुंदर बताया जो कालान्तर में बुद्धि को मोक्ष मार्गी बना देते हैं।इस दोहे में आचार्य उन पुण्यों को भी सुंदर नहीं मानते जो जीवों को क्षणिक सुख प्रदान कर नरक गामी बनाते हैं। इस तरह ज्ञानी की क्रिया तो मात्र मोक्ष मार्गी ही होती है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 57.       मं पुणु पुण्णइँ भल्लाइँ णाणिय ताइँ भणंति।          जीवहँ रज्जइँ देवि लहु दुक्खइँ जाइँ जणंति।। अर्थ - किन्तु ज्ञानी उन पुण्यों को (भी) अच्छा नहीं कहते, जो जीवों क

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कभी कभी पाप भी हितकर हो जाते हैं

आचार्य योगीन्दु ने यहाँ बहुत ही करुणापूर्वक शब्दों में सभी जीवों को समझाया है कि यदि हमसे अज्ञानवश पाप युक्त क्रिया हो भी गयी है तो हमें परेशान होने की ज्यादा आवश्यक्ता नहीं है बल्कि विचारकर आगे के लिए सचेत होना आवश्यक है। वैसे भी देखा जाये तो सुख में व्यक्ति के सुधरने की गुंजाइश कम होती है, जबकि पाप का फल भोगने पर व्यक्ति दुःख से हटना चाहता है और फिर वह मोक्ष मार्ग पर ले जानेवाले मार्ग पर चल देता है। वे पाप ही होते हैं जो व्यक्ति को आगे मोक्ष मार्ग पर लगा देते है। आचार्य ने अपने सुंदर शब्दों मे

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?महत्वपूर्ण शंका का समाधान - अमृत माँ जिनवाणी से - ३२१

☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं,      आज के प्रसंग में आप पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज द्वारा गाय के दूध के संबंध में एक महत्वपूर्व जिज्ञासा के दिए गए रोचक समाधान को जानेगे। आप अवश्य पढ़ें। ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३२१   ?           "महत्वपूर्ण शंका समाधान"         अलवर में एक ब्राम्हण प्रोफेसर महाशय आचार्यश्री के पास भक्तिपूर्वक आए और पूछने लगे कि- "महराज ! दूध क्यों सेवन किया जाता है? दुग्धपान करना मुत्रपान के समान है?"         महराज ने कहा,"गाय जो घास खाती है, वह

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आज ९ मई, वैशाख शुक्ल तृतीया को "दान तीर्थ प्रवर्तन" पर्व अक्षय तृतीया है।

?    कल अक्षय तृतीया पर्व है      ? जय जिनेन्द्र बंधुओ,            कल ९ मई, वैशाख शुक्ल तृतीया को "दान तीर्थ प्रवर्तन" पर्व अक्षय तृतीया है। आज की तिथी को राजा श्रेयांस ने प्रथम तीर्थंकर देवादिदेव श्री १००८ ऋषभनाथ भगवान को मुनि अवस्था में आहार दान देकर, हम सभी श्रावकों के अतिशय पुण्योपार्जन का कारण आहार दान की विधी का सभी को ज्ञान कराया था।         हम श्रावक मुनिराज को आहार दान देकर गृहस्थ कार्यों में लगे दोषों की निर्वृत्ति करते हैं।       इस विशेष अवसर पर मुनि महराज क

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?दिल्ली चातुर्मास - अमृत माँ जिनवाणी से - ३२०

☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं,           पूज्य शान्तिसागरजी महराज का सर्वत्र विहार आप सभी सामान्य दृष्टि से देख रहे होंगे। उस समय पूज्यश्री का विहार एक सामान्य बात नहीं थी क्योंकि उस समय भी देश परतंत्र ही था, ऐसी स्थिति में भी सन १९३१ में देश की राजधानी दिल्ली में चातुर्मास एक विशेष ही बात थी। उस समय परतंत्रता के समय में देश के केंद्र राजधानी दिल्ली में चातुर्मास पूज्य आचार्यश्री के दिगम्बरत्व को पुनः सर्वत्र प्रचारित होने की भावना का परिचायक है। और देश में सर्वत्र उनका अत्यंत प्रभावना के साथ निर

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अज्ञानी जीव की क्रिया का फल

आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि अज्ञानी जीव समभाव में स्थित नहीं होने के कारण मोह से दुःख सहता हुआ संसार में भ्रमण करता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 55     जो णवि मण्णइ जीउ समु पुण्णु वि पावु वि दोइ।         सो चिरु दुक्खु सहंतु जिय मोहिं हिंडइ लोइ।।    अर्थ - जो जीव पाप और पुण्य दोनों को ही समान नहीं मानता है, वह जीव बहुत काल तक दुःख  सहता हुआ मोह से संसार में भ्रमण करता है। शब्दार्थ - जो-जो, णवि-नहीं, मण्णइ-मानता है, जीउ-जीव, समु-समान, पुण्णु-पुण्य, वि-और, पावु-पाप,

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?दिल्ली प्रवास में प्रभावना - अमृत माँ जिनवाणी से - ३१९

☀ जय जिनेन्द्र बंधुओ,                आज के प्रसंग में हम सभी देखेंगे कि किस तरह पूज्य शान्तिसागरजी महराज के ससंघ त्याग तथा तपश्चरण के फलस्वरूप पूज्यश्री के दिल्ली में १९३० के दिल्ली प्रवास के समय अपूर्व प्रभावना हुई। हर सम्प्रदाय के लोगों ने इनके सम्मुख व्रत नियम आदि स्वीकार कर अपने आपको धन्य किया।           राजधानी दिल्ली में सैकड़ों श्रावक आजीवन शुद्र जल का त्याग कर पूज्यश्री के ससंघ को आहार देने का सौभाग्य सहर्ष प्राप्त कर रहे थे।         अवश्य ही उन क्षणों का लेखक का यह चित

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?कल ७ मई, दिन शनिवार, वैशाख शुक्ल एकम् की शुभ तिथी को १७ वे तीर्थंकर देवादिदेव श्री १००८ कुन्थुनाथ भगवान का मोक्ष कल्याणक पर्व है

?   कल मोक्ष कल्याणक पर्व    ? जय जिनेन्द्र बंधुओं,              कल ७ मई, दिन शनिवार, वैशाख शुक्ल एकम् की शुभ तिथी को १७ वे तीर्थंकर देवादिदेव श्री १००८ कुन्थुनाथ भगवान का मोक्ष कल्याणक पर्व है ?? कल अत्यंत भक्ति भाव से कुन्थुनाथ भगवान की पूजन करना चाहिए तथा निर्वाण लाडू आदि चढ़ाकर मोक्ष कल्याणक पर्व मनाना चाहिए। निर्वाण महोत्सव के इस विशेष अवसर पर अपने भी निर्वाण की भावना करना चाहिए। ? इस अवसर पर हम सभी को कुन्थुनाथ भगवान के श्री चरणों में यही भावना करना चाहिए कि

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