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?सिंह निष्क्रिडित व्रत - अमृत माँ जिनवाणी से - ३०१


Abhishek Jain

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?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३०१   ?


              "सिंहनिःक्रिडित तप"


                  पूज्य शान्तिसागर महराज के उत्तर भारत में कटनी में प्रथम चातुर्मास के उपरांत उनके द्वितीय चातुर्मास का परम सौभाग्य ललितपुर को प्राप्त हुआ।

               ललितपुर आने पर आचार्य महराज ने सिंहनिः क्रिडित तप किया था। यह बड़ा कठिन व्रत होता है। इस उग्र तप से आचार्य महराज का शरीर अत्यंत क्षीण हो गया था। लोगों की आत्मा उनको देख चिंतित हो जाती थी कि किस प्रकार आचार्य देव की तपश्या पूर्ण होती है।

               सब लोग भगवान से यही प्रार्थना करते थे कि हमारे धर्म के पवित्र स्तम्भ आचार्यश्री की तपः साधना निर्विघ्न पूरी हो। आचार्य महराज के न जाने कब बंधे कर्मों का उदय आ गया उस तपश्चर्या की स्थिति में १०४, १०५ डिग्री प्रमाण ज्वर आने लगा।

          भीषण ज्वर चढ़ा था, फिर भी महराज के मुख मंडल पर अद्भुत आत्मतेज था। अग्नि दाह से जिस प्रकार स्वर्ण की विशिष्ट दीप्ति दृष्टिगोचर होती है, वैसे ही तपोग्नि में तपाया गया उनका शरीर तेजपूर्ण दिखता था।

             उस समय वे आत्मचिंतन में मग्न रहते थे। आहार दान देने से मन विषयों की ओर नहीं जाता था। मन तो उनके आधीन पहले से ही था। अब वह अत्यंत एकाग्र हो आत्मा का अनवरत चिंतन करता था।


? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
   ?आज की तिथी - चैत्र कृष्ण ३?

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