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मुुनिराज के लिए समस्त परिग्रह का त्याग आवश्यक है

आचार्य योगीन्दु एक उच्च कोटि के अध्यात्मकार तो हैं ही साथ में बहुत संवेदनशील भी हैं। वे अपने साधर्मी बन्धु मुनिराजों के प्रति बहुत संवेदनशील है। वे कहते हैं कि जिनवर भेष धारण करना और केश लोंच जैसे कठिन कार्य करके भी मात्र एक परिग्रह त्याग जैसे सरल कार्य को नहीं अंगीकार किया गया तो उसने स्वयं ने ही अपनी आत्मा को ठग लिया और फिर जिस प्रयोजन से उन्होंने जिस कठिन मार्ग को अपनाया था वह व्यर्थ हो गया। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 90.   केण वि अप्पउ वंचियउ सिरु लुंचिवि छारेण।       सयल

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मोह मुनियों को कुमार्ग में लगाता है

आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि मुनि भौतिक सुखों को त्यागकर श्रेष्ठ आत्मसुख की साधना में लगे हुए हैं। उनकी आत्मसुख साधना निरन्तर बढ़े इसमें श्रावकों का बहुत बड़ा सहयोग होना चाहिए। श्रावकों को मुनिराज के पास बैठकर उनसे धर्म साधना का मार्ग, गृहस्थ जीवन जीने का तरीका सीखना चाहिए और उनकी साधना में आहार, शास्त्र, औषध व अभयदान देकर सहयोगी बनना चाहिए। ना ही श्रावकों को मुनिराज के साथ राग का सम्बन्ध जोड़ना चाहिए और ना ही मुनिराज को अपने शिष्यों, सिंहासन, कमंडल व चेले चेलियों के प्रति आसक्ति रखनी चाहिए। ऐसा नही

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मोह मुनियों को कुमार्ग में लगाता है

आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि मुनि भौतिक सुखों को त्यागकर श्रेष्ठ आत्मसुख की साधना में लगे हुए हैं। उनकी आत्मसुख साधना निरन्तर बढ़े इसमें श्रावकों का बहुत बड़ा सहयोग होना चाहिए। श्रावकों को मुनिराज के पास बैठकर उनसे धर्म साधना का मार्ग, गृहस्थ जीवन जीने का तरीका सीखना चाहिए और उनकी साधना में आहार, शास्त्र, औषध व अभयदान देकर सहयोगी बनना चाहिए। ना ही श्रावकों को मुनिराज के साथ राग का सम्बन्ध जोड़ना चाहिए और ना ही मुनिराज को अपने शिष्यों, सिंहासन, कमंडल व चेले चेलियों के प्रति आसक्ति रखनी चाहिए। ऐसा नही

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ज्ञानी व अज्ञानी मुनि की क्रिया में भेद

आचार्य योगीन्दु ज्ञानी व अज्ञानी मुनि की क्रिया में मुख्यरूप से भेद करते हैं कि अज्ञानी मुनि निःसंदेह चेला, चेली और पुस्तकों से खुश होता है, किन्तु ज्ञानी मुनि इनको बंधन का कारण जानता हुआ इनसे लज्जित होता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 88.  चेल्ला-चेल्ली-पुत्थियहि ँ तूसइ मूढु णिभंतु।      एयहि ँ लज्जइ णाणियउ बंधहँ हेउ मुणंतु।। अर्थ - अज्ञानी (मुनि) निःसंदेह चेला, चेली और पुस्तकों से खुश होता है, किन्तु ज्ञानी (इनको) बंधन का कारण जानता हुआ इनसे लज्जित होता है। शब्दार्

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मूर्ख मुनि का लक्षण

आचार्य योगीन्दु ज्ञानी और मूर्ख मुनि में ज्ञानी मुनि का  यह लक्षण बताने के बाद कि ज्ञानी मुनि देह कोे आत्मा से भिन्न मानता हुआ देह के प्रति आसक्ति को छोड़ देता है, अज्ञानी मुनि का लक्षण बताते हैं कि अज्ञानी मुनि बहुत प्रकार के धर्म के बहाने से इस समस्त जगत को ही प्राप्त करने के लिए इच्छा करता है। ज्ञानी और अज्ञार्नी मुनि में यह ही भेद है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 87. लेणहँ इच्छइ मूढु पर भुवणु वि एहु असेसु।     बहु विह-धम्म-मिसेण जिय दोहि ँ वि एहु विसेसु।। अर्थ - किन्तु अ

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ज्ञानी व मूर्ख मुनियों में ज्ञानी मुनि का लक्षण

आचार्य योगीन्दु ज्ञानी व मूर्ख मुनियों में भेद करते हुए ज्ञानी मुनि का लक्षण बताते हैं कि ज्ञानी मुनि देह कोे आत्मा से भिन्न मानता हुआ देह के प्रति आसक्ति को छोड़ देता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 86.  णाणिहि ँ मूढहँ मुणिवरहँ अंतरु होइ महंतु।     देहु वि मिल्लइ णाणियउ जीवहँ भिण्णु मुणंतु।। 86।। अर्थ -ज्ञानी (मुनिवरों) में मूर्ख मुनिवरों से बहुत बड़ा भेद होता है। ज्ञानी देह कोे आत्मा से भिन्न मानता हुआ देह (देह के प्रति आसक्ति) को छोड़ देता है। शब्दार्थ - णाणिहि ँ -ज्ञ

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मुनि को मुक्ति प्राप्त करने के लिए ज्ञान होना परम आवश्यक है

आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि मुनि के जीवन का उद्देश्य मुक्ति प्राप्त करना होता है। यदि मुनि के जीवन का उद्देश्य मुक्ति प्राप्त करना नहीं है तो वह सच्चे अर्थ में मुनि है ही नहीं, और यह मुक्ति, मुक्ति दायक ज्ञान से ही संभव है। मात्र एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ में भ्रमण कर लेने मात्र को मुुक्ति मान लेना मुनि का मात्र एक भ्रम है।  देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 85.  तित्थइँ तित्थु भमंताहँ मूढहँ मोक्खु ण होइ।      णाण-विवज्जिउ जेण जिय मुणिवरु होइ ण सोइ।। अर्थ - हे जीव! (एक) तीर्थ (से)

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प्रयोजन अर्थात् उद्देश्य सहित कार्य ही सार्थक है

आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि जो व्यक्ति किसी प्रयोजन या उद्देश्य को लेकर कार्य करते हैं तो वे अपना प्रयोजन पूरा होने पर संतुष्ट हो पाते हैं जब कि प्रयोजन रहित कार्य मात्र समय गुजारना होता है। जैसे शास्त्र का अध्ययन बोध प्राप्ति के उद्देश्य से किया जाये तो बोध प्राप्ति होने से उससे जो सन्तुष्टि मिलती है वही जीवन का सच्चा आनन्द है। किन्तु यदि मात्र समय गुजारने के लिए बिना बोध प्राप्ति के उद्देश्य से मात्र शास्त्रों का वाचन एक मूर्खता ही है, क्योंकि उससे सन्तुष्टि नहीं मिलती हे। देखिये इससे सम्बन्धि

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अधिक विकल्प व्यक्ति के विकास में बाधक है

आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि यदि व्यक्ति ज्ञानी होना चाहता है, अपनी परम आत्मा को पहचानना चाहता है तो उसके लिए उसे सबसे पहले अपने मन में उठने वाले व्यर्थ विकल्पों को नष्ट करना होगा, अन्यथा वह कितने ही ग्रंथों का अध्ययन कर लें सब व्यर्थ है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 83.  सत्थु पढंतु वि होइ जडु जो ण हणेइ वियप्पु।      देहि वसंतु वि णिम्मलउ णवि मण्णइ परमप्पु ।। अर्थ -जो शास्त्र को पढ़ता हुआ भी (अपनी) विविध तरह की कल्पना (सन्देह) को नष्ट नहीं करता,, वह मूर्ख (विवेक शून्य) होता

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सत्य को समझने से ही कर्मों से मुक्ति हो सकती है

हमने पूर्व में देखा कि आसक्ति से मुक्ति में ही कर्मों से मुक्ति है। आगे इसी बात को आगे बढाते हुए आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि कर्मों से मुक्ति के लिए सत्य को जानना आवश्यक है क्योंकि सत्य को जानने के बाद ही आसक्ति का त्याग सरलता से हो सकता है। सत्य को समझकर आसक्ति के त्याग के बिना शास्त्रों का अघ्ययन व तप करना भी व्यर्थ है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 82.    बुज्झइ सत्थइँ तउ चरइ पर परमत्थु ण वेइ।        ताव ण मुंचइ जाव णवि इहु परमत्थु मुणेइ।। अर्थ -(जो) शास्त्रों को समझता है

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आसक्ति से मुक्ति ही कर्मों से मुक्ति है

आचार्य योगीन्दु ने कर्मों से मुक्ति प्राप्त करने के इच्छुक लोगों के लिए बहुत ही सहज और वह भी एक ही मार्ग बताया है कि आसक्ति से मुक्त हो जाओ, कर्मों से मुक्ति मिलेगी और जीवन में शाश्वत सुख व शान्ति लहरा उठेगी। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 81.    जो अणु-मेत्त वि राउ मणि जाम ण मिल्लइ एत्थु।        सो णवि मुच्चइ ताम जिय जाणंतु वि परमत्थु।। अर्थ - यहाँ पर (इस जगत में) जब तक जो जीव अणु मात्र भी मन में (स्थित) आसक्ति को नहीं छोड़ता है, तब तक वह परमार्थ (सत्य) को जानता हुआ भी (कर्मो

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आसक्ति रहित कर्म संवर व निर्जरा का कारण

आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि जो आसक्ति रहित होकर अपने कर्मों के फल को भोगता है उसके कर्मों का बंध नहीं होता तथा पूर्व में किये कर्म बन्ध भी नष्ट हो जाते है। कर्म बंध ही दु.ख का फल है। अतः आसक्ति रहित कर्म करना ही मानव की श्रेष्ठ जीवन कला है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -   80.   भुंजंतु वि णिय-कम्म-फलु जो तहिं राउ ण जाइ।       सो णवि बंधइ कम्मु पुणु संचिउ जेण विलाइ।। अर्थ -  जो अपने कर्मफल को भोगता हुआ भी उनमें आसक्ति उत्पन्न नहीं करता, वह फिर से कर्म को नहीं बाँधता, जिससे (

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मोह निरन्तर कर्म बंध का कारण है

आचार्य यागीन्दु कहते हैं कि जो मोह के वशीभूत होकर अच्छे और बुरे भाव करते हैं वे निरन्तर कर्म बंघ करते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 79.   भुंजंतु वि णिय-कम्म-फलु मोहइँ जो जि करेइ।       भाउ असुंदरु सुंदरु वि सो पर कम्मु जणेइ।। अर्थ - जो अपने कर्म फल को भोगता हुआ भी मोह से अच्छा और बुरा भाव करता है, वह आगे (पुनः) कर्म उत्पन्न (नवीन कर्म बन्ध) करता है। शब्दार्थ - भुंजंतु- भोगता हुआ, वि-भी, णिय-कम्म-फलु -अपने कर्म फल को, मोहइँ-मोह से, जो-जो, (जि - पादपूर्ति हेतु प्रयु

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सुंुंदर वस्तु की प्राप्ति के बाद असुन्दर वस्तु की प्राप्ति की आवश्यक्ता नहीं है

पूर्व कथित बात को आगे बढ़ाते हुए आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि जिसने एक बार सर्व सुंदर आत्मा से आत्मसात कर लिया है उसको फिर आत्मा को छोड़कर कोई पर वस्तु प्रिय नहीं लगती। जिस प्रकार मरकतमणि की प्राप्ति के बाद काँच कौन लेना चाहेगा। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 78.   अप्पा मिल्लिवि णाणमउ चित्ति ण लग्गइ अण्णु ।       मरगउ जेँ परयाणियउ तहुँ कच्चे ँ कउ गण्णु।। अर्थ -(ज्ञानियों के) ज्ञानमय चित्त में आत्मा को छोड़कर दूसरी (वस्तु) सम्मिलित नहीं होती। जिसके द्वारा मरकतमणि जान ली गई है, उसके लिए

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ज्ञानी को आत्मा ही प्रिय है

आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि ज्ञानी का लगाव आत्मा से ही है और आत्मा का सौन्दर्य शील और सदाचरण में ही है। अतः ज्ञानी का मन शील और सौन्दर्य को नष्ट करनेवाले विषयों में रमण नहीं करता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 77.   अप्पा मिल्लिवि णाणियहँ अण्णु ण सुंदरु वत्थु।       तेण ण विसयहँ मणु रमइ जाणंतहँ परमत्थु।। अर्थ -ज्ञानियों के लिए आत्मा को छोड़कर दूसरी वस्तु सुंदर नहीं हैॅ, इसलिए परमार्थ (सत्य) को     जानते हुए (ज्ञानियों) का मन विषयों में रमण नहीं करता है। शब्दार्थ - अप्

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स्व-बोध होने पर राग नहीं रहता

आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि स्व-बोध होने पर दुःखों का जनक राग समाप्त हो जाता है जिस प्रकार सूर्य की किरणों के आगे अन्धकार नहीं ठहरता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 76.   तं णिय-णाणु जि होइ ण वि जेण पवड्ढइ राउ।      दिणयर -किरणहँ पुरउ जिय किं विलसइ तम-राउ।। अर्थ -हे जीव! वह स्व-बोध होता ही नहीे है, जिससे राग बढ़ता है। सूर्य की किरणों के आगे क्या अन्धकार का फैलाव सुशोभित होता है ? शब्दार्थ - तं - वह, णिय-णाणु- स्व बोध, जि-ही, होइ -होता है, णवि-नहीं, जेण -जिससे, पवड्ढइ-ब

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स्व - बोध ही सच्चा ज्ञान है

आचार्य योगीन्दु ने पूर्व में कहा कि ज्ञान के बिना शान्ति नहीं हैं। आगे इसका विस्तार करते हुए आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि स्व-बोध ही सच्चा ज्ञान है। वैसे यदि हम इसको अनुभव करें तो हम पायेंगे कि वास्तव में जिसको अपना ही बोध नहीं है उसको पर का बोध होना कैसे सम्भव है ? दूसरे शब्दों में जिसको अपने ही सुख-दुःख का एहसास नहीं हो वह दूसरों के सुख में कैसे सहयोगी हो सकता है। जब हम अपनी ही  पीडा का अनुभव कर उसको दूर करने का प्रयत्न करेंगे तभी हम हम दूसरों की पीड़ा का अनुभव कर उसको दूर करने में सहयोग देंगे।

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ज्ञान के बिना शान्ति नहीं है

आचार्य योगीन्दु स्पष्टरूप से कहते है कि ज्ञान के अभाव में जीव को शान्ति मिल ही नहीं सकती । पानी के बहुत विलोडन किये हुए से हाथ चिकना नहीं होता, मन्थन तो घी का ही करना होगा। उसी प्रकार ज्ञानपूर्वक जीवन के मन्थन से ही शान्ति का मार्ग तलाश कर उस पर चलने से ही शान्ति प्राप्त की जा सकती है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 74.   णाण-विहीणहँ मोक्खु-पउ जीव म कासु  वि जोइ।       बहुएँ सलिल-विरोलियइँ करु चोप्पडउ ण होइ।। अर्थ -  हे जीव! ज्ञान रहित किसी के लिए भी मोक्ष पद (शान्ति की स्थित

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ज्ञान ही मोक्ष का साधन है

आचार्य योगिन्दु कहते है कि ज्ञान से ही मोक्ष अर्थात शाश्वत शान्ति की प्राप्ति संभव है। सम्यक्ज्ञान ही  सम्यग्दर्शन व सम्यक्चारित्र के बीच का सेतु है। सम्यक् ज्ञान के अभाव में न सम्यक् दर्शन की प्राप्ति संभव है और ना ही सम्यक चारित्र होना संभव है। इन तीनों के समन्वित होने से ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। अतः ज्ञान ही प्रकारान्तर से मोक्ष का साधन सिद्ध होता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा- 73.    देउ णिरंजणु इउँ भणइ णाणिं मुक्खु ण भंति।       णाण-विहीणा जीवडा चिरु संसारु भमंति।।

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शुभ व शुद्ध क्रिया का फल

आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि दान तप आदि शुभ भाव पूर्वक की गयी क्रियाओं से अस्थिर विषय सुख व स्वर्ग का आधिपत्य प्राप्त किया जा सकता है, किन्तु जन्म मरण रहित मोक्ष पद प्राप्त करने के लिए  ज्ञानपूर्वक विशु़द्ध भाव से की गयी विशुद्ध क्रिया ही आवश्यक है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -  72.    दाणिं लब्भइ भोउ पर इंदत्तणु वि तवेण।       जम्मण-मरण-विवज्जियउ पउ लब्भइ णाणेण।। अर्थ -दान से विषय सुख और तप से इन्द्रत्व (स्वर्ग का आधिपत्य) प्राप्त किया जाता है, किन्तु ज्ञान से जन्म-मरण रहि

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अशुभ, शुभ व शुद्ध भाव का संक्षेप में कथन

आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि शुभ भाव से व्यक्ति अच्छे कर्म करता है किन्तु उससे कर्म बंध होता है और अशुभ भाव से व्यक्ति बुरे कर्म करता है और उससे भी कर्म बंध होता है। मात्र एक शुद्ध भाव ही वह भाव है जिससे व्यक्ति कर्म बन्ध नहीं करता है। शुद्ध भाव में रत व्यक्ति समस्त कर्म करते हुए भी कर्म बन्धन से परे होता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 71.   सुह-परिणामे ँ धम्मु पर असुहे ँ होइ अहम्मु।      दोहि ँ वि एहि ँ विवज्जियउ सुद्धु ण बंधइ कम्मु।। अर्थ -शुभ भाव से धर्म और अशुभ से अधर्

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विशुद्ध भाव रहित क्रिया अर्थ हीन है

आचार्य योगीन्दु स्पष्टरूप से कहते हैं कि हे जीव! यदि तू शान्ति चाहता है तो उसके लिए तुझे सर्वप्रथम चित्त को शुद्ध करना ही पडेगा। चित्त शुद्धि के अभाव में तू कितना ही भ्रमण कर ले और कितनी ही क्रियाएँ कर ले, शान्ति संभव नहीं है। चित्त शुद्धि से ही व्यक्ति पाप और पुण्य से परे होकर षान्ति के मार्ग को प्राप्त कर सकता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 70.   जहि ँ भावइ तहि ँ जाहि जिय जं भावइ करि तं जि।       केम्वइ मोक्खु ण अत्थि पर चित्तहँ सुद्धि ण जं जि।। अर्थ -हे जीव! जहाँ पर (त

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विशुद्ध भाव के बिना मुक्ति संभव नहीं है

आचार्य योगीन्दु मात्र विशुद्ध भाव को ही मुक्ति का मार्ग स्वीकार करते हैं । वे कहते हैं कि विशु़द्ध भाव से विचलित हुओं के मुक्ति किसी भी तरह संभव है ही नहीं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 69.   सिद्धिहि ँ केरा पंथडा भाउ विसुद्धउ एक्कु।       जो तसु भावहँ मुणि चलइ सो किम होइ विमुक्क।। अर्थ -मुक्ति का मार्ग एक शुद्ध भाव (ही) है। जो मुनि उस(विशुद्ध) के भाव से विचलित हो जाता हैै  वह किस प्रकार मुक्त हो सकता है। शब्दार्थ - सिद्धिहि ँ -मुक्ति का, केरा- सम्बन्धवाचक परसर्ग, पंथड

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