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आत्मा का ज्ञान ही श्रेष्ठ ज्ञान है

आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि अपनी स्वयं की आत्मा को भलीभाँति जानना और समझना ही श्रेष्ठ ज्ञान है। आत्मा सबकी समान है इसीलिए सुख सभी को प्रिय व दुःख सभी को अप्रिय लगते हैं। आत्मा अनुभूति के स्तर पर सबकी समान है। अतः जिसमें अपनी आत्मा को अनुभूत करने का ज्ञान विकसित हो जाता है वह पर आत्मा के विषय में भी जानने लग जाता है। उसे पर के दुःख भी अपने ही दुःख लगने लगते हैं जिससे उसका जीवन स्वतः अहिंसामय होता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -    103  अप्पु वि परु वि वियाणइ जे ँ अप्पे ँ मुणिएण।

Sneh Jain

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?भविष्य की बातों का पूर्वदर्शन - अमृत माँ जिनवाणी से - २९७

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २९७   ?      "भविष्य की बातों का पूर्वदर्शन"                सन १९४७ में पूज्य शान्तिसागर महराज ने वर्षायोग सोलापुर में व्यतीत किया था। मैं भी गुरुदेव की सेवा में व्रतों में पहुंचा था। एक दिन व्रतों के समय पूज्यश्री के मुख से निकला "ये रजाकार लोग हैदराबाद रियासत में बड़ा पाप व अनर्थ कर रहे हैं। इनका अत्याचार सीमा को लांघ रहा है। इनको अब खत्म होने में तीन दिन से अधिक समय नहीं लगेगा।"           महराज के मुख से ये शब्द सुने थे। उसके दो चार रोज बाद ही सरद

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?देवज्ञ का कथन - अमृत माँ जिनवाणी से - २९६

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २९६   ?                   "देवज्ञ का कथन"              एक बार एक उच्चकोटि के ज्योतिषशास्त्र के विद्वान को आचार्य महराज की जन्मकुंडली दिखाई थी। उसे देखकर उन्होंने कहा था, जिस व्यक्ति की यह कुंडली है, उनके पास तिलतुष मात्र भी संपत्ति नहीं होना चाहिए, किन्तु उनकी सेवा करने वाले लखपति, करोड़पति होने चाहिए।             उन्होंने यह भी कहा था कि इनकी शारीरिक शक्ति गजब की होनी चाहिए। बुद्धि बहुत तीव्र बताई थी और उन्हें महान तत्वज्ञानी भी बताया था। ?

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निर्मल आत्मा में लोक और अलोक प्रतिबिम्बित होते हैं

आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि चारों गतियों में मनुष्य जीवन ही महत्वपूर्ण है क्योंकि मनुष्य जीवन में ही अपनी आत्मा को निर्मल बनाने का विवेक जाग्रत हो सकता है। मनुष्य गति को प्राप्तकर मनुष्य का उद्देश्य अपनी आत्मा को निर्मल बनाना ही होना चाहिए। इस को उद्देश्य मानलेने पर व्यक्ति स्वयं का गुरु स्वयं हो जाता है। स्वतः वह अपनी राह बनाना सीख लेता है।उसकी प्रत्येक क्रिया सार्थक होती है। एक दिन उसकी आत्मा पूर्ण निर्मल हो जाने से वही परमआत्मा को प्राप्त करलेता है जिससे उसकी आत्मा में लोक और अलोक प्रतिबिम्बि

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?विहार - अमृत माँ जिनवाणी से - २९५

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २९५   ?                         "विहार"                अगहन कृष्णा एकम् का दिन आया। आहार के उपरांत महराज ने सामयिक की और जबलपुर की ओर विहार किया। उस समय आचार्य महराज में कटनी के प्रति रंचमात्र भी मोह का दर्शन नहीं होता था। उनकी मुद्रा पर वैराग्य का ही तेज अंकित था।                 हजारों व्यक्ति, जिनमें बहुसंख्यक अजैन भी थे, बहुत दूर तक महराज को पहुंचाने गए। महराज अब पुनः कटनी लौटने वाले तो थे नहीं, क्या ऐसा सौभाग्य पुनः मिल सकता है?          

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?पश्चाताप - अमृत माँ जिनवाणी से - २९४

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २९४   ?                       "पश्चाताप"                    लेखक दिवाकरजी पूर्व समय में उनके द्वारा गलत संगति में पूज्य शान्तिसागरजी महराज की चर्या की परीक्षा का जो भाव था उसके संबंध में लिखते हैं कि ह्रदय में यह भाव बराबर उठते थे कि मैंने कुसंगतिवश क्यों ऐसे उत्कृष्ट साधु के प्रति अपने ह्रदय में अश्रद्धा के भावों को रखने का महान पातक किया? संघ में अन्य सभी साधुओं का भी जीवन देखा, तो वे भी परम पवित्र प्रतीत हुए।               मेरा सौभाग्य रहा जो मैं

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आत्मा का मूल स्वभाव प्रकाशमान है

आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि वस्तु का स्वभाव ही उसका मूल धर्म है। उस ही क्रम में आत्मा का स्वभाव प्रकाशमान है। जो स्वयं भी प्रकाशित है और दूसरे को भी अपने प्रकाश से प्रकाशित करता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -  101.   अप्पु पयासइ अप्पु परु जिम अंबरि रवि-राउ।       जोइय एत्थु म भंति करि एहउ वत्थु- सहाउ।। अर्थ -आत्मा स्वयं को (तथा) पर को प्रकाशित करता है, जिस प्रकार आकाश में सूर्य का प्रकाश (स्वयं को तथा पर को प्रकाशित करता है)। हे योगी! (तू) इसमें सन्देह मत कर,ऐसा ही वस्तु

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?गुरुदेव का व्यक्तित्व - अमृत माँ जिनवाणी से - २९३

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २९३   ?               "गुरुदेव का व्यक्तित्व"              दिवाकर जी लिखते हैं कि पूज्य आचार्यश्री महराज को देखकर आँखे नहीं थकती थी। उनके दो बोल आँखों में अमृत घोल घोल देते थे। उनकी तात्विक-चर्चा अनुभूतिपूर्ण चर्चा अनुभवपूर्ण एवं मार्मिक होती थी।             वहाँ से काशी आने की इच्छा नहीं होती थी। ह्रदय में यही बात आती थी कि जब सच्चे गुरु यहाँ विराजमान हैं, तो इनके अनुभव से सच्चे तत्वों को समझ जाए। यही तो सच्चे शास्त्रों का अध्ययन है।          

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आत्म स्वभाव में स्थित हुए जीव की विशेषता

आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि आत्मस्वभाव में स्थित हुए व्यक्ति की यह विशेषता होती है कि उसको स्वयं में ही समस्त लोक और अलोक दिखायी पड़ता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 100.   अप्प-सहावि परिट्ठियह एहउ होइ विसेसु।       दीसइ अप्प-सहावि लहु लोयालोउ असेसु।। अर्थ - आत्मा के स्वभाव में सम्पूर्णरूप से स्थित हुए (प्राणियों) की ऐसी विशेषता होती है (कि) (उनको) आत्मा के स्वभाव में समस्त लोक और अलोक शीघ्र दिखाई पड़ता है।  शब्दार्थ - अप्प-सहावि- आत्मा के स्वभाव में, परिट्ठियहँ- सम्प

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?आचार्य चरणों का प्रथम परिचय - अमृत माँ जिनवाणी से - २९२

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २९२   ?         "आचार्य चरणों का प्रथम परिचय"                   इस चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ के यशस्वी लेखक दिवाकरजी कटनी के चातुर्मास के समय का उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि मैंने भी पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के जीवन का निकट निरीक्षण नहीं किया था। अतः साधु विरोधी कुछ साथियों के प्रभाववश मैं पूर्णतः श्रद्धा शून्य था।               कार्तिक की अष्टान्हिका के समय काशी अध्यन निमित्त जाते हुए एक दिन के लिए यह सोचकर कटनी ठहरा कि देखें इन साधुओं का

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निर्मल आत्मा के अभाव में सब कुछ व्यर्थ

आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि जीव बाल्यावस्था को पारकर युवावस्था में पहुँचता है, उसकी समझ विकसित होती है, तब से उसका प्रयास आत्मा को निर्मल बनाने की ओर ही होना चाहिए। यदि आत्मा निर्मल है तो उसकी निर्मलता से उसके द्वारा समस्त जग जाना हुआ होता है। उसके निर्मल स्वभाव में लोक प्रतिबिम्बित किया हुआ विद्यमान रहता है। इसके विपरीत यदि आत्मा निर्मल नहीं है तो उसके द्वारा शास्त्रों, पुराणों का अध्ययन किया जाना तथा घोर तपश्चरण किया जाना भी व्यर्थ है, क्योंकि अध्ययन व तपश्चरण भी आत्मा को निर्मल बनाने हेतु ही

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?श्रावकों की भक्ति - अमृत माँ जिनवाणी से - २९१

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २९१   ?                   "श्रावकों की भक्ति"                 पूज्य शान्तिसागरजी महराज के कटनी चातुर्मास निश्चित होने के बाद श्रावकों को अपने भाग्य पर आश्चर्य हो रहा था कि किस प्रकार अद्भुत पुण्योदय से पूज्यश्री ससंघ का चातुर्मास अनायास ही नहीं, अनिच्छापूर्वक, ऐसी अपूर्व निधि प्राप्त हो गई। बस अब उनकी भक्ति का प्रवाह बड़ चला।            जो जितने प्रबल विरोधी होता है, वह दृष्टि बदलने से उतना ही अधिक अनुकूल भी बन जाता है। इंद्रभूति ब्राह्मण महावीर भगवा

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?आगम भक्त - अमृत माँ जिनवाणी से - २९०

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २९०   ?                    "आगम भक्त"                   कुछ शास्त्रज्ञों ने सूक्ष्मता से आचार्यश्री के जीवन को आगम की कसौटी पर कसते हुए समझने का प्रयत्न किया। उन्हें विश्वास था कि इस कलीकाल के प्रसाद से महराज का आचरण भी अवश्य प्रभावित होगा, किन्तु अंत में उनको ज्ञात हुआ कि आचार्य महराज में सबसे बड़ी बात यही कही जा सकती है कि वे आगम के बंधन में बद्ध प्रवृत्ति करते हैं और अपने मन के अनुसार स्वछन्द प्रवृत्ति नहीं करते हैं।               स्थानीय कुछ लोगो

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तीन लोक का सार आत्मा

बन्धुओं! मुझे कईं बार ऐसा लगता है कि कहीं आप आत्मा ही आत्मा की बात सुनते सुनते ऊब तो नहीं गये हो। लेकिन आगे चलकर आप आत्मा के इस सर्वांगीण विवेचन के उपरान्त ही आत्मशान्ति का सही अर्थ समझ सकेंगे। आचार्य योगिन्दु के अनुसार जब तक आत्मा से भलीभाँति परिचित नहीं हुआ जा सकता, तब तक आत्मशान्ति का सही मायने में अर्थ भी नहीं समझा जा सकता। आत्मा से सम्बन्धित चर्चा कुछ ही शेष है, फिर आत्मशान्ति हेतु मोक्ष अधिकार प्रारंभ होनेवाला है। आत्माधिकार को समझने के बाद मोक्ष अधिकार हमारे लिए सहज बोधगम्य हो सकेगा।

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?कटनी चातुर्मास - अमृत माँ जिनवाणी से - २८९

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २८९   ?                       "कटनी चातुर्मास"               पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज ससंघ ने कुम्भोज बाहुबली तीर्थ से तीर्थराज शिखरजी वंदना हेतु सन १९२७ में प्रस्थान किया। तीर्थराज की वंदना के उपरांत उन्होंने उत्तर भारत के श्रावकों को अपने प्रवास से धन्य किया।        चारित्र चक्रवर्ती पूज्य शान्तिसागरजी महराज के उत्तर भारत में प्रथम चातुर्मास का सौभाग्य मिला कटनी (म.प्र) को। आषाढ़ सुदी तीज को संघ कटनी से चार मील दूरी पर स्थित चाका ग्राम प

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?छने जल के विषय में - अमृत माँ जिनवाणी से - २८८

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २८८   ?                "छने जल के विषय में "             कल हम देख रहे थे कि पूज्य शान्तिसागरजी महराज ने पलासवाढ़ा में अजैन गृहस्थ को भी अनछने जल त्याग का मार्गदर्शन दिया।              मनुस्मृति जो हिन्दू समाज का मान्य ग्रंथ है लिखा है- "दृष्टि पूतं न्यसेतपादम, वस्त्रपूतं पिबेज्जलम" अर्थात देखकर पाव रखे और छानकर पानी पिए)।               सन १९५० में हम राणा प्रताप के तेजस्वी जीवन से संबंधित चितौड़गढ़ के मुख्य द्वार पर पहुँचे तो वहाँ एक घट की वस्त्र

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आत्मा की निर्मलता ही कार्यकारी है

आत्मा ही सब कुछ है इसी बात को आगे बढाते हुए आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि आत्मा सब कुछ तब ही है जब उसका स्वरूप निर्मल हो। आत्मा को निर्मल बनाना ही व्यक्ति का उद्देश्य होना चाहिए। तीर्थ, गुरु, देव एवं शास्त्र का आश्रय व्यक्ति आत्मा को निर्मल बनाने के लिए ही लेता है। यदि इनका आश्रय लेकर आत्मा निर्मल हो जाती है तो उसके बाद उन सब साधनों की कोई आवश्यक्ता नहीं है, लेकिन इनका निरन्तर आश्रय लेने पर भी यदि आत्मा निर्मलता की और नहीं बढ़ सकी तो उनके लिए ये सभी आश्रय व्यर्थ हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दो

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?गाँजा पीने की प्रार्थना - अमृत माँ जिनवाणी से - २८७

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २८७   ?             "गांजा पीने की प्रार्थना"           पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज ने चैत्र वदी एकम् को ससंघ शिखरजी से प्रस्थान किया। वहाँ से उन्होंने चम्पापुरी, पावापुरी, बनारस, इलाहाबाद आदि स्थानों को होते हुए १९ जून १९२८ को मैहर राज्य में प्रवेश किया।               पलासवाड़ा ग्राम के समीप एक गृहस्थ महराज के समीप आया। उसने भक्तिपूर्वक इन्हें प्रणाम किया। वह समझता था, ये साधु महराज हमारे धर्म के नागा बाबा सदृश होंगे, जो गाँजा, चिल्लम, तम्बा

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?महान जैन महोत्सव - अमृत माँ जिनवाणी से - २८६

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २८६   ?                "महान जैन महोत्सव"              पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज ससंघ की शिखरजी वंदना के संघपति जबेरी बंधुओं द्वारा निश्चित शिखर में जिनेन्द्र पंचकल्याणक महोत्सव बड़े वैभव के साथ जिनेन्द्र भगवान की पूज्य तथा अत्यंत प्रभवना के साथ सम्पन्न हुआ।              भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी का उत्सव इंदौर के धन कुवेर सर राव राजा दानवीर सेठ हुकुमचंद की अध्यक्षता में बड़े उत्साह और उल्लासपूर्वक पूर्ण हुआ था। उस समय भीड़ अ

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आत्मा की महत्ता

आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि आत्मा के साथ ही सब उपयोगी है, आत्मा के अभाव मे सब निरर्थक है। वे आगे के दोहे में आत्मा की महत्ता को बताते हुए कहते हैं कि आत्मा को छोड़कर न कोई दर्शन है, न ज्ञान है, न, चारित्र है।  94.   अण्णु जि दंसणु अत्थि ण वि अण्णु जि अत्थि ण णाणु।       अण्णु जि चरणु ण अत्थि जिय मेल्लिवि अप्पा जाणु।। अर्थ -हे प्राणी!  आत्मा को छोड़कर निश्चय ही (आत्मा) से भिन्न (कोई) दर्शन नहीं है, (आत्मा) से भिन्न निश्चय ही (कोई) ज्ञान नहीं है, (तथा) (आत्मा) से भिन्न निश्चय ही (कोई)

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आत्मा की महत्ता

आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि आत्मा के साथ ही सब उपयोगी है, आत्मा के अभाव मे सब निरर्थक है। वे आगे के दोहे में आत्मा की महत्ता को बताते हुए कहते हैं कि आत्मा को छोड़कर न कोई दर्शन है, न ज्ञान है, न, चारित्र है।  94.   अण्णु जि दंसणु अत्थि ण वि अण्णु जि अत्थि ण णाणु।       अण्णु जि चरणु ण अत्थि जिय मेल्लिवि अप्पा जाणु।। अर्थ -हे प्राणी!  आत्मा को छोड़कर निश्चय ही (आत्मा) से भिन्न (कोई) दर्शन नहीं है, (आत्मा) से भिन्न निश्चय ही (कोई) ज्ञान नहीं है, (तथा) (आत्मा) से भिन्न निश्चय ही (कोई)

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?सूक्ष्मचर्चा - अमृत माँ जिनवाणी से - २८५

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २८५   ?                     "सूक्ष्मचर्चा"              एक दिन महराज ने कहा, "कोई कोई मुनिराज कमण्डलु की टोटी को सामने मुँह करके गमन करते हैं, यह अयोग्य है।।"              मैंने पूंछा, "महराज ! इसका क्या कारण है, टोंटी आगे हो या पीछे हो। इसका क्या रहस्य है?"               महराज ने कहा, "जब संघ में कोई साधु का मरण हो जाता है, तब मुनि टोंटी आगे करके चलते हैं, उससे संघ के साधु के मरण का बोध हो जाएगा। वह अनिष्ट घटना का संकेत है।"            मै

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?घ्यान- अमृत माँ जिनवाणी से - २८४

☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं,           चारित्र चक्रवर्ती पूज्य शान्तिसागर महराज का जीवन चरित्र देखते है तो निश्चित ही हम आत्म कल्याण के मार्ग पर उनकी उत्कृष्ट साधना का अवलोकन करते हैं, एक बात और यहाँ देखी जा सकती है कि हम जैसे सामान्य, सातगौड़ा के जीव ने  उत्कृष्ट पुरुषार्थ द्वारा उत्कृष्ट साधना की स्थिति को प्राप्त किया और शान्तिसागर बन गए, सातगौड़ा की भांति हम भी सही दिशा में पुरुषार्थ कर कल्याण का रास्ता पकड़ सकते हैं।          यहाँ मैं आप सभी का ध्यान इस बात पर केंद्रित करना चाहता हूँ कि

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