सद्बोधात्मक ज्ञान ही स्थिर ज्ञान है
स्वदर्शन के बाद आचार्य योगीन्दु ज्ञान के विषय में स्पष्टरूप से कहते हैं कि जो ज्ञान सम्यक्दर्शन होने में कारण है तथा जो वस्तु के भेओ को स्पष्टतः जानता है वह सद्बोधात्मक ज्ञान ही स्थिर ज्ञान है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
35. दंसण-पुव्वु हवेइ फुडु जं जीवहँ विण्णाणु।
वत्थु-विसेसु मुणंतु जिय तं मुणि अविचलु णाणु।।
अर्थ -दर्शन का कारण (तथा) वस्तु के भेदों को जानता हुआ जो जीवों का स्पष्ट निश्चयात्मक (सद्बोधात्मक) ज्ञान है उसको (तू) अचल ज्ञान समझ।
शब्दार्थ - दंसण-पुव्वु- दर्शन का कारण, हवेइ-है, फुडु -स्पष्ट, जं-जो, जीवहँ-जीवों का, विण्णाणु-निश्चयात्मक ज्ञान, वत्थु-विसेसु -वस्तु के भेद को, मुणंतु -जानता हुआ, जिय-हे जीव!, तं-उसको, मुणि - जान, अविचलु -स्थिर णाणु-ज्ञान।
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