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क्रमशः अज्ञानी का कथन

पुनः आचार्य योगीन्दु अज्ञानी व्यक्ति के विषय में कहते हैं कि वह जीव मोक्ष के हेतु दर्शन, ज्ञान और चारित्र को तो समझता नहीं है और जो मोक्ष का कारण नहीं है, उन पाप पुण्य को मोक्ष का कारण मानकर करता रहता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 54.   दंसण-णाण-चरित्तमउ जो णवि अप्पु मुणेइ।      मोक्खहँ कारणु भणिवि जिय सो पर ताइँ करेइ।। अर्थ -जो (सम्यक्), दर्शन, ज्ञान (और) चारित्रमय आत्मा को नहीं जानता है।, वह जीव उन दोनों (पाप-पुण्य) को मात्र मोक्ष का कारण कहकर करता है। शब्दार्थ -

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मुनिश्री नियमसागरजी महाराज जी एवं मुनिश्री योगसागर जी महाराज जी का दीक्षा दिवस

?दीक्षा दिवस ? दिनांक ०६ मई १६ दिन शुक्रवार आज से ३६ वर्ष पूर्व  वैशाख कृष्ण अमावस्या दि. १५ एप्रिल १९८० को "आज के ही दिन" परम पूज्य आचार्य गुरूवर श्री विद्यासागर जी महाराज के कर कमलों से आज के ही दिन म.प्र. प्रान्त के बुन्देलखंड की धरा- सागर नगर में मुनिश्री नियमसागरजी महाराज जी एवं मुनिश्री योगसागर जी महाराज जी की मुनि दीक्षा संपन्न हुयी थी।             मुनि द्वय के३६ वे दीक्षा दिवस पर हम सभी मुनि द्वय के चरणों में बारंबार नमोस्तु करते हैं??????। नोट- मुनिश्री नियम सागर जी महा

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?एक अंग्रेज की शंका का समाधान - अमृत माँ जिनवाणी से - ३१८

☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं,        आज का प्रसंग हर एक मनुष्य के मष्तिस्क में उठ सकने वाले प्रश्न का समाधान है। पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज द्वारा दिया गया समाधान बहुत ही आनंद प्रद है।           अपने जीवन के प्रति गंभीर दृष्टिकोण रखने वाले पाठक श्रावक अवश्य ही इस समाधान को जानकर आनंद का अनुभव करेंगे। ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३१८   ?         "एक अंग्रेज का शंका समाधान"        एक दिन एक विचारवान भद्र स्वभाव वाला अंग्रेज आया।       उसने पूज्य शान्तिसागरजी मह

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अज्ञानी का कथन

योगी की क्रियाओं को समझाने के बाद आगे आचार्य योगीन्दु मोही संसारी जीवों की क्रियाओं का कथन करते हैं। वे कहते हैं कि मोह में तल्लीन जीव बंध और मोक्ष के कारण को नहीं समझता इसलिए वह पुण्य और पाप करता रहता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 53.   बंधहँ मोक्खहँ हेउ णिउ जो णवि जाणइ कोइ।       सो पर मोहे करइ जिय पुण्णु वि पाउ वि लोइ।।53।। अर्थ - जो कोई भी अपने बंध और मोक्ष के कारण को नहीं जानता है, मोह में तल्लीन वह जीव लोक में पुण्य और पाप दोनों को ही करता है। शब्दार्थ - बंधहँ

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अज्ञानी का कथन

योगी की क्रियाओं को समझाने के बाद आगे आचार्य योगीन्दु मोही संसारी जीवों की क्रियाओं का कथन करते हैं। वे कहते हैं कि मोह में तल्लीन जीव बंध और मोक्ष के कारण को नहीं समझता इसलिए वह पुण्य और पाप करता रहता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 53.   बंधहँ मोक्खहँ हेउ णिउ जो णवि जाणइ कोइ।       सो पर मोहे करइ जिय पुण्णु वि पाउ वि लोइ।।53।। अर्थ - जो कोई भी अपने बंध और मोक्ष के कारण को नहीं जानता है, मोह में तल्लीन वह जीव लोक में पुण्य और पाप दोनों को ही करता है। शब्दार्थ - बंधहँ

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?भारत की राजधानी दिल्ली में प्रवेश - अमृत माँ जिनवाणी से - ३१७

☀         मैं पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के जीवन चरित्र का लगातार अध्ययन कर रहा हूँ, फलस्वरूप मेरी दृष्टि में पूज्यश्री का दिल्ली का चातुर्मास एक महत्वपूर्ण चातुर्मास था। इस चातुर्मास के माध्यम से दिगम्बरत्व का प्रचार भली प्रकार से हुआ। सर्वत्र दिगम्बर मुनिराज के दर्शन व जन-जन तक उनके स्वरूप की जानकारी पहुँचना पूज्य शान्तिसागरजी महराज के उत्कृष्ट तपश्चरण का ही प्रभाव था। ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३१७   ?   "भारत की राजधानी दिल्ली में प्रवेश"                 पूज्य

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क्रमशः ज्ञानी का कथन

आचार्य योगीन्दु आगे के दो दोहे में योगी की अन्य विशेषताओ का उल्लेख करते हैं। वे कहते हैं कि योगी ने शरीर से भिन्न आत्म स्वभाव को तथा कर्म बन्धनों के हेतु और उनके स्वभाव को जान लिया है, इसीलिए वह शरीर तथा प्रवृत्ति और निवृत्ति में राग द्वेष नहीं करता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे के दो दोहे - अर्थ सरल है, इसलिए शब्द विश्लेषण करना आवश्यक प्रतीत नहीं हुआ। पाठकगण चाहे तो बतायें। 51.    देहहं उप्परि परम-मुणि देसु वि करइ ण राउ।        देहहँ जेण वियाणियउ भिण्णउ अप्प- सहाउ।। अर्थ - जिसके

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?कल ५ मई, दिन गुरुवार, वैशाख कृष्ण चतुर्दशी की शुभ तिथी को २१ वे तीर्थंकर देवादिदेव श्री १००८ नमिनाथ भगवान का मोक्ष कल्याणक पर्व तथा १५ वे तीर्थंकर देवादिदेव श्री १००८ धर्मनाथ भगवान का गर्भ कल्याणक तथा चतुर्दशी पर्व है।

? कल गर्भ,मोक्ष व चतुर्दशी पर्व है? जय जिनेन्द्र बंधुओं,              कल ५ मई, दिन गुरुवार, वैशाख कृष्ण चतुर्दशी की शुभ तिथी को २१ वे तीर्थंकर देवादिदेव श्री १००८ नमिनाथ भगवान का मोक्ष कल्याणक पर्व तथा १५ वे तीर्थंकर देवादिदेव श्री १००८ धर्मनाथ भगवान का गर्भ कल्याणक तथा चतुर्दशी पर्व है। ?? कल अत्यंत भक्ति भाव से नमिनाथ भगवान की पूजन करना चाहिए तथा निर्वाण लाडू आदि चढ़ाकर जन्म, ज्ञान व मोक्ष कल्याणक पर्व मनाना चाहिए। निर्वाण महोत्सव के इस विशेष अवसर पर अपने भी निर्वाण की

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?सर सेठ हुकुमचंद और उनका ब्रम्हचर्य व्रत - अमृत माँ जिनवाणी से - ३१६

?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३१६   ? "सरसेठ हुकुमचंद और उनका ब्रम्हचर्य प्रेम"             लेखक दिवाकरजी ने लिखा है कि सर सेठ हुकुमचंद जी के विषय में बताया कि आचार्य महराज ने उनके बारे ये शब्द कहे थे, "हमारी अस्सी वर्ष की उम्र हो गई, हिन्दुस्तान के जैन समाज में हुकुमचंद सरीखा वजनदार आदमी देखने में नहीं आया।          राज रजवाड़ों में हुकुमचंद सेठ के वचनों की मान्यता रही है। उनके निमित्त से जैनों का संकट बहुत बार टला है। उनको हमारा आशीर्वाद है, वैसे तो जिन भगवान की आज्ञा से चलने व

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क्रमशः ज्ञानी के विषय में कथन

पुनः आगे के चार दोहों में ज्ञानी अर्थात् मुनि की विशेषता बताते हुए आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि ज्ञानी आन्तरिक व बाहरी परिग्रह से भिन्न आत्म स्वभाव को जान लेता है तथा काम भोगों से भिन्न आत्म स्वभाव को जान लेता है, अतः वह अंतरंग एवं बाहरी परिग्रह के ऊपर द्वेष और राग नहीं करता और ना ही काम भोग विषयक पदार्थों के ऊपर राग द्वेष करता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे के दो दोहे - दोहे का अर्थ  सरल होने के कारण विश्लेषण नहीं किया जा रहा है। 49.   गंथहँ उप्परि परम-मुणि देसु वि करइ ण राउ।       गंथह

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?दीक्षा तथा चातुर्मासों का विवरण - अमृत माँ जिनवाणी से - ३१५

☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं,         आज चारित्र चक्रवर्ती पूज्य शान्तिसागरजी महराज के जीवन पर्यन्त के एक महत्वपूर्ण विवरण को आपके सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह पोस्ट आप संरक्षित रखकर बहुत सारे रोचक प्रसंगों के वास्तविक समय का अनुमान लगा पाएँगे तथा उनके तपश्चरण की भूमि का समय के सापेक्ष में भी अवलोकन कर पाएँगे। विवरण ग्रंथ में उपलब्ध जानकारी के आधार पर ही है। ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३१५   ?               "चातुर्मास सूची" पूज्य शान्तिसागर जी महराज की दीक्षा संबंधी जानकारी का

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क्रमशः ज्ञानी का कथन

आचार्य योगीन्दु पुनः योगी के विषय में कहते हैं कि योगी कहने, कहलवाने, स्तुति करने, निंदा करने आदि विषम भावों से परे रहकर समभाव में स्थित रहते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 48.   भणइ भणावइ णवि थुणइ णिंदइ णाणि ण कोइ।       सिद्धिहिँ कारणु भाउ समु जाणंतउ पर सोइ। अर्थ -ज्ञानी पुरुष न कुछ कहता है न कहलवाता है, न स्तुति करता है न निंदा करता है। वह सिद्धि का कारण समभाव को जानता हुआ उसी में स्नान (अवगााहन) करता है शब्दार्थ - भणइ- कहता है, भणावइ-कहलवाता है, णवि-न, ही, थुणइ-स्तुति

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?वैयावृत्त धर्म व आचार्यश्री - अमृत माँ जिनवाणी से - ३१४

?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३१४   ?        "वैयावृत्त धर्म और आचार्यश्री"         किन्ही मुनिराज के अस्वस्थ होने पर वैयावृत्त की बात तो सबको महत्व की दिखेगी, किन्तु श्रावक की प्रकृति भी बिगड़ने पर पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज का ध्यान प्रवचन-वत्सलता के कारण विशेष रूप से जाता था। आचार्यश्री श्रेष्ट पुरुष होते हुए भी अपने को साधुओं में सबसे छोटा मानते थे।        एक बार १९४६ में  कवलाना में ब्रम्हचारी फतेचंदजी परवार भूषण नागपुर वाले बहुत बीमार हो गए थे। उस समय आचार्य महराज

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?कल २ मई, दिन सोमवार, वैशाख कृष्ण दशमी की शुभ तिथी को २० वे तीर्थंकर देवादिदेव श्री १००८ मुनिसुव्रतनाथ भगवान का जन्म व तप कल्याणक पर्व है।

? कल जन्म व तप कल्याणक पर्व है ? जय जिनेन्द्र बंधुओं,             कल २ मई, दिन सोमवार, वैशाख कृष्ण दशमी की शुभ तिथी को २० वे तीर्थंकर देवादिदेव श्री १००८ मुनिसुव्रतनाथ भगवान का जन्म व तप कल्याणक पर्व है। ?? कल मुनिसुव्रतनाथ भगवान की पूजन अत्यंत भक्ति करके भगवान का जन्म व तप कल्याणक पर्व मनाएँ। ?? जो श्रावक पंच कल्याणक के व्रत करते हैं कल उनका व्रत का दिन है। ?तिथी - वैशाख कृष्ण दशमी। ?? आचार्यश्री विद्यासागर सेवासंघ ??

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योगी अर्थात् ज्ञानी का कथन

आचार्य योगीन्दु योगी व संसारी जीव में भेद बताने के बाद योगी अर्थात ज्ञानी के विषय में क्रमश 6 दोहों में  कथन करते हैं। प्रथम दोहे में वे कहते हैं कि ज्ञानी समभाव में स्थित होने के कारण ही आत्म स्वभाव को प्राप्त करता है एवं राग से दूर रहता है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 47.   णाणि मुएप्पिणु भाउ समु कित्थु वि जाइ ण राउ।       जेण लहेसइ णाणमउ तेण जि अप्प- सहाउ। अर्थ -  ज्ञानी समभाव को छोड़कर कहीं भी राग को प्राप्त नहीं होता। जिससे वह  उस (समभाव) के कारण ही ज्ञानमय आत्म स्वभाव को प्र

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कल १ मई, दिन रविवार, वैशाख कृष्ण नवमी की शुभ तिथी को २० वे तीर्थंकर देवादिदेव श्री १००८ मुनिसुव्रतनाथ भगवान का ज्ञान कल्याणक पर्व है।

?     कल ज्ञान कल्याणक पर्व है      ? जय जिनेन्द्र बंधुओं,             कल १ मई, दिन रविवार, वैशाख कृष्ण नवमी की शुभ तिथी को २० वे तीर्थंकर देवादिदेव श्री १००८ मुनिसुव्रतनाथ भगवान का ज्ञान कल्याणक पर्व है। ?? कल मुनिसुव्रतनाथ भगवान की पूजन अत्यंत भक्ति करके भगवान का ज्ञान कल्याणक पर्व मनाएँ। ?? जो श्रावक पंच कल्याणक के व्रत करते हैं कल उनका व्रत का दिन है। ?तिथी - वैशाख कृष्ण नवमी। ?? आचार्यश्री विद्यासागर सेवासंघ ??

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योगी और संसारी जीव में भेद

आचार्य यागीन्दु योगी व संसारी जीवों में भेद बताते हैं कि जब संसारी जीव अपने आत्मस्वरूप से विमुख होकर अचेत सो रहे होते हैं तब योगी अपने स्वरूप में सावधान होकर  जागता है और जब संसारी जीव विषय कषायरूप अवस्था में जाग रहे होते हैं उस अवस्था में योगी उदासीन अर्थात् सुप्त रहते हैं। अर्थात् योगी को आत्मस्वरूप ही गम्य है, प्रपंच गम्य नहीं है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 46.1 जा णिसि सयलहँ देहियहँ जोग्गिउ तहिँ जग्गेइ।     जहिँ पुणु जग्गइ सयलु जगु सा णिसि मणिवि सुवेइ।। अर्थ -जो सब संसारी जी

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कल ३० अप्रैल, दिन शनिवार को अष्टमी पर्व है।

?          कल अष्टमी पर्व              ? जय जिनेन्द्र बंधुओ,               कल ३० अप्रैल, दिन शनिवार को अष्टमी पर्व है। ?? कल जिनमंदिर जाकर देवदर्शन करें। ?? जो श्रावक प्रतिदिन देवदर्शन करते है उनको अष्टमी/चतुर्दशी के दिन भगवान का अभिषेक और पूजन करना चाहिए। ?? इस दिन रात्रि भोजन व् आलू-प्याज आदि जमीकंद का त्याग करना चाहिए। ?? जो श्रावक अष्टमी/चतुर्दशी का व्रत करते है कल उनके व्रत का दिन है। ?? इस दिन राग आदि भावो को कम करके ब्रम्हचर्य के साथ र

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क्रमशः राग द्वेष रहित समभाव में स्थित जीव के लक्षण

आगे के दो दोहे में आचार्य योगिन्दु पुनः समभाव में स्थित हुए जीव के लक्षण बताते हुए कहते हैं कि वह अपने शत्रुभाव को छोड़कर परम आत्मा में लीन हो जाता है और और अकेला लोक के शिखर के ऊपर चढ जाता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे के दो दोहे -  45.  अण्णु वि दोसु हवेइ तसु जो सम-भाउ करेइ।      सत्तु वि मिल्लिवि अप्पणउ परहं णिलीणु हवेइ। अर्थ - जो रागद्वेष से रहित तटस्थ भाव को धारण करता है, उसके अन्य दोष भी होता है कि वह अपने शत्रु को छोड़कर परम आत्मा में अत्यन्त लीन हो जाता है। शब्दार्थ -

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राग द्वेष से रहित हुए व्यक्ति की स्थिति

यहाँ आचार्य ब्याज स्तुति अलंकार के माध्यम से कथन को प्रभावी बनाने के लिए दोष में भी गुण की स्थापना करते हुए कह रहे हैं कि राग द्वेष से रहित हुआ व्यक्ति अपने कर्मबंध को नष्ट कर देता है और अपने प्रति जगत को कठोर बना देता है। इसका दूसरा अर्थ यह भी लिया जा सकता है कि वह अपने स्वार्थी बन्धु को दूर कर देता है तथा जगत को अपने प्रति पागल (आकर्षित) कर लेता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 44.   विण्णि वि दोस हवंति तसु जो सम-भाउ करेइ।         बंधु जि णिहणइ अप्पणउ अणु जगु गहिलु करेइ।।

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देखिये भारत की तस्वीर 33-35

प्रश्न 33  राजा भरत के द्वारा चक्र छोड़ा जाने पर राजा बाहुबलि की मनोस्थिति कैसी थी और  उन्होंने क्या किया ? उत्तर 33   भरत के चक्र को देखकर भरत ने मन में विचार किया कि आज मैं भरत को धरती पर गिरा देता हूँ किन्तु पुनः विचार आया, नहीं, नहीं, राज्य के लिए अनुचित किया जाता है। भाई, बाप और पुत्र को भी मार दिया जाता है। मुझे धिक्कार है। मैं राज्य छोड़कर अचल, अनन्त सुख के स्थान मोक्ष की साधना करूँगा। तभी उन्होंने भरत को धरती का उपभोग करने के लिए कहकर संन्यास ग्रहण कर लिया। प्रश्न 34   राजा भरत

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वर्तमान जगत में सुखी कौन है ?

आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि मोक्ष अर्थात् परमशान्ति की प्राप्ति का उद्देश्य इह और परलोक दोनो से ही होना चाहिए। जिस जीव में वर्तमान जगत में शान्ति प्राप्त करने की योग्यता आ जाती है, वही जीव पर लोक मे शान्ति प्राप्त करने के योग्य हो पाता है। उनके अनुसार वर्तमान जगत में इस योग्यता का आधार है, तत्त्व और अतत्व को मन में समझना, रागद्वेष से रहित होना, तथा आत्म स्वभाव में प्रेम रखना। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -   43.   तत्तातत्तु मुणेवि मणि जे थक्का सम-भावि।       ते पर सुहिया इत्थु ज

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देखिये भारत की तस्वीर 27-29

प्रश्न 27                  राजा बाहुबलि की बात का दूत क्या जवाब देकर अयोध्या लौट आया ? उत्तर 27               दूत ने कहा, यद्यपि यह भूमण्डल तुम्हें पिता के द्वारा दिया गया है परन्तु बिना कर                              (टेक्स)दिये सरसों के बराबर धरती भी तुम्हारी नहीं है और अयोध्या लौट आया। प्रश्न 28                  दूत ने अयोध्या में आकर राजा भरत को क्या बताया ? उत्तर 28               दूत ने बताया, हे देव! आपको वह तिनके के बराबर भी नहीं समझता और ना ही वह                

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