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मूढ व्यक्ति के अन्य लक्षण

पुनः आचार्य योगिन्दु मूर्छित आत्मा वाले मूढ व्यक्ति का लक्षण बताते हैं कि वह आत्मा को छोड़कर जाति, लिंग, अवस्था तथा अपने सम्प्रदाय को अपना मानता है और उस पर अहंकार करता है, जबकि ये सब उसके ऊपरी आवरण या भेद हैं। आत्मा के अतिरिक्त सभी वस्तुए भिन्न हैं। जाग्रत आत्मा अपनी आत्मा में स्थित हुआ बाकी सब भेदों को आत्मा से भिन्न मानता है। देखिये इससे सम्बन्धित दो दोहे- 81.  हउँ वरु बंभणु वइसु हउँ हउं खत्तिउ हउँँ सेसु।     पुरिसु णउँसउ इत्थि हउँ मण्णइ मूढु विसेसु।। अर्थ - मैं (सबमें) श्रेष्ठ

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?शांति के बिना त्याग नहीं - अमृत माँ जिनवाणी से - २७२

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २७२   ?           "शांति के बिना त्यागी नहीं"             पूज्य शान्तिसागरजी महराज ने बताया कि महाव्रतों के पालन से उनकी आत्मा को अवर्णनीय शांति है। एक दिन सन १९५० में एक स्थानकवासी साधु महोदय आचार्य महराज के पास गजपंथा तीर्थ पर आए। उनने कहा- "महराज ! शांति तो है न?       महराज ने उत्तर दिया- "त्यागी को यदि शांति नहीं, तो त्यागी कैसे?" ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?

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मूर्ख व्यक्ति की धारणा

पूर्व कथित बात को ही पुष्ट करते हुए आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि यह व्यक्ति कर्म से रचित भेदों को ही  अपना मूल स्वरूप समझलेने के कारण अपनी आत्मा के मूल स्वरूप को भूल जाता है। इसी कारण शान्ति के मार्ग से भटककर अशान्ति के मार्ग पर चल देता है, जिसका परिणाम होता है दुःख और मानसिक तनाव। कर्म से रचित भेदों को अपना मानने के कारण ही व्यक्ति अपने को गोरा, काला, दुबला, मोटा आदि मानता है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -    80.   हउँ गोरउ हउँ सामलउ हउँ जि विभिण्ण्उ वण्णु।       हउँ तणु-अंगउँ थूलु हउँ

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?एक शंका - अमृत माँ जिनवाणी से - २७१

☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं,          सामान्यतः हम सभी के मन में प्रश्न रहता है कि क्यों इतनी सुख सुविधाओं को छोड़कर एक मनुष्य निर्ग्रन्थ का जीवन जीता है, सर्व सुख-सुविधाओं के स्थान पर कष्ट के जीवन में वह अत्यधिक प्रसन्न कैसे रहते हैं।           यह प्रश्न हम सभी का रहता है विशेषकर जैनेत्तर लोगों का तो रहता ही है। कभी-२ हमारे सामने अन्य लोगों को दिगम्बर मुनिराज की चर्या के रहस्य को व्यक्त करना दुविधा का कार्य होता है।              आज के प्रसंग में लेखक द्वारा व्यक्त की गई शंका हम सभी के

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विपरीत दृष्टि जीव की पहचान

आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि जिसकी दृष्टि सम्यक् नहीं होती बल्कि सम्यक् से विपरीत होती है, वह वस्तु के स्वरूप का जैसा वह है, उससे विपरीत रूप में आकलन करता है तथा कर्म से रचित भावों को अपना आत्मस्वरूप समझता है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -   79.   जीउ मिच्छत्ते ँ परिणमिउ विवरिउ तच्चु मुणेइ।      कम्म-विणिम्मिय भावडा ते अप्पाणु भणेइ।। 79।।  अर्थ - मिथ्यात्व से परिपूर्ण हुआ जीव तत्व (वस्तु स्वरूप) को विपरीत जानता है।( वह)  कर्म से रचित उन भावों को अपना कहता है। शब्दार्थ - जीउ-

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?धर्म-पुरुषार्थ की विवेचना - अमृत माँ जिनवाणी से - २७०

☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं,               आज के प्रसंग का पूज्य शान्तिसागरजी महराज का उद्बोधन बहुत ही महत्वपूर्ण उदभोधन है। यह हर श्रावक को अवश्य ही पढ़ना चाहिए।             संभव हो तो रोज पढ़ना चाहिए। यह उद्बोधन प्राणी मात्र को कल्याण का कारक है। उद्बोधन के अनुशरण से तो कल्याण होगा ही, उसको पढ़ने से भी अवश्य ही शांति की अनुभूति करेंगे। ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २७०   ?          "धर्म-पुरुषार्थ पर विवेचन"               पूज्य शान्तिसागरजी महराज ने कहा था- "हिंसा आदि पापो

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आसक्ति का दुष्परिणाम

परमात्मप्रकाश का प्रत्येक दोहा आचार्य योगीन्दु के मन में प्रत्येक प्राणी के प्रति प्रेम होने का द्योतक है। वे चाहते हैं कि सृष्टि का प्रत्येक जीव सुख और शान्ति का जीवन जीवे तथा दुःखों से दूर रहे। उनके अनुसार प्रत्येक जीवके दुःख का कारण उसके मन की आसक्ति ही हैै। इस आसक्ति के कारण वह दूसरों से अपेक्षा रखता है और दूसरे उससे अपेक्षा रखते हैं। स्वयं की अपेक्षा पूरी नहीं होने तथा दूसरों की अपेक्षा पूरी नहीं कर पाने के कारण ही प्राणी दुःख भोगता है। आसक्ति नहीं होने पर व्यक्ति कीचड़ में कमल के समान तथा र

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?नागपुर के नागरिकों की भक्ति - अमृत माँ जिनवाणी से - २६९

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २६९   ?         "नागपुर के नागरिकों की भक्ति"              पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज का शिखरजी की ओर विहार के क्रम में नागपुर नगर में भव्य मंगल प्रवेश हुआ। वहाँ के श्रावकों की अत्यंत भक्ति भावना को लेखक श्री दिवाकरजी ने उपमा देते हुआ लिखा है कि -            महाभारत में लिखा है कि नागनरेश श्रवणों के उपासक थे। नागकुलीन राजा तक्षक नग्न श्रमण हो गया था। दिगम्बर मुनियों के प्रति नागपुर प्रांतीय जनता की भक्ति ने पुरातन कथन की प्रमाणिकता प्रतिपाद

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मिथ्यादृष्टि का लक्षण और फल

आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि विभिन्न पर्यायों में आसक्त हुआ जीव मिथ्या दृष्टि होता है। जो कर्म करके आसक्त नहीं होता उसकी दृष्टि निर्मल होती है, किन्तु जिसकी बहुत आसक्ति होती है उसकी दृष्टि निर्मल नहीं हो सकती। वह जीव मिथ्यादृष्टि होता है। आसक्ति के कारण वह बहुत प्रकार के कर्मों को बांध लेता है, जिससें उसका संसार से भ्रमण समाप्त नहीं होता। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 77.   पज्जय-रत्तउ जीवडउ मिच्छादिट्ठि हवेइ।      बंधइ बहु-विह-कम्मडा जंे संसारु भमेइ।।   अर्थ -पर्याय में अनुरक्त जीव

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?नागपुर प्रवेश - अमृत माँ जिनवाणी से - २६८

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २६८   ?                   "नागपुर प्रवेश"            पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज ने शिखरजी की ओर विहार के क्रम में सन् १९२८ को नागपुर नगर में प्रवेश किया। जुलूस तीन मील लंबा था। उसमें छत्र, चमर, पालकी, ध्वजा आदि सोने चाँदी आदि की बहुमूल्य सामग्री थी, इससे उसकी शोभा बड़ी मनोरम थी।              नागपुर नगर वासियों के सिवाय प्रांत भर के लोग जैन, अजैन तथा अधिकारी वर्ग आचार्यश्री के दर्शन द्वारा अपने को कृतार्थ करने को खड़े थे। लोगों की धारणा है कि

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?विदर्भ प्रांत में प्रवेश - अमृत माँ जिनवाणी से - २६७

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २६७   ?                "विदर्भ प्रांत में प्रवेश"                 संघ २६ दिसम्बर को यवतमाळ पहुँचा। यहाँ खामगाँव के श्रावकों ने सर्व संघ की आहार व्यवस्था की। यहाँ प्रद्युम्नसाव जी कारंजा वालों के यहाँ पूज्य आचार्यश्री का आहार हुआ। रात्रि के समय श्री जिनगौड़ा पाटील का मधुर कीर्तन हुआ।          श्री पाटील गोविन्दरावजी ने संघ की आहार व्यवस्था हेतु दूध, लकड़ी का प्रबंध वर्धा पर्यन्त करके अपनी भक्ति तथा प्रेम भाव व्यक्त किया। ता. २८ को संघ पुलगाँव पहुँचा।

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?विदर्भ प्रांत में प्रवेश - अमृत माँ जिनवाणी से - २६६

?   अमृत माँ जिनवाणी से- २६६  ?             "विदर्भ प्रांत में प्रवेश"              श्री चंद्रसागरजी ने, जो कुछ समय के लिए नांदगाँव चले गए थे, लगभग दो सौ श्रावकों सहित नांदेड में आकर संघ में आकर संघ को वर्धमान बनाया। एक दिन वहाँ रहकर संघ ने १७ दिसम्बर को प्रस्थान किया, यहाँ तक निजाम की सीमा थी। अतः स्टेट के कर्मचारीयों और अधिकारियों ने सद्भावना पूर्वक आचार्य महराज को प्रणाम किया और वापिस लौट आये।              यह आचार्यश्री का आत्मबल था जिसमें निजाम स्टेट में से बिहार करते हु

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सम्यक् दृष्टि का लक्षण और फल

जीवन का निर्मल होना ही सम्यक् जीवन जीना है। निर्मलतापूर्ण सम्यक् जीवन के लिए व्यक्ति की दृष्टि का निर्मल होना आवश्यक है। निर्मल दृष्टि ही सम्यक् दृष्टि है। आचार्य योगिन्दुु कहते हैं कि आत्मा से आत्मा को जानता हुआ व्यक्ति सम्यक् दृष्टि होता है। वैसे भी यदि हम अनुभव करें तो हम देखेंगे कि सुख- दुख का अनुभव प्रत्येक आत्मा में समानरूप से होता है, और यह बात जो समझ लेता है वह किसी को दुःख नहीं दे सकता। ऐसा व्यक्ति ही जिनेन्द्र द्वारा कथित मार्ग पर चलकर शीघ्र ही कर्मों से मुक्त हो जाता है। देखिये इससे स

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जाप का काल - 265

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २६५    ?                 *"जाप का काल"*               एक दिन मैंने (७ सितम्बर सन् १९५१ के) सुप्रभात के समय आचार्य महराज से पूंछा था- "महराज आजकल आप कितने घंटे जाप किया करते है?"         महराज ने कहा - रात को एक बजे से सात बजे तक, मध्यान्ह में तीन घंटे तथा सायंकाल में तीन घंटे जाप करते हैं।" इससे सुहृदय सुधी सोच सकता है कि इन पुण्य श्लोक महापुरुष का कार्यक्रम कितना व्यस्त रहता है। ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?

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अलंद में प्रभावना - २६४

?  अमृत माँ जिनवाणी से - २६४  ?               "आलंद में प्रभावना"               आलंद की जैन समाज ने उत्साह पूर्वक संघ का स्वागत किया। वहाँ संघ सेठ नानचंद सूरचंद के उद्यान में ठहरा था।             पहले ऐंसी कल्पना होती थी, कि कहीं संकीर्ण चित्तवाले अन्य सम्प्रदाय के लोग विघ्न उपस्थित करें, किन्तु महराज शान्तिसागर जी के तपोबल से ऐंसा अद्भुत परिणमन हुआ कि ब्राम्हण, मुसलमान, लिंगायत, हिंदु आदि सभी धर्म वाले भक्तिपूर्वक दर्शनार्थ आए और प्रसाद के रूप में पवित्र धर्मोपदेश तथा कल्या

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?निजाम राज्य में प्रवेश - अमृत माँ जिनवाणी से - २६३

☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं,             आज के प्रसंग से आपको ज्ञात होगा कि परम पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज की चर्या के माध्यम से धीरे-२ पुनः  सर्वत्र मुनिसंघ का विचरण प्रारम्भ हुआ।            वर्तमान में मुनिराजों द्वारा पू. शान्तिसागरजी महराज के निजाम राज्य प्रवेश संबंध में ज्ञात होता है कि उस समय दिगम्बरों के राज्य में विचरण में प्रतिबंघ था लेकिन पूज्य शान्तिसागरजी महराज के प्रभाव से मुनिसंघ का विहार अप्रतिबंधित हुआ ही साथ ही राज्य प्रवेश में उनकी आगमानी स्वयं वहाँ के शासक ने अप

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?केशलोंच पर अनुभव पूर्ण प्रकाश - अमृत माँ जिनवाणी से - २६२

☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं,             आज के प्रसंग में केशलोंच के संबंध में पूज्यश्री द्वारा की गई विवेचना अत्यंत ही महत्वपूर्ण है।            सामान्यतः हम लोगों को मुनिराज के केशलोंच की क्रिया देखकर ही कष्ट होने लगता है और जिज्ञासा होती है कि मुनिराज इन कष्टकारक क्रियाओं को प्रसन्नता के साथ कैसे संपादित कर लेते हैं? इस प्रसंग को जैनों को जानना ही चाहिए जैनेतर जनों तक भी यह बातें पहुँचाना चाहिए। ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २६२   ?      "केशलोंच पर अनुभव पूर्ण प्रकाश"

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आत्मा ही सब कुछ है तथा आत्मा के ध्यान की विधि

आचार्य योगिन्दु कहते है कि हमें दुःखों से मुक्ति पाने हेतु आत्मा का ध्यान करना चाहिए। उसी क्रम में वे कहते हैं कि आत्मा को छोड़कर अन्य सब पराये भाव हैं। उसके बाद आत्मा के ध्यान की विधि बताते हुए कहते हैं कि जो आत्मा आठ कर्मों से बाहर, समस्त दोषों से रहित (तथा) दर्शन, ज्ञान और चारित्रयुक्त है, वही ध्यान करने योग्य है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 74.    अप्पा मेल्लिवि णाणमउ अण्णु परायउ भाउ ।       सो छंडेविणु जीव तुहुँ भावहि अप्प-सहाउ।। अर्थ - हे जीव! ज्ञानमय आत्मा को छोडकर अन्य भाव

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?मिरज नरेश द्वारा भक्ति - अमृत माँ जिनवाणी से - २६१

☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं,        पूज्य शान्तिसागरजी महराज के शिखरजी की ओर ससंघ मंगल विहार का उल्लेख किया जा रहा है। इस उल्लेख में आपको अनेक रोचक बातें जानने मिलेंगी। आज के ही प्रसंग के माध्यम से भी आपको सभी स्थानों में पूज्यश्री द्वारा उस देशकाल में भी अपूर्व धर्मप्रभावना का भान होगा। ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २६१  ?           "मिरज नरेश द्वारा भक्ति"         सांगली से संघ सानंद प्रस्थान कर मिरज पहुंचा। महराज के शुभागमन का समाचार मिलने पर वहाँ के नरेश आचार्यश्री के दर्शन

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?सांगली में संघ संचालक जवेरी बंधुओं का सम्मान - अमृत माँ जिनवाणी से - २६०

☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं,        ७ फरवरी, दिन रविवार, माघ कृष्ण चतुर्दशी की शुभ तिथी को इस युग के प्रथम तीर्थंकर देवादिदेव श्री १००८ ऋषभनाथ भगवान का मोक्षकल्याणक पर्व है। हम सभी यह पर्व अत्यंत भक्ति भाव से उल्लास एवं प्रभावना पूर्वक मनाना चाहिए। हम सभी का यह प्रयास होना चाहिए कि जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ भगवान की जय जयकार पूरे विश्व में गूँजने लगे। ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २६०   ?        "सांगली में संघ संचालक जवेरी                  बंधुओं का सम्मान"          

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?सांगली में संघ संचालक जवेरी बंधुओं का सम्मान - अमृत माँ जिनवाणी से - २५९

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २५९   ?        "सांगली में संघ संचालक जवेरी                  बंधुओं का सम्मान"                पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज का उपदेश सुनकर सांगली नरेश की आत्मा बड़ी हर्षित हुई। धर्म के अनुसार आचरण करने वाले महापुरुषों की वाणी का अंतःस्थल तक प्रभाव पड़ा करता है, कारण धर्म अंतःकरण की वस्तु है। अंतःकरण जब धर्माधिष्ठित हो जाता है, तब प्रवृत्ति में भी उसकी अभियक्ति हुए बिना नहीं रहती।         सांगली के समस्त श्रावकों ने संघ संचालक जवेरी बंधुओ का सम

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आत्म चिंतन का सुगम मार्ग

आचार्य योगीन्दु देह से लगे जरा और मरण के भय से मुक्त करने हेतु आत्मा का चिंतन करने की बात करते हैं। फिर आत्मा का चिंतन कैसे करे यह बताते हैं। वे कहते हैं कि हे प्राणी! कर्म और कर्म से उत्पन्न भाव तथा सभी पुद्गल द्रव्य आत्मा से भिन्न है। तू इस प्रकार विचारकरके और आत्मा का सुगमता से चिंतन करके अपने दुःखों से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। 73.    कम्महँ केरा भावडा अण्णु अचेयणु दव्वु ।        जीव-सहावहँ भिण्णु जिय णियमिं बुज्झहि सव्वु ।। अर्थ -हे जीव! कर्मों के भाव (तथा) अन्य अचेतन द्रव्य

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?राजधर्म पर प्रकाश -१ - अमृत माँ जिनवाणी से - २५८

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २५८   ?            "राजधर्म पर प्रकाश - १"             पूज्य शान्तिसागरजी महराज ने अपने सम्बोधन में कहा - "राजनीति तो यह है कि राज्य भी करे तथा पुण्य भी कमावे। पूर्व में तप करने वाला राजा बनता था। दान देने वाला धनी बनता है। राज्य पर कोई आक्रमण करे तो उसको हटाने के लिए प्रति आक्रमण करना विरोधी हिंसा है, उसका त्याग गृहस्थी में नहीं बनता है, उसे अपना घर सम्हालना है और चोर से भी रक्षा करना है।            सज्जन राजा गरीबों के उद्धार का उपाय करता है। गरीब

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