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?देवद्रव्य - अमृत माँ जिनवाणी से - ३००


Abhishek Jain

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जय जिनेन्द्र बंधुओं,

       आज इस श्रृंखला के ३०० प्रसंग पूर्ण हुए। ग्रंथ के यशस्वी लेखक स्वर्गीय पंडित श्री सुमरेचंदजी दिवाकर का  हम सभी पर महान उपकार रहा जो उनकी द्वारा लिखित ग्रंथ "चारित्र चक्रवर्ती" के माध्यम से पूज्य शान्तिसागरजी महराज के दिव्य जीवन को अनुभव कर पा रहे हैं।

        अभी तक आचार्यश्री के अनेक जीवन प्रसंगों को प्रस्तुत किया गया, लेकिन ग्रंथ के आधार पर अभी भी पूज्य शान्तिसागरजी महराज के जीवन चरित्र के अनेकों प्रसंग प्रस्तुत करना शेष है। प्रस्तुती का यह क्रम चलता रहेगा।

           प्रस्तुती का उद्देश्य, लोगों तक पूज्य शान्तिसागरजी महराज का जीवन चरित्र प्रस्तुत करना है, मैं अपना कर्म कर रहा हूँ, अब पाठक जितना लाभ लें?

?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३००   ?


                       "देव-द्रव्य"


             एक दिन मैंने पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज से पूछा था- "महराज ! अब देव-द्रव्य पर सरकार की शनि दृष्टि पड़ी है, ऐसी स्थिति में उसका क्या उपयोग हो सकता है?"

          महराज ने कहा था- "अपने ही मंदिर में उसका उपभोग करने का मोह छोड़कर अन्य स्थानों के भी जिन मंदिरों को यदि आत्मीय भाव से देखकर उनके रक्षण, व्यवस्था, जीर्णोद्धार आदि में रकम का उपयोग करोगे, तो विपत्ति नहीं आएगी।"

              धर्मादा की रकम का ठीक-ठीक उपभोग करने से मनुष्य समृद्ध होता है, वैभव सम्पन्न बनता है। उसी द्रव्य को स्वयं हजम करने लगे, तो संपत्ति को क्षय रोग लगता जाता है। आदमी पनपने नहीं पाता है।

            जिन प्रांतों में मंदिर की द्रव्य जैन भाई खाते हैं, वहाँ उनकी स्थिति देखकर दया आती है। अतः इस विषय में सावधानी पूर्वक प्रवृत्ति रखना श्रेयस्कर है।


? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का 

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