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?लौकिक जीवन भी प्रमाणिक जीवन था - अमृत माँ जिनवाणी से - २०४

?    अमृत माँ जिनवाणी से - २०४    ?   "लौकिक जीवन भी प्रामाणिक जीवन था"                 पूज्य शांतिसागरजी महराज का गृहस्थ अवस्था में लौकिक जीवन वास्तव में अलौकिक था। लोग लेन-देन के व्यवहार में इनके वचनों को अत्यधिक प्रामाणिक मानते थे। इनकी वाणी रजिस्ट्री किए गए सरकारी कागजातों के समान विश्वसनीय मानी जाती थी। इनके सच्चे व्यवहार पर वहाँ के तथा दूर-दूर के लोग अत्यंत मुग्ध थे।          ?खेती के विषय में चर्चा?          मैंने पूंछा "महराज ! हिन्दी भाषा के प्राचीन पंडित

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आत्मा का लक्षण

आचार्य योगीन्दु सभी जीवों को सुख और शान्ति के मार्ग पर अग्रसर करना चाहते हैं, और यह सुख-शान्ति का मार्ग बिना आत्मा को पहचाने सम्भव नहीं है। अतः आत्मा पर श्रृद्धान कराने के लिए विभिन्न- विभिन्न युक्तियों से आत्मा के विषय में बताते हैं। इस 31वें दोहे में आत्मा का लक्षण बताया गया है -   31    अमणु अणिंदिउ णाणमउ मुत्ति-विरहिउ चिमित्तु ।       अप्पा इंदिय-विसउ णवि लक्खणु एहु णिरुत्तु ।।   अर्थ - आत्मा, मन रहित, इन्द्रिय रहित, मूर्ति (आकार) रहित, ज्ञानमय (और) चेतना मात्र है, (यह) इन्द्रियों का विषय

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?आचार्यश्री जिनसे प्रभावित थे ऐसे आदिसागर मुनिराज का वर्णन - अमृत माँ जिनवाणी से - २०३

?    अमृत माँ जिनवाणी से - २०३    ?       "आचार्यश्री जिनसे प्रभावित थे ऐसे              आदिसागर मुनि का वर्णन"             पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज ने एक आदिसागर (बोरगावकर) मुनिराज के विषय में बताया था कि वे बड़े तपस्वी थे और सात दिन के बाद आहार लेते थे। शेष दिन उपवास में व्यतीत करते थे। यह क्रम उनका जीवन भर रहा।        आहार में वे एक वस्तु ग्रहण करते थे। वे प्रायः जंगल में रहा करते थे। जब वे गन्ने का रस लेते थे, तब गन्ने के रस के सिवाय अन्य पदार्थ ग्रहण नहीं कर

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?आचार्यश्री के दीक्षा गुरु देवेन्द्रकीर्ति मुनि महराज का वर्णन - अमृत माँ जिनवाणी से - २०२

?    अमृत माँ जिनवाणी से - २०२    ?      "आचार्यश्री के दीक्षा गुरु देवेन्द्रकीर्ति                              मुनि का वर्णन"           एक बार मैंने पूज्य शान्तिसागरजी महराज से उनके गुरु के बारें में पूंछा था तब उन्होंने बतलाया था कि "देवेन्द्रकीर्ति स्वामी से हमने जेठ सुदी १३ शक संवत १८३७ में क्षुल्लक दीक्षा ली थी तथा फाल्गुन सुदी एकादशी शक संवत १८७१ में मुनि दीक्षा ली थी। वे बाल ब्रम्हचारी थे, सोलह वर्ष की अवस्था में सेनगण की गद्दी पर भट्टारक बने थे।       उस समय उन्हो

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?शेर आदि का उनके पास प्रेम भाव से निवास व ध्यान कौशल - अमृत माँ जिनवाणी से - २०१

?    अमृत माँ जिनवाणी से - २०१    ?        "शेर आदि का उनके पास प्रेम भाव से                                                      निवास व ध्यान कौशल"          पूज्य शान्तिसागरजी महराज गोकाक के पास एक गुफा में प्रायः ध्यान किया करते थे। उस निर्जन स्थान में शेर आदि भयंकर जंतु विचरण करते थे। प्रत्येक अष्टमी तथा चतुर्दशी को उपवास तथा अखंड मौन धारण कर ये गिरी कंदरा में रहते थे।           वहाँ अनेक बार व्याघ्र आदि हिंसक जंतु इनके पास आ जाया करते थे, किन्तु साम्यभाव भूषित ये मुनि

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?प्रगाढ़ श्रद्धा - अमृत माँ जिनवाणी से - २००

?    अमृत माँ जिनवाणी से - २००    ?                       "प्रगाढ़ श्रद्धा"          कलिकाल के कारण धर्म पर बड़े-बड़े संकट आये। बड़े-बड़े समझदार लोग तक धर्म को भूलकर अधर्म का पक्ष लेने लगे, ऐसी विकट स्थिति में भी पूज्य शान्तिसागरजी महराज की दृष्टि पूर्ण निर्मल रही और उनने अपनी सिंधु तुल्य गंभीरता को नहीं छोड़ा।          वे सदा यही कहते रहे कि जिनवाणी सर्वज्ञ की वाणी है। वह पूर्ण सत्य है। उनके विरुद्ध यदि सारा संसार हो, तो भी हमें कोई डर नहीं है। उनकी ईश्वर भक्ति तथा पवित्र तपश्चर्

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सभी आत्माएँ मूल में समान हैं

आचार्य योगिन्दु मानव मन के विशेषज्ञ हैं। वे जितना स्वयं तथा पर के मन को समझते हैं उतना ही वे प्रत्येक मानव को कि वह स्वयं व पर के मन को समझ सके, यह समझाने की योग्यता रखते हैं। परमात्मप्रकाश में यह बात हम निरन्तर देखते हैं। वे प्रत्येक बात को हर पक्ष के साथ दोहराते हैं ताकि विविध आयामों के साथ मूल तथ्य स्पष्ट हो सके। आगे के दोहे में वे आत्मा और परमात्मा के सम्बन्ध होने की पुष्टि जीव-अजीव में भेद होने किन्तु शुद्ध आत्मा व संसारी आत्मा के मूल रूप में समानता होने से करते हैं। वे स्पष्ट कहते हैं कि ज

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?आगम के भक्त - अमृत माँ जिनवाणी से - १९९

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १९९    ?                    "आगम के भक्त"             एक बार लेखक ने आचार्य महराज को लिखा कि भगवान भूतबली द्वारा रचित महाधवल ग्रंथ के चार-पाँच हजार श्लोक नष्ट हो गए हैं, उस समय पूज्य शान्तिसागरजी महराज को शास्त्र संरक्षण अकी गहरी चिंता हो गई थी।          उस समय मैं सांगली में और वर्षाकाल में ही मैं उनकी सेवा में कुंथलगिरी पहुँचा। बम्बई से सेठ गेंदनमलजी, बारामती से चंदूलालजी सराफ तथा नातेपूते से रामचंद्र धनजी दावड़ा वहाँ आये थे।           उनके स

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आत्मा और परम आत्मा का सम्बन्ध (क्रमशः)

आचार्य योगिन्दु आत्मा और परम आत्मा के दृढ सम्बन्ध को पुनः बताते हैं कि संसारी आत्मा और परम आत्मा मूल रूप में समान ही है, अर्थात् कर्म बन्धन से रहित दोनों का स्वरूप एक ही है। इनमें असमानता है तो मात्र भेद व अभेद दृष्टि का। भेद दृष्टि से यह आत्मा देह में विराजमान है तथा अभेद दृष्टि से यह आत्मा सिद्धालय में विराजमान है। वे बार बार यही बात दोहराते हैं कि बस तू मात्र इस बात को अच्छी तरह से समझ ले, अन्य बातों में समय व्यर्थ मत कर। आगे के दोहे में यही बात कही गयी है - 29.   देहादेहहि ँ जो वसइ भेयाभेय-ण

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?अपार तेजपुंज २ - अमृत माँ जिनवाणी से - १९८

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १९८    ?                 "अपार तेजपुंज-२"           भट्टारक जिनसेन स्वामी ने बताया कि एक धार्मिक संस्था के मुख्य पीठाधीश होने के कारण मेरे समक्ष अनेक बार भीषण जटिल समस्याएँ उपस्थित हो जाया करती थीं। उन समस्याओं में गुरुराज शान्तिसागरजी महराज स्वप्न में दर्शन दे मुझे प्रकाश प्रदान करते थे। उनके मार्गदर्शन से मेरा कंटकाकीर्ण पथ सर्वथा सुगम बना है।         अनेक बार स्वप्न में दर्शन देकर उन्होंने मुझे श्रेष्ठ संयम पथ पर प्रवृत्त होने को प्रेरणा पूर्ण उ

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?अपार तेजपुंज १ - अमृत माँ जिनवाणी से - १९७

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १९७    ?                 "अपार तेज पुंज-१"           पिछले प्रसंग में  भट्टारक जिनसेन स्वामी द्वारा पूज्य शांतिसागरजी महराज के बारे में वर्णन को हम जान रहे थे। उन्होंने आगे बताया-         पूज्य शान्तिसागरजी महराज की अलौकिक मुद्रा के दर्शन से मुझे कितना आनंद हुआ, कितनी शांति मिली और कितना आत्म प्रकाश मिला उसका में वर्णन करने में असमर्थ हूँ।           इन मनस्वी नर रत्न के आज दर्शन की जब भी मधुर स्मृति जग जाती है, तब मैं आनंद विभोर हो जाता हूँ। उ

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क्रमशः

अगले दोहे में आचार्य परम आत्मा का आत्मा से सम्बन्ध बताते हैं कि जब व्यक्ति इन्द्रिय सुख-दुःखों से तथा मन के संकल्प-विकल्पों से परे हो जाता है, तब ही उसके देह में बसती हुई आत्मा शुद्ध अर्थात परम आत्मा में परिवर्तित हो जाती है। तब सिद्धालय में स्थित और स्व देह में स्थित शुद्धात्मा में कोई भेद नहीं रह जाता। आचार्य के अनुसार बस यही बात समझने योग्य है। इसी को उन्होंने अपने दोहे में कहा है- 28.   जित्थु ण इंदिय-सुह-दुहइँ जित्थु ण मण-वावारु ।      सो अप्पा मुणि जीव तुहुँ अण्णु परिं अवहारु ।। अर्थ - जहा

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?अपार तेजपुंज - अमृत माँ जिनवाणी से - १९६

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १९६    ?                    "अपार तेजपुंज"           भट्टारक जिनसेन स्वामी ने पूज्य शान्तिसागरजी महराज के बारे में अपना अनुभव इस सुनाया-         सन् १९१९ की बात है, आचार्य शान्तिसागरजी महराज हमारे नांदणी मठ में पधारे थे। वे यहाँ की गुफा में ठहरे थे। उस समय वे ऐलक थे। उनके मुख पर अपार तेज था। पूर्ण शांति भी थी।         वे धर्म कथा के सिवाय अन्य पापाचार की बातों में तनिक भी नहीं पड़ते थे। मैं उनके चरणों के समीप पहुँचा, बड़े ध्यान से उनकी शांत मुद्

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क्रमशः

पुनः आगे के दोहे में परम आत्मा का आत्मा से सम्बन्ध बताते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार परम आत्मा का ध्यान करने से पूर्व में किये गये कर्म शीघ्र नष्ट हो जाते हैं उसी प्रकार अपनी देह में स्थित शुद्ध आत्मा का ध्यान करने से भी पूर्व में किये कर्म शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। देह में स्थित शुद्धात्मा व सिद्धालय में स्थित शुद्धात्मा में कोई भेद नहीं है। शुद्धात्मा का ध्यान तभी संभव है जब देह व आत्मा के भेद को समझा जाये।   27.  जे ँँ दिट्ठे ँ तुट्टंति लहु कम्मइँ पुव्व-कियाइँ ।      सो परु जाणहि जोइया देहि वसं

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?दयाधर्म का महान प्रचार - अमृत माँ जिनवाणी से - १९५

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १९५    ?              "दयाधर्म का महान प्रचार"                मार्ग में हजारों लोग आकर इन मुनिनाथ पूज्य शान्तिसागरजी महराज को प्रणाम करते थे, इनने उन लोगों को मांस, मदिरा का त्याग कराया है। शिकार न करने का नियम दिया है। इनकी तपोमय वाणी से अगणित लोगों ने दया धर्म के पथ में प्रवृत्ति की थी।          ?आध्यात्मिक आकर्षण?           क्षुल्लक सुमतिसागरजी फलटण वाले सम्पन्न तथा लोकविज्ञ व्यक्ति थे।उन्होंने बताया- आचार्य महराज का आकर्षण अद्भुत था। इसी

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परम आत्मा का आत्मा से सम्बन्ध

बन्धुओं ! एक बार पुनः मैं तीनों प्रकार की आत्मा के स्वरूप को संक्षिप्त में आपके समक्ष रख देना चाहती हूँ जिससे हम परमात्मप्रकाश के आगे के विषय को अच्छी तरह से समझ सकें। आत्मा का मूर्छित स्वरूप वह है जिसमें देह को ही आत्मा जाना जाता है। आत्मा का जागृत स्वरूप वह है जिसमें देह और आत्मा की भिन्नता का बोध होने के पश्चात् परम एकाग्र ध्यान में स्थित होकर परम आत्मा का अनुभव किया जाता है। आत्मा का श्रेष्ठ (परमात्म) स्वरूप वह है, जो कर्म बंधनों व पर द्रव्यों से रहित है, रंग, गंध, रस, शब्द, स्पर्श, जन्म, मर

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?व्यवहार कुशलता - अमृत माँ जिनवाणी से - १९४

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १९४    ?                 "व्यवहार कुशलता"                 पूज्य आचार्य शान्तिसागरजी महराज की व्यवहार कुशलता महत्वपूर्ण थी। सन् १९३७ में आचार्यश्री ने सम्मेदशिखरजी की संघ सहित यात्रा की थी, उस समय मैं उनके साथ-साथ सदा रहता था। सर्व प्रकार की व्यवस्था तथा वैयावृत्ति आदि का कार्य मेरे ऊपर रखा गया था।         उस अवसर पर मैंने आचार्यश्री के जीवन का पूर्णतया निरीक्षण किया और मेरे मन पर यह प्रभाव पड़ा कि श्रेष्ठ आत्मा में पाये जाने वाले सभी शास्त्रोक्त गुण

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क्रमशः

अभी इससे पूर्व के ब्लाँग में हमने अपभ्रंश भाषा के प्रमुख अध्यात्मकार आचार्य योगिन्दु कृत परमात्मप्रकाश में रचित परम आत्मा के स्वरूप से सम्बन्धित दोहों को अर्थ सहित देखा। अब हम इस ब्लाँग में उन ही दोहों का शब्दार्थ के द्वारा अध्ययन करेंगे - 15.   अप्पा-आत्मा, लद्धउ-प्राप्त किया गया है, णाणमउ- ज्ञानमय, कम्म-विमुक्कें- कर्म बंधन से रहित हुए, जेण-जिसके द्वारा, मेल्लिवि-छोड़कर, सयलु- समस्त, वि-ही, दव्वु-द्रव्य, परु-पर, सो-वह, परु-सर्वोच्च, मुणहि-समझो, मणेण-अन्तःकरण से। 16. तिहुयण-वंदिउ-    तीन लोक के

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?महराज का पुण्य जीवन - अमृत माँ जिनवाणी से - १९३

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १९३    ?              "महराज का पुण्य जीवन"              पूज्य शान्तिसागरजी महराज के गृहस्थ जीवन के छोटे भाई के पुत्र जिनगौड़ा पाटील से पूज्य शान्तिसागरजी महराज के बारे में जानकारी लेने पर उन्होंने बताया-        हमारे घर शास्त्र चर्चा सतत चलती रहती थी। आचार्य महराज व्रती थे, इससे आजी माँ उनका विशेष ध्यान रखती थी। जब मैं ५-६ वर्ष का था, तब मुझे वे (महराज) दुकान के भीतर अपने पास सुलाते थे। वे काष्ठासन पर सोते थे। किन्तु मुझे गद्दे पर सुलाते थे।  

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?मुनिभक्त - अमृत माँ जिनवाणी से - १९२

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १९२    ?                      "मुनिभक्त"               सातगौड़ा मुनिराज के आने पर कमण्डलु लेकर चलते थे और खूब सेवा करते थे। हजारों आदमियों के बीच में स्वामी का इन पर अधिक प्रेम रहा करता था।          वे भोजन को घर में आते तथा शेष समय दुकान पर व्यतीत करते थे। वहाँ वे पुस्तक बाँचने में संलग्न रहते थे।         उनकी माता का स्वभाव बड़ा मधुर था। वे हम सब लड़कों को अपने बेटे के समान मानती थी। वे हमें कहती थी, "कभी चोरी नहीं करना, झूठ नहीं बोलना, अधर्म नह

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परम आत्मा का स्वरूप

बन्धुओं, आत्मा की मूर्छित अवस्था एवं जागृत अवस्था के लक्षण से संक्षिप्त में अवगत करवाने के बाद आचार्य योगिन्दु हमें परमआत्मा के स्वरूप का विस्तार से कथन कर रहे हैं। पुनः मैं आपको एक बार आत्मा के 3 प्रकार को दोहरा देती हूँ। 1. मूर्छित आत्मा (बहिरात्मा)- जो देह को ही आत्मा मानता है। 2.जागृत आत्मा - यहाँ सण्णाणें शब्द ध्यान देने योग्य है। इसमें संवेदना एवं ज्ञान (विवेक) दोनों का समावेश है, जो हितकारी उत्कृष्ट ज्ञान की और संकेत करता है।  आगे परम आत्मा के लक्षण के साथ परमआत्मा के स्वरूप पर प्रकाश डाल

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गरीबों के उद्धारक - अमृत माँ जिनवाणी से - १९१

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १९१    ?                "गरीबों के उद्धारक"            पूज्य शान्तिसागरजी महराज के दीक्षा लेने के उपरांत गाँव में पुराने लोगों में जब चर्चा चलती थी, तब लोग यही कहते थे कि हमारे गाँव का रत्न चला गया। गरीब लोग आँखों से आँसू बहाकर यह कहकर रोते थे कि हमारा जीवन दाता चला गया।          शूद्र लोग उनके वियोग से अधिक दुखी हुए थे, क्योंकि उन दीनों के लिए वह करुणासागर थे। वे कहते थे कि अभी तक हममें जो कुछ अच्छी बातें हैं, उसका कारण वह स्वामीजी ही हैं। हमने कभ

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?शांत प्रकृति - अमृत माँ जिनवाणी से - १९०

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १९०    ?                   "शांत प्रकृति"         सातगौड़ा बाल्यकाल से ही शांत प्रकृति के रहे हैं। खेल में तथा अन्य बातों में इनका प्रथम स्थान था। ये किसी से झगडते नहीं थे, प्रत्युत झगड़ने वालों को प्रेम से समझाते थे।        वे बाल मंडली में बैठकर सबको यह बताते थे कि बुरा काम कभी नहीं करना चाहिए। वे नदी में तैरना जानते थे। उनका शारीरिक बल आश्चर्य-प्रद था।        उनका जीवन बड़ा पवित्र और निरुपद्रवी रहा है। वे कभी भी किसी को कष्ट नहीं देते थे। वे क

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