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आत्मा के ज्ञान गुण का कथन

परमात्मप्रकाश के क्रमशः आगे के दोहे में आत्मा के ज्ञान गुण की बहुत रोचक अभिव्यक्ति हुई है। इसमें बताया गया है कि आत्मा में ज्ञान गुण होने पर ही आत्मा के ज्ञान में संसार झलकता है, तथा इस ज्ञान गुण के कारण ही वह अपने आपको संसार के भीतर रहता अनुभव करता है। जब वह इस ज्ञान गुण के कारण कर्म बंधन से रहित हो संसार में बसता हुआ भी संसाररूप नहीं होता तब वह ही परम आत्मा होता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा- 41    जसु अब्भंतरि जगु वसइ जग-अब्भंतरि जो जि ।        जगि जि वसंतु वि जगु जि ण वि मुणि परमप्पउ

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?आत्महित में शीघ्रता करना चाहिए - अमृत माँ जिनवाणी से - २१६

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २१६   ?      "आत्महित में शीघ्रता करनी चाहिए"              पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज कह रहे थे, "भविष्य का क्या भरोसा, अतः शीघ्र आत्मा के कल्याण के लिए व्रत ग्रहण कर लो।" इस प्रसंग में पद्मपुराण का एक वर्णन बड़ा मार्मिक है-        सीता के भाई भामंडल अपने कुटुम्ब परिवार में उलझते हुए यह सोचते थे कि यदि मैंने जिनदीक्षा ले ली, तो मेरे वियोग में मेरी रानियाँ आदि का प्राणांत हुए बिना नहीं रहेगा, अतः कठिनता से त्यागे जाने योग्य, कठिनाई से प्राप्त

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आत्मा संसार का कारण भी है और परम आत्मा भी हैै

परमात्मप्रकाश के निम्न दोहे में आचार्य ने समझाया है कि आत्मा के दोनों स्वरूप हैं। जब आत्मा कर्ममय होती है तो वह संसाररूप परिणत होती है और जब वही आत्मा कर्म रहित हो जाती है तो वही परम आत्मा बन जाती है। देखिये इस से सम्बन्धित परमात्मप्रकाश का अगला दोहा-   40.    जो जिउ हेउ लहेवि विहि जगु बहु-विहउ जणेइ।        लिंगत्तय-परिमंडियउ सो परमप्पु हवेइ।।   अर्थ .  जोे आत्मा (कर्मरूप) कारण को प्राप्त करके तीनों लिङ्गों से सुशोभित अनेक प्रकार के संसार को उत्पन्न करता है, वह (ही) (मूलरूप से) परम- आत्मा है।

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?रूढ़ि से बड़ी है आगम की आज्ञा - अमृत माँ जिनवाणी से - २१५

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २१५   ?     "रूढ़ि से बड़ी है आगम की आज्ञा"           व्रताचरण के विषय में पूज्य शान्तिसागरजी महराज से किसी ने पूंछा था "महराज ! रुधिवश लोग तरह-२ के प्रतिबंध व्रतों में उपस्थित करते हैं, ऐसी स्थिति में क्या किया जाए?"         आचार्य महराज ने कहा था, "व्रतों के विषय में शास्त्राज्ञा को देखकर चलो, रूढ़ि को नहीं। शास्त्राज्ञा ही जिनेन्द्र आज्ञा है। लोक आज्ञा रूढ़ि है।         धर्मात्मा जीव सर्वज्ञ जिनेन्द्र की आज्ञा को बताने वाले शास्त्र को अपना मार्ग

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ध्यान, ध्येय व ध्याता की एकता ही परमआत्मा की प्राप्ति है

परमात्मप्रकाश के अगले दोहे 39 में ध्यान, ध्येय व ध्याता की समग्रता में ही परमआत्मा की प्राप्ति का कथन किया गया है। यहाँ योगियों के समूह को ध्याता, ध्यान के योग्य ज्ञानमय आत्मा तथा परमशान्ति की प्राप्ति को ध्येय बताया गया है। इन तीनों के एकता ही परमआत्मा की प्राप्ति का साधन है। 39.   जोइय-विंदहि ँ णाणमउ जो झाइज्जइ झेउ ।       मोक्खहँ कारणि अणवरउ सो परमप्पउ देउ ।। अर्थ - योगियों के समूह द्वारा परम शान्ति के प्रयोजन से जो ज्ञानमय ध्यान के योग्य(आत्मा) निरन्तर ध्यान किया जाता है, वह ही दिव्य परम- आत

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परम आत्मा से चन्द्रमा की समानता

परमात्मप्रकाश के अगले दोहे में कहा गया है कि जिस प्रकार अनन्त आकाश में रात्रि में मात्र एक चन्द्रमा से समस्त संसार प्रकाशित होता है उसी प्रकार समस्त लोक में जिस-जिस जीव के ज्ञान में समस्त लोक प्रतिबिम्बित होता है ही अनादि(शाश्वत) परमात्मा है। ज्ञान व शाश्वत स्वरूप से चन्द्रमा और परमआत्मा का यहाँ साम्य बताया गया है। 38.   गयणि अणंति वि एक्क उडु जेहउ भुयणु विहाइ।       मुक्कहँ जसु पए बिंबियउ सो परमप्पु अणाइ।।   अर्थ -अनन्त आकाश में एक चन्द्रमा के सदृश जिस प्रत्येक मुक्त जीव में प्रतिबिम्बित किया

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?गृहस्थी के झंझट - अमृत माँ जिनवाणी से - २१४

☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं,        जिनेन्द्र भगवान की वाणी मनुष्य की चिंताओं को समाप्त करने वाली तथा अद्भुत आनंद का भंडार है। अतः हम सभी को भले ही थोड़ा हो लेकिन माँ जिनवाणी का अध्यन प्रतिदिन अवश्य ही करना चाहिए।          नए लोगों को इस कार्य का प्रारम्भ महापुरुषों के चरित्र वाले ग्रंथों अर्थात प्रथमानुयोग के ग्रंथों से करना चाहिए। ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २१४   ?                 "गृहस्थी के झंझट"           लेखक दिवाकरजी लिखते हैं कि पूज्य शान्तिसागरजी महराज का कथन कि

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?जनकल्याण - अमृत माँ जिनवाणी से - २१३

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २१३   ?                       "जनकल्याण"       पूज्य शान्तिसागरजी महराज ने अपना लोककल्याण का उदार दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुए एक बार कहा, "हमें अपनी तनिक भी चिंता नहीं है। जगत के जीवों का कैसे हित हो, यह विचार बार-बार मन में आया करता है। जगत के कल्याण का चिंतन करने से तीर्थंकर का पद प्राप्त होता है।"        यदि करुणा का भाव नहीं तो क्षायिक सम्यक्त्व के होते हुए भी तीर्थंकर प्रकृति का बंध नहीं होता है। उपशम, क्षयोपशम सम्यक्त्व में भी वह नहीं होगा।

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पूर्व कथन की पुष्टि

हम पूर्व में भी इस बात की चर्चा कर चुके हैं कि अदृश्य वस्तु को बोधगम्य बनाने हेतु उसका बार-बार कथन करना आवश्यक है। यहाँ आगे के दोहे में परम आत्मा से सम्बन्धित पूर्व कथन को ही पुष्ट किया गया है। 37.   जो परमत्थे ँ णिक्कलु वि कम्म-विभिण्णउ जो जि ।      मूढा सयलु भणंति फुडु मुणि परमप्पउ सो जि ।। अर्थ - जो वास्तविकरूप से शरीर रहित है और निश्चय ही कर्मों से जुदा है, वह ही परम- आत्मा है, (किन्तु) मूर्ख (उसको) शरीरस्वरूप ही कहते हैं, (तुम) (इस बात को) स्पष्टरूप से समझो। शब्दार्थ - जो-जो, परमत्थे ँ-वास्

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?संयम में कष्ट नहीं - अमृत माँ जिनवाणी से - २१२

☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं,      आज का प्रसंग अवश्य पढ़ें। अपने जीवन के कल्याण की चाह रखने वाले सभी श्रावको को पूज्यश्री का यह उदबोधन बहुत आनंद प्रदान करेगा।        ऐसी बातों को हम सभी को धर में ऐसी जगह लिखकर रखना चाहिए जहाँ हमारी निगाह बार-२ जाये। ?    अमृत माँ जिनवाणी से - २१२   ?                "संयम में कष्ट नहीं"            जो लोग सोचते है कि संयम पालने में कष्ट होता है, उनके संदेह को दूर करते हुए पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज ने मार्मिक देशना में कहा, "संसा

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?व्रत के समर्थन में समर्थ वाणी - अमृत माँ जिनवाणी से - २११

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २११   ?          "व्रत के समर्थन में समर्थ वाणी"            व्रत ग्रहण करने में जो भी भयभीत होते हैं, उनको साहस प्रदान करते हुए पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज बोले, "जरा धैर्य से काम लो और व्रत धारण करो। डर कर बैठना ठीक नहीं है। ऐसा सुयोग अब फिर कब आएगा?        कई लोगों ने व्रतों का विकराल रूप बता-बता कर लोगों को डरा दिया है और भीषणता की कल्पनावश लोग अव्रती रहे आये हैं, यह ठीक नहीं।"         उन्होंने यह भी कहा, "हमारे भक्त, शत्रु, मित्र, स

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आत्मा का परम आत्मा स्वरूप

परमात्मप्रकाश के आगे के दोहे में आचार्य योगीन्दु आत्मा व परम आत्मा की चर्चा करते हुए पुनः कहते हैं कि आत्मा व परम आत्मा मूल रूप में समान ही है मूल रूप में उनमें कोई भेद नहीं है। आत्मा और परमात्मा में भेद हुआ है तो मात्र कर्म के कारण। कर्मां से बँधी हुई आत्मा ही बहिरात्मा होती है तथा कर्म बन्धन से रहित आत्मा ही परम आत्मा होती है। आत्मा जितनी जितनी आसक्ति से कर्मों से बँधती है उतनी उतनी ही वह अपने परमात्म स्वरूप से दूर रहती है और जितनी-जितनी आत्मा आसक्ति रहित होती है उतनी उतनी वह अपने परमात्म स्वर

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?मूल्यवान मनुष्य भव - अमृत माँ जिनवाणी से - २१०

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २१०   ?              "मूल्यवान मनुष्य भव"             एक बार बारामती में सेठ गुलाबचंद खेमचंदजी सांगली ने पर्युषण पर्व में पूज्य आचार्यश्री के उपदेश तथा प्रेरणा से व्रत प्रतिमा ग्रहण करने का निश्चय किया।          उस दिन के उपदेश में अनेक मार्मिक एवं महत्वपूर्ण बातें कहते हुए महराज ने कहा था कि तुम लोगों की असंयमी वृत्ति देखकर हमारे मन में बड़ी दया आती है कि तुम लोग जीवन के इतने दिन व्यतीत हो जाने पर भी अपने कल्याण के विषय में जाग्रत नहीं होते हो।

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?मधुर व्यवहार - अमृत माँ जिनवाणी से - २०९

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २०९   ?                   "मधुर व्यवहार"            एक बार पूज्य शान्तिसागरजी महराज अहमदनगर (महाराष्ट्र प्रांत) के पास से निकले। वहाँ कुछ श्वेताम्बर भाइयों के साथ एक श्वेताम्बर साधु भी थे। वे जानते थे कि महराज दिगम्बर जैन धर्म के पक्के श्रद्धानी हैं। वे हम लोगों को मिथ्यात्वी कहे बिना नहीं रहेंगे, कारण की नेमीचंद सिद्धांत चक्रवर्ती ने हमें संशय मिथ्यात्वी कहा है।           उस समय श्वेताम्बर साधु ने मन में अशुद्ध भावना रखकर प्रश्न किया, "महराज आप हमक

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सत्य, शिव एवं सुन्दर के समन्वयरूप परम आत्मा का कथन

आचार्य योगिन्दु आत्मा की उत्कृष्ट अवस्था की प्राप्ति में समभाव की प्राप्ति का होना आवश्यक मानते हैं। उनके अनुसार समभाव की प्राप्ति ही परम आत्मा की उपलब्धि का सबसे बड़ा सत्य है। समभावरूप सत्य की उपलब्धि के पश्चात् जिस परम आनन्द की प्राप्ति होती है वही परम आत्मा का शिव और सुन्दर पक्ष है। समभाव की प्राप्ति के अभाव में परम आत्मा की प्राप्ति संभव नहीं है। व्यवहारिक जगत में भी सुख और शान्ति मन में समभाव होने पर ही संभव है। राग और द्वेषरूप विषमता ही संसार के दुःखों का मूल है। आगे का दोहा इस ही कथन से सम

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?लोक के विषय में अनुभव - अमृत माँ जिनवाणी से - २०८

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २०८   ?             "लोक के विषय में अनुभव"          पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज का लोक के बारे में भी अनुभव भी महान था। वे लोकानुभव तथा न्यायोचित सद्व्यवहार के विषय में एक बार कहने लगे, "मनुष्य सर्वथा खराब नहीं होता। दुष्ट के पास भी एकाध गुण रहता है। अतः उसे भी अपना बनाकर सत्कार्य का संपादन करना चाहिए। व्यसनी के पास भी यदि महत्व की बात है तो उससे भी काम लेना चाहिए।"           उन्होंने यह भी कहा था, "ऐसी नीति है कि मनुष्य को देखकर काम कहना औ

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परम आत्मा का एक अद्भुत् लक्षण

आचार्य योगिन्दु ने जिस जिस तरह से आत्मा की अनुभूति की उन सब अनुभूतियों को जन कल्याणार्थ अभिव्यक्त भी किया। यहाँ आत्मा की अद्भुतता बताते हुए कहते हैं कि आत्मा निश्चितरूपसे देह में ही स्थित होती है फिर भी वह देह को स्पर्श नहीं करती और न ही वह देह के द्वारा स्पर्श की जाती है। अर्थात् देह में स्थित होने पर भी आत्मा का देह से पार्थक्य भाव है। यही कारण है कि जीव विभिन्न शरीर से जुदा होकर विभिन्न विभिन्न पर्यायों को प्राप्त होता रहता है। देखिये इस ही कथन से सम्बन्धित आगे का दोहा-  34.   देहे वसंतु वि ण

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?जन्मभूमि में भी वंदित - अमृत माँ जिनवाणी से - २०७

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २०७    ?              "जन्मभूमि में भी वंदित"            कल के प्रसंग में हमने देखा की गृहस्थ जीवन से ही पूज्य शान्तिसागरजी महराज की विशेष सत्यनिष्ठा के कारण कितनी मान्यता थी।             इस सत्यनिष्ठा, पुण्य-जीवन आदि के कारण भोजवासी इनको अपने अंतःकरण का देवता सा समझा करते थे। इनके प्रति जनता का अपार अनुराग तब ज्ञात हुआ, जब इस मनस्वी सत्पुरुष ने मुनि बनने की भावना से भोज भूमि की जनता को छोड़ा था।            आज भी भोज के पुराने लोग इनकी गौरव गाथा

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देह में ही परमात्मा का निवास

यह हम सब भली भाँति समझते है कि जो वस्तु दृश्य होती है, उसको समझाने के लिए उसका बार-बार करने की आवश्यक्ता नहीं पडती, किन्तु अदृश्य वस्तु को बोध गम्य बनाने हेतु उसका विभिन्न तरीके से बार बार कथन करने की आवश्यक्ता होती है। चूंकि आत्मा भी अदृश्य है, अतः आचार्य योगिन्दु को प्रत्येक जीव के सहज बोधगम्य हेतु उसका विभिन्न तरीकों से बार- बार कथन करना पड़ा है। आगे के दोहे में आचार्य योगिन्दु पुनः कहते है कि हमें परमात्मा की खोज करने हेतु बाहर भटकने की आवश्यक्ता नहीं है। हमारी देह के भीतर ही जो अनादि, अनन्त

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?सत्य की आदत - अमृत माँ जिनवाणी से - २०६

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २०६   ?                 "सत्य की आदत"          पूज्य शान्तिसागरजी महराज ने कहा, "बचपन से ही हमारी सत्य का पक्ष लेने की आदत रही है। हमने कभी भी असत्य का पक्ष नहीं लिया। अब तो हम महाव्रती मुनि हैं।         हम अपने भाइयों अथवा कुटुम्बियों का पक्ष लेकर बात नहीं करते थे। सदा न्याय का पक्ष लेते थे, चाहे उसमे हानि हो। इस कारण जब भी लेन देन में वस्तुओं के भाव आदि में झगड़ा पड़ जाता था, तब लोग हमारे कहे अनुसार काम करते थे।         रुद्रप्पा हमारे पास आया

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?अपूर्व तीर्थ भक्ति - अमृत माँ जिनवाणी से - २०५

☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं,         प्रस्तुत प्रसंग में अंतिम पैराग्राफ को अवश्य पढ़ें। उसको पढ़कर आपको दिगम्बर मुनि महराज की चर्या में सूक्ष्मता का अवलोकन होगा तथा ज्ञात होगा कि मुनि महराज के लिए शरीर महत्वपूर्ण नहीं होता, उनके लिए महत्वपूर्ण होता है तो केवल अहिंसा व्रतों का भली भाँति पालन।          अहिंसा व्रतों के भली-भांती पालन हेतु अपने शरीर का भी त्याग कर देते हैं। यह बात पूज्य शान्तिसागरजी महराज के जीवन चरित्र को देखकर अवश्य ही सभी को स्पष्ट हो जायेगी। ?    अमृत माँ जिनवाणी से -

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आत्मा के ध्यान करनेवाले की योग्यता और उसका फल

बन्धुओं किसी धर्मानुरागी को अपभ्रंश में आचार्य वंदना का स्वरूप देखना था इसलिए ब्लाँग के क्रम में कुछ परिवर्तन हो गया । अब आगे हम पुनः अपने विषय पर चलते हैं - आत्मा का लक्षण बताने के बाद आचार्य कहते हैं कि इन उपरोक्त लक्षणों से युक्त आत्मा का ध्यान करनेवाला योग्य अर्थात् उचित पात्र वही है, जिसका मन संसार में फँसानेवाले कर्म बंधनों तथा देह से सम्बन्धित भोगों से हट चुका है। ऐसे व्यक्ति का ध्यान ही सफल ध्यान है और उस ध्यान के फल से ही उसको संसार के दुःखों से मुक्ति मिलती है, उसका संसार में आवागमन का

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अपभ्रंश भाषा में आचार्य वंदना का सुंदर स्वरूप

अपभ्रंष भाषा के कवि स्वयंभू अपनी पउमचरिउ काव्य रचना प्रारम्भ करने से पूर्व आदि देव ऋषभदेव को नमस्कार कर अपने काव्य की सफलता की कामना करते हैं। उसके बाद आचार्यों की वंदना करते हैं - णमह णव-कमल-कोमल-मणहर-वर-वहल-कन्ति-सोहिल्लं। उसहस्स पाय-कमलं स-सुरासर-वन्दियं सिरसा।। दीहर-समास-णालं सद्द-दलं अत्थ-केसरुग्घवियं। बुह-महुयर-पीय रसं सयम्भु-कव्वुप्पलं जयउ।। पहिलउ जयकारेवि परम-मुणि। मुणि-वयणे जाहँ सिद्धन्त-झुणिं। झुणि जाहँ अणिट्ठिय रत्तिदिणु। जिणु हियए ण फिट्टइ एक्कु खणु।। खणु खणु वि जाहँ ण विचलइ मणु। मणु

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