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विचक्षण आत्मा का स्वरूप

आचार्य योगिन्दु मानव-मन के  गूढ़ रहस्यों से भली भाँति अनभिज्ञ हैं, इसीलिए उनको रहस्यवादी कवि तथा इनके परमात्मप्रकाश को रहस्यवादी धारा के काव्य की संज्ञा दी गयी है। सभी जीवों के प्रति इनकी संवेदनात्मक दृष्टि ने ही इनको परमात्मप्रकाश लिखने को प्रेरित किया तथा इस संवेदनात्मक दृष्टि ने ही इनको उन्नत अध्यात्मकारों की श्रेणी में विराजमान किया है। इन्होंने मानव को मूर्छित अवस्था से हटाने के लिए बहुत ही सरल शैली अपनायी है जिससे प्रत्येक इच्छुक व्यक्ति आत्मा का अनुभव कर अपनी इस मूर्छित अवस्था का त्याग कर

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आत्मा के तीन प्रकार का नामोल्लेख तथा मूर्छित आत्मा का स्वरूप

आचार्य योगिन्दु एक शुद्ध कोटि के अध्यात्मकार हैं। वे देह के आश्रित भेदों से प्राणियों के भेद को प्रमुखता नहीं देते। समस्त जगत की मानव जाति को वे आत्म अवस्था की तीन कोटियों में विभाजित कर देखते हैं। उनके अनुसार आत्मा के तीन भेद हैं- मूढ, विचक्षण, परमब्रह्म। शब्दकोश में इनके अर्थ इस प्रकार मिलते हैं -1.  मूढ - मूर्ख, मन्दबुद्धि, जड़, अज्ञानी, नासमझ आदि,। 2. विचक्षण-स्पष्टदर्शी, विद्वान, पण्डित, दक्ष, विशेषज्ञ, कुशल आदि। 3. परमब्रह्म- परमात्मा। ब्रह्मदेव ने मूच्र्छित आत्मा को बहिरात्मा, विचक्षण आत्म

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?शूद्रों पर प्रेमभाव - अमृत माँ जिनवाणी से - १८९

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १८९    ?                  "शुद्रो पर प्रेमभाव"             सातगौड़ा की अस्पृश्य शूद्रों पर बड़ी दया रहती थी। हमारे कुएँ का पानी जब खेत में सीचा जाता था, तब उसमें से  शूद्र लोग यदि पानी लेते थे, तब हम उनको धमकाते थे और पानी लेने से रोकते थे, किन्तु सातगौड़ा को उन पर बड़ी दया आती थी। वे हमें समझाते थे और उन गरीबों को पानी लेने देते थे।             खेतों के काम में उनके समान कुशल आदमी हमने दूर-दूर तक नहीं देखा। खेत में गन्ने बोते समय उनका हल पूर्णतः सीधी ल

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तीन प्रकार की आत्मा को जानने के बाद क्या करना है ?

आचार्य योगीन्दु तीन प्रकार की आत्मा का आगे विस्तार से कथन करने से पूर्व ही भट्टप्रभाकर के माध्यम से हम सबको यह प्रमुख बात बता देना चाहते हैं कि उन तीन प्रकार की आत्मा के विषय में जानकर हमको क्या करना है ? वे कहते हैं कि मैं जो तुम्हारे लिए तीन प्रकार की आत्मा के विषय में कथन करूँगा, उसमें से तुम आत्मा की मूच्र्छित अवस्था को छोड़ देना तथा आत्मा की जो ज्ञानमय परमात्म स्वभाव अवस्था है, उसको तुम अपनी स्वसंवेदनात्मक ज्ञानमय आत्म अवस्था से जानना। इस प्रकार तीन प्रकार के आत्मस्वभाव का कथन कर उसमें से ग्

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?इन्होंने मिथ्यात्व का त्याग कराया - अमृत माँ जिनवाणी से - १८८

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १८८    ?      "इन्होंने मिथ्यात्व का त्याग कराया"           यहाँ पटिलों का प्रभाव सदा रहा है, किन्तु भेद नीति के कारण ब्राह्मणों ने अपना विशेष स्थान बनाया है। लोग मिथ्यादेवों की आराधना करते थे। यहाँ के मारुति के मंदिर जाते थे। लिंगायतों तथा ब्राह्मणों के धर्म गुरुओं की भक्ति-पूजा करते थे। उनका उपदेश सुना करते थे। उनको भेट चढ़ाया करते थे।         इस प्रकार गाढ मिथ्या अंधकार में निमग्न लोगों को सत्पथ में लगाने का समर्थ किसमें था? महराज के उज्ज्वल तथा प

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आत्मा के कथन से गं्रथ का प्रारम्भ

भट्टप्रभाकर के प्रश्न के उत्तर में आचार्य योगिन्दु बिना किसी भूमिका के सीधे सीधे 11वें दोहे से  आत्मा के प्रकार (अप्पा तिविहु कहेवि) के कथन करने की बात से अपने ग्रंथ का शुभारंभ करने की बात करते हैं। वे कहते हैं कि मैं तीन प्रकार की आत्मा का कथन करने के लिए उद्यत हुआ हूँ, तू पंच गुरुओं को भाव पूर्वक चित्त में धारणकर उसे सुन। यही कारण है कि परमात्मप्रकाश के टीकाकार पूज्य ब्रह्मदेव ने इस ग्रंथ को तीन भागों में विभाजित कर इस ग्रंथ के प्रथम भाग को त्रिविधात्माधिकार नाम दिया। 11वें दोहे के माध्यम से अ

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?दयासागर - अमृत माँ जिनवाणी से - १८७

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १८७    ?                      "दयासागर"           सातगौड़ा का दयामय जीवन प्रत्येक के देखने में आता था। दीन-दुखी, पशु-पक्षी आदि पर उनकी करुणा की धारा बहती थी। जहाँ-जहाँ देवी आदि के आगे हजारों बकरे, भैंसे आदि मारे जाते थे, वहाँ अपने प्रभावशाली उपदेश द्वारा जीव बध को ये बंद कराते थे।          इससे लोग इनको "अहिंसावीर" कहते थे। ये दया मूर्ति के साथ ही साथ प्रेम मूर्ति भी थे। इस कारण ये सर्प आदि भीषण जीवों पर भी प्रेम करते थे। उनसे तनिक भी नहीं डरते थे।

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भट्टप्रभाकर की आचार्य योगिन्दु से विनम्र प्रार्थना

पंच परमेष्ठि को नमन करने के बाद भट्टप्रभाकर आचार्य योगिन्दु से चारो गतियों के दुःखों से मुक्त करनेवाले परम आत्मा का कथन करने हेतु निवेदन करता है। इसका आगे के तीन दोहों में निम्न प्रकार से कथन है - 8.     भाविं पणविवि पंच-गुरु सिरि-जोइंदु-जिणाउ।        भट्टपहायरि विण्णविउ विमलु करेविणु भाउ।। अर्थ - (इस प्रकार) अपने भावों को निर्मल करके (तथा) पंच गुरुओं को भावपूर्वक प्रणाम करके भट्टप्रभाकर के द्वारा श्री योगीन्दु मुनिराज से (यह) प्रार्थना की गयी - शब्दार्थ - भाविं-भावपूर्वक, पणविवि-प्रणाम करके, पं

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क्रमशः परमेष्ठि वंदना

परमात्मप्रकाश के विषय में स्पष्ट करने हेतु मैं पुनः दोहरा रही हूँ कि परमात्मप्रकाश के रचियता छठी शताब्दी के आचार्य योगिन्दु अपभ्रंश भाषा के प्रथम अध्यात्म ग्रंथ रचनाकार हैं। इनका मैं ज्यादा गुणगान करना नहीं चाहती और वह इसलिए कि मैं चाहती हूँ कि आप उनका गुणगान करें। जब आप परमात्मप्रकाश ग्रंथ को पूरा समझ लेंगे तो बंधुओं मेरा यह पूरा विश्वास है कि परमात्मप्रकाश के प्रति जो मेरी भावना है एक दिन वहीं भावना आप लोगों की भी होगी, और तभी मैं अपने मकसद में कामयाब हो सकूँगी। मेरा मकसद है कि ‘कबीरवाणी’ की त

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?असाधारण धैर्य - अमृत माँ जिनवाणी से - १८६

☀ आज कार्तिक शुक्ला द्वादशी की शुभ तिथी को १८ वे तीर्थंकर देवादिदेव श्री १००८ अरहनाथ भगवान का ज्ञान कल्याणक पर्व है। ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १८६    ?                 "असाधारण धैर्य"           सातगौड़ा को दुख तथा सुख में समान वृत्ति वाला देखा है। माता पिता की मृत्यु होने पर, हमने उनमें साधारण लोगों की भाँति शोकाकुलता नहीं देखी। उस समय उनके भावों में वैराग्य की वृद्धि दिखाई पड़ती थी।        उनका धैर्य असाधारण था। माता-पिता का समाधिमरण होने से उन्हें संतोष हुआ था। उनके

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भविष्य एवं वर्तमानकालिक सिद्ध परमेष्ठि की वंदना

मंगलाचरण के रूप में परमात्मप्रकाश के प्रथम दोहे में सिद्धालय में विराजमान सिद्ध परमेष्ठि को वंदन करने के बाद दोहा 2 और 3 में भविष्य में होनेवाले एवं वर्तमान में विद्यमान  सिद्ध परमेष्ठि को नमन किया गया है। (परमात्मप्रकाश, दोहा संख्या 2,3)   2.     ते वंदउँ सिरि-सिद्ध-गण होसहिँ जे वि अणंत।        सिवमय-णिरुवम-णाणमय परम-समाहि भजंत।।   अर्थ - . और भी उन मंगलमय, अनुपम, ज्ञानयुक्त, अनन्त श्री सिद्ध समूहों को नमस्कार करता हूँ जो (आगामी काल में) परम समाधि को अनुभव करते हुए (सिद्ध) होंगे। शब्दार्थ - त

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?सबके उपकारी - अमृत माँ जिनवाणी से - १८५

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १८५    ?                 "सबके उपकारी"            सातगौड़ा अकारण बंधु तथा सबके उपकारी थे। उनको धर्म तथा नीति के मार्ग में लगाते थे। वे भोज भूमि के पिता तुल्य प्रतीत होते थे।        उनके साधु बनने पर ऐसा लगा कि नगर के पिता अब हमेशा के लिए नगर को छोड़कर चले गए। उस समय उनकी चर्चा होते ही आँसू आ जाते हैं कि उस जैसी विश्वपूज्य विभूति के ग्राम में हम लोगों का जन्म हुआ है। ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?

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?मुनि भक्ति व निष्पृह जीवन - अमृत माँ जिनवाणी से - १८४

☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,                 आज के प्रसंग के माध्यम से आप पूज्य शान्तिसागरजी महराज की गृहस्थ जीवन से ही अद्भुत  निस्पृहता को जानकर, निश्चित ही सोचेंगे कि यह लक्षण किसी सामान्य आत्मा के नहीं अपितु जन्म-जन्मान्तर से आत्म कल्याण हेतु साधना करने वाली भव्य आत्मा के ही हैं। ?   अमृत माँ जिनवाणी से - १८४    ?             "मुनिभक्ति व निस्प्रह जीवन"      मुनियों पर सातगौड़ा की बड़ी भक्ति रहती थी। एक मुनिराज को वे अपने कंधे पर बैठाकर वेदगंगा तथा दूधगंगा के संगम के पार ले

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सिद्ध वंदना

भट्टप्रभाकर द्वारा ग्रंथ के प्रारम्भिक 5 दोहों में त्रिकालिक सिद्धों की वंदना, 6ठे दोहें में अरिहन्त परमेष्ठि की वंदना, 7वें दोहें में आचार्य, उपाध्याय एवं साधु परमेष्ठि को नमन कर  8-10 दोहें में आचार्य योगिन्दु से परमआत्मा के विषय में कथन करने की प्रार्थना की गई है। यहाँ सि़द्ध परमेष्ठि की वंदना के साथ प्रथम गाथा से ग्रंथ का शुभारंभ किया जा रहा है।  1.     जे जाया झाणग्गियए ँ कम्म-कलंक डहेवि।       णिच्च-णिरंजण-णाण-मय ते परमप्प णवेवि।। अर्थ - जो ध्यानरूपी अग्नि से कर्मरूपी दोषों को जलाकर, नित्य

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कुछ अंश छूट जाने के कारण क्रमशः

मोक्ष अधिकार समाप्त हुआ है। मोक्ष अधिकार के अन्तिम 107दोहे में ब्रह्मदेव ने अपनी टीका में लिखा है के इस तरह मोक्षमार्ग, मोक्ष फल और मोक्ष इन तीनों को कहनेवाले दूसरे महाधिकार में चार अन्तरस्थलों का इकतालीस दोहों का महास्थल समाप्त हुआ।  3. महाधिकार तीसरे महाधिकार के प्रारम्भिक एक सौ आठवें दोहे में ब्रह्मदेव ने लिखा है कि आगे ‘पर जाणंतु वि’ एक सौ सात दोहा पर्यन्त तीसरा महाधिकार कहते हैं और उसी में ग्रंथ को समाप्त करते हैं। यहाँ ब्रह्मदेव ने पूर्व के दो अधिकारों के समान तीसरे अधिकार का नाम नहीं दिया

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आचार्य योगिन्दु कृत परमात्मप्रकाश

प्रिय पाठकगण, आज से हम एक ऐसे ग्रंथराज को अपने ब्लाँग का विषय बना रहे हैं जो अपने आप में अद्वितीय ग्रंथ है। यह ग्रंथ आपको आत्मा से परमात्मा तक की यात्रा बहुत ही रोचक एवं सहजरूप से करायेगा, ऐसा मेरा पूरा विश्वास है। इस ग्रंथ में कुल तीनसौ पैतालीस दोहे हैं। प्रारंभिक मंगलाचरण के बाद हम प्रतिदिन एक दोहे को अपने ब्लाँग का विषय बनायेंगे। आप परमात्मप्रकाश ग्रंथ का आनन्द लेने के साथ साथ अपभ्रंश भाषा का भी ज्ञान प्राप्त कर सकें, ऐसा मेरा प्रयास यहाँ रहेगा। ग्रंथ की विषयवस्तु प्रारंभ करने से पूर्व आज हम

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?अश्व परीक्षा आदि में पारंगत - अमृत माँ जिनवाणी से - १८३

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १८३  ?          "अश्व परीक्षा आदि में पारंगत"        वे अश्व परीक्षा में प्रथम कोटि के थे। वे अपनी निपुणता किसी को बताते नहीं थे, केवल गुणदोष का ज्ञान रखते थे।        वे घर के गाय बैल आदि को खूब खिलाते थे और लोगों को कहते थे कि इनको खिलाने में कभी भी कमी नहीं करना चाहिए। आज उनके सुविकसित जीवन में जो गुण दिखते हैं, वे बाल्यकाल में बट के बीज के समान विद्यमान थे। बचपन में वे माता के साथ प्रतिदिन मंदिर जाया करते थे।             ?आत्मध्यान की रु

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?मधुर तथा संयत जीवन - अमृत माँ जिनवाणी से - १८२

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १८२    ?             "मधुर तथा संयत जीवन"            बाल्य अवस्था में सातगौड़ा का गरीब-अमीर सभी बालकों पर समान प्रेम रहता था। साथ के बालकों के साथ कभी भी लड़ाई झगड़ा नहीं होता था। उन्होंने कभी भी किसी से झगड़ा नहीं किया। उनके मुख से कभी कठोर वचन नहीं निकले। बाल्य-काल से ही वे शांति के सागर थे, मितभाषी थे।           उनकी खान-पान में बालकों के समान स्वछन्द वृत्ति नहीं थी। जो मिलता उसे वे शांत भाव से खा लिया करते थे। बाल्यकाल में बहुत घी दूध खाते थे। पाव,

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रामकाव्य का उपसंहार

अब तक हमने जैन रामकथा के प्रमुख पात्रों के जीवन-कथन के माध्यम से रामकथा को समझने का प्रयास किया। पुनः इन रामकथा के पात्रों पर गहराई से विचार करे तो हम देखते हैं कि जैन रामकथाकारों का उद्देश्य रामकथा के माध्यम से जैनधर्म व जैन सिद्धान्तों की पुष्टि करना रहा है। जैनदर्शन के सभी अध्यात्मकारों ने संसार के प्राणियों के दुःख के मूल में राग को स्वीकार किया है। राग के ही इतर नाम है,  आसक्ति, ममत्व, मुर्छा आदि। राग की चर्चा प्रायः सभी दर्शनकारों ने की है, चाहे वह पुराणकाव्य हो, या मुक्तक काव्य, कथाकाव्य,

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?वीतराग प्रवृत्ति - अमृत माँ जिनवाणी से - १८१

☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,          प्रस्तुत प्रसंग में पूज्यश्री का गृहस्थ जीवन से ही अद्भुत वैराग्य दृष्टिगोचर होगा। वर्तमान में हम सभी को नजदीक में मुनियों का पावन सानिध्य भी संभव हो जाता है लेकिन सातदौड़ा का साधुओं की अत्यंत अल्पता के साथ यह वैराग्य भाव उनकी महान भवितव्यता का स्पष्ट परीचायक हैं। ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १८१    ?                  "वीतराग-प्रवृत्ति"              पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज प्रारम्भ से ही वीतराग प्रवृत्ति वाले थे। घर में बहन की शाद

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?येलगुल में जन्म - अमृत माँ जिनवाणी से - १८०

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १८०    ?                "येलगुल में जन्म-१"            पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के जन्म के बारे में पूज्य वर्धमानसागर जी महराज ने बताया था कि भोजग्राम से लगभग तीन मील की दूरी पर येलगुल ग्राम है। वहाँ हमारे नाना रहते थे। उनके यहाँ ही महराज का जन्म हुआ था। महराज के जन्म की वार्ता ज्ञात होते ही सबको बड़ा आनंद हुआ था।         ज्योतिष से जन्मपत्री बनवाई गई। उसने बताया था कि यह बालक अत्यंत धार्मिक होगा। जगतभर में प्रतिष्ठा प्राप्त करेगा तथा संस

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?लोकस्मृति -१ - अमृत माँ जिनवाणी से - १७९

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १७९    ?                    "लोकस्मृति-१"         पूज्य शान्तिसागरजी महराज के गृहस्थ जीवन के बड़े भाई जो उस समय वर्धमानसागर के रूप में थे ने बताया, "हमारे माता-पिता महान धार्मिक थे। धार्मिक पुत्र सातगौड़ा अर्थात महराज पर उनकी विशेष अपार प्रीति थी। महराज जब छोटे शिशु थे, तब सभी लोगों का उन पर बड़ा स्नेह था। वे उनको हाँथो-हाथ लिए रहते थे। वे घर में रह ही नहीं पाते थे।        मैंने पूंछा, "स्वामिन् संसार के उद्धार करने वाले महापुरुष जब माता के गर्भ में आ

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?लोकस्मृति - अमृत माँ जिनवाणी से - १७८

☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,             अब आपके सम्मुख "चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ" के लोकस्मृति नामक अध्याय से सामग्री प्रस्तुत की जा रही है। पूज्य शान्तिसागरजी महराज के गृहस्थ जीवन की विभिन्न बातों के बारे में लेखक को जानकारी प्राप्त होना अत्यन्त कठिन कार्य था।        इस और आगे के प्रसंगों मे आपको यही जानकारी प्राप्त होगी की लेखक ने पूज्य शान्तिसागरजी महाराज के जीवन की विभिन्न जानकारियाँ कैसे जुटाई व वह जानकारियाँ क्या थीं। ?    अमृत माँ जिनवाणी से -  १७८    ?                    

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