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शरीर के प्रति भय से मुक्त होने का मार्ग

आचार्य योगिन्दु मानव के सभी भयों को मानव की देह से सम्बन्धित ही मानते हैं। वे स्पष्ट कहते हैं कि  देह से सम्बन्धित दुःखों का विनाश ही मानव के सभी दुःखों का विनाश होना है। आगे वे देह के दुःखों से मुक्ति का मार्ग बताते हुए कहते हैं कि देह से सम्बन्धित दुःख होने पर देह से आसक्ति का त्याग कर निरन्तर आत्मा का ध्यान करने से ही देह के दुःखों से पार हुआ जा सकता है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 72.  छिज्जउ भिज्जउ जाउ खउ जोइय एहु सरीरु।      अप्पा भावहि णिम्मलउ जिं पावहि भव-तीरु।। अर्थ -हे

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पिछले ब्लाॅग की अशुद्धि का शुद्धिकरण

क्षमा करें, पिछले ब्लाॅग में कुछ व्यस्तता के कारण दोहे के शब्दार्थ में गलती हो गयी। 71वें दोहे के शब्दार्थ के स्थान पर 72 वें दोहे के शब्दार्थ दे दिये गये। अतः पुनः शुद्धि के साथ उसी दोहे को दोहराया जा रहा है।      शरीर के प्रति अभय विषयक कथन इस संसार के प्रत्येक प्राणी को जितना दुःख है वह शरीर से सम्बन्धित ही है। जिस समय व्यक्ति का मरण होता है उस समय आत्मा के अभाव में देह की समस्त क्रियाओं का निरोध होने से व्यक्ति के देह से सम्बन्धित सभी दुःख समाप्त हो जाते हैं। इसीलिए आचार्य योगिन्द

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?राजधर्म पर प्रकाश - अमृत माँ जिनवाणी से - २५७

☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं,         आज के प्रसंग में पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज का उस समय का उद्बोधन है जब वह सांगली होते हुए शिखरजी को ओर विहार कर रहे थे। प्रवचन में राजधर्म पर प्रकाश डाला गया। आप सोच सकते है कि वर्तमान में उस तरह की परिस्थितियाँ नहीं हैं इसलिए इन बातों की प्रासंगिकता नहीं है। लेकिन मैं सोचता हूँ कि देश में इन सभी बातों का अनुपालन बहुत आवश्यक है। भले ही परिस्थियाँ अलग तरह की हों लेकिन देश हर नागरिक, समाज और राष्ट के हित के लिए जो  बातें अतिआवश्यक है वह अतिआवश्यक ही र

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शरीर के प्रति अभय विषयक कथन

इस संसार के प्रत्येक प्राणी को जितना दुःख है वह शरीर से सम्बन्धित ही है। जिस समय व्यक्ति का मरण होता है उस समय आत्मा के अभाव में देह की समस्त क्रियाओं का निरोध होने से व्यक्ति के देह से सम्बन्धित सभी दुःख समाप्त हो जाते हैं। इसीलिए आचार्य योगिन्दु शरीर से अधिक आत्मा के महत्व का कथन कर प्रत्येक जीव को शरीर के प्रति अभय प्रदान करते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -  72.    छिज्जउ भिज्जउ जाउ खउ जोइय एहु सरीरु ।       अप्पा भावहि णिम्मलउ जिं पावहि भव-तीरु ।। अर्थ -  हे जीव! देह के बु

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?सांगली - अमृत माँ जिनवाणी से - २५६

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २५६   ?                      "सांगली"            अब संघ सांगली रियासत में आ गया। मार्गशीर्ष बदी सप्तमी को सांगली राज्य के अधिपति श्रीमंत राजा साहब, महराज के दर्शनार्थ पधारे, इन्होंने अवर्णनीय आनंद प्राप्त किया। आचार्य महराज के सच्चे धर्म का स्वरूप बताते हुए राजधर्म पर प्रकाश डाला।          सच्चे क्षत्रिय को यह जानकर बड़ा हर्ष होता है कि जैन धर्म का प्रकाश फैलाने का श्रेय जिन तीर्थंकर को था वे क्षत्रिय कुलावतंस ही थे। अहिंसा के ध्वज को सम्हालने वाले क

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?मूलगुण-उत्तरगुण समाधान - अमृत माँ जिनवाणी से - २५५

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २५५   ?          "मूलगुण-उत्तरगुण समाधान"           सन् १९४७ में पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज का चातुर्मास सोलापूर में था। वहाँ वे चार मास से अधिक रहे, तब तर्कशास्त्रियों को आचार्यश्री की वृत्ति में आगम के आगम के अपलाप का खतरा नजर आया, अतः आगम के प्रमाणों का स्वपक्ष पोषण संग्रह प्रकाशित किया गया। उसे देखकर मैंने सोलापुर के दशलक्षण पर्व में महराज से उपरोक्त विषय की चर्चा की।              उत्तर में महराज ने कहा - "हम सरीखे वृद्ध मुनियों के एक स

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देह व आत्मा में भेद

आत्मा के लक्षण बताकर आचार्य योगिन्दु देह से उसका भेद बताते हुए कहते हैं कि आत्मा का जिसके साथ सम्बन्ध नहीं है शरीर का उसके साथ पूरा सम्बन्ध है। आत्मा के जन्म, बुढ़ापा और मरण, रोग, लिंग वर्ण तथा एक भी संज्ञा नहीं है, किन्तु देह के जन्म, बुढापा, मरण, अनेक प्रकार के रंग रोग, और अनेक प्रकार के लिंग होते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -  70.   देहहँ उब्भउ जर-मरणु  देहहँ  वण्णु  विचित्तु ।                              देहहँ रोय वियाणि तुहुं देहहँ लिंगु विचित्तु ।। अर्थ -  देह क

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देह व आत्मा में भेद

आत्मा के लक्षण बताकर आचार्य योगिन्दु देह से उसका भेद बताते हुए कहते हैं कि आत्मा का जिसके साथ सम्बन्ध नहीं है शरीर का उसके साथ पूरा सम्बन्ध है। आत्मा के जन्म, बुढ़ापा और मरण, रोग, लिंग वर्ण तथा एक भी संज्ञा नहीं है, किन्तु देह के जन्म, बुढापा, मरण, अनेक प्रकार के रंग रोग, और अनेक प्रकार के लिंग होते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -  70.   देहहँ उब्भउ जर-मरणु  देहहँ  वण्णु  विचित्तु ।                              देहहँ रोय वियाणि तुहुं देहहँ लिंगु विचित्तु ।। अर्थ -  देह क

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?महराज की आगमसम्मत प्रवृत्ति - अमृत माँ जिनवाणी से - २५४

☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं,         आज के इस प्रसंग से बहुत गंभीर चर्चा सामने आती है। आज भी कुछ श्रावक करणानुयोग, द्रव्यानुयोग आदि के ग्रंथों का अध्यन कर लेने के बाद चारित्र शून्य होते हुए भी निर्मल चारित्र के धारण साधु परमेष्ठीयों की आलोचना का कार्य करते हैं।           कल के प्रसंग में अजैन लोगों का पूज्य मुनिसंघ के प्रति कथन देखा था कि जन्म जन्मान्तर के पुण्य के फलस्वरूप ही दिगम्बर मुनियों के दर्शन वंदन का सानिध्य मिलता है।           कुछ लोगों के तीव्र अशुभ कर्मों का उदय होता है कि

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?अपूर्व आनंद तथा शुभोपयोग प्रवृत्ति - अमृत माँ जिनवाणी से - २५३

☀ जय जिनेन्द्र भाइयों,            परमपूज्य चारित्र चक्रवर्ती शांतिसागरजी महराज  का सन् १९२७ में शिखरजी के लिए विहार का वर्णन किया जा रहा है। यदि आप इन प्रसंगों को रुचि पूर्वक पूर्ण रूप से पढ़ते है तो पूज्यश्री के प्रति श्रद्धा भाव के कारण आपको उनके संघ के साथ शिखरजी यात्रा में चलने का सुखद अनुभव होगा। ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २५३   ?    "अपूर्व आनंद तथा शुभोपयोग प्रवृत्ति"               संघ में रहने वाले कहते थे, ऐसा आनंद, ऐसी सात्विक शांति, ऐसी भावों की विशुध्दता जीव

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?संघ का उत्तरापथ की ओर प्रस्थान - अमृत माँ जिनवाणी से - २५२

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २५२   ?    "संघ का उत्तरापथ की ओर प्रस्थान"      पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के शिखरजी की ओर ससंघ विहार के वर्णन के क्रम में आगे-      अब "ओम नमः सिद्धेभ्यः" कह सन १९२७ की मार्गशीर्ष कृष्ण प्रतिपदा को प्रभु का स्मरण कर चतुर्विध संघ सम्मेदाचल पारसनाथ हिल की वंदनार्थ रवाना हो गया। अभी लक्ष्यगत स्थल को पहुंचने में कुछ देर है, यात्रा भी पैदल है, किन्तु पवित्र पर्वतराज की मनोमूर्ति महराज के समक्ष सदा विद्यमान रहती थी कारण दृष्टि उस ओर थी। संकल्प

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?संघ का उत्तरापथ की ओर प्रस्थान - अमृत माँ जिनवाणी से - २५१

☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं,         पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज की ससंघ शिखरजी यात्रा का वर्णन चल रहा है। पूज्यश्री के जीवन से संबंधित हर एक बात निश्चित ही हम सभी भक्तों को आनंद से भर देती है।           आप सोच सकते हैं कि पूज्यश्री के जीवन चारित्र को जानने में संघस्थ सभी व्रती श्रावकों के उल्लेख की क्या आवश्यकता? इस संबंध में मेरा सोचना है कि ऐसे श्रावक जो पूज्यश्री के साथ में चले तथा उनकी द्वारा संयम ग्रहण कर मोक्षमार्ग मार्ग पर आगे बढे उनके बारे में भी जानना अपने आप में हर्ष का

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?संघ विहार(शिखरजी यात्रा) - अमृत माँ जिनवाणी से - २५०

☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं,       कल से पूज्य शान्तिसागरजी महराज के जीवन चरित्र को जानने के क्रम में एक नया अध्याय प्रारम्भ हो चुका है। मैं शिखरजी की यात्रा को एक नया अध्याय इसलिए मानता हूँ क्योंकि यही से इन सदी के प्रथम आचार्य के मंगल चरण उत्तर भारत में पड़कर वहाँ के लोगों को धर्मामृत का पान कराने वाले थे।           यह वर्णन उस समय पूज्यश्री ने जो ससंघ वंदना हेतु यात्रा की थी उसका उल्लेख है, आप यह सोच सकते हैं कि उससे हमारा क्या संबंध। यहाँ मेरे मानना है कि इस प्रसंगों के माध्यम से पूज्यश

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कर्म के बिना आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है (भारतीय संस्कृति का कर्म सिद्धान्त)

आत्मा का कर्म के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध बताने के बाद आचार्य योगिन्दु आगे कहते हैं कि कर्म के बिना आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है। कर्म के अभाव में आत्मा की अस्तित्वहीनता के विषय में कहा है कि आत्मा आत्मा ही है उसका कर्म को छोड़कर अन्य के साथ किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीें है। कर्म के आश्रय के अभाव में आत्मा न उत्पन्न होता है, न मरता है, न बंध को प्राप्त होता है, न मुक्ति को प्राप्त होता है और ना ही उसके जन्म, बुढापा, मरण, रोग, लिंग, वर्ण आदि कोई एक भी संज्ञा होती है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहे - 67

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?शिखरजी यात्रा की विज्ञप्ति - अमृत माँ जिनवाणी से - २४९

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २४९   ?          "शिखरजी बिहार की विज्ञप्ति"             सम्पूर्ण बातों का विचार कर ही पूज्य शान्तिसागरजी महराज ने शिखरजी की ओर संघ के साथ विहार की स्वीकृति दी थी। यह समाचार कार्तिक कृष्ण प्रतिपदा वीर संवत २४५३, सन १९२७ के दिन विज्ञप्ति रूप इन शब्दों में प्रकाश में आया:   ?संघ विहार (शिखरजी की यात्रा)?          "सम्पूर्ण दिगम्बर जैन समाज को सुनाते हुए आनंद होता है कि हम कार्तिक के आष्टनिहका पर्व के समाप्त होते ही मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्

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दुःःख और सुख का कत्र्ता मात्र कर्म ही है

आज हम 3 गाथाओं में कर्म की महत्ता का कथन करते है। आचार्य योगिन्दु कहते हैं जीवों का बहुत प्रकार का दुःख और सुख, बन्ध और मोक्ष भी कर्म ही करता है तथा तीनों लोकों में भी कर्म ही आत्मा को भ्रमण कराता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे की 3 गाथाएँ -  64.   दुक्खु वि सुक्खु वि बहु-विहउ जीवहँ कम्मु जणेइ ।      अप्पा   देक्खइ   मुणइ पर  णिच्छउ  एउँ भणेइ।।64।। अर्थ - जीवों का बहुत प्रकार का दुःख और सुख कर्म ही उत्पन्न करता है। आत्मा मात्र देेखता और जानता है, इस प्रकार निश्चय (नय) कहता है।

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?शिखरजी की वंदना का विचार - अमृत माँ जिनवाणी से - २४८

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २४८   ?            "शिखरजी वंदना का विचार"           सन् १९२७ में कुम्भोज बाहुबली में चातुर्मास के उपरांत  बम्बई के धर्मात्मा तथा उदीयमान पुण्यशाली सेठ पूनमचंद घासीलालजी जबेरी के मन में आचार्यश्री शान्तिसागर महराज के संघ को पूर्ण वैभव के साथ सम्मेदशिखरजी की वंदनार्थ ले जाने की मंगल भावना उत्पन्न हुई।          उन्होंने गुरुचरणों में प्रार्थना की। आचार्यश्री ने संघ को शिखरजी जाने की स्वीकृति प्रदान कर दी। वैसे पहले भी महराज की सेवा में शिखरजी चलने की

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?गुरु प्रभावशाली व्यक्तित्व - अमृत माँ जिनवाणी से - २४७

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २४७   ?             "गुरु प्रभावशाली व्यक्तित्व"             मुनिश्री आदिसागरजी महराज ने पूज्य शान्तिसागरजी महराज के गुरु के बारे में बताया कि "देवप्पा स्वामी का ब्रम्हचर्य बड़ा उज्ज्वल था। वे सिद्धिसम्पन्न सत्पुरुष थे। मैंने गोकाक में उनकी गौरवगाथा सुनी थी। उनकी प्रमाणिकता का निश्चय भी किया था।               वे गोकाक से कोंनुर जा रहे थे। वहाँ की भीषण पहाड़ी पर ही सूर्यास्त हो गया। उनके साथ एक उपाध्याय था। उसे कुग्गुड़ी पंडित कहते थे। स्वामी ने एक चक्क

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?उपयोगी उपदेश - अमृत माँ जिनवाणी से - २४६

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २४६   ?                  "उपयोगी उपदेश"                पूज्य शान्तिसागरजी महराज ने सन १९२५ में श्रवणबेलगोला की यात्रा की थी। उस यात्रा से लौटते समय आचार्य संघ दावणगिरि में ठहरा था। बहुत से अन्य धर्मी गुरुभक्त महराज के पास रस, दूध, मलाई आदि भेंट लेकर पहुँचे। रात्रि का समय था।          चंद्रसागरजी ने लोगों से कहा कि महराज रात्रि को कुछ नहीं लेते हैं। वे लोग बोले- "महराज गुरु हैं। जो भक्तों की इच्छा पूर्ण नहीं करते, वे गुरु कैसे?" महराज तो मौन थे। वे भ

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?मुनिश्री आदिसागर द्वारा संस्मरण - अमृत माँ जिनवाणी से - २४५

☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं,             आज के प्रसंग से पूज्य शान्तिसागरजी महराज के एक प्रसंग के माध्यम से भारत वसुधरा में विराजमान सभी साधु परमेष्ठीयों के जीवन में लगातार चलने वाले धोर तपश्चरण के एक बहुत सूक्ष्म अंश का अवलोकन करने का अवसर मिलता है।          दूसरी बात हम इस तरह से सोच सकते है कि हमारे बीच से कोई सामान्य श्रावक ही आत्मबोध और जीवन के महत्व को समझकर इस तरह सुख के  रास्ते पर आगे बढ़ता है। हम भी इसी तरह इंद्रिय सुखों की इच्छाओं को धीरे-२ कम करके अपने जीवन को सार्थक बना सकते हैं

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कर्मों की सर्वस्वता

आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि इस जगत में कर्मों की ही वर्चस्वता है। हमारी समस्त इन्द्रियाँ, हमारा मन, हमारे समस्त विभाव, चारों गति में जन्म लेकर दुःख -सुख भोगना ये सब अपने शरा किये गये कर्मों के ही परिणाम हंै। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -   63.   पंच वि इंदिय अण्णु मणु अण्णु वि सयल-विभाव।     जीवहँ कम्मइँ जणिय जिय अण्णु वि चउगइ-ताव।। 63।।   अर्थ - हे जीव! पाँचों ही इन्द्रियाँ और मन, और भी समस्त विभाव और दूसरा चार गति का दुःख (ये सब) जीवों के कर्म से उत्पन्न किये गये हैं।

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?साधु विरोधी आंदोलन के संबंध में - अमृत माँ जिनवाणी से - २४४

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २४४   ?       "साधु विरोधी आंदोलन के संबंध में"               एक दिन पूज्य शान्तिसागरजी महराज के योग्य शिष्य पूज्य वर्धमान सागरजी कहने लगे- "आजकल साधु के चरित्र पर पत्रों में चर्चा चला करती है। उनके विद्यमान अथवा अविद्यमान दोषों का विवरण छपता है। इस विषय में उचित यह है कि अखबारों में यह चर्चा न चले, ऐसा करने से अन्य साधुओं का भी अहित हो जाता है।               मार्ग-च्युत साधु के विषय में समाज में विचार चले, किन्तु पत्रों में यह बात न छपे। इससे सन्मार्ग के

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कर्म की परिभाषा

बन्धुओं, जैसा कि आपको बताया जा चुका है कि आचार्य योगिन्दु का समय ई 6ठी शताब्दी है। मैं आपको इस ग्रंथ के बारे में विश्वास दिलाती हूँ कि जब आप इस ग्रंथ का मनोयोगपूर्वक अध्ययन कर लेंगे तब आप इस संसार के वैचारिक द्वन्द से आक्रान्त होने से आसानी से बच जायेंगे। आपका अपने कार्य के प्रति लिया गया निर्णय सही होगा। इससे आप अपने जीवन के आनन्द का मधुर रस पान कर सकेंगे। मैं आपको कर्म की परिभाषा से पूर्व इस ग्रंथ के विषय में पुनः बता दूं कि यह ग्रंथ मुख्यरूप से तीन भागों में विभक्त है। 1. त्रिविध आत्मा अधिकार

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