क्रमशः
अगले दोहे में आचार्य परम आत्मा का आत्मा से सम्बन्ध बताते हैं कि जब व्यक्ति इन्द्रिय सुख-दुःखों से तथा मन के संकल्प-विकल्पों से परे हो जाता है, तब ही उसके देह में बसती हुई आत्मा शुद्ध अर्थात परम आत्मा में परिवर्तित हो जाती है। तब सिद्धालय में स्थित और स्व देह में स्थित शुद्धात्मा में कोई भेद नहीं रह जाता। आचार्य के अनुसार बस यही बात समझने योग्य है। इसी को उन्होंने अपने दोहे में कहा है-
28. जित्थु ण इंदिय-सुह-दुहइँ जित्थु ण मण-वावारु ।
सो अप्पा मुणि जीव तुहुँ अण्णु परिं अवहारु ।।
अर्थ - जहाँ इन्द्रिय सुख-दुःख नहीं हैं, जहाँ (संकल्प-विकल्परूप ) मन का व्यापार नहीं है, वह (परम) आत्मा है। हे जीव! तू (इस बात को) समझ और दूसरी (बात) को पूरी तरह से छोड़।
शब्दार्थ - जित्थु-जहाँ, ण-नहीं, इंदिय-सुह-दुहइं- इन्द्रिय सुख-दुख, जित्थु - जहाँ, ण-नहीं, मण-वावारु- मन का व्यापार, सो-उसको, अप्पा-आत्मा मुणि- समझ, जीव-हे जीव!, तुहुं - तू, अण्णु-दूसरी, परिं-पूरी तरह से, अवहारु-छोड़।
नोट- इस दोहे में ‘सो’ प्रथमा विभक्ति का वह अर्थ में रूप है, किन्तु आर्ष प्राकृत में प्रथमा विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग बहुलता से मिलता है। अतः यहाँ वह के स्थान पर उसको अर्थ किया गया है।
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