?अपार तेजपुंज १ - अमृत माँ जिनवाणी से - १९७
? अमृत माँ जिनवाणी से - १९७ ?
"अपार तेज पुंज-१"
पिछले प्रसंग में भट्टारक जिनसेन स्वामी द्वारा पूज्य शांतिसागरजी महराज के बारे में वर्णन को हम जान रहे थे। उन्होंने आगे बताया-
पूज्य शान्तिसागरजी महराज की अलौकिक मुद्रा के दर्शन से मुझे कितना आनंद हुआ, कितनी शांति मिली और कितना आत्म प्रकाश मिला उसका में वर्णन करने में असमर्थ हूँ।
इन मनस्वी नर रत्न के आज दर्शन की जब भी मधुर स्मृति जग जाती है, तब मैं आनंद विभोर हो जाता हूँ। उनका तपस्वी जीवन चित्त को चकित करता था। उस समय वे एक दिन के अंतराल से एक बार केवल दूध चावल लिया करते थे।
वे सदा आत्म-चिंतन, शास्त्र-स्वाध्याय तथा तत्वोपदेश में संलग्न पाये जाते थे। लोककथा, भोजनकथा, राष्ट्रकथा, आदि से वे अलिप्त रहते थे। उनके उपदेश से आत्मा का पोषण होता था।
उनका विषय प्रतिपादन इतना सरस और स्पष्ट होता था कि छोटे-बड़े, सभी के ह्रदय में उनकी बात जम जाती थी। उनके दिव्य जीवन को देखकर मैंने उनको अपना आराध्य गुरु मान लिया था। मैं उनके अनुशासन तथा आदेश में रहना अपना परम सौभाग्य मानता हूँ। मेरे ऊपर उनकी बड़ी दयादृष्टि थी।
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
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