?अपार तेजपुंज २ - अमृत माँ जिनवाणी से - १९८
? अमृत माँ जिनवाणी से - १९८ ?
"अपार तेजपुंज-२"
भट्टारक जिनसेन स्वामी ने बताया कि एक धार्मिक संस्था के मुख्य पीठाधीश होने के कारण मेरे समक्ष अनेक बार भीषण जटिल समस्याएँ उपस्थित हो जाया करती थीं। उन समस्याओं में गुरुराज शान्तिसागरजी महराज स्वप्न में दर्शन दे मुझे प्रकाश प्रदान करते थे। उनके मार्गदर्शन से मेरा कंटकाकीर्ण पथ सर्वथा सुगम बना है।
अनेक बार स्वप्न में दर्शन देकर उन्होंने मुझे श्रेष्ठ संयम पथ पर प्रवृत्त होने को प्रेरणा पूर्ण उपदेश दिया। मेरे जीवन का ऐसा दिन अब तक नहीं बीता है, जिस दिन उन साधुराज का मंगल स्मरण नहीं आया हो। उनकी पावन स्मृति मेरे जीवन की पवित्र निधि हो गई है।
उस पावन स्मृति से बड़ी शांति व अवर्णनीय आह्लाद प्राप्त होता है। उस समय मठ की संपत्ति तथा उसकी आय के उपयोग के विषय में उनसे प्रश्न किया, तब महराज ने कहा कि धार्मिक संपत्ति का लौकिक कार्यों में व्यय करना दुर्गति तथा पाप का कारण है।
मेरे मार्ग में विघ्नों की राशि सदा आई, किन्तु गुरुदेव के आदेशानुसार प्रवृत्ति करने से मेरा काम शांतिपूर्ण होता रहा। शास्त्र संरक्षण में उनका विश्वास था कि इस कलिकाल में भगवान की वाणी के संरक्षण द्वारा ही जीव का हित होगा, इसीलिए वे शास्त्र संरक्षण के विषय में विशेष ध्यान देते थे।
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
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