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JainSamaj.World
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क्रमशः


Sneh Jain

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अभी इससे पूर्व के ब्लाँग में हमने अपभ्रंश भाषा के प्रमुख अध्यात्मकार आचार्य योगिन्दु कृत परमात्मप्रकाश में रचित परम आत्मा के स्वरूप से सम्बन्धित दोहों को अर्थ सहित देखा। अब हम इस ब्लाँग में उन ही दोहों का शब्दार्थ के द्वारा अध्ययन करेंगे -

15.   अप्पा-आत्मा, लद्धउ-प्राप्त किया गया है, णाणमउ- ज्ञानमय, कम्म-विमुक्कें- कर्म बंधन से रहित हुए, जेण-जिसके द्वारा, मेल्लिवि-छोड़कर, सयलु- समस्त, वि-ही, दव्वु-द्रव्य, परु-पर, सो-वह, परु-सर्वोच्च, मुणहि-समझो, मणेण-अन्तःकरण से।

16. तिहुयण-वंदिउ-    तीन लोक के द्वारा वंदना किये गये, सिद्धि-गउ-   सिद्धि को प्राप्त, हरि-हरहरि हर, झायहिं-ध्यान करते हैं,जो- जो, जि-इस प्रकार, लक्खु-लक्ष्य को, अलक्खें-अदृश्य में, धरिवि-रखकर, थिरु-स्थिर, मुणि- समझ, परमप्पउ- परम आत्मा, सो-वह, जि-ही।

17. णिच्चु-नित्य, णिरंजणु-निरंजन, णाणमउज्ञान-मय, परमाणंद-सहाव  - परमआनन्द स्वभाव, जो-जो, एहउ-ऐसी, सो-वह, संतु-शान्त, सिउ-मंगलमय, तासु- उसके, मुणिज्जहि-समझ, भाउ-स्वभाव को।

18. जो-जो, णिय-भाउ - निज स्वभाव को, - , परिहरइ-छोड़ता है, जो-जो, पर-भाउपर स्वभाव को, - , लेइ-ग्रहण करता है, जाणइ-जानता है, सयलु-सयल को, वि-ही, णिच्चु-निरंतर, पर-किन्तु, सो-वह, सिउ-मंगल, संतु-शांत, हवेइ-होता है।

19. जासु-जिसका, -, वण्णु-रंग, -, गंधु-गंध, रसु-रस,, जासु-जिसका, -नहीं, सद्दु-शब्द, -, फासु-स्पर्श, जासु-जिसका, -, जम्मणु-जन्म, मरणु-मरण, णवि-,ही, णाउ-नाम, णिरंजणु-निरंजन, तासु-उसका।

20. जासु-जिसके, -, कोहु-क्रोध, -, मोहु-मोह, मउ-मद, जासु-जिसके, -, माय-माया, -, माणु-मान, जासु-जिसके लिए, -, ठाणु-स्थान, - , झाणु-ध्यान, जिय-हे जीव!, सो-वह, जि-ही, णिरंजणु-निरंजन, जाणु-समझ।

21. अत्थि-है, -, पुण्णु-पुण्य, -, पाउ-पाप, जसु-जिसके, अत्थि-है, -, हरिसु-हर्ष, विसाउ-शोक, अत्थि-है, -, एक्कु-एक, वि-भी, दोसु-दोष, जसु-जिसके, सो-वह, जि-ही, णिरंजणु-निरंजन, भाउ-अवस्था।

22. जासु-जिसके लिए, -नहीं, धारणु-अवलम्बन, धेउ-ध्येय, -, वि-ही, जासु-जिसके लिए, -, जंतु-यन्त्र, -, मंतु-मन्त्र, जासु-जिसके लिए, -, मंडलु-आसन, मुद्द-चिन्ह, -, वि-ही, सो-वह, मुणि-समझ, देउ-परमेश्वर, अणंत-शाश्वत।

23. वेयहिं-वेदों के द्वारा, सत्थहिं-जैन शास्त्रों के द्वारा, इंदियहिं- इन्द्रियों के द्वारा, जो-जो, जिय-हे जीव!, मुणहु-बोध के लिए, -नहीं, जाइ-समर्थ होती, णिम्मल-झाणहं-निर्मल ध्यान का, जो-जो, विसउ-विषय, सो-वह, परमप्पु-परम आत्मा, अणाइ-शाश्वत।

24. केवल-दंसण-णाणमउ- केवल दर्शन और केवल ज्ञानमय, केवल-सुक्ख-सहाउ- केवल सुख स्वभाव, केवल-वीरिउ- अनुपम शक्ति, सो- वह, मुणहि- समझ, जो-जो, जि-ही, परावरु- अत्यन्त उत्तम, भाउ-अवस्था।

25. एयहिं- इन सब, जुत्तउ- युक्त, लक्खणहिं-लक्षणों से, जो-जो, परु-परम, णिक्कलु-निःशरीर, देउ- परमेश्वर, सो-वह, तहिं-उसी, णिवसइ-रहता है, परम-पइ- सर्वोच्च स्थान पर, जो-जो, तइलोयहँ-, तीन लोक का, झेउ- ध्येय।

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