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JainSamaj.World
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सभी आत्माएँ मूल में समान हैं


Sneh Jain

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आचार्य योगिन्दु मानव मन के विशेषज्ञ हैं। वे जितना स्वयं तथा पर के मन को समझते हैं उतना ही वे प्रत्येक मानव को कि वह स्वयं पर के मन को समझ सके, यह समझाने की योग्यता रखते हैं। परमात्मप्रकाश में यह बात हम निरन्तर देखते हैं। वे प्रत्येक बात को हर पक्ष के साथ दोहराते हैं ताकि विविध आयामों के साथ मूल तथ्य स्पष्ट हो सके। आगे के दोहे में वे आत्मा और परमात्मा के सम्बन्ध होने की पुष्टि जीव-अजीव में भेद होने किन्तु शुद्ध आत्मा संसारी आत्मा के मूल रूप में समानता होने से करते हैं। वे स्पष्ट कहते हैं कि जीव अजीव अर्थात् देह आत्मा में भेद है, किन्तु सभी आत्माएँ मूल रूप में समान हैं। देखिये परमात्मप्रकाश का आगे का दोहा -

 

30.   जीवाजीव एक्कु करि लक्खण-भेएँ भेउ

      जो परु सो परु भणमि मुणि अप्पा अप्पु अभेउ ।।

अर्थ - (तू) जीव और अजीव को एक मत कर। (इन दोनों में) लक्षण के भेद से (पूर्ण) भेद (है) जो (अपने से) भिन्न (रागादिभाव) है, वह भिन्न (ही) है तथा (शुद्ध) आत्मा (और) (संसारी) आत्मा (मूल में) समान (है), (ऐसा) मैं कहता हूँ , तू समझ।

शब्दार्थ - जीवाजीव- जीव और अजीव को, -मत, एक्कु-एक, करि-कर, लक्खण-लक्षण के, भेएं-भेद से, भेउ- भेद, जो-जो, परु-भिन्न, सो-वह, परु-भिन्न, भणमि-कहता हूँ, मुणि-समझ, अप्पा-आत्मा, अप्पु-आत्मा, अभेउ-समान।

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