Jump to content
फॉलो करें Whatsapp चैनल : बैल आईकॉन भी दबाएँ ×
JainSamaj.World

Blogs

Featured Entries

?असाधारण व्यक्तित्व - अमृत माँ जिनवाणी से - १३५

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १३५    ?              "असाधारण व्यक्तित्व"              पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज का व्यक्तित्व असाधारण रहा है। सारा विश्व खोजने पर भी वे अलौकिक ही लगेंगे। ऐसी महान विभूति के अनुभवों के अनुसार प्रवृत्ति करने वालों को कभी भी कष्ट नहीं हो सकता।         एक दिन महाराज ने कहा था- हम इंद्रियों का तो निग्रह कर चुके हैं। हमारा ४० वर्ष का अनुभव है। सभी इंद्रियाँ हमारे मन के आधीन हो गई हैं। वे हम पर हुक्म नहीं चलाती हैं।"          उन्होंने कह

Abhishek Jain

Abhishek Jain

वानरवंशियों में एक ही राजा ‘बालि’ विशिष्ट क्यो ?

रामकथाके माध्यम से हम अब तक इक्ष्वाकु, विद्याधर, वानर व राक्षसवंश से परिचित हो चुके हैं। उसमें हमने देखा कि सभी वानरवशी राजा पहले राक्षसवंश के साथ थे तथा दोनों में परष्पर मैत्री सम्बन्ध रहा है किन्तु  रावण द्वारा सीता का हरण किये बाद वानरवंश इक्ष्वाकुवंशी राम के साथ हो गया। अब हमें यह देखना है कि इन वानरवंशियों में मात्र एक राजा था जिसकी रावण से शत्रुता हुई वह राजा था बालि। सब के साथ रहकर भी अकेला बालि किस प्रकार स्वबोध में पूर्णता को प्राप्त था, यह हम देखते है पउमचरिउ में वर्णित बालि के जीवन कथ

Sneh Jain

Sneh Jain

?विनोद में भी संयम की प्रेरणा -२ - अमृत माँ जिनवाणी से - १३४

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १३४    ?           "विनोद में संयम की प्रेरणा -२"             आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज की प्रत्येक चेष्ठा संयम को प्रेरणा प्रदान करती थी। उनको विनोद में भी आत्मा को प्रकाश दायिनी सामग्री मिला करती थी।                   २८ अगस्त ५५ को क्षुल्लक सिध्दसागर की दीक्षा हुई थी। नवीन क्षुल्लक जी ने महाराज के चरणों में आकर प्रणाम किया और महाराज से क्षमायाचना की।      महाराज बोले- "भरमा ! तुमको तब क्षमा करेंगे, जब तुम निर्ग्रन्थ दीक्षा लोगे।"

Abhishek Jain

Abhishek Jain

जागरूकता सफलता प्राप्ति की एक आवश्यक सीढी है

हम पुनः वंदन करते हंै, आचार्य रविषेण, आचार्य विमलसूरि, कवि स्वयंभू, तुलसीदास आदि अन्य सभी रामकाव्यकारों को जिन्होंने राम काव्य की रचना कर मानव के कल्याण हेतु मार्ग प्रदर्शित किया। आगे हम रामकाव्य के जाम्बवन्त पात्र का कथन करते हैं, जिसने राम को सीता की प्राप्ति में सहयोग दिया। काव्य के प्रारम्भिक काण्डों में जाम्बवन्त के सम्बन्ध में कोई उल्लेख नहीं मिलता। मात्र 67वीं संधि के 14वें कडवक में सुग्रीव द्वारा की गई व्यूह रचना में जाम्बवन्त का उल्लेख इस प्रकार मिलता है- जो बुद्धि में सबसे बड़ा था और जि

Sneh Jain

Sneh Jain

?सप्त तत्व निरूपण का रहस्य - अमृत माँ जिनवाणी से - १३३

☀सात तत्वों की थोड़ी भी जानकारी रखने वाले श्रावक इस प्रसंग को पढ़कर बहुत ही आनंद का अनुभव करेंगे। ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १३३    ?           "सप्ततत्व निरूपण का रहस्य"           एक बार आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज से प्रश्न पूंछा गया- "भेद विज्ञान हो तो सम्यक्त्व है; अतः आत्मतत्व का विवेचन करना आचार्यों का कर्तव्य था, परंतु अजीव, आश्रव बन्धादि का विवेचन क्यों किया जाता है?          उत्तर- "रेत की राशि में किसी का मोती गिर गया। वह रेत के प्रत्येक कण को देखते फिरता है।

Abhishek Jain

Abhishek Jain

समर्पण कब, कहाँ और कैसे ? सीखे श्री हनुमानजी के जीवन से

मैं’ अहंकार की प्रबलता का द्योतक है, अहंकार जीवन के पतन का कारण है, समर्पण अहंकार के पतन का कारण है तथा अहंकार व समर्पण रहित जीवन निर्विकल्प शान्ति का कारण है। भरत चक्रवर्ती अहंकार के कारण चक्रवर्ती होकर भी अपने ही भाई बाहुबलि से पराजित हुए तथा उस भाई के आगे ही समर्पित होकर निर्विकल्प शान्ति प्राप्त की। बाहुबलि ने भरत के आगे समर्पण नहीं कर अपने ही भाई से युद्ध किया उसके बाद संसार सुखों को तुच्छ समझकर उनके प्रति समर्पित हो प्रव्रज्या ग्रहण कर निर्विकल्प शान्ति की प्राप्ति की। हनुमान ने अपने आपको

Sneh Jain

Sneh Jain

?मृत्यु से युद्ध की तैयारी - अमृत माँ जिनवाणी से - १३२

☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,       अभी तक पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज की सल्लेखना के प्रसंगों का वर्णन चल रहा था। शांति के इन सागर की गुणगाथा जितनी भी गाई जाए उतनी कम है। अब हम उनके जीवन चरित्र के अन्य ज्ञात विशेष प्रसंगों के जानेंगे।      आज का प्रसंग बहुत महत्वपूर्ण है, इस प्रसंग को जानकर आपका मानस निर्ग्रन्थ साधु की सूक्ष्म अहिंसा पालन की भावना को जानकर उनके प्रति भक्ति की भावना के साथ अत्यंत आनंद का अनुभव करेगा। ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १३२    ?              "मृत्य

Abhishek Jain

Abhishek Jain

?देव पर्याय की कथा - अमृत माँ जिनवाणी से - १३१

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १३१    ?                "देव पर्याय की कथा"              लेखक पंडित सुमेरचंदजी दिवाकर ने पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर के उत्कृष्ट सल्लेखना के उपरांत स्वर्गारोहण के पश्चात् अपनी कल्पना के आधार पर उनके स्वर्ग की अवस्था का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया हैं-           औदारिक शरीर परित्याग के अन्तर्मुहूर्त के भीतर ही उनका वैक्रियिक शरीर परिपूर्ण हो गया और वे उपपाद शैय्या से उठ गए। उस समय उन्होंने विचार किया होगा कि यह आनंद और वैभव की सामग्री कहाँ से आ गई? 

Abhishek Jain

Abhishek Jain

भट्टारक जिनसेन स्वामी का स्वप्न - अमृत माँ जिनवाणी से - १३०

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १३०    ?        "भट्टारक जिनसेन स्वामी का स्वप्न"                 कोल्हापुर के भट्टारक जिनसेनजी को ७ जुलाई १९५३ में स्वप्न आया था कि आचार्य शान्तिसागर जी महाराज तीसरे भव में तीर्थंकर होंगे। भट्टारक महाराज की बात को सुनकर आचार्य महाराज ने भी कहा कि: "१२ वर्ष पूर्व हमे भी ऐसा स्वप्न आया था कि तुम पुष्करार्ध द्वीप में तीर्थंकर पद धारण करोगे।"          कभी-कभी अयोग्य, अपात्र, प्रमादी, विषयाशक्त व्यक्ति भी स्वयं तीर्थंकर होने की कल्पना कर बैठते हैं, किन

Abhishek Jain

Abhishek Jain

शिष्यों को संदेश - अमृत माँ जिनवाणी से - १२९

?   अमृत माँ जिनवाणी से - १२९  ?                "शिष्यों को सन्देश"                 स्वर्गयात्रा के पूर्व आचार्यश्री ने अपने प्रमुख शिष्यों को यह सन्देश भेजा था, कि हमारे जाने पर शोक मत करना और आर्तध्यान नहीं करना।        आचार्य महाराज का यह अमर सन्देश हमे निर्वाण प्राप्ति के पूर्व तक का कर्तव्य-पथ बता गया है। उन्होंने समाज के लिए जो हितकारी बात कही थी वह प्रत्येक भव में काम की वस्तु है।                 ?अनुमान?               पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज

Abhishek Jain

Abhishek Jain

(चारित्रवानों के संगठन से ही बुराईयों का विनाश सम्भव) राम को सीता की प्राप्ति में नल-नील, अंग-अंगद का सहयोग

आगम के अनुसार पुण्य से सुख की प्राप्ति तथा पाप से दुःख की प्राप्ति निश्चित है। इसका सीधा सा मतलब है जो क्रिया स्वयं को तथा दूसरे को सुख दे वह क्रिया पुण्य देने वाली है किन्तु इसके विपरीत जो क्रिया स्वयं के साथ दूसरे के लिए भी दुखदायी हो वह क्रिया पाप देनेवाली है। आगम में पाँच पाप (हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह) तथा चार कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ) को जो मानव का अहित करनेवाली है उनको अशुभ क्रिया के अन्तर्गत रखा गया है और क्षमा, विनय, सहजता, सत्य, निर्मल, संयम, तप, त्याग, सीमित परिग्रह, शीलव्रत

Sneh Jain

Sneh Jain

जीवन की उज्ज्वल घटनाओं की स्मृति - अमृत माँ जिनवाणी से - १२८

?  अमृत माँ जिनवाणी से - १२८  ?   "जीवन की उज्जवल घटनाओं की स्मृति"            आचार्यश्री के शरीर के संस्कार के उपरांत धीरे-धीरे पर्वत से नीचे आए, रात्रि को लगभग ८ बजे पर्वत पर हम पुनः पहुँचे। तपोग्नि से पुनीत देह को घेरे भौतिक अग्नि वेग से जल रही थी। हम वहीं लगभग ३ घंटे बैठे। उठने का मन ही नहीं होता था।            आचार्यश्री के जीवन की पुण्य घटनाओं तथा सत्संगों की बार-बार याद आती थी, कि इस वर्ष का (सन् १९५५ ) का पर्युषण पर्व इन महामानव के समीप वीताने का मौका ही न आया। अग्नि

Abhishek Jain

Abhishek Jain

वानरवंशी सुग्रीव का राम को सहयोग

हम सर्वप्रथम वंदन करते हैं, हमारे धर्माचार्यों एवं साधु सन्तो को, उसके बाद पुनः वंदन करते हैं ज्ञान के धनी विद्वानों को। धर्माचार्यों एवं विद्वानों ने ही निरन्तर साधना से ज्ञान अर्जित कर उस ज्ञान को सबके लिए समर्पित कर दिया। आज हम उस ज्ञान से किंचित मात्र भी कुछ ग्रहण कर सके हैं तो यह उनकी साधना का ही फल है। जैन रामकथा लिखने का श्रेय भी धर्माचार्यों व विद्वान को ही जाता है। प्राकृतभाषा में पउमचरियं की रचना आचार्य विमलसूरि द्वारा, संस्कृतभाषा में पद्मपुराण की रचना आचार्य रविषेण द्वारा तथा अपभ्रंश

Sneh Jain

Sneh Jain

चरणों में प्रणामांजलि - अमृत माँ जिनवाणी से - १२७

?   अमृत माँ जिनवाणी से - १२७   ?                "चरणों में प्रणामांजलि"                  विमानस्थित आचार्य परमेष्ठी के द्रव्य मंगल रूप शरीर के पास पहुँच चरणों को स्पर्श कर मैंने प्रणाम किया। चरण की लम्बी गज रेखा स्पष्ट दृष्टिगोचर हुई। मुझे अन्य लोगों के साथ विमान को कन्धा देने का प्रथम अवसर मिला।    ?ॐ सिद्धाय नमः की उच्च ध्वनि?            धर्म सूर्य के अस्तंगत होने से व्यथित भव्य समुदाय ॐ सिद्धाय नमः, ॐ सिद्धाय नमः का उच्च स्वर में उच्चारण करता हुआ विमान के साथ बढ़त

Abhishek Jain

Abhishek Jain

वानरवंशियों का रावण को छोड़कर राम को सहयोग क्यो ?

आगम में धर्म दो प्रकार का बताया गया है- 1 गृहस्थ धर्म  2. मुनि धर्म। गृहस्थ धर्म का उद्भव युवक -युवती का विवाह सूत्र में बंधकर पति-पत्नि का सम्बन्ध जुडने से प्रारम्भ होता है। इसीलिए विवाह को एक पवित्र व धार्मिक संस्कार की संज्ञा दी है। जबकि मुनि धर्म अंगीकार करने में युवती का कोई स्थान नहीं वहाँ मोक्षरूा लक्ष्मी की ही चाह रहती है। गृहस्थ धर्मं का भली भाँति निर्वाह पति-पत्नि दोनों के चारित्र पर निर्भर है। दोनों का चारित्र एक दूसरे की सुरक्षा, एक दूसरे को सद्मार्ग में चलने पर सहयोग करने पर ही फलता

Sneh Jain

Sneh Jain

निधि लुट गई - अमृत माँ जिनवाणी से - १२६

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १२६    ?                    "निधि लुट गई"                  समाधिमरण की सफल साधना से बड़ी जीवन में कोई निधि नहीं है। उस परीक्षा में पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज प्रथम श्रेणी में प्रथम आए, इस विचार से तो मन में संतोष होना था, किन्तु उस समय मन विहल हो गया था। जीवन से अधिक पूज्य और मान्य धर्म की निधि लूट गई, इस ममतावश नेत्रों से अश्रुधारा बह रही थी।           उनके पद्मासन शरीर को पर्वत के उन्नत स्थल पर विराजमान कर सब लोगों को दर्शन कराया गया। उस

Abhishek Jain

Abhishek Jain

जीवन में सफलता प्राप्ति के लिए सहयोग आवश्यक

पूर्व में विद्याधरकाण्ड के blog  में विभिन्न वंशों के उद्भव के विषय में विस्तारपूर्वक विवेचना की गयी थी। वहाँ हमने देखा कि इक्ष्वाकुवंश का सम्बन्ध अयोध्या से तथा वानरवंश का सम्बन्ध किष्किंधनगर से एवं राक्षसवंश का सम्बन्ध लंका से रहा है। राम अयोध्या से चलकर किष्किंधनगर होते हुए लंका पहुँचे हैं। अतः हम इन तीनों वंशों के पात्रों के जीवन चरित्र से अयोध्या - उत्तर भारत, किष्किंधनगर- मध्य भारत तथा लंका - दक्षिण भारत की सभ्यता एवं संस्कृति के विषय में भी कुछ जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। चारित्र कथन में

Sneh Jain

Sneh Jain

स्वर्गारोहण की रात्रि का वर्णन - अमृत माँ जिनवाणी से - १२५

?   अमृत माँ जिनवाणी से - १२५  ?         "स्वर्गारोहण की रात्रि का वर्णन"                          आचार्य महाराज का स्वर्गारोहण भादों सुदी दूज को सल्लेखना ग्रहण के ३६ वें दिन प्रभात में ६ बजकर ५० मिनिट पर हुआ था।                  उस दिन वैधराज महाराज की कुटि में रात्रि भर रहे थे। उन्होंने महाराज के विषय में बताया था कि- "दो बजे रात को हमने जब महाराज की नाडी देखी, तो नाड़ी की गति बिगड़ी हुई अनियमित थी। तीन, चार ठोके के बाद रूकती थी, फिर चलती थी। हाथ-पैर ठन्डे हो रहे थे। रुधिर का

Abhishek Jain

Abhishek Jain

विशल्या: संयम व तप का फल

यहाँ विशल्या के पूर्वभव तथा वर्तमान भव के जीवन से संयम व तप के फल के महत्व को बताया गया है। यहाँ विशल्या के दोनों भवों के आधार पर हम यह देखेंगे कि संयम व तप का फल किस प्रकार मिलता है तथा संयम रहित जीवन क्या फल देता है ?  विशल्या अपने पूर्वभव में पुंडरीकिणी नगर के चक्रवर्ती राजा आनन्द की अनंगसरा नामक कन्या थी। अति सुन्दर होने के कारण वह पुर्णवसु विद्याधर के द्वारा हरण कर ले जाई गयी और मार्ग में वह पर्णलध्वी विद्या के सहारे हिंसक जानवरों से युक्त भयानक श्वापद नामक अटवी में उतर गयी। वहाँ उसने संयमप

Sneh Jain

Sneh Jain

आचार्यश्री का स्वर्ग प्रयाण - अमृत माँ जिनवाणी से - १२४

?   अमृत माँ जिनवाणी से - १२४  ?         ?आचार्यश्री का स्वर्ग प्रयाण?             आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के सल्लेखनारत अब तक ३५ दिन निकल गए थे, रात्री भी व्यतीत हो गई। नभोमंडल में सूर्य का आगमन हुआ। घडी में ६ बजकर ५० मिनिट हुए थे जब चारित्र चक्रवर्ती साधु शिरोमणी पूज्य क्षपकराज आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने स्वर्ग को प्रयाण किया।            वह दिन रविवार था। अमृतसिद्धि योग था। १८ सितम्बर भादों सुदी द्वितीया का दिन था। उस समय हस्त नक्षत्र था।           ?ध

Abhishek Jain

Abhishek Jain

राम और सीता के जीवन में प्रवृत्ति और निवृत्ति का स्वरूप

मनुष्य का सारा जीवन प्रवृत्ति और निवृत्ति का ही खेल है और यही कारण है कि सभी धर्म ग्रंथों में भी प्र्रवृत्ति और निवृत्ति का ही कथन है। राम और सीता के जीवन में निवृत्ति का स्वरूप कैसा था इसको समझने से पहले संक्षेप में प्रवृत्ति और निवृत्ति का अर्थ समझना आवश्यक है। प्रवृत्ति - ज्ञाता के पाने या छोड़ने की इच्छा सहित चेष्टा का नाम प्रवृत्ति है।  छोडने की इच्छा से प्रवृत्ति में भी निवृत्ति का अंश देखा जाता है। निवृत्ति - बहिरंग विषय कषाय आदि रूप अभिलाषा को प्राप्त चित्त का त्याग करना निवृत्ति है। अर्थ

Sneh Jain

Sneh Jain

सल्लेखना का ३५ वां दिन - अमृत माँ जिनवाणी से - १२३

?   अमृत माँ जिनवाणी से - १२३   ?           "सल्लेखना का ३५ वाँ दिन"                  युग के अनुसार हीन सहनन को धारण करने वाले किसी मनुष्य का यह निर्मलता पूर्वक स्वीकृत समाधिमरण युग-२ तक अद्वितीय माना जायेगा।            आचार्य महाराज का मन तो सिद्ध भगवान के चरणों का विशेष रूप से अनुगामी था। वह सिद्धालय में जाकर अनंतसिद्धों के साथ अपने स्वरुप में निमग्न होता था।            आचार्य महाराज के समीप अखंड शांति थी। जो संभवतः उन शांति के सागर की मानसिक स्थिति का अनुशरण करती थी।

Abhishek Jain

Abhishek Jain

परलोक यात्रा के पूर्व - अमृत माँ जिनवाणी से - १२२

?   अमृत माँ जिनवाणी से - १२२  ?                "परलोक यात्रा के पूर्व"                  आज का प्रसंग पिछले प्रसंग के आगे का ही कथन है। उससे जोड़कर ही आगे पढ़ें।                मुझे (लेखक को) आशा नहीं थी कि अब पर्वत पर गुरुदेव के पास पहुँचने का सौभाग्य मिलेगा। मै तो किसी-किसी भाई से कहता था, "गुरुदेव तो ह्रदय में विराजमान हैं, वे सदा विराजमान रहेंगे। उनके भौतिक शरीर के दर्शन न हुए, तो क्या? मेरे मनोमंदिर में तो उनके चरण सदा विद्यमान  हैं। उनका दर्शन तो सर्वदा हुआ ही करेगा।"

Abhishek Jain

Abhishek Jain

×
×
  • Create New...