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?दयाधर्म का महान प्रचार - अमृत माँ जिनवाणी से - १९५


Abhishek Jain

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?    अमृत माँ जिनवाणी से - १९५    ?


             "दयाधर्म का महान प्रचार"

      
        मार्ग में हजारों लोग आकर इन मुनिनाथ पूज्य शान्तिसागरजी महराज को प्रणाम करते थे, इनने उन लोगों को मांस, मदिरा का त्याग कराया है। शिकार न करने का नियम दिया है। इनकी तपोमय वाणी से अगणित लोगों ने दया धर्म के पथ में प्रवृत्ति की थी।

         ?आध्यात्मिक आकर्षण?


          क्षुल्लक सुमतिसागरजी फलटण वाले सम्पन्न तथा लोकविज्ञ व्यक्ति थे।उन्होंने बताया- आचार्य महराज का आकर्षण अद्भुत था। इसी से उनके पास से घर आने पर चित्त उनके पुनःदर्शन को तत्काल लालायित हो जाता है। मैं सत समागम का अधिक लाभ लिया करता था।

        उन्होंने बताया कि उनका व्रतों की ओर विशेष ध्यान नहीं था। एक दिन की बात है कि अकलूज आदि स्थानों की बात करते करते, अचानक मेरे मुख से यह बात निकल की यदि अतिशय क्षेत्र दहीगाव में पंचकल्याणक महोत्सव होगा, तो मैं क्षुल्लक दीक्षा ले लूँगा।

         मेरे शब्द आचार्य महराज के कर्ण गोचर हो गए। उन्होंने मेरे अंतःकरण को समझ लिया। उसके पश्चात अकलूज का चातुर्मास हुआ। वहाँ उनके मर्मस्पर्शी उपदेश सुन सुनकर मेरी आत्मा में वैराग्य का भाव जग गए। हमने दीक्षा लेने का निश्चय किया। दहीगाँव का पंचकल्याणक हो चुका था। सर्वव्यवस्था करने के उपरांत हमने नान्दरे में क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की।

         यह मेरा पक्का अनुभव है कि आचार्य महराज के चरणों में निवास करने से जो शांति प्राप्त होती है, वह अन्यत्र नहीं मिलती है। पहले मेरे स्नेही लोग विनोद तथा उपहास करते हुए कहा करते थे कि मैं क्या दीक्षा लूँगा? किन्तु आचार्य महराज की वीतराग वाणी ने मेरे मोह ज्वर को दूर करके मेरी आत्मा का उद्धार कर दिया। उनके निमित्त से हम कृतार्थ हो गए।


?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?
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