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परम आत्मा का आत्मा से सम्बन्ध


Sneh Jain

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बन्धुओं ! एक बार पुनः मैं तीनों प्रकार की आत्मा के स्वरूप को संक्षिप्त में आपके समक्ष रख देना चाहती हूँ जिससे हम परमात्मप्रकाश के आगे के विषय को अच्छी तरह से समझ सकें। आत्मा का मूर्छित स्वरूप वह है जिसमें देह को ही आत्मा जाना जाता है। आत्मा का जागृत स्वरूप वह है जिसमें देह और आत्मा की भिन्नता का बोध होने के पश्चात् परम एकाग्र ध्यान में स्थित होकर परम आत्मा का अनुभव किया जाता है। आत्मा का श्रेष्ठ (परमात्म) स्वरूप वह है, जो कर्म बंधनों पर द्रव्यों से रहित है, रंग, गंध, रस, शब्द, स्पर्श, जन्म, मरण, क्रोध, मोह, मद, माया, मान, स्थान, ध्यान, ध्येय, यंत्र, मंत्र, मुद्रा, पुण्य, पाप, हर्ष, शोक आदि सभी दोषों से रहित होने के कारण निरंजन स्वरूप है। आत्मा का वह श्रेष्ठ स्वरूप, अपने स्वभाव को नहीं छोड़ने तथा पर स्वभाव को ग्रहण नहीं करने के कारण शान्त स्वरूप है, तथा केवलदर्शन, केवलज्ञान, केवल सुख स्वभाव, अनुपम शक्ति सहित है।

परमात्म प्रकाश के आगे के दोहों में बताया गया है कि उपरोक्त परम आत्मा के स्परूप से आत्मा का क्या सम्बन्ध है ? इसमें बताया गया है कि जो तेरे शरीर में स्थित शुद्ध आत्मा है वही शुद्ध स्वरूप आत्मा तो सिद्धालय में स्थित है, उन दोनों के शुद्ध स्वरूप में कोई भेद नहीं है। भेद तो मात्र कर्मों से बंधी कर्म बंधन से रहित शुद्ध आत्मा का है। शरीर की शुद्ध आत्मा ही अन्त में सिद्धालय में जाकर स्थित होती है।

 

26  जेहउ णिम्मलु णाणमउ सिद्धिहि णिवसइ देउ

    तेहउ णिवसइ बंभु परु देहहं मं करि भेउ  ।।

 

अर्थ - जैसी निर्मल, ज्ञानमय परम-आत्मा सिद्धशिला (मोक्ष) में रहती है, वैसी ही परम- आत्मा (विभिन्न) देहों में रहती है, तू (इसमें) भेद मत कर।

शब्दार्थ - जेहउ-जैसी, णिम्मलु-निर्मल, णाणमउ-ज्ञानमय, सिद्धिंिहं-मोक्ष में, णिवसइ-रहती है, देउ- परम आत्मा, तेहउ-वैसी ही, णिवसइ- रहती है, बंभु- आत्मा, परु-परम, देहहं-देहों में, मं-मत, करि-कर, भेउ-भेद।

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