परम आत्मा का स्वरूप
बन्धुओं, आत्मा की मूर्छित अवस्था एवं जागृत अवस्था के लक्षण से संक्षिप्त में अवगत करवाने के बाद आचार्य योगिन्दु हमें परमआत्मा के स्वरूप का विस्तार से कथन कर रहे हैं। पुनः मैं आपको एक बार आत्मा के 3 प्रकार को दोहरा देती हूँ। 1. मूर्छित आत्मा (बहिरात्मा)- जो देह को ही आत्मा मानता है। 2.जागृत आत्मा - यहाँ सण्णाणें शब्द ध्यान देने योग्य है। इसमें संवेदना एवं ज्ञान (विवेक) दोनों का समावेश है, जो हितकारी उत्कृष्ट ज्ञान की और संकेत करता है। आगे परम आत्मा के लक्षण के साथ परमआत्मा के स्वरूप पर प्रकाश डाला है। यहाँ पर आपका यह प्रश्न हो सकता है कि आचार्यश्री ने मूर्छित एवं जागृत आत्म अवस्था का तो बहुत संक्षेप में उल्लेख किया किन्तु परम आत्मा का एक साथ विस्तार क्यों ?
बन्धुओं, यही तो इनकी विचक्षणता है। इन्होंने हमको सर्वप्रथम मूर्छित एवं जागृत आत्मस्वभाव से परिचय करवाया तभी तो हम परम आत्मा को समझने लायक बन सकेंगे। आगे परमात्मप्रकाश में परमात्म अवस्था का 15-25, 11 दोहों में कथन किया गया है। इन दोहों के माध्यम से जब हम परमात्मस्वरूप से अवगत होंगे उसके बाद आत्मा व परमात्मा के सम्बन्ध की चर्चा होगी। उसके बाद मूछ्र्रित व जागृत अवस्था का परम आत्मा के समान विस्तार से कथन होगा। इतना सुंदर विवेचन मैंने भी पहली बार ही देखा है और जिसे आपके समक्ष प्रस्तुत करने का साहस किया है। देखते हैं आगे दोहे संख्या 15-25 दोहों में परम आत्मा का स्वरूप। आज के बलाँग में हम परम आत्मा से सम्बन्धित 15-25 मात्र दोहों का ही आनन्द लेंगे और परमात्मा के स्वरूप को समझकर अनुभव करने का प्रयास करेंगे। । अगले ब्लाँग में हम परमात्मा से सम्बन्धित दोहे को प्रत्येक शब्द के अर्थ के अनुसार देखेंगे।
15. अप्पा लद्धउ णाणमउ कम्म-विमुक्के ँ जेण।
मेल्लिवि सयलु वि दव्वु परु सो परु मुणहि मणेण।।
16. तिहुयण-वंदिउ सिद्धि-गउ हरि-हर झायहिँ जो जि।
लक्खु अलक्खे ँ धरिवि थिरु मुणि परमप्पउ सो जि।।
17. णिच्चु णिरंजणु णाणमउ परमाणंद-सहाउ।
जो एहउ सो संतु सिउ तासु मुणिज्जहि भाउ।।
18.. जो णिय-भाउ ण परिहरइ जो पर-भाउ ण लेइ।
जाणइ सयलु वि णिच्चु पर सो सिउ संतु हवेइ।।
.19. जासु ण वण्णु ण गंधु रसु जासु ण सद्दुु ण फासु ।
जासु ण जम्मणु मरणु णवि णाउ णिरंजणु तासु ।।
20. जासु ण कोहु ण मोहु मउ जासु ण माय ण माणु ।
जासु ण ठाणु ण झाणु जिय सो जि णिरंजणु जाणु ।।
21. अत्थि ण पुण्णु ण पाउ जसु अत्थि ण हरिसु विसाउ ।
अत्थि ण एक्कु वि दोसु जसु सो जि णिरंजणु भाउ ।।
22. जासु ण धारणु धेउ ण वि जासु ण जंतु ण मंतु ।
जासु ण मंडलु मुद्द ण वि सो मुणि देउँ अणंतु ।।
23. वेयहि ँ सत्थहि ँ इंदियहिं ँ जो जिय मुणहु ण जाइ ।
णिम्मल-झाणहँ जो विसउ सो परमप्पु अणाइ ।।
24 केवल-दंसण -णाणमउ केवल-सुक्ख सहाउ ।
केवल-वीरिउ सो मुणहि जो जि परावरु भाउ।।
25 एयहि ँ जुत्तउ लक्खणहिँ जो परु णिक्कलु देउ ।
सो तहिंँ णिवसइ परम-पइ जो तइलोयहँ झेउ।।
हिन्दी अनुवाद -
15. कर्म बन्धन से रहित हुए जिसके द्वारा समस्त पर द्रव्य को छोड़कर, ज्ञानमय आत्मा प्राप्त किया गया है, वह ही परम-आत्मा (सर्वोच्च) है। (यह) अन्तःकरण से समझ।
16. जो तीन लोक के द्वारा वन्दित हैं, मुक्ति को प्राप्त हैं (और) हरि, हर (आदि भी) (उस) अदृश्य में अपने लक्ष्य को स्थिर रखकर (उसका) ध्यान करते हैं, वह ही परम-आत्मा है, (ऐसा तू ) समझ ।
17. नित्य,निर´्जन, ज्ञानमय व परम आनन्द स्वभावमय ऐसी जो (आत्मा) है,ै, वह शान्त और मङ्गलमय है, तू उस (परम आत्मा ) के इस स्वभाव को समझ ।
18. जो (आत्मा) न निज स्वभाव को छोड़ता है, ,जो न पर स्वभाव को ग्रहण करता है, किन्तु सबको निरन्तर जानता है, वह ही मङ्गल तथा शान्त (स्वरूप) होता है।
19. जिस (आत्मा)का न (कोई) रंग है न गन्ध (और) रस है, जिसका न (कोई) शब्द है, न स्पर्श है (तथा) जिसका न जन्म और न ही मरण है, उस (आत्मा) का नाम निर´्जन है।
20. जिस (आत्मा) के न क्रोध (है) न मोह (और) मद (है) जिसके न माया न मान है, जिसके लिए न (कोई) स्थान (देश) और न ध्यान (आवश्यक) है, हे जीव! वह ही (आत्मा का ) निर´्जन (स्वरूप है), ( ऐसा तू) समझ।
21. जिस (आत्मा) के न पुण्य है, न पाप है, जिसके न हर्ष (और) न विषाद है (तथा) जिसके एक भी दोष नहीं है, वह ही (आत्मा की ) निर´्जन अवस्था है।
22. जिसके लिए (ध्यान हेतु) न अवलम्बन (और) न ही (कोई) ध्येय (आवश्यक) है, जिसके लिए न (कोई) यंत्र (और) न मन्त्र (आवश्यक) है (तथा) जिसके लिए न (कोई) आसन, न ही (किसी तरह का) (कोई) चिन्ह (आवश्यक) है, वह शाश्वत परमेश्वर है, (ऐसा) (तू) समझ।
23. जो आत्मा, वेदों के द्वारा, जैन शास्त्रों के द्वारा तथा इन्द्रियों के द्वारा बोध के लिए समर्थ नहीं होती और जो निर्मल ध्यान का विषय है, वह ही शाश्वत परम- आत्मा है।
24 जो केवल दर्शन और केवलज्ञानमय, शुद्ध सुख स्वभाव (तथा) अनुपम शक्ति (सहित) है, वह ही अत्यन्त उत्तम (सर्वोच्च) अवस्था है, (ऐसा) (तू) समझ ।
25. इन सब लक्षणों से युक्त जो निःशरीर परम परमेश्वर (है) वह उसी सर्वोच्च स्थान पर (परम पद पर) रहता है जो तीन लोक का ध्येय है।
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