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कर्म विषयक कथन

आचार्य योगिन्दु कर्म के विषय में स्पष्ट करते हैं किन्तु वे उन कर्मों की नाम सहित व्याख्या नहीं करते, क्योंकि उनके अपने जैन सम्प्रदाय में प्रत्येक धर्म ग्रंथ में इसका उल्लेख होने से प्रायः सभी इससे परिचित हैं। वे कर्म के विषय में कहते हैं कि कर्म से आच्छादित हुआ जीव अपने मूल आत्म स्वभाव को प्राप्त नहीं करता है। वैसे ये आठ कर्म हैं - ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, अन्तराय। ज्ञान का आवरण होने से प्राणी ज्ञान के सही स्वरूप से अवगत नहीं होता, दर्शन का आवरण होने से वस्तु के स

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सभी जीवों का प्राण कर्म

भारतीय संस्कृति अध्यात्म प्रधान संस्कृति है। भारत देश में विद्यमान सभी धर्मों के धर्माचार्यों ने सभी जीवों का प्राण कर्म को ही अंगीकार किया है। गीता, महाभारत, रामायण, समयसार, आचारंग बाइबिल, कुरान कोई भी ग्रंथ किसी भी धर्माचार्य द्वारा विरचित हो सभी कर्म को प्रमुखता देते हैं। कर्म को प्रमुखता देकर उसको अंगीकार करनेवाला कोई भी प्राणी धर्मान्धता को मान्यता नहीं देता। वह किसी भी भी झूठे चमत्कार में विश्वास नहीं करता, अपितु धर्मान्धों के चमत्कार में भी वह सच्चाई को ढूंढ निकालता है। किसी भी धर्माचार्य

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?अपूर्व केशलोंच - अमृत माँ जिनवाणी से - २४२

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २४२   ?                   "अपूर्व केशलोंच"              ग्रंथ के लेखक दिवाकरजी ने पूज्य शान्तिसागरजी महराज के गृहस्थ जीवन के भाई, उस समय के मुनिश्री वर्धमान सागरजी के केशलोंच के समय का वर्णन किया -            ता. १८ फरवरी सन १९५७ को वर्धमानसागर जी ने केशलोंच किया। उस समय उनकी उम्र ९० वर्ष से अधिक थी। दूर-दूर से आये हजारों स्त्री-पुरुष केशलोंच देख रहे थे।             मैंने देखा कि आधा घंटे के भीतर ही उन्होंने केशलोंच कर लिया। किसी की सहायता नहीं

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आत्मा और कर्म का परष्पर सम्बन्ध

कर्म सिद्धान्त जैन धर्म एवं दर्शन की रीढ़ है। आचार्य योगीन्दु परमआत्मा का स्वरूप, आत्मा का लक्षण आदि को स्पष्ट करने के बाद आत्मा व कर्म में परस्पर सम्बन्ध का कथन परमात्मप्रकाश में 59.66 दोहों में करते हैं। वे कहते हैं कि जीवों का कर्म अनादिकाल से चला आ रहा है, इन दोनों का ही आदि नहीं है। यह जीव कर्म के कारण ही अनेक रूपान्तरों को प्राप्त होता है। आत्मा के साथ कर्म के सम्बन्ध को हम एक-एक दोहे के माध्यम से देखने और समझने का प्रयास करते हैं - 59.   जीवहँ कम्मु अणाइ जिय जणियउ कम्मु ण तेण।   

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?अद्भुत समाधान - अमृत माँ जिनवाणी से - २४१

? अमृत माँ जिनवाणी से - २४१   ?                 "अद्भुत समाधान"              पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के योग्य शिष्य मुनिश्री पायसागरजी से एक दिन किसी ने पूंछा- "महराज ! कोई व्यक्ति निर्ग्रन्थ मुद्रा को धारण करके उसके गौरव को भूलकर कोई कार्य करता है, तो उसको आहार देना चाहिए कि नहीं?           उन्होंने कहा- "आगम का वाक्य है, कि भुक्ति मात्र प्रदाने तु का परीक्षा तपस्विनाम। अरे दो ग्रास भोजन देते समय साधु की क्या परीक्षा करना? उसको आहार देना चाहिए। बेचारा कर्मोदयवश

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आत्मा के लक्षण का स्पष्टीकरण

आगे के दो दोहे में आचार्य आत्मा के लक्षण को स्पष्ट करते हैं कि आत्मा द्रव्य है जो गुण और पर्याय से युक्त है। दर्शन और ज्ञान उसके गुण हैं तथा भाव व शरीर सहित चारों गति में जन्म लेना उसकी पर्याय है जो अनुक्रम से विद्यमान है। गुण सदैव आत्मा के साथ रहते हैं जबकि पर्याय परिवर्तनशील है।  देखिये इससे सम्बन्धित आगे के दो दोहे - 57.    तं परियाणहि दव्वु तुहुँ  जं गुण-पज्जय-जुत्तु।       सह-भुव जाणहि ताहँ गुण कम-भुव पज्जउ वुत्तु।। 57।। अर्थ - जो कोई गुण और पर्याय सहित है उसको द्रव्य जान, (आ

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?निरंतर आत्मचिंतन - अमृत माँ जिनवाणी से - २४०

?   अमृत माँ जिनवाणी - २४०   ?                  "निरंतर आत्मचिंतन"                 पूज्य शान्तिसागरजी महराज के योग्य शिष्य मुनिश्री पायसागरजी महराज के जीवन का उल्लेख चल रहा था। उसी क्रम में आगे-           पूज्य पायसागरजी महराज आत्मध्यान में इतने निमग्न होते थे कि उनको समय का भान नहीं रहता था। कभी-कभी चर्या का समय हो जाने पर भी वे ध्यान में मस्त रहते थे। उस समय कुटी की खिड़की से कहना पढ़ता था कि महराज आपकी चर्या का समय हो गया।               इस अवस्था वाले पायसागर महराज के

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?गुरुदेव की पावन स्मृति - अमृत माँ जिनवाणी से - २३९

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २३९   ?             "गुरुदेव की पावन स्मृति"               पूज्य पायसागरजी महराज की अपने गुरु पूज्य शान्तिसागरजी महराज के प्रति बड़ी भक्ति थी। उनका उपकार वे सदा स्मरण करते थे।                 प्रायः उनके मुख से ये शब्द निकलते थे, "मैंने कितने पाप किए? कौन सा व्यसन सेवन नहीं किया? मै महापापी ना जाने कहाँ जाता? मैं पापसागर था। रसातल में ही मेरे लिए स्थान था। मैं वहाँ ही समा जाता। मेरे गुरुदेव ने पायसागर बनाकर मेरा उद्धार कर दिया।" ऐसा कहते-कहते उनके नेत्र

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आत्मा के लक्षण

आचार्य योगिन्दु भट्टप्रभाकर की आत्म विषयक शंका का समाधान करने के बाद आत्मा के विषय में और स्पष्ट करते हुए कहते है कि आत्मा अनादि और अनित्य है। द्रव्य स्वभाव से यह नित्य है तथा पर्याय स्वभाव से यह नाशवान है। देखिये परमात्मप्रकाश के आगे का दोहा क्रमशः - 56.    अप्पा जणियउ केण ण वि अप्पे ँ जणिउ ण कोइ।       दव्व-सहावे ँ णिच्चु मुणि पज्जउ विणसइ होइ।। 56।। अर्थ - आत्मा किसी के द्वारा उत्पन्न नहीं की गई, आत्मा के द्वारा कोई उत्पन्न नहीं किया गया, द्रव्य के स्वभाव से (आत्मा ) नित्य है, क

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?मृत्यु की पूर्व सूचना - अमृत माँ जिनवाणी से - २३८

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २३८   ?                  "मृत्यु की पूर्व सूचना"            पूज्य शान्तिसागरजी महराज के योग्य शिष्य मुनिश्री पायसागरजी महराज के वृतांत चल रहा था। उसी क्रम में आगे-                 पायसागर महराज कहते थे- "मेरा समय अब अति समीप है। मै कब चला जाऊँगा, यह तुम लोगों को पता भी नहीं चलेगा।"                 हुआ भी ऐसा ही। प्रभातकाल में वे आध्यात्मप्रेमी साधुराज ध्यान करने बैठे। ध्यान में वे मग्न थे। करीब ७.३० बजे लोगों ने देखा, तो ज्ञात हुआ कि महान ज्ञान

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आत्मा के शून्य स्वरूप का कथन

आचार्य योगिन्दु भट्टप्रभाकर की शंका का समाधान करते हुए कहते हैं कि आत्मा अनेकान्त दृष्टि से तुम्हारे अनुसार बताये गये स्वरूपों में से सभी स्वरूपों से युक्त है। तीन स्वरूपों को बता चुकने के बाद आचार्य कहते हैं कि आत्मा सभी प्रकार के कर्मों एवं सभी प्रकार के दोषों से रहित होने के कारण शून्य है, इसी कारण पूर्णरूप से शुद्ध भी है।  देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -   55   अट्ठ वि कम्मइँ बहुविहइँ णवणव दोस वि जेण ।      सुद्धहँ एक्कुवि अत्थि णवि सुण्णु वि वुच्चइ तेण।। 55।।   अर्थ

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आत्मा के शून्य स्वरूप का कथन

आचार्य योगिन्दु भट्टप्रभाकर की शंका का समाधान करते हुए कहते हैं कि आत्मा अनेकान्त दृष्टि से तुम्हारे अनुसार बताये गये स्वरूपों में से सभी स्वरूपों से युक्त है। तीन स्वरूपों को बता चुकने के बाद आचार्य कहते हैं कि आत्मा सभी प्रकार के कर्मों एवं सभी प्रकार के दोषों से रहित होने के कारण शून्य है, इसी कारण पूर्णरूप से शुद्ध भी है।  देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -   55   अट्ठ वि कम्मइँ बहुविहइँ णवणव दोस वि जेण ।      सुद्धहँ एक्कुवि अत्थि णवि सुण्णु वि वुच्चइ तेण।। 55।।   अर्थ

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?आचार्यश्री के बारे में उदगार - अमृत माँ जिनवाणी से - २३७

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २३७   ?              "आचार्यश्री के बारे में उदगार"                पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के योग्य शिष्य पूज्य पायसागरजी पावन जीवन वृतांत को हम सभी कुछ दिनों से जान रहे हैं। आचार्यश्री में उनकी अपार भक्ति थी। पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के स्वर्गारोहण के उपरांत मुनि श्री पायसागर महराज के उदगार इस प्रकार थे-             वे कहते थे- "मेरे गुरु चले गए। मेरे प्रकाशदाता चले गए। मेरी आत्मा की सुध लेने वाले चले गए। मेरे दोषों का शोधन क

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आत्मा का चरम शरीर प्रमाणरूप स्वरूप

आत्मा का सर्वव्यापक व जड़ स्वरूप का कथन करने के बाद आचार्य कहते हैं कि आत्मा का स्वरूप चरमशरीर प्रमाण भी है क्योंकि निमित्त से रहित हुए शुद्ध जीव का न क्षय होता है और न वृद्धि होती है। देखिये इस कथन से सम्बन्धित दोहा - 54.  कारण - विरहिउ सुद्ध-जिउ वड्ढइ खिरइ ण जेण।      चरम-सरीर-पमाणु जिउ जिणवर बोल्लहिं तेण।। 54।। अर्थ - निमित्त से रहित शुद्ध जीव जिस (निमित्त) के कारण से बढता-खिरता नहीं है, उस (निमित्त) के कारण जिनेन्द्रदेव आत्मा को सम्पूर्ण (अन्तिम) शरीर प्रमाण कहते हैं। शब्द

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आत्मा का चरम शरीर प्रमाणरूप स्वरूप

आत्मा का सर्वव्यापक व जड़ स्वरूप का कथन करने के बाद आचार्य कहते हैं कि आत्मा का स्वरूप चरमशरीर प्रमाण भी है क्योंकि निमित्त से रहित हुए शुद्ध जीव का न क्षय होता है और न वृद्धि होती है। देखिये इस कथन से सम्बन्धित दोहा - 54.  कारण - विरहिउ सुद्ध-जिउ वड्ढइ खिरइ ण जेण।      चरम-सरीर-पमाणु जिउ जिणवर बोल्लहिं तेण।। 54।। अर्थ - निमित्त से रहित शुद्ध जीव जिस (निमित्त) के कारण से बढता-खिरता नहीं है, उस (निमित्त) के कारण जिनेन्द्रदेव आत्मा को सम्पूर्ण (अन्तिम) शरीर प्रमाण कहते हैं। शब्द

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?आचार्य महराज की विशेषता - अमृत माँ जिनवाणी से - २३६

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २३६   ?           "आचार्य महराज की विशेषता"            मुनिश्री पायसागरजी महराज ने कहा- "आचार्य महराज की मुझ पर अनंत कृपा रही। उनके आत्मप्रेम ने हमारा उद्धार कर दिया। महराज की विशेषता थी कि वे दूसरे ज्ञानी तथा तपस्वी के योग्य सम्मान का ध्यान रखते थे।             एक बार मैं महराज के दर्शनार्थ दहीगाव के निकट पहुँचा। मैंने भक्ति तथा विनय पूर्वक उनको प्रणाम किया। महराज ने प्रतिवंदना की।" मैंने कहा- "महराज मैं प्रतिवंदना के योग्य नहीं हूँ।"        

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आत्मा का जड स्वरूप

भट्टप्रभाकर के द्वारा पूछे गये प्रश्न के उत्तर में आचार्य कहते हैं कि स्वबोध में पूर्णरूप से स्थित जीवों में  इन्द्रिय ज्ञान की अपेक्षा से ज्ञान नहीं होता । अतः इन्द्रिय ज्ञान की अपेक्षा से आत्मा जड़ है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -   53.    जे णिय-बोह -परिट्ठियहँ जीवहँ तुट्टइ णाणु।       इंदिय-जणियउ जोइया तिं जिउ जडु वि वियाणु।। 53।।   अर्थ - स्वबोध में सम्पूर्णरूप से स्थित हुए जीवों का जो इन्द्रियों से उत्पन्न किया ज्ञान खण्डित होता है, उस (इन्द्रिय से उत्पन्न ज्ञान क

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?नररत्न की परीक्षा में प्रवीणता - अमृत माँ जिनवाणी से - २३५

☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं,             पूज्य पायसागरजी महराज के जीवन वृत्तांत के क्रम आज के प्रसंग में कल के प्रसंग के कुछ अंशों का पुनः समावेश प्रसंग को स्पष्ट बनाने हेतु किया गया है। ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २३५   ?         "नररत्न की परीक्षा में प्रवीणता"              उस समय आचार्य महराज ने चंद्रसागरजी के आक्षेप का उत्तर दिया कि तुम्हीं बताओ ऐसे को दीक्षा देना योग्य था या नहीं? लोगों को ज्ञात हुआ कि महराज मनुष्य के परीक्षण में कितने प्रवीण थे। गुरुप्रसाद से छः वर्ष बा

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?मुनिश्री पायसागर जी का अद्भुत जीवन ५ - अमृत माँ जिनवाणी से - २३४

☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं,         प्रतिदिन प्रसंग भेजने का उद्देश्य सभी के मन में अपने आचार्यों के जीवन चरित्र को जानने के हेतु रूची जाग्रत करना है। प्रस्तुत प्रसंग पूज्य शान्तिसागरजी महराज की जीवनी "चारित्र चक्रवर्ती" ग्रंथ से लिए जाते हैं। आप उस ग्रंथ का अध्यन करके क्रमबद्ध तरीके से शान्तिसागरजी महराज के उज्ज्वल चरित्र को जानने का लाभ ले सकते हैं। ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २३४   ?  "मुनिश्री पायसागरजी का जीवन- प्रसंग- ५"              आज का प्रसंग पूज्य आचार्यश्री शान्त

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आत्मा का सर्वव्यापक स्वरूप

भट्टप्रभाकर के द्वारा यह पूछा जाने पर कि कुछ लोग आत्मा को सर्वव्यापक कहते हैं इसमें आपका क्या विचार है ? तब आचार्य योगिन्दु कहते हैं जिन लोगों ने आत्मा को सर्वव्यापक बताया है वह सही है। कर्म से रहित हुई केवलज्ञानरूप आत्मा में समस्त लोक व अलोक स्पष्ट झलकता है, इसलिए आत्मा को सर्वव्यापक कहा गया है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा - 52.  अप्पा कम्म - विवज्जियउ केवल-णाणे ँ जेण ।      लोयालोउ वि  मुणइ  जिय सव्वगु वुच्चइ तेण ।। 52।। अर्थ - कर्मरहित आत्मा जिस केवलज्ञान से लोक और अलोक कोे जानत

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?आध्यात्मिक अंध को नेत्र तुल्य - अमृत माँ जिनवाणी से - २३३

☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,             पूज्य शान्तिसागरजी महराज के सुयोग्य शिष्य मुनि श्री पायसागर जी महराज के अद्भुत जीवन प्रसंग के वर्णन की श्रृंखला में आज चौथा दिन है। प्रतिदिन प्रसंग के  आकार का निर्धारण मुख्य रूप से मेरे द्वारा प्रसंग टाइप करने की सुविधा तथा गौड़रूप से प्रसंग प्रस्तुती हेतु मनोविज्ञान पर आधारित होता है। प्रसंग अक्षरशः चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ से प्रस्तुत किए जा रहे हैं।  ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २३३   ?        "आध्यात्मिक अंध को नेत्र तुल्य"         मैंन

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आत्मा का स्वरूप

भट्टप्रभाकर की आत्म विषयक शंका को सुनकर आचार्य योगिन्दु उसकी शंका के अनुरूप ही क्रमशः उसकी शंका का समाधान करते है। यह समाधान भट्टप्रभाकर के समान हम सबके लिए भी अत्यन्त उपयोगी एवं आवश्यक है। आगे के 5 दोहों में आत्मा के स्वरूप को बताया गया है। इस दोहे में वे कहते हैं कि जो जो गुण तुमने आत्मा के विषय में सबकी दृष्टि के अनुसार देखे वे सभी गुण आत्मा में हैं। आगे फिर उसका खुलासा करेंगे कि वह प्रत्येक गुण आत्मा में किस प्रकार है। चलिए देखते है यह दोहा -    51.   अप्पा जोइय सव्व-गउ अप्पा जडु

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?मुनिश्री पायसागर जी का अद्भुत जीवन २ - अमृत माँ जिनवाणी से - २३२

☀☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं,             पिछले दो प्रसंगों से पूज्य शान्तिसागरजी महराज के शिष्य पूज्य पायसागरजी महराज के अद्भुत जीवन चरित्र का हम सभी अवलोकन कर रहें हैं। इन प्रसंगों को आप अवश्य पढ़ें और दूसरों को भी प्रेरणा दें यह जानने की। क्योंकि यह प्रसंग कई लोगों का जीवन ही बदल सकते हैं।              यह पूरी जैन समाज और मानव समाज के लिए एक महत्वपूर्ण संदेश भी है कि हमें बुराई के रास्ता तय करने वाले लोगों को सर्वतः हेय नहीं समझना चाहिए। योग्य निमित्त पाकर उनमें भी अपना जीवन बहुत स्वच्छ

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