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मुनिश्री पायसागर जी का अद्भुत जीवन -१ - अमृत माँ जिनवाणी से - २३१

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २३१   ? मुनि पायसागरजी का अद्भुत जीवनचरित्र-१          कल हमने पूज्य शांतिसागरजी महराज के शिष्य पूज्य मुनि श्री पायसागरजी महराज के अद्भुत जीवन चरित्र को देखना प्रारंभ किया था। उसी में आगे-             गंगा में गहरे गोते लगाए। काशी विश्वनाथ गंगे के सानिध्य में समय व्यतीत करता हुआ हर प्रकार के साधुओं के संपर्क में आया। मैं लौकिक कार्यों में दक्ष था। इसलिए साधु बनने पर भी मेरी विचार शक्ति मृत नहीं हुई थी। वह मूर्छित अवश्य थी।            जब मै जटा

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आत्मा क्या है

अभी हमने आत्मा के सर्वोत्कृष्ट स्वरूप अर्थात आत्मा की परम अवस्था के स्वरूप के विषय में विस्तार से समझा। हमें परमात्मप्रकाश के अध्ययन के साथ यह भी देखना चाहिए कि आचार्य योगिन्दु मानव मन के विशेषज्ञ थे। इसी कारण उन्होंने सर्व प्रथम हमारे समक्ष आत्मा का उत्कृट स्वरूप को रक्खा ताकि हम उससे आगे बताये आत्मा से सम्बन्धित सम्पूर्ण विवेचन से भलीभाँति अवगत हो सके।परमात्मा के स्वरूप से पूर्ण अवगत होने पर भट्टप्रभाकर आचार्य योगिन्दु से प्रश्न करते हैं कि आखिर आत्मा है क्या ?  यह प्रश्न भट्टप्रभाकर द्वारा जि

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आत्मा क्या है

अभी हमने आत्मा के सर्वोत्कृष्ट स्वरूप अर्थात आत्मा की परम अवस्था के स्वरूप के विषय में विस्तार से समझा। हमें परमात्मप्रकाश के अध्ययन के साथ यह भी देखना चाहिए कि आचार्य योगिन्दु मानव मन के विशेषज्ञ थे। इसी कारण उन्होंने सर्व प्रथम हमारे समक्ष आत्मा का उत्कृट स्वरूप को रक्खा ताकि हम उससे आगे बताये आत्मा से सम्बन्धित सम्पूर्ण विवेचन से भलीभाँति अवगत हो सके।परमात्मा के स्वरूप से पूर्ण अवगत होने पर भट्टप्रभाकर आचार्य योगिन्दु से प्रश्न करते हैं कि आखिर आत्मा है क्या ?  यह प्रश्न भट्टप्रभाकर द्वारा जि

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?मुनिश्री पायसागर जी का अद्भुत जीवन - अमृत माँ जिनवाणी से - २३०

☀☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं,         प्रस्तुत प्रसंग तीन या चार चरणों में पूर्ण होगा, इन प्रसंगों को अवश्य ही पढ़ें। इन प्रसंगों को पढ़कर आपको पूज्य शान्तिसागरजी महराज के श्रेष्ठ तपश्चरण व चारित्र का अद्भुत प्रभाव जीवों के जीवन पर देखने को मिलेगा। इन प्रसंगों के माध्यम से आपको ज्ञात होगा कि कैसी-२ जीवन शैली वाले मनुष्य भी अपना कल्याण कर सकते हैं, उनके घोर तपश्चरण को देखकर कभी कोई सोच भी नहीं सकता था कि यह जीव कल्याण मार्ग पर इस तरह से प्रवृत्ति करेगा।        इन प्रसंगों से हम सभी को यह भी श

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कर्म बंधन से मुक्त परम आत्मा का स्वरूप

आचार्य योगीन्द्र कहते हैं मात्र कर्म ही जीव के सुख-दुःख का कारण है। कर्म बंधन से मुक्त हुआ जीव ही सुख दुःख से परे शान्त अवस्था को प्राप्त हुआ परम आत्मा होता है। परम आत्मा से न कुछ उत्पन्न होता है और ना ही उसका कुछ हरण किया जाता है। आत्मा कर्मरूप होकर भी कर्मों से बंधी हुई नहीं होती। देखिये इस कथन को परमात्मप्रकाश के दो दोहे में इस प्रकार बताया गया है - 48.    कम्मइं जासु जणंतहि ँ वि णिउ णिउ कज्जु सया वि ।       किं पि ण जणियउ हरिउ णवि सो परमप्पउ भावि ।। अर्थ -  निश्चयरूप से कर्म ह

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?उत्तर प्रांत में शिथिलाचार सुधारने हेतु प्रतिज्ञा - अमृत माँ जिनवाणी से - २२९

☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं,       प्रस्तुत प्रसंग को पढ़कर शायद आप सोचें की पहले के समय की बात थी कि अशुद्ध आचरण वालों से जल भरवाना तथा घर के काम करवाये जाते थे, लेकिन मुझे लगता है आज के समय मे स्थिति उससे कहीं भयावह है।          आचार-विचार का ध्यान रखने वाले कुछ श्रावकों को छोड़कर अधिकांशतः हम सभी में खान-पान का विवेक घट गया है। वर्तमान में ऊपरी स्टेंडर्ड जरूर बढ गया लेकिन खान-पान की सामग्री व तरीके में बहुत परिवर्तन आया है।               यह पूर्णतः सत्य है कि जब तक हमारे आहार में शुद

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परम आत्मा के ज्ञान के स्थान का कथन

आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि जिस प्रकार मंडप के आश्रय के अभाव में बेल मुडकर स्थित हो जाती है उसी प्रकार मुक्ति को प्राप्त हुआ जीव ज्ञान-ज्ञेय के आलंबन के अभाव में प्रतिबिम्बित हुआ लोकाकाश में स्थिर हो जाता है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -   47.     णेयाभावे विल्लि जिम थक्कइ णाणु वलेवि ।         मुक्कहँ जसु पय बिंबियउ परम-सहाउ भणेवि ।।   अर्थ -  बेल की तरह मुक्ति को प्राप्त हुए जिस जीव का ज्ञान- ज्ञेय के (आलम्बन के) अभाव में लौटकर (तथा) परम स्वभाव का प्रतिपादन करके (इस ल

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परमात्मा का वीतराग स्वरूप

आचार्य योगीन्दु कहते है कि जो सभी प्रकार के बन्ध और संसार से रहित है, वह ही परम आत्मा है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -   46.    जसु परमत्थे ँ बंधु णवि जोइय ण वि संसारु ।       सो परमप्पउ जाणि तुहुँ मणि मिल्लिवि ववहारु ।।   अर्थ - हे योगी! वास्तविकरूप में जिसके न ही (संसार के कारण, प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूप) बन्ध है, न ही (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप) संसार है, वह परम-आत्मा है। तुम मन से (सब लौकिक व्यवहार) विवाद त्यागकर (वीतरागता में स्थित होकर)

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?अनुकंपा - अमृत माँ जिनवाणी से - २२८

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २२८   ?                     "अनुकम्पा"         पूज्य शान्तिसागरजी महराज के अंतःकरण में दूसरे के दुख में यथार्थ अनुकंपा का उदय होता था। एक दिन वे कहने लगे- "लोगों की असंयमपूर्ण प्रवृत्ति को देखकर हमारे मन में बड़ी दया आती है, इसी कारण हम उनको व्रतादि के लिए प्रेरणा देते हैं।           जहां जिस प्रकार के सदाचरण की आवश्यकता होती है, उसका प्रचार करने की ओर उनका ध्यान जाता है।           बेलगाँव, कोल्हापुर आदि की ओर जैन भाई ग्रहीत मिथ्यात्व की फेर में

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?वृत्ति परिसंख्यान तप के अनुभव - अमृत माँ जिनवाणी से - २२७

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २२७   ?      "वृत्ति परिसंख्यान तप के अनुभव"             एक बार की बात है। पूज्य शान्तिसागरजी महराज वृत्ति परिसंख्यान तप की बड़ी कठिन प्रतिज्ञाएँ लेते थे, और पुण्योदय से उनकी प्रतिज्ञा की पूर्ति होती थी।           एक दिन महराज ने प्रतिज्ञा की थी कि आहार के लिए जाते समय यदि तत्काल प्रसूत बछड़े के साथ गाय मिलेगी तो आहार लेंगे। यह प्रतिज्ञा उन्होंने मन के भीतर ही की थी और किसी को इसका पता नहीं था। अंतराय का योग नहीं होने से ऐसा योग तत्काल मिल गया और महरा

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देह से आत्मा का विशिष्ट महत्व

आचार्य योगिन्दु परमात्मप्रकाश में बताते हैं कि आत्मा और शरीर का परष्पर अटूट सम्बन्ध है। दोनों में परष्पर इतना अटूट सम्बन्ध है कि एक दूसरे के अभाव में दोनों का ही अस्तित्व नहीं है। इसके बाद वे कहते हैं कि फिर भी आत्मा का देह से विशिष्ट महत्व है। वे इस बात को स्पष्ट करने हेतु कहते हैं कि जिस आत्मा के होने तक ही सारे इन्द्रिय व विषय सुखों को जाना जाता है, अनुभव किया जाता है। जबकि मात्र इन्द्रियों के विषयों द्वारा आत्मा का अनुभव नहीं किया जाता है। इसी बात को दोहे में इस प्रकार कहा गया है - 45.     ज

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?कांजी चर्चा - अमृत माँ जिनवाणी से - २२६

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २२६   ?                      "कानजी चर्चा"               एक बार पूज्य शान्तिसागरजी महराज ने बताया- "गिरिनारजी की यात्रा से लौटते समय कानजी हमको दूर तक लेने गए। सोनगढ़ में आकर हमने कानजी से एक प्रश्न किया- "इस दिगम्बर धर्म में तुमने क्या देखा? और तुम्हारे धर्म में क्या बुरा था?"                इस प्रश्न के उत्तर में कानजी ने कुछ नहीं कहा। बहुत देर तक मुख से एक शब्द तक नहीं कहा। इस पर आचार्यश्री ने कानजी से कहा- "हम तुम्हारा उपदेश सुनने नहीं आये हैं। ह

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?कण्ठ पीड़ा - अमृत माँ जिनवाणी से - २२५

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २२५   ?                     "कण्ठ पीढ़ा"             कवलाना में पूज्य शान्तिसागरजी महराज का वर्षायोग व्यतीत हो रहा था। गले में विशेष रोग के कारण अन्न का ग्रास लेने में अपार कष्ट होता था। बड़े कष्ट से वह थोड़ा-२ आहार लेते थे।             उस समय एक ग्रास जरा बड़ा हो गया, उसे मुँह में लेकर ग्रहण कर ही रहे थे कि वह गले में अटक गया और उस समय उनके मूरछा सरीखे चिन्ह दिखाई पड़े।         चतुर आहार दाता ने दूध से अंजली भर दी और उस दूध से वह ग्रास उतर गया, नही

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शरीर और आत्मा के दृढ़ सम्बन्ध का सीधे साधे शब्दों में कथन

आचार्य योगिन्दु परमात्मप्रकाश के 44 वें दोहे में कहते हैं कि आत्मा वह है जिसे कोई भी जीव नकार नहीं सकता। आत्मा की अनुभूति चाहे बिना निर्मल मन के संभव नहीं किन्तु उसके अस्तित्व की बात को साधारण मनुष्य भी आचार्य योगिन्दु के इस दोहे में कथित शब्दों से आसानी से समझ सकता है।  आचार्य आत्मा के अस्तित्व के साथ शरीर के साथ आत्मा का दृढ़ सम्बन्ध बताते हुए कहते हैं कि यह इन्द्रिय रूपी गाँव अर्थात हमारा शरीर जब तक ही है तब तक इसका सम्बन्ध आत्मा से जुड़ा हुआ है। लेकिन जैसे ही इसका आत्मा से सम्बन्ध टूट जाता है,

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?मूक व्यक्ति को वाणी मिली - अमृत माँ जिनवाणी से - २२४

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २२४   ?           "मूक व्यक्ति को वाणी मिली"                       भोजग्राम से वापिस लौटने पर स्तवनिधि क्षेत्र में १०८ पूज्य मुनिश्री पायसागरजी महराज के सन् १९५२ में पुनः दर्शन हुए। उस समय उन्होंने कहा, "आपको एक महत्व की बात और बताना है।"            मैंने कहा, "महराज अनुग्रहित कीजिए।"            उन्होंने कहा, "कोल्हापुर में नीमसिर ग्राम में एक पैंतीस वर्ष का युवक रहता था। उसे अणप्पा दाढ़ी वाले के नाम से लोग जानते थे। वह शास्त्र चर्चा में प्रवीण थ

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?समता तथा सजग वैराग्य - अमृत माँ जिनवाणी से - २२३

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २२३   ?              "समता एवं सजग वैराग्य"               पूज्य शान्तिसागरजी महराज के शिष्य पायसागर महराज ने बताया कि, जब हजारों व्यक्ति भव्य स्वागत द्वारा गुरुदेव पूज्य शान्तिसागरजी महराज के प्रति जयघोष के पूर्व अपनी अपार भक्ति प्रगट करते थे और जब कभी कठिन परिस्थिति आती थी, तब वे एक ही बात कहते थे, "पायसागर ! यह जय-जयकार क्षणिक है, विपत्ति भी क्षणस्थायी है।         दोनों विनाशीक हैं, अतः सभी त्यागियों को ऐसे अवसर पर अपने परिणामों में हर्ष विषाद नही

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?पागल द्वारा उपसर्ग - अमृत माँ जिनवाणी से - २२२

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २२२   ?                  "पागल द्वारा उपसर्ग"              कोगनोली चातुर्मास के समय पूज्य शान्तिसागरजी महराज कोगनोली की गुफाओं में ध्यान करते थे। एक रात्रि को ग्राम से एक पागल वहाँ आया। पहले उसने इनसे भोजन माँगा। इनको मौन देखकर वह हल्ला मचाने लगा। पश्चात गुफा के पास रखी ईटो की राशी को फेककर उपद्रव करता रहा, किन्तु शांति के सागर के भावों में विकार की एक लहर भी नहीं आई।          वह दृढ़ता पूर्वक ध्यान करते रहे। अंत में वह पागल उपद्रव करते-२ स्वयं थक गय

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?वैराग्य का कारण - अमृत माँ जिनवाणी से - २२१

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २२१   ?                  "वैराग्य का कारण"            एक दिन मैंने पूंछा, "महराज वैराग्य का आपको कोई निमित्त तो मिलता होगा? साधुत्व के लिए आपको प्रेरणा कहाँ से प्राप्त हुई। पुराणों में वर्णन आता है कि आदिनाथ प्रभु को वैराग्य की प्रेरणा देवांगना नीलांजना का अपने समक्ष मरण देखने से प्राप्त हुई थी"          महराज ने कहा, "हमारा वैराग्य नैसर्गिक है। ऐसा लगता है कि जैसे यह हमारा पूर्व जन्म का संस्कार हो। गृह में, कुटुम्ब में, हमारा मन प्रारम्भ से ही नहीं

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?उत्तूर में क्षुल्लक दीक्षा - अमृत माँ जिनवाणी से - २२०

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २२०   ?             "उत्तूर में क्षुल्लक दीक्षा -१"              पूज्य शान्तिसागरजी महराज के क्षुल्लक दीक्षा की संबंधित जानकारी कल के प्रसंग में प्रस्तुत की गई थी, उसी में आगे-         चंपाबाई ने बताया दीक्षा का निश्चय हमारे घर पर हुआ था। दीक्षा का संस्कार घर से लगे छोटे मंदिर में हुआ था। उस गाँव में १३ घर जैनों के हैं।         अप्पा जयप्पा वणकुदरे ने कहा मेरे समक्ष दीक्षा का जलूस निकला था। भगवान पार्श्वनाथ की मूर्ति का अभिषेक भी हुआ था। महराज

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?उत्तूर ग्राम में क्षुल्लक दीक्षा - अमृत माँ जिनवाणी से - २१९

☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं,        पिछले प्रसंग में पूज्य शान्तिसागरजी महराज की क्षुल्लक दीक्षा के प्रसंग का उपलब्ध वर्णन प्रस्तुत करना प्रारम्भ हुआ था। उसी क्रम में आज का प्रसंग है। पहले भी पूज्यश्री की क्षुल्लक दीक्षा के संबंध की कुछ जानकारी प्रसंग क्रमांक ५३ में प्रस्तुत की गई थी।  ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २१९   ?            "उत्तूर ग्राम में क्षुल्लक दीक्षा"            जब गुरुदेव देवेन्द्रकीर्ति महराज ने देखा कि सातगौड़ा का यह वैराग्य श्मसान वैराग्य नहीं है, किन्तु संस

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परम आत्मा की अनुभूति के लिए परम समाधि व तप आवश्यक

परमात्मप्रकाश के दोहे 42 में बताया गया है कि परम समाधि का अनुभव सांसारिक भोगों के प्रति आसक्ति के त्याग से ही संभव है। भोगों के साथ परम आत्मा की अनुभूति की बात करना चट्टान पर कमल उगाना तथा पानी से मक्खन निकालने के समान है। सभी महापुरुषों ने परमात्मा की अनुभूति भोगों से विरक्त होकर परमसमाधि व तप करके ही की है। 42.        देहि वसंतु वि हरि-हर वि जं अज्ज वि ण मुणंति ।            परम-समाहि-तवेण विणु सो परमप्पु भणंति ।। अर्थ -   हरि, हर, (अरिहन्त जैसे महापुरुष) भी देह में बसता हुआ भी जिस (आत्मा) को प

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?संयमपथ - अमृत माँ जिनवाणी से - २१८

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २१८   ?                     "संयम-पथ"             पिता के स्वर्गवास होने पर चार वर्ष पर्यन्त घर में रहकर सातगौड़ा ने अपनी आत्मा को निर्ग्रन्थ मुनि बनने के योग्य परिपुष्ट कर लिया था। जब यह ४१ वर्ष के हुए, तब कर्नाटक प्रांत के दिगम्बर मुनिराज देवप्पा स्वामी देवेन्द्रकीर्ति महराज उत्तूर ग्राम में पधारे।          उनके समीप पहुँचकर सातगौड़ा ने कहा, "स्वामिन् ! मुझे निर्ग्रन्थ दीक्षा देकर कृतार्थ कीजिए।"          उन्होंने कहा, "वत्स ! यह पद बड़ा कठिन है

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?शिथिलाचारी साधुओं के प्रति आचार्यश्री का अभिमत - अमृत माँ जिनवाणी से - २१७

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २१७   ?    "शिथिलाचारी साधु के प्रति आचार्यश्री                      का अभिमत"               मैंने एक बार पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज से पूंछा- "शिथिलाचरण करने वाले साधु के प्रति समाज को या समझदार व्यक्ति को कैसे व्यवहार रखना चाहिए?"        महराज ने कहा- "ऐसे साधु को एकांत में समझाना चाहिए। उसका स्थितिकरण करना चाहिए।"       मैंने पूंछा- "समझाने पर भी यदि उस व्यक्ति की प्रवृत्ति न बदले तब क्या कर्तव्य है? पत्रों में उसके संबंध में समाचा

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