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विपरीत दृष्टि मूर्ख व्यक्ति की क्रिया


Sneh Jain

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बन्धुओं!, जैसा कि आप को पूर्व में बताया जा चुका है कि परमात्मप्रकाश में 3 अधिकार हैं। 1. आत्माधिकार 2. मोक्ष अधिकार 3. महाधिकार। अभी हमारा प्रवेश आत्माधिकार में ही है। आत्मा के विषय में पूर्णरूप से जान लेने के बाद ही हम आत्मा की शान्ति अर्थात् मोक्ष में प्रवेश होने की बात कर सकते है। आत्माधिकार के 82 दोहों तक हम आत्मा के विषय में जान चुके हैं। आत्माधिकार के 41 दोहे और शेष हैं, इसके बाद हमारा मोक्ष अधिकार में प्रवेश होगा। निश्चितरूप से मोक्ष अधिकार हमें आसानी से समझ आयेगा।

आत्माधिकार के अगले दो दोहों में आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि मूर्ख व्यक्ति माता-पिता, पत्नी, पुत्र, मित्र, धन-संपत्ति जो सब मायाजाल हैं उनमें आसक्त हुआ उनको अपना मानता है। फिर उनके संयोग, वियोग में सुखी, दुःखी होता है। इस प्रकार वह आसक्ति के कारण दुःख-सुख भोगने में ही अपना दुर्लभ मनुष्य भव व्यतीत कर देता है,शुद्धात्मा की अनुभूति जो मनुष्य भव में ही संभव है उसे अपनी मूर्खता से व्यर्थ गवाँ देता है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहे -

83.  जणणी जणणु वि कंत घरु पुत्तु वि मित्तु वि दव्वु।

    माया- जालु वि अप्पणउ मूढउ मण्णइ सव्वु।।

अर्थ -जननी, जनक और स्त्री, घर, पुत्र और मित्र तथा धन-सम्पत्ति (आदि) सब मायाजाल को भी मूर्ख अपना मानता है।

शब्दार्थ - जणणी-जननी, जणणु-जनक, वि-और, कंत-स्त्री, घरु-घर, पुत्तु-पुुत्र, वि-और, मित्तु-मित्र, वि-तथा, दव्वु- धन-संपत्ति, माया-जालु-मायाजाल को, वि-भी, अप्पणउ-अपना, मूढउ-मूर्ख, मण्णइ-मानता है, सव्वु-सब।

84.   दुक्खहहँ कारणि जे विसय  ते सुह-हेउ रमेइ।

     मिच्छाइट्ठिउ जीेवडउ इत्थु काइँ करेइ।।

अर्थ -(इस प्रकार) (ऐसा माननेवाला) दुःखों के कारण जो विषय हैं, उनको सुख का कारण (मानकर) (उनमें) रमण करता है। (इस प्रकार)  मिथ्यादृष्टि जीव यहाँ (इस संसार में) क्या (गलत काम) नहीं करता ?

शब्दार्थ -दुक्खहहँ-दुःखों के, कारणि-कारण में, जे-जो, विसय-विषय, ते-उनको, सुह-हेउ- सुख का कारण, रमेइ-रमण करता है, मिच्छाइट्ठिउ-मिथ्यादृष्टि, जीेवडउ-जीव, इत्थु-यहाँ, - नहीं, काइँ-क्या, करेइ-करता है।

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