आत्मा का ज्ञान ही श्रेष्ठ ज्ञान है
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि अपनी स्वयं की आत्मा को भलीभाँति जानना और समझना ही श्रेष्ठ ज्ञान है। आत्मा सबकी समान है इसीलिए सुख सभी को प्रिय व दुःख सभी को अप्रिय लगते हैं। आत्मा अनुभूति के स्तर पर सबकी समान है। अतः जिसमें अपनी आत्मा को अनुभूत करने का ज्ञान विकसित हो जाता है वह पर आत्मा के विषय में भी जानने लग जाता है। उसे पर के दुःख भी अपने ही दुःख लगने लगते हैं जिससे उसका जीवन स्वतः अहिंसामय होता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
103 अप्पु वि परु वि वियाणइ जे ँ अप्पे ँ मुणिएण।
सो णिय-अप्पा जाणि तुहुँ जोइय णाण- बलेण।।
अर्थ - जिस जानी हुई (ज्ञानमय) आत्मा से (अपनी आत्मा) स्वयं को और पर को भी जानती है, वह (ही) अपनी आत्मा है। हे योगी! तू (उस अपनी आत्मा को) ज्ञान के सामथ्र्य से जान।
शब्दार्थ - अप्पु - स्वयं को, वि-और, परु-पर को, वि-भी, वियाणइ-जानती है, जे ँ-जिस अप्पे ँ-आत्मा से मुणिएण-जानी हुई, सो-वह, णिय-अप्पा -अपनी आत्मा, जाणि-जान, तुहुँ-तू, जोइय-हे योगी, णाण- बलेण- ज्ञान के सामथ्र्य से।
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