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?गुरुदेव का व्यक्तित्व - अमृत माँ जिनवाणी से - २९३


Abhishek Jain

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?   अमृत माँ जिनवाणी से - २९३   ?


              "गुरुदेव का व्यक्तित्व"


             दिवाकर जी लिखते हैं कि पूज्य आचार्यश्री महराज को देखकर आँखे नहीं थकती थी। उनके दो बोल आँखों में अमृत घोल घोल देते थे। उनकी तात्विक-चर्चा अनुभूतिपूर्ण चर्चा अनुभवपूर्ण एवं मार्मिक होती थी।

            वहाँ से काशी आने की इच्छा नहीं होती थी। ह्रदय में यही बात आती थी कि जब सच्चे गुरु यहाँ विराजमान हैं, तो इनके अनुभव से सच्चे तत्वों को समझ जाए। यही तो सच्चे शास्त्रों का अध्ययन है।

             हमारा पूरा अष्टान्हिका पर्व वहाँ ही व्यतीत हो गया। महराज का जीवन तो हीरे के समान ही दीप्तिमान था। उस समय उनके दर्शन से ऐसा ही आनंद आता था, मानों अन्धे को आँख मिल गई हों, दरिद्र को निधि प्राप्त हो गई हो।


? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?

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