आत्मा की निर्मलता ही कार्यकारी है
आत्मा ही सब कुछ है इसी बात को आगे बढाते हुए आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि आत्मा सब कुछ तब ही है जब उसका स्वरूप निर्मल हो। आत्मा को निर्मल बनाना ही व्यक्ति का उद्देश्य होना चाहिए। तीर्थ, गुरु, देव एवं शास्त्र का आश्रय व्यक्ति आत्मा को निर्मल बनाने के लिए ही लेता है। यदि इनका आश्रय लेकर आत्मा निर्मल हो जाती है तो उसके बाद उन सब साधनों की कोई आवश्यक्ता नहीं है, लेकिन इनका निरन्तर आश्रय लेने पर भी यदि आत्मा निर्मलता की और नहीं बढ़ सकी तो उनके लिए ये सभी आश्रय व्यर्थ हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
95. अण्णु जि तित्थु म जाहि जिय अण्णु जि गुरुउ म सेवि।
अण्णु जि देउ म चिंति तुहुँ अप्पा विमलु मुएवि।।
अर्थ -हे जीव! तू निर्मल आत्मा को छोड़कर अन्य तीर्थ को मत जा, अन्य गुरु का भी आश्रय मत ले, अन्य देव का भी ध्यान मत कर।
शब्दार्थ - अण्णु- अन्य, जि-पादपूर्ति हेतु प्रयुक्त अव्यय, तित्थु -तीर्थ, म-मत, जाहि-जा, जिय-हे प्राणी, अण्णु - अन्य, जि-भी, गुरुउ-गुरु का, म-मत, सेवि-आश्रय ले, अण्णु-अन्य, जि-भी, देउ-देव का, म-मत, चिंति-ध्यान कर, तुहुँ-तू, अप्पा-आत्मा, विमलु-निर्मल, मुएवि-छोड़कर।
0 Comments
Recommended Comments
There are no comments to display.