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?पश्चाताप - अमृत माँ जिनवाणी से - २९४


Abhishek Jain

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?   अमृत माँ जिनवाणी से - २९४   ?


                      "पश्चाताप"

    
              लेखक दिवाकरजी पूर्व समय में उनके द्वारा गलत संगति में पूज्य शान्तिसागरजी महराज की चर्या की परीक्षा का जो भाव था उसके संबंध में लिखते हैं कि ह्रदय में यह भाव बराबर उठते थे कि मैंने कुसंगतिवश क्यों ऐसे उत्कृष्ट साधु के प्रति अपने ह्रदय में अश्रद्धा के भावों को रखने का महान पातक किया? संघ में अन्य सभी साधुओं का भी जीवन देखा, तो वे भी परम पवित्र प्रतीत हुए।

              मेरा सौभाग्य रहा जो मैं आचार्यश्री के चरणों में आया और मेरा दुर्भाव तत्काल दूर हो गया। मेरे कुछ साथी तो आज भी सच्चे गुरुओं के प्रति मलिन दृष्टि धारण किए हुए हैं: 'बुद्धिः कर्मानुसारीणी' खराब होनहार होने पर दृष्टि बुद्धि होती हैं।

          उस समय कटनी में महराज की तपश्चर्या बड़ी प्रभावप्रद थी। संघ के सभी साधु ज्ञान और वैराग्य की मूर्ति थे। धार्मिकों के लिए तो वे अतुल्य लगते थे। आचार्यश्री कम बोलते थे, किन्तु जो बोलते थे, वह अधिक गंभीर तथा भावपूर्ण रहता था।

           पूजन, भजन, तत्वचर्चा, धर्मोपदेश में दिन जाते पता नहीं चला। वर्षायोग समाप्ति का दिन आ गया। अब कल संघ का कटनी से विहार होगा, इस विचार से लोगों के ह्रदय पर वज्राघात-सा होता था। कितनी शांति, सुख, संतोषपूर्वक समय व्यतीत हुआ, इनकी घर-घर में चर्चा होती थी।


? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?

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